पल्लव : सुमित्रानंदन पंत Pallav Sumitranandan Pant




1. पल्लव


अरे! ये पल्लव-बाल!
सजा सुमनों के सौरभ-हार
गूँथते वे उपहार;
अभी तो हैं ये नवल-प्रवाल,
नहीं छूटो तरु-डाल;
विश्व पर विस्मित-चितवन डाल,
हिलाते अधर-प्रवाल!

न पत्रों का मर्मरु संगीत,
न पुरुषों का रस, राग, पराग;
एक अस्फुट, अस्पष्ट, अगीत,
सुप्ति की ये स्वप्निल मुसकान;
सरल शिशुओं के शुचि अनुराग,
वन्य विहगों के गान !

हृदय के प्रणय कुंज में लीन
मूक कोकिल का मादक गान,
बहा जब तन मन बंधन हीन
मधुरता से अपनी अनजान;
खिल उठी रोओं सी तत्काल
पल्लवों की यह पुलकित डाल !

प्रथम मधु के फूलों का बाण
दुरा उर में, कर मृदु आघात,
रुधिर से फूट पड़ी रुचिमान
पल्लवों की यह सजल प्रभात;
शिराओं में उर की अज्ञात
नव्य जग जीवन कर गतिवान !

दिवस का इनमें रजत-प्रसार
उषा का स्वर्ण-सुहाग;
निशा का तुहिन-अश्रु-श्रृंगार,
साँझ का निःस्वन राग;
नवोढ़ा की लज्जा सुकुमार,
तरुणतम-सुन्दरता की आग!

कल्पना के ये विह्वल बाल,
आँख के अश्रु, हृदय के हास;
वेदना के प्रदीप की ज्वाल,
प्रणय के ये मधुमास;
सुछवि के छाया वन की साँस
भर गई इनमें हाव, हुलास !

आज पल्लवित हुई है डाल,
झुकेगा कल गुंजित-मधुमास !
मुग्ध होंगे मधु से मधु-बाल,
सुरभि से अस्थिर मरुताकाश !

(नवम्बर १९२४)

2. उच्छ्वास


( सावन-भादों)

(सावन)

सिसकते, अस्थिर मानस से
बाल बादल सा उठकर आज
सरल, अस्कूट उच्छ्वास !
अपने छाया के पंखों में
(नीरव घोष भरे शंखों में)
मेरे आँसू गूँथ, फैल गंभीर मेघ सा,
आच्छादित कर ले सारा आकाश !

यह अमूल्य मोती का साज,
इन सुवर्णमय, सरस परों में
(शुचि स्वभाव से भरे सरों में)
तुझको पहना जगत देखले; -यह स्वर्गीय प्रकाश !

मंद, विद्युत सा हँसकर,
वज्र सा उर में धंसकर

गरज, गगन के गान ! गरज गंभीर स्वरों में,
भर अपना संदेश उरों में, औ' अधरों में;
बरस धरा में, बरस सरित, गिरि, सर, सागर में,
हर मेरा संताप, पाप जग का क्षणभर में !

हृदय के सुरभित साँस!
जरा है आदरणीय;
सुखद यौवन ! बिलास् उपवन रमणीय;
शैशव ही है एक स्नेह की वस्तु, सरल, कमनीय,
-बालिका ही थी वह भी!

सरलपन ही था उसका मन
निरालापन था आभूषण,
कान से मिले अजान नयन
सहज था सजा सजीला तन !
सुरीले, ढीले अधरों बीच
अधूरा उसका लचका गान
विचक बचपन को, मन को खींच
उचित बन जाता था उपमान ।

छपी सी पी सी मृदु मुसकान
छिपीसी, खिंची सखी सी साथ,
उसी की उपमा सी बन, मान
गिरा का धरती थी, धर हाथ !

रंगीले, गीले फूलों-से
अधखिले भावों से प्रमुदित
बाल्य सरिता के फूलों से
खेलती थी तरंग सी नित !
-इसी में था असीम अवसित !

मधुरिमा के मधुमास !
मेरा मधुकर का सा जीवन
कठिन कर्म है, कोमल है मन;
विपुल मृदुल सुमनों से सुरभित,
विकसित है विस्तृत जग उपवन !

यहीं हैं मेरे तन, मन, प्राण,
यही हैं ध्यान, यही अभिमान;
धूलि की ढेरी में अनजान
छिपे हैं मेरे मधुमय गान !

कुटिल कांटे हैं कहीं कठोर,
जटिल तरु जाल हैं किसी ओर,
सुमन दल चुन चुन कर निशि-भोर
खोजना है अजान वह छोर ।
-नवल कलिका थी वह !

उसके उस सरलपने से
मैंने था हृदय सजाया,
नित मधुर मधुर गीतों से
उसका उर था उकसाया ।

कह उसे कल्पनाओं की
कल कल्प लता, अपनाया;
बहु नवल भावनाओं का
उसमें पराग था पाया ।

मैं मंद हास सा उसके
मृदु अधरों पर मंडराया;
औ' उसकी सुखद सुरभि से
प्रतिदिन समीप खिंच आया ।

पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
पल पल परिवर्तित प्रकृति वेश !

मेखलाकार पर्वत अपार
अपने सहस्र दृग सुमन फाड़
अवलोक रहा है बार बार
नीचे जल में निज महाकार;

-जिसके परणों में पला ताल
दर्पण सा फैला है विशाल ! !

गिरि का गौरव गाकर झर् झर्
मद से नस नस उत्तेजित कर
मोती की लड़ियों से सुन्दर
झरते हैं झाग भरे निर्झर !

गिरिवर के उर से उठ उठकर
उच्चाकांक्षाओं - से तरुवर
हैं झाँक रहे नीरव नभ पर,
अनिमेष, अटक कुछ चिन्तापर !

-उड़ गया, अचानक, लो, भूधर
फड़का अपार वारिद के पर !
रव शेष रह गए हैं निर्झर
है टूट पडा भू पर अंबर !

धंस गए धरा में सभय शाल
उठ रहा धुंआं, जल गया ताल !
-यों जलद यान में विचर, विचर,
था इन्द्र खेलता इन्द्रजाल !
(वह सरला उस गिरि को कहती थी बादल घर !)

इस तरह मेरे चितेरे हृदय की
बाह्य प्रकृति बनी चमत्कृत चित्र थी;
सरल शैशव की सुखद सुधि सी वही
बालिका मेरी मनोरम मित्र थी!

(भादों)

दीप के बचे विकास !
अनिल सा लोक लोक में,
हर्ष में और शोक में,
कहाँ नहीं है स्नेह ? साँस सा सबके उर में !

रुदन, क्रीड़न, आलिंगन,
भरण, सेवन, आराधन,
शशि की सी ये कलित कलाएँ किलक रही हैं पुर पुर में !

यही तो है बचपन का हास
खिले यौवन का मधुप विलास,
प्रौढ़ता का वह बुद्धि विकास,
जरा का अंतर्नयन प्रकाश !
जन्मदिन का है यही हुलास,
मृत्यु का यही दीर्घ नि:श्वास !

है यह वैदिक वाद;
विश्व का सुख दुखमय उन्माद !
एक्तामय है इसका नाद-
गिरा हो जाती है सनयन,
नयन करते नीरव भाषण;
श्रवण तक आ जाता है मन,
स्वयं मन करता बात श्रवण ।

अणुओं में रहता है हास
हास में अश्रुकणों का भास;
श्वास में छिपा हुआ उच्छ्वास
और उच्छ्वासों ही में प्यास !

बँधे हैं जीवन तार;
सब में छिपी हुई है यह झंकार !
हो जाता संसार
नहीं तो दारुण हाहाकार !

मुरली के-से सुरसीले
हैं इसके छिद्र सुरीले;
अगणित होने पर भी तो
तारों-से हैं चमकीले ।

अचल हो उठते हैं चंचल;
चपल बन जाते हैं अविचल;

पिघल पड़ते हैं पाहन दल;
कुलिश भी होजाता कोमल !

चबाता भी है तो गुण से
डोर कर में है, मन आकाश;
पटकता भी है तो गुण से,
खींचने को चकई सा पास !

मर्म पीडा के हास !

रोग का है उपचार;
पाप का भी परिहार;
है अदेह संदेह, नहीं है इसका कुछ संस्कार !
हृदय की है यह दुर्बल हार !!

खींच लो इसको, कहीं क्या छोर है ?
द्रोपदी का यह दुरंत दुकूल है !
फैलता है ह्रदय में नभ बेलि सा,
खोज लो, इसका कहीं क्या मूल है ?

यही तो कांटे सा चुपचाप
उगा उस तरुवर में, सुकुमार
सुमन वह था जिसमें अविकार-
वेध डाला मधुकर निष्पाप ! !

बड़ों में दुर्बलता है शाप !
नहीं चल सकते गिरिवर राह,
न रुक सकता है सौरभवाह !

तरल हो उठता उदधि अथाह,
सूर का दुख देता है दाह !
देख हाय ! यह, उर से रह रह निकल रही है आह,
व्यथा का रुकता नहीं प्रवाह !

सिड़ी के गूढ़ हुलास !
बीनते हैं प्रसून दल;
तोड़ते ही हैं मृदु फल;
देखा नहीं किसी को चुनते कोमल कोंपल ! !

अभी पल्लवित हुआ था स्नेह,
लाज का भी न गया था राग ;
पड़ा पाला सा हा ! संदेह,
कर दिया वह नव राग विराग ।

हो गया था पतझड़, मधुकाल,
पत्र तो आते हाय, नवल ।
झड़ गये स्नेह वृंत से फूल,
लगा यह असमय कैसा फल !

मिले थे दो मानस अज्ञात,
स्नेह शशि विजित था भरपूर;
अनिल सा कर अकरुण आघात,
प्रेम प्रतिमा करदी वह चूर !!

घूमता है सम्मुख वह रूप
सुदर्शन हुए सुदर्शन चक्र !
ढाल सा रखवाला शशि आज
हो गया है हा ! असि सा वक्र !!

बालकों का सा मारा हाथ,
कर दिए विकल ह्रदय के तार !
नहीं अब रुकती है झंकार,
यहीं था हा ! क्या एक सितार ?
हुई मरु की मरीचिका आज,
मुझे गंगा की पावन धार !

कहाँ है उत्कंठा का पार ! !
इसी वेदना में विलीन हो अब मेरा संसार !
तुम्हें, जो चाहो, है अधिकार !
टूट जा यहीं यह ह्रदय हार ! ! !

x x x

कौन जान सका किसी के हृदय को ?
सच नहीं होता सदा अनुमान है !
कौन भेद सका अगम आकाश को ?
कौन समझ सका उदधि का गान है ?
है सभी तो ओर दुर्बलता यही,
समभता कोई नहीं-क्या सार है !
निरपराधों के लिए भी तो अहा !
हो गया संसार कारागार है ! !

(सितम्बर, १९२१)

3. आँसू


(भादों की भरन) (१)

अपलक आँखों में
उमड़ उर के सुरभित उच्छ्वास !
सजल जलधर से बन जलधार;
प्रेममय वे प्रिय पावस मास
पुन: नयनों में कर साकार;
मूक कणों की कातर वाणी भर इनमें अविकार,
दिव्य स्वर पा आंसू का तार
बहा दे हृदयोद्गार !

आह, यह मेरा गीला गान!
वर्ण वर्ण है उर की कंपन,
शब्द शब्द है सुधि की दंशन;
चरण चरण है आह,
कथा है कण कण करुण अथाह;
बूंद में है बाड़व का दाह !
प्रथम भी ये नयनों के बाल
खिलाये हैं नादान;
आज मणियों ही की तो माल
ह्रदय में बिखर गई अनजान !
टूटते हैं असंख्य उड़गण,
रिक्त हो गया चाँद का थाल !
गल गया मन मिश्री का कन,
नई सीखी पलकों ने बान ।

विरह है अथवा यह वरदान !
कल्पना में है कसकती वेदना,
अश्रु में जीता, सिसकता गान है;
शुन्य आहों में सुरीले छंद हैं,
मधुर लय का क्या कहीं अवसान है !

वियोगी होगा पहिला कवि,
आह से उपजा होगा गान;
उमड़ कर आँखों से चुपचाप
वही होगी कविता अनजान !

हाय, किसके उर में
उतारूँ अपने उर का भार !
किसे अब दूँ उपहार
गूँथ यह अश्रुकणों का हार ! !

मेरा पावस ऋतु सा जीवन,
मानस सा उमड़ा अपार मन;
गहरे, धुँधले, धुले, सांवले,
मेघों-से मेरे भरे नयन!

कभी उर में अगणित मृदु भाव
कूजते हैं विहगों-से हाय !
अरुण कलियों- से कोमल घाव
कभी खुल पड़ते हैं असहाय !

इंद्रधनु सा आशा का सेतु
अनिल में अटका कभी अछोर,
कभी कुहरे सी धुमिल घोर,
दीखती भावी चारों ओर !

तड़ित् सा सुमुखि ! तुम्हारा ध्यान
प्रभा के पलक मार, उर चीर,
गूढ़ गर्जन कर जब गंभीर
मुझे करता है अधिक अधीर,

जुगनुओं-से उड़ मेरे प्राण
खोजते हैं तब तुम्हें निदान !

धधकती है जलदों से ज्वाल,
बन गया नीलम व्योम प्रवाल;
आज सोने का संध्याकाल
जल रहा जतुगृह-सा विकराल;

पटक रवि को बलि सा पाताल
एक ही वामन पग में-
लपकता है तमिस्र तत्काल,
-धुएँ का विश्व विशाल !

चिनगियों-से तारों को डाल
आग का सा अँगार शशि लाल
लहकता है, फैला मणि ज्वाल
जगत को डसता है तम व्याल !

पूर्व सुधि सहसा जब सुकुमारि !
सरल शुक सी सुखकर सुर में
तुम्हारी भोली बातें
कभी दुहराती है उर में;

अगन-से मेरे पुलकित प्राण
सहस्रों सरस स्वरों में कूक,
तुम्हारा करते हैं आह्वान,
गिरा रहती है श्रुति सी मूक !

देखता हूँ, जब उपवन
पियालों में फूलों के
प्रिये! मर भर अपना यौवन
पिलाता है मधुकर को,

नवोढ़ा बाल लहर
अचानक उपकूलों के
प्रसूनों के ढिंग रुक कर
सरकती है सत्वर;

अकेली आकुलता सी प्राण !
कहीं तब करती मृदु आघात,
सिहर उठता कृश गात,
ठहर जाते है पग अज्ञात !

देखता हूँ, जब पतला
इंद्रधनुषी हलका
रेशमी घूँघट बादल का
खोलती है कुमुद कला;

तुम्हारे ही मुख का तो ध्यान
मुझे करता तब अंतर्धान;
न जाने तुमसे मेरे प्राण
चाहते क्या आदान !

x x x

बादलों के छायामय मेल
घूमते हैं आँखों में, फैल !
अवनि औ' अंबर के वे खेल
शैल में जलद, जलद में शैल ।
शिखर पर विचर मरुत रखवाल
वेणु में भरता था जब स्वर,
मेमनों - से मेघों के बाल
कुदकते थे प्रमुदित गिरि पर !

द्विरद दंतों - से उठ सुंदर
सुखद कर सीकर - से बढ़ कर,
भूति - से शोभित बिखर बिखर,
फैल फिर कटि के-से परिकर,
बदल यों विविध देश जलधर
बनाते थे गिरि को गजवर !

ईद्रधनु की सुनकर टंकार
उचक चपला के चंचल बाल,
दौड़ते थे गिरि के उस पार
देख उड़ते-विशिखों की धार;

मरुत जब उनको द्रुत इंकार,
रोक देता था मेघासार ।
अचल के जब वे विमल विचार
अवनि से उठ उठ कर ऊपर,
विपुल व्यापकता में अविकार
लीन हो जाते थे सत्वर,

विहंगम सा बैठा गिरि पर
सुहाता था विशाल अंबर !

पपीहों की वह पीन पुकार,
निर्झरों की भारी झर झर;
झींगुरों की भीनी झनकार
घनों की गुरु गंभीर गहर;
बिन्दुओं की छनती छनकार,
दादुरों के वे दुहरे स्वर,

हृदय हरते थे विविध प्रकार
शैल-पावस के प्रश्नोत्तर !

खैंच ऐंचीला भ्रू सुरचाप-
शैल की सुधि यों बारंबार--
हिला हरियाली का सुदुकूल,
झुला झरनों का झलमल-हार;
जलद पट से दिखला मुख चंद्र,
पलक पल पल चपला के मार;

भग्न उर पर भूधर सा हाय !
सुमुखि ! धर देती है साकार !

(२)

करुण है हाय ! प्रणय,
नहीं दुरता है जहाँ दुराव;
करुणतर है वह भय
चाहता है जो सदा बचाव;

करुणतम भग्न हृदय,
नहीं भरता है जिसका घाव,
करुण अतिशय उनका संशय
छुड़ाते हैं जो जुड़े स्वभाव !!

किए भी हुआ कहाँ संयोग ?
टला टाले कब इसका वास ?
स्वयं ही तो आया यह पास,
गया भी, बिना प्रयास !

कभी तो अब तक पावन प्रेम
नहीं कहलाया पापाचार,
हुई मुझको ही मदिरा आज
हाय क्या गंगाजल की धार ! !

हृदय । रो, अपने दुख का भार !
ह्रदय ! रो, उनको है अधिकार !
हृदय ! रो यह जड़ स्वेच्छाचार,
शिशिर का सा समीर संचार !

प्रथम, इच्छा का पारावार,
सुखद आशा का स्वर्गाभास;
स्नेह का वासंती संसार,
पुन: उच्छ्वासों का आकाश !

-यही तो है जीवन का गान,
सुख का आदि और अवसान !

सिसकते हैं समुद्र-से मन,
उमड़ते हैं नभ-से लोचन;
विश्व वाणी ही है क्रंदन,
विश्व का काव्य अश्रु कन ।

गगन के भी उर में हैं घाव,
देखतीं ताराएँ भी राह;
बंधा विद्युत् छबि में जलवाह
चंद्र की चितवन में भी चाह;

दिखाते जड़ भी तो अपनाव
अनिल भी भरती ठंडी आह !

हाय ! मेरा जीवन,
प्रेम औ" आँसू के कन !
आह मेरा अक्षय धन,
अपरिमित सुंदरता औ' मन !

-एक वीणा की मृदु झंकार !
कहाँ है सुंदरता का पार !
तुम्हें किस दर्पण में सुकुमारि !
दिखाऊँ मैं साकार ?
तुम्हारे छूने में था प्राण,
संग में पावन गंगा स्नान;
तुम्हारी वाणी में कल्याणि ।
त्रिवेणी की लहरों का गान !
अपरिचित चितवन में था प्रात,
सुधामय सांसों में उपचार !
तुम्हारी छाया में आधार,
सुखद चेष्टाओं में आभार !

करुण भोहों में था आकाश,
हास में शैशव का संसार;
तुम्हारी आंखों में कर वास
प्रेम ने पाया था आकार !

कपोलों में उर के मृदु भाव
श्रवण नयनों में प्रिय बर्ताव;
सरल संकेतों में संकोच;
मृदुल अधरों में मधुर दुराव !
उषा का था उर में आवास,
मुकुल का मुख में मृदुल विकास,
चाँदनी का स्वभाव में भास
विचारों में बच्चों के साँस !
बिन्दु में थी तुम सिन्धु अनंत
एक सुर में समस्त संगीत,
एक कलिका में अखिल वसंत,
धरा में थी तुम स्वर्ग पुनीत !

विधुर उर के मृदु भावों से
तुम्हारा कर नित नव श्रृंगार,
पूजता हूँ मैं तुम्हें कुमारि ।
मूँद दुहरे दृग द्वार !

अचल पलकों में मूर्ति सँवार
पान करता हूँ रूप अपार,
पिघल पड़ते हैं प्राण,
उबल चलती है दृगजल धार ।

बालकों सा ही तो मैं हाय !
याद कर रोता हूँ अजान;
न जाने, होकर भी असहाय,
पुन: किससे करता हूँ मान ।

xxx

सुप्ति हो स्वल्प वियोग
नव मिलन को अनिमेष,
दैव ! जीवन भर का विश्लेष
मृत्यु ही है नि:शेष !!

xxx

मूँद पलकों में प्रिया के ध्यान को
थाम ले अब, हृदय ! इस आह्वान को !
त्रिभुवन की भी तो श्री भर सकती नहीं
प्रेयसी के शून्य, पावन स्थान को ।
तेरे उज्वल आँसू सुमनों में सदा
वास करेंगे, भग्न हृदय, उनकी व्यथा
अनिल पोंछेगी, करुण उनकी कथा
मधुप बालिकाएँ गाएंगी सर्वदा ।

(दिसम्बर १९२१)

4. विनय


मा! मेरे जीवन की हार
तेरा मंजुल हृदय-हार हो,
अश्रु-कणों का यह उपहार;

मेरे सफल-श्रमों का सार
तेरे मस्तक का हो उज्जवल
श्रम-जलमय मुक्तालंकार।

मेरे भूरि-दुखों का भार
तेरी उर-इच्छा का फल हो,
तेरी आशा का श्रृंगार;

मेरे रति, कृति, व्रत, आचार
मा! तेरी निर्भयता हों नित
तेरे पूजन के उपचार-
यही विनय है बारम्बार।

(जनवरी १९१८)

5. वीचि-विलास


अरी सलिल की लोल हिलोर !
यह कैसा स्वर्गीय हुलास ?
सरिता की चंचल दृग कोर !
यह जग को अविदित उल्लास ।

आ, मेरे मृदु अंग झकोर,
नयनों को निज छबि में बोर,
मेरे उर में भर यह रोर !

गूढ़ सांस सी यति गतिहीन
अपनी ही कंपन में लीन,
सजल कल्पना सी साकार
पुन: पुन: प्रिय, पुन: नवीन,

तुम शैशव स्मिति सी सुकुमार,
मर्म रहित, पर मधुर अपार,
खिल पड़ती हो विना विचार !

वारि बेलि सी फैल अमूल,
छा अपत्र सरिता के कूल,
विकसा औ' सकुचा नवजात
बिना नाल के फेनिल फूल;

छुईमुई सी तुम पश्चात
छूकर अपना ही मृदु गात,
मुरझा जाती हो अज्ञात !

स्वर्ण स्वप्न सी कर अभिसार
जल के पलकों में सुकुमार,
फूट आप ही आप अजान
मधुर वेणु की सी झंकार;

तुम इच्छाओं सी असमान,
छोड़ चिह्न उर में गतिवान,
हो जाती हो अंतर्धान !

मुग्धा की सी मृदु मुसकान
खिलते ही लज्जा से म्लान;
स्वर्गिक सुत की सी आभास-
अतिशयता में अचिर, महान-

दिव्य भूति सी आ तुम पास,
कर जाती हो क्षणिक विलास,
आकुल उर को दे आश्वास !

ताल ताल में थिरक अमन्द,
सौ सौ छंदों में स्वच्छन्द
गाती हो निस्तल के गान,
सिन्ध गिरा सी अगम, अनन्त;

इंदु करों से लिख अम्लान
तारों के रोचक आख्यान,
अंबर के रहस्य द्युतिमान !

चला मीन दृग चारों ओर,
यह गह चंचल अंचल छोर,
रुचिर रुपहरे पंख पसार
अरी वारि की परी किशोर !

तुम जल थल में अनिलाकार,
अपनी ही लघिमा पर वार,
करती हो बहुरूप विहार !

अंग भंग में व्योम मरोर,
भौंहों में तारों के झोंर
नचा, नाचती हो भर पूर
तुम किरणों की बना हिंडोर,

निज अधरों पर कोमल क्रूर,
शशि से दीपित प्रणय कपूर
चाँदी का चुम्बन कर चूर !

खेल मिचौनी सी निशि भोर,
कुटिल काल का भी चित चोर,
जन्म मरण से कर परिहास,
बढ़ असीम की ओर अछोर;

तुम फिर फिर सुधि ही सोच्छ्वास
जी उठती हो बिना प्रयास,
ज्वाला सी, पाकर वातास !

ओ अकूल की उज्वल हास ।
अरी अतल की पुलकित श्वास !
महानन्द की मधुर उमंग !
चिर शाश्वत की अस्थिर लास !

मेरे मन की विविध तरंग
रंगिणि । सब तेरे ही संग
एक रुप में मिलें अनंग !

( मई, १९२३)

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