चिश्ती संप्रदाय के संत शेख़ बुरहान के शिष्य। जौनपुर के बादशाह हुसैनशाह के आश्रित। प्रेम में त्याग और कष्टों के सुंदर वर्णन के लिए उल्लेखनीय। 'मिरगावती' में कुतबन ने चंद्रनगर के राजा गणपतिदेव के राजकुमार और कंचनपुर के राजा रूपमुरारि की कन्या मृगावती की प्रेमकथा का वर्णन किया है। इस कहानी के द्वारा कवि ने प्रेममार्ग के त्याग और कष्ट का निरूपण करके साधक के भगवत्प्रेम का स्वरूप दिखाया है।
सौंदर्य वर्णन (नौ)
कठिन कठोर पयोहर नारी। जनु कुंभस्थल सदल संभारी।
कंवल बरन कुच उठे अमोला। तेहि पर बैठ भंवर रंग भोला।
तरल तीख उर लागहिं जाकें। छाती फूट पल हि महं ताकें।
तेहिं डर नियर न आवइ कोई। देखत मरइ नियर नहि होई।
भूलि परे चख जाइ समाहीं। सिर धरि मरे हुं न आवहिं ताहीं।
कनक कलस उर कामिनि रस भरि धरे अनंत।
देखिय छुवइ न पाइय कुंभस्थल मैमंत॥
उस नारी के पयोधर कठिन और कठोर हैं, मानो हाथी के कुंभस्थल हों जो पत्र-रचना करके सजाए हुए हों। बंधे कमल की भांति उसके अनमोल कुच उठे हुए हैं और उन के काले भाग ऐसे हैं मानो उनके रंगों पर भूले हुए भ्रमर बैठे हों। वे तरल और तीक्ष्ण कुच जिसके हृदय में लग जाएँ, उसकी छाती पल भर में फूट जाए। इसी डर से उनके निकट कोई नहीं आता है। उन्हें देख-देख कर कोई मरे भले ही, निकट कोई नहीं जाता है। चूक हो जाने पर वे आँखों में जाकर समा जाते हैं। सिर पटक-पटक कर कोई मरे, तब भी वे उसे प्राप्त नहीं होते हैं। उन कनक-कलशों में कामिनी ने अनंत रस भरकर रख छोड़ा है। भले ही उन्हें देख लीजिए छूने न पाइयेगा, ऐसे मदोन्मत्त वे कुंभस्थल हैं।
बारहमासा (पौष)
दुल्लंभ पूस तुलानेउ आई। पिउ बिओग औ सिसिर संताई।
परइ तुसार खीर जस जामां। सेज हेवार गरति है रामां।
सेज अकेलि कहां पिउ पावौं। उर कुच भुव बर गहि गहि लावौं।
जाड़ सौर भा बिरह सुपेती। दुहुँ दुरिजन बिच भइउं अचेती।
जिउ अचेत किछ लिखइ न पाई। मुख ही कहेहु दुल्लंभ समुझाई।
हार न बीचहि संचरत अंतर कपट न दीय।
गिरि पब्बै सायर घने ते पिय अंतर कीय॥
ऐ दुर्लभ प्रिय! पौष आ पहुँचा, तो मैं प्रिय-वियोग और शिशिर से संतप्त हुई। पाला पड़ रहा था, जो दूध-सा जम जाता था। शैया हिम हो जाती थी, जिसमें रमणी गलने लगती थी। शैया में मैं अकेली थी, मैं प्रिय को कहाँ पाती? अपनी छाती और अपने कुचों से मैं अपनी ही भुजाओं को पकड़-पकड़ कर लगाती। जाड़ा सौर हुआ था और विरह श्वेत चादर हुई थी; इन दोनों दुर्जनों के बीच पड़कर मैं अचेत हो गई थी। जी बेचेत हो गया है, जिससे लिखना संभव नहीं हो रहा है। ऐ दुर्लभ, तुम प्रिय से समझा कर कहना कि हमारे बीच हार नहीं संचरण करता था, हम दोनों के बीच (पहना हुआ) वस्त्र नहीं समाता था, तुमने अब हमारे बीच अनेक गिरि, पर्वत और सागर खड़े कर रखे हैं।
बारहमासा (मार्गशीर्ष)
अगहन कहं जग सीउ जनावा। हेवंत आइ पै कंत न आवा।
दुख बाढ़ा निसि संग कहं पाई। सुख रे खीनु हम दिन बरु जाई।
जोबन छांह निमिख महं जाइहि। गएं बार फुनि बहुरि न आइहि।
बिरहें तन पंडुर जो होई। जोगिनि भेस करति मैं सोई।
आहर जरम जात है नाहां। बेरसु आइ भर जोबन माहां।
दुल्लंभ जिमि जल अंजुरी तिमि जोबन कर नेमु।
खिन खिन खीन जाइ दिन खिन नहि मुक्कइ पेमु॥
जगत में अगहन का शीत जनाई पड़ा। हेमंत आ गया किंतु प्रिय न आया। रात्रि को संगिनी के रूप में पाकर मेरा दुःख भी बढ़ गया और मेरा सुख दिन के समान क्षीण होने लगा। यौवन की छाया क्षण मात्र में चली जाएगी और चली जाने पर पुनः लौट कर न आएगी। विरह में मेरा तन जो पीला हो रहा है, समझो कि मैं योगिनी का वेष धारण कर रही हूँ। ऐ स्वामी! मेरा जीवन निष्फल जा रहा है। भरे यौवन में आकर उसका विलास कर ले! ऐ दुर्लभ, जिस प्रकार अंजलि में लिया हुआ जल निरंतर छीजता जाता है, उसी प्रकार यौवन का नियम है। यौवन के दिन क्षण-क्षण क्षीण होते जाते हैं, इसलिए प्रेम को क्षणभर के लिए भी न छोड़ना चाहिए।
बारहमासा (फाल्गुन)
फागुन फागु जगत सब खेला। होरी मांझ मैं रे जिउ मेला।
जरि कै भसम होउं उहि आसा। मकुहूँ उड़ाइ जाउं पिय पासा।
बिरह आइ असि चांचर पारी। रकत रोइ सैदुर रतनारी।
तेहि पर अवधि पवन संतावै। आंगन सेज मंदिर नहि भावै।
आहर गएउ बसंत सुहावा। रहा छाइ पिउ भवा परावा।
फागु बसंत सुहावन यह जोबन मैंमंत।
तरुअर पात जो झरि परे अजहुं न आएउ कंत॥
फागुन में समस्त जगत ने फाग खेला, तो मैंने अपने जीव को होलिका में डाल दिया। मैं उसकी आशा में जल कर भस्म हो जाऊँ, कदाचित् इसी युक्ति से मैं उड़ कर प्रिय के पास पहुँच जाऊँ। विरह ने आकर ऐसी चांचर मचाई कि मैं रक्त के आँसू रो कर सेंदुर-सी लोहित वर्ण की हो गई। उस पर पवन संतप्त कर रहा था और आँगन, शैया और मंदिर नहीं भा रहे थे। वसंत निष्फल चला गया और मेरा प्रिय किसी दूसरे का हो उसके देश में छा रहा। फाग है, सुहावना वसंत है और यह मदमत्त यौवन है। वृक्षों में जो पत्ते थे वे झड़ पड़े हैं। किंतु ऐ प्रिय! तू आज भी नहीं आया है।
सौंदर्य वर्णन (दस)
केदलि खंभ दुइ जगत सुहाए। ओहिक चीर आनि पहिराए।
देखेउं जंघ पार नहिं पावा। कनक हेर सेंदुर जनु लावा।
के मलयागिरि केर संवारे। सुभर पेड़ पालव सटकारे।
चलत अंत तरुवन्ह के पावा। जानहु घोरि महावर लावा।
मन महं अस भा बरु हिएं राखौं। पाव धरइ तहं तिन्ह रंग चाखौं।
कीन्ह सिगार संचि के सोलह रहेउं निकटहि भुलाइ।
सिर सेउं लखन संपूरन रुद रेखा दुहुँ पाइ॥
उसकी जाँघें ऐसी हैं मानो संसार के दो सुहावने कदली-स्तंभ हों और उन्हें ही चीर लाकर पहिना दिया गया हो। उसकी जाँघे मैंने देखीं जिन्हें कोई नहीं पा सकता है। वे ऐसी लगीं मानो सोने ने हेलापूर्वक सिंदूर लगा लिया हो अथवा मानो मलयागिरि के संवारे हुए और पल्लवों से परिपूर्ण पेड़ हों। उसके चलते समय उसके पैरों के तलवों का मर्म मिल सका। मानो उनमें घोलकर महावर लगाया हुआ हो! मेरे मन में ऐसा हुआ कि अच्छा होता यदि उन्हें मैं हृदय में रख सकता जिससे जब वह पैर रखती, उन का रंग चख सकता। उसने सोलह सिंगार किए हैं जिससे मैं उसके निकट रहकर भ्रमित हो रहा। सिर से ही वह शुभ लक्षणों से संपूर्ण है और उसके दोनों चरणों में रुद्र-रेखाएँ हैं।
सौंदर्य वर्णन (आठ)
सांख घोटि के पीठि संवारीं। कै रे मैन सांचे महं ढारी।
सांचहि जैसी ढारि न जाई। बिधि अपने रूचत अनिपाई।
पीठी दिपइ जानु झरकइ देहा। देखिउं पीठइ जहां लहि रेहा।
बांस क पोर काठ तिरि रेखा। कै बोलन गुन सरिग बिसेखा।
बिखम भुअंगम बेनी भई। मारग ओही सीस सो गई।
चतुरि सुजानि बिचाखनी सोई पीठि रची सयंसार।
नखसिख बेनी नित्त तरासइ सिरजन हार मुरारि॥
उसकी पीठ या तो शंख से घोट कर संवारी हुई है, अथवा सांचे में ढली हुई मोम है। सांचे में तो ढाली नहीं जा सकती है, इसलिए विधाता ने उसे अपनी रुचि के अनुरूप निष्पन्न किया है। वह पीठ ऐसी दीप्त रहती है मानो उसकी देह ही झलकती हो और उसकी पीठ को मैंने इतनी पूर्णता के साथ देख लिया जहाँ तक उसमें रेखाएँ हैं। उसके कंठ की तीन रेखाएँ या तो बांस की पोरें हैं या उसके बोलने के लिए तीन विशिष्ट स्वर सा, रे और ग हैं। उसकी वेणी विषम भुजंग हुई और उसी मार्ग से वह उसके सिर तक गई है। वह चतुर, सुजान और विचक्षण है। उसी प्रकार उसकी पीठ भी संसार में विलक्षण रची हुई है। उसके नखशिख को उसकी वेणी नित्य त्रस्त करती रहती है, किंतु उस के सृजन करने वाले मुरारी हैं जिन्होंने कालीय का दमन किया था, इसलिए वह उसका कोई अनिष्ट नहीं कर पाती है।
बारहमासा (माघ)
अब रे माघ आएउ दुख भारी। काह करौं नहि जाइ संभारी।
झुरकइ पवन मरौं धुधुवाई। तपौं अकेलि जाड़ नहिं जाई।
कंपहिं दसन सी घन लागै। सूर होइ पिउ तपइ त भागै।
तपहु आइ मोहि ऊपर नाहां। सात पतार जाइ दुख छाहां।
सुरितु फिरी पिउ फेर न दीन्हां। बिरह संताप सेज भरि दीन्हां।
बिरह तुम्हारइं सुख हरा जिमि रावन हरी सीय।
निसिअरपति हनु आइ कै जस रघुनंदन कीय॥
अब माघ आया और भारी दु:ख आया। मैं क्या करती? वह संभाला नहीं जा रहा था। पवन झुर-झुर कर बहता और मैं धू-धू कर मरती; मैं वियुक्ता आग तापती भी तो ठंडक न जाती। दाँत काँपते और घना शीत लगता। ऐ प्रिय, तू सूर्य होकर तपे तो वह भागे। ऐ स्वामी, तू आकर मेरे ऊपर तपे, जिससे दु:ख की छाया सातवें पाताल को चली जाए। सुंदर ऋतु आई और चली भी जा रही है, किंतु ऐ प्रिय! तूने फेरा न किया। तूने शैया में विरह का संताप भर दिया है। तेरे विरह ने मेरा सुख हर लिया है, जिस प्रकार रावण ने सीता को हर लिया था। तू आकर उसी प्रकार निशाचर-राज विरह का संहार कर जिस प्रकार रघुनंदन राम ने किया था।
बारहमासा (सावन)
फुनि सावन आएउ हरियारा। पुहुमि हरी बिरहा हम जारा।
धरती हरखि चीर जनु पहिरा। बिरहा सेज हमहिं दुख गहिरा।
निसि दूभर मोहि पिय बिनु लागी। नारी नैन भएनि जीउ भागी।
जिउ हिंडोल भौ तरुनिहि केरा। बिरह झुलाइ देइ सै बेरा।
लहर जगत रहा भरि पूरी। दुल्लंभ मरिउं आस लै झरी॥
पावस काल बिदेस पिउ हौं तरुनी कुल सुद्ध।
सारंग सिखिन के सबद सुनि कहिजो मरति जिय मुद्ध॥
हरा-भरा सावन आया। पृथ्वी हरी-भरी थी, किंतु मुझे विरह जला रहा था। धरती ने मानो हर्षित होकर चीर धारण कर लिया था, किंतु विरह की शैया में मुझे गहरा दुःख था। रात्रि प्रिय के बिना मुझे दूभर लग रही थी, और नारी के जीव भाग कर उसके नेत्रों में हो गए थे। तरुणी का जीवं हिंडोला हो रहा था, और विरह उसको सौ-सौ बार झुला रहा था। जगत् जलाशयों से भरित-पूरित हो रहा था, मैं प्रिय-मिलन की आशा लेकर संतप्त हुई मर रही थी। वर्षा का समय था। प्रिय विदेश में था और मैं कुलीना तरुणी थी। प्रिय से कहना कि यह मुग्धा कोकिल और मोरों के शब्द सुन-सुन कर मर रही थी।
बारहमासा (कार्तिक)
कातिक सरद रैनि उजियारी। ससि सीतल हौं बिरहइं जारी।
सेत सुपेती सेज न भावै। अमिअ तेज ससि बिस बरिसावै।
बल दै दुवन इंदु मकु बरिसा। तेहि हम लगि दुरिजन भै दरिसा।
सीतल सेत रैनि जग भावै। हम्हं अंधिआरि बाजु पिय आवै।
दुइजि प्रीति मोहि हिअइं समानी। ससि पूनिउं पिय प्रीति गंवानी।
मैं जानिउं पिउ दुइजि ससि बढिहि पिरीति निमग्गि।
दुल्लभ कहियहु कंत सेउं पूनिउं भइ हम लग्गि॥
कार्तिक में शरद की रजनी उज्ज्वल थी, शशि शीतल था। मैं विरह के द्वारा जलाई हुई थी। श्वेत चादर की शैया मुझे अच्छी न लगती थी और अमृत के तेज़ वाला शशि विष की वर्षा करता था। चंद्रमा मुझे दुर्जन होकर दिखाई पड़ता था। शीतल और श्वेत रजनी संसार को भाती थी, किंतु मेरे लिए प्रिय के बिना वह अँधेरी होकर आती थी। मेरे हृदय में प्रीति द्वितीया के चन्द्र जैसी संवर्धन-शीला होकर समाई हुई थी और मेरे प्रिय की प्रीति पूर्णिमा का शशि होकर क्रमशः लुप्त हो गई थी। हे प्रिय, मैंने जाना था कि प्रीति निमग्न होकर द्वितीया के शशि की भाँति बढ़ेगी। किंतु ऐ दुर्लभ! तुम प्रिय से कहना कि वह मेरे लिए पूर्णिमा का शशि हो गई और उत्तरोत्तर घटती ही गई।
बारहमासा (वैशाख)
बैसाखइं फर तरुवर लागे। बेरसु आइ पिय कंत सभागे।
अमिअ सुफर राखे तुम्हं जोगा। बेगि आइ रस मानहि भोगा।
अब लहि मैं राखी अंबराई। अब दुरिजन पहं राखि न जाई।
बिरह सुवा फर चाहइ खावा। अब बूतें नहिं जाइ उड़ावा।
कब लगि बिरह उड़ावउं नाहां। अलप बएसि सतु रही न बाहां।
रीस परेवहि नारि लगि देखि हाथ औरांह।
हम पिउ हरख बसाए दीतिसि बिरह करांह।
बैशाख में वृक्षों में फल लग गए तो मैंने कहा, 'ऐ भाग्यशाली प्रिय, आकर तू इन फलों का भोग कर। मैंने तेरे योग्य ये अमृत (जैसे) सुफल रख छोड़े हैं, तू वेग-पूर्वक आकर इनका रस-भोग मान। अब तक मैंने आम्रराजी की रक्षा की, किंतु अब दुर्जनों (दुःखों) से उसकी रक्षा नहीं हो रही है। विरह-शुक (उसके) फलों को खा जाना चाहता है, और अब (मेरे) बूते से वह उड़ाया नहीं जा रहा है। ऐ स्वामी, उस विरह-शुक को मैं कब तक उड़ाती रहूँ! क्योंकि मैं एक तो अल्प-वय की हूँ और दूसरे अब बाहों में सामर्थ्य भी नहीं रहा है। पारावत को नारी के लिए रोष होता है, जब वह उसे और किसी के हाथों में देखता है। किंतु ऐ प्रिय, तुमने मुझे हर्ष से बसा कर विरह के हाथों में सौंप दिया।
बारहमासा (ज्येष्ठ)
जेठ मास सूरिज दौं लावइ। लुवइं लवह जनु आगि जरावइ।
तपइ बजासनि परइ अंगारा। तेहि पर मदन तवइ बिकरारा।
सूरुज सना कंचु और चीरा। काम दगधि अति बिकल सरीरा।
तुम सीतल आवहु हम पासा। पियत जाइ खंडवानि पिआसा।
होइ मलयगिरि आवहु नाहां। ग्रीखम जरत करहु हम छाहां॥
दुल्लभ कहियह कंत सेउं उनइ आउ घन घट्ट।
नाहिं त सूरह मोहि जारिहि जारि करिहि दह बट्ट।
ज्येष्ठ मास में सूर्य दावाग्नि लग रहा है। ऐसी लपटें निकलने लगीं मानो अग्नि जल रही हो। वह तपने लगा और अंगारे पड़ने लगे। उस पर भी काम विरहिणी के लिए काल प्रतीत हो रहा था। सूर्य के-से कंचुक और चीर थे और कामाग्नि के मारे शरीर अति विकल था। ऐ शीतल प्रिय, तुम मेरे पास आओ। तुम खंडवानी का पान करते ही मेरी प्यास चली जाएगी। ऐ स्वामी, तुम मलयागिरि की वायु होकर आओ, और ग्रीष्म से जलती हुई मुझको शीतल कर दो! ऐ दुर्लभ, तुम प्रियतम से कहना कि ऐ घन-घट्ट, तुम अब अवनमित हो आओ। नहीं तो विरह-सूर्य मुझे जला डालेगा और मुझे जलाकर दस बाटों में कर देगा।
बारहमासा (चैत्र)
चैत चहं दिसि करह संभारा। बिरहा हम तन खोइ खोइ जारा।
मौली बनसपती जग फूला। पिउ मकरंद अवर कहुं भूला।
कानन फिरि पिक पंचम बोला। जोबन कली बिगसि मुंह खोला।
दरिसत परिमल पीय बिसारी। सुदल सुरूप फूली फुलवारी।
यहउ जरम निरतत ही जाई। आरन जेउं मालति कुंबिलाई।
भंवर बिसारि न मालती औगुन आहि न कीत।
पिय बेली के बोल रे सवन सुनइ धरि चीत॥
चैत्र ने चारों दिशाओं में नव पल्लव की सृष्टि की तो विरह ने मेरे शरीर को खो-खो कर जलाया। वनस्पति मुकुलित हुई और संसार फूल उठा, किंतु मेरा प्रिय किसी और मकरंद के लिए भटक रहा था। कानन में पिक पुनः पंचम स्वर में बोल उठा, जिससे यौवन कलिका ने विकसित होकर मुख खोल दिया। किंतु जब मेरे जीवन में परिमल दिखाई पड़ा, तब प्रिय ने मुझे विस्मृत कर दिया, जब कि मेरी फुलवाड़ी सुंदर दलों से युक्त और सुरूप होकर फूली। मेरा यह जन्म भी निस्तत्व ही जा रहा, जिस प्रकार अरण्य में खिलकर मालती कुम्हलाती है। ऐ भ्रमर! तू मालती को न विस्मृत कर क्योंकि इसने कोई अपराध नहीं किया है। ऐ प्रिय, इस वल्लरी के वचन सुन और उन्हें चित्त में धारण कर।
सौंदर्य वर्णन (छह)
अधर सुरंग पान जनु खाए। के रे घोरि सकर गहि लाए।
पात चीरि नह सत सो कीन्हां। अमिअ आनि तेहि उप्पर दीन्हां।
मक्खन लेखें अधर सुहाए। जानिय जानु अमिय रस आए।
एहि रंग अधर न देखेउं धाए। सुरंग पंवार आन धरि लाए।
रकत हमार अधर सेउं पिया। जासेउं बकति सगति धाए॥
अस कै चुहेसि अधर सेउं पियर भएउं जस आंब।
जेहि कै बिरह पवन मिस रस हमार लै लांब॥
उसके अधर ऐसे रक्तिम हैं मानो वे पान खाए हुए हों। अथवा शर्करा घोलकर उनमें चुपड़ दी गई हो। अथवा नखों के बल से कोई पत्ता चीर कर द्विधा किया गया हो और उस पर लाकर अमृत रख दिया गया हो। मक्खन से भी अधिक कोमल उसके अधर हैं; वे ऐसे जान पड़ते हैं मानो अमृत-रस हों। ऐ धाय! ऐसे अधर मैंने नहीं देखे हैं। वे सुरंग प्रवाल हैं जो लाकर लगाए गए हैं। उन्हीं अधरों से उसने मेरा रक्त पिया, जिससे मेरी वाक् शक्ति चली गई। उसी ने मेरा रक्त अधरों से ऐसा चूसा कि मैं आम जैसा पीला हो गया। जिसने पवन के मिस से विरह उपस्थित कर मेरा जीवन रस लिया और चली गई।
बारहमासा (अश्विन)
आसिनि दरिस कांस बन फूले। खिडरिचु आए सारस बोले।
उए अगस्त घटा जग नीरू। हौं भरि गांग न पावउँ तीरू॥
तेहि ऊपर बिरहा भा हाथी। गरजि झकोर कहां पिउ साथी।
गरजत घन पिउ उरहि छपाऊं। सेज सूनि हौं भरमि डराऊं।
जौ डर डरिउं भएउ निरजासी। मैमंता बन कया बिधांसी।
कुंजर बिरह सरीर बन दलइ बिधांसइ खाइ।
पिय गल गज्जहु सिंघ होइ कुंजर बिरह पराइ॥
अश्विन दिखाई पड़ा तो बनों में कास फूल उठे। खंजन आए और सारस बोलने लगे। अगस्त्य तारक के उदित होने पर जगत् का जल घट गया, किंतु मैं कष्टों की भरी गंगा में थी और तट नहीं पा रही थी। उसके ऊपर विरह हाथी बना हुआ था, जो गर्जन करके मुझे झकोले दे रहा था। मेरे प्रिय और साथी, तुम कहाँ हो?” जब घन गरजता, मैं अपने हृदय को छिपा लेती और सूनी शैया में भ्रमित होकर डरने लगती। जब मैं डर से डरती, वह गज निर्वासित मद गिराने वाला हो उठता और वह मदमत्त मेरे काया-वन को विध्वंस कर डालता। विरह का कुंजर मेरे काया-वन को दलित कर रहा, विध्वंस कर रहा और खा रहा था। हे प्रिय! तुम सिंह होकर गर्जना करो जिससे विरह का यह कुंजर पलायन कर जाए।
सौंदर्य वर्णन (तीन)
लोयन सेत बरन रतनारे। कंवल पत्र पर भंवर संवारे।
चपल बिलोल ते थिर न रहाहीं। जुनौ गजमोती तहां भंवाहीं।
मांते बिरह अइस मैं देखे। उलथि रहे तहं समुंद बिसेखे।
मदन दीप पदमिनि चख बारी। घूमहिं सहज ते(?) पवन अधारी।
के संग बिछुरि(?) कुरंगिनि परी। भूली पंथ निहारइ खरी।
अति तीखे ये दिप्प खर[तबहि(?) छिनछिन(?) साल(?)]।
धाइ त चक्कित अति बल भए हम तन काल॥
उसके लोचन श्वेत वर्ण के और रतनारे थे, जो ऐसे लगते थे मानो कमल-पत्र पर भ्रमर संवारे हुए हों। वे चपल और चंचल थे। वे स्थिर नहीं रहते थे, मानो गजमुक्ता वहाँ चक्कर लगा रही हों। विरह से मत्त मैंने उन्हें ऐसा देखा, मानो वे समुद्र की तरह उमड़ रहे हों। उस पद्मिनी बालिका के चक्षु मोम के दीपक थे। वे सहज भाव से इस प्रकार घूम रहे थे मानो पवन का आधार लिए हुए हों। अथवा वे उस कुरंगिनी के नेत्र थे जो अपने संग से बिछुड़ी हुई हो और भ्रमित खड़ी होकर मार्ग देख रही हो। वे अत्यंत तीक्ष्ण, दीप्त और प्रखर थे। इसी कारण वे क्षण-प्रतिक्षण साल रहे हैं। ऐ धाय, वे चक्रित लोचन अत्यधिक बल वाले थे। इसलिए वे मेरे लिए काल हो गए।
बारहमासा (भाद्रपद)
भादौं सघन धार बरिसाई। बीज लवइ अंधियर होइ जाई।
निसि अंधियारि भरम डर भारी। हिय दरकै हौं कंत बिसारी।
पिउ न आहि जेहि सरन लगाऊं। सेज भुअंगम भरी डराऊं।
दादुर रर औ मोर पुकारा। जिउ निकसइ अब खिन न संभारा।
जिउ पपिहा चख मघा सरेखा। दुल्लंभ कहेहु जो रे तुम्हें देखा।
लोयन गंग तरंग भए सेज भई घरनाउ।
करियई गुन बिनु डूबऊं कंत बिहाई आउ॥
भादों में सघन धारें बरसतीं, बिजली लपलपाती, और अँधेरा हो जाता। रातें अँधेरी थीं, जिनमें भ्रम और भारी डर होता था, मेरा हृदय फटता था क्योंकि प्रिय ने मुझे विस्मृत कर दिया था। प्रिय नहीं था, जिसकी शरण लगती। शैया भुजंगों से भरी हुई थी, जिससे मैं डर-डर जाती थी। दादुर रटते और मोर पुकारते थे, जिससे प्राण निकलने लगते थे और उस समय क्षण भर को भी जी न संभलता था। मेरा जीव पपीहा बन गया था और मेरे नेत्र मघा और श्लेषा हो गए थे। हे दुर्लभ! जो कुछ तुमने देखा है, वह प्रिय से कह देना। मेरे नेत्र गंगा की तरंगें हैं, और शैया उनमें पड़ी हुई घड़ों से बनी हुई डोंगी। करिया और गुण के बिना मैं डूब रही हूँ क्योंकि मेरी आयु कंत के द्वारा परित्यक्त हो चुकी है।
सौंदर्य वर्णन (सात)
भुअबर आनि म्रिनाल संवारे। मनहुं पेड़ पालौ सटकारे।
अइस न देखेउं काहु कलाई। बरयां जनु चरचहिं (ही) सुहाई।
तरुवन्ह जानु रकत गा आई। कै महंदी रे सुहागिनि लाई।
कर पालौ जनु मूंग कि छीमीं। नखन्ह जोति सत अधिक खीनीं।
छीता नहसत लोक सराहा। करि पारइ नख अवर समाहा।
हिएं लाग वह नहसत चोखे भल वै घाउ।
हिरग घाउ जस ऊंचे सिर महं दिन दिन होइ पियाउ॥
उसकी श्रेष्ठ भुजाएँ ऐसी हैं, मानो मृणाल ला कर संवारे हुए हों। वे मानो पल्लवों से सुसज्जित पेड़ हों। ऐसी कलाइयाँ मैंने किसी की नहीं देखी हैं। इन कलाइयों को मानो उसकी चड़ियाँ सौंदर्य प्रदान करती हैं। उसकी हथेलियाँ ऐसी लगती हैं मानो उनमें रक्त आ गया है। अथवा मानो उस सौभाग्यशालिनी ने मेंहदी लगा रक्खी है। उसकी उंगलियाँ मानो मूंग की फलियाँ हैं और वे उसके नखों की ज्योति और सत्व के कारण क्षीण हैं। लोग चीते के नखों के सत्व की सराहना करते हैं, किंतु उसके नख क्या उनकी बराबरी कर सकते हैं? वे सत्त्वपूर्ण नख मेरे हृदय में लगे, और वे घाव बहुत स्पष्ट हैं। वे घाव सिर की तरफ़ मुझ से हिलगते जा रहे हैं। वह दिन-प्रतिदिन जीवित-प्रिय होती जा रही है।
सौंदर्य वर्णन (पाँच)
तिल बिसहर पातर नहि मोटे। जहां कपोल कनक वै खोंटे।
जनु कौड़ा पारस चिकनाए। कै रे गाज कालहि लहि लाए।
कै खटपद पाहन बैसावा। धाइ रूप सुनु बकति न आवा।
हौं कपोल धरि रहेउं तवाई। घूमि परेउं तांवर नहि जाई।
ओहि कपोल पर धरइ कपोला। सुर नर नाग सीस फुनि डोला।
जोगी जंगम तपसी जती सन्यासी सब्ब।
देखि कपोल नारि कै एकहि रहा न कब्ब॥
उसके कपोलों के तिल विषधर थे, जो न पतले थे और न मोटे थे। उसके कपोल जहाँ कनक समान थे, वहाँ ये उसके खोटेपन के तुल्य थे। मानो कोड़े हों जो स्पर्श मणि से चिकनाए हुए हों, अथवा काल को प्राप्त किए हुए वज्र आए हुए हों। अथवा, भ्रमर श्वेत पाषाण पर बिठाए हुए हों। ऐ धाय, उनका रूप सुनो। वाक्य नहीं निकल रहा है। मैं उन कपोलों को मन में रखकर तप्त हो रहा और मैं घूम पड़ा। फिर भी उसकी बेचैनी नहीं जा रही है। उन कपोलों पर वे अपना कपोल रख सकें, इसलिए देवताओं और नागों के सिर भी डोल उठते हैं। योगी, जंगम, तपस्वी, यती और संन्यासी— उस नारी के कपोल देखकर एक के भी शरीर में मांस नहीं रहा।
सौंदर्य वर्णन (चार)
चक्कत सवन मांझ तिल भया। बिधि सिरि कमल भुजंग निरमया।
बास लुबुध तहं उड़त न देखा। पेम गहा का करहि सरेखा।
जस होइ बिरह टूटि तिल परा। जग मोहइ कारन तिसु धरा।
सो तिल महं कि भएउ सिंगारू। मनहुं निखोर भएउ सयंसारू।
तेहि तिल [.......] जिउ किया। देखहु धाइ सवन ही गया।
तिल सुभाउ न कहि सकौं राखौं आपुन छाइ।
कनक सपन जिमि हिय खुरुक सो मोहिं कही न जाइ॥
उसके चक्षुओं और कानों के बीच तिल थे मानो विधाता ने कमल का सृजन कर भ्रमरों का निर्माण किया हो। सुवास से लुब्ध होकर वहाँ उन्हें मैंने उड़ते हुए नहीं देखा, प्रेम से अभिभूत प्राणी क्या सयानापन कर सकता है? अथवा जैसे विरह ही तिल होकर टूट पड़ा हो, और जगत् को मोहित करने के लिए उसे रख दिया गया हो। अथवा उस तिल में ही शृंगार पुंजीभूत हो गया है और इस कारण संसार नीरस हो गया है। उन तिलों ने मानो जीवन धारण कर रखा है, इसीलिए ऐ धाय! देखो वे कानों के पास चले गए हैं। उन तिलों का स्वभाव मैं नहीं कह सकता हूँ। मैं अपने को आच्छादित कर रखता हूँ। वे स्वर्ण-स्वप्न के समान मेरे हृदय में खटक रहे हैं कि मुझसे कहते नहीं बनता है।
सौंदर्य वर्णन (ग्यारह)
बरन सुनहु औ कहौं कुनाई। कुंदन के जनु देह झरकाई।
कूंखि बरन चंपा कै कली। अच्छरि उड़ि इंद्रासन चली।
कांचे कंवल कनक नीर पिया। अइस बरन बिधि ओहि कहं दिया।
पुहुप जहां लहि अंग गंधाहीं। कंवल कहाँ मुख संवरि लजाहीं।
पदुमिनि लोन बरन गुन काहा। अति सुरूप तेहि भूलेउं आहा।
ससिहर जस रे सरद रितु निरमी सोरह करां चमंक।
वहि क किरिन आई नयनन कहं हौं चकोर जस रंक॥
उसकी कुनाई का वर्णन कर रहा हूँ। उसकी देह ऐसी है मानो कुंदन झलक रहा हो। उसकी कुक्षि का वर्ण ऐसा है मानो वह चंपक कलिका हो अथवा वह कोई अप्सरा हो जो उड़कर इंद्रलोक को जा रही हो। कच्ची कमल-कलिका ने जैसे सोने का जल पीया हो, ऐसा वर्ण विधाता ने उसको दिया है। जहाँ तक भी पुष्प हैं, वे उसके अंगों में सुगंध देते हैं। कमल तुलना में कहाँ हैं? वे उसके मुख का स्मरण कर लज्जित रहते हैं। वह लावण्यपूर्ण पद्मिनी है, उसके गुणों का वर्णन क्या करूँ? वह अत्यधिक सुरूपा है इसलिए मैं उसे भूल रहा हूँ। शरद ऋतु में जैसा शशि होता है, उसी प्रकार की वह भी षोडस कलाओं से युक्त चमक से निर्मित है। जब उसकी आभा मेरे नेत्रों की ओर आई, मैं चकोर की भांति रंक हो गया।
बारहमासा (आषाढ़)
गज्जत गंगन असाढ़ जनावा। कुंजर जूह मेघ होइ आवा।
चहुं दिसि उनइ बीज चमकाई। पिय संवरहु पावस रितु आई।
औ घुमरैत बनिजारे आए। हम पिउ फुनि परदेसहि छाए।
मारग रहा न पंथ चलाई। अब जिउ घरी न धीर धराई।
मारग चलत न आएउ नाहां। अब जलहर छाएउ जग माहां।
दुल्लंभ सावन फिरि लगउ औ जग जलहर भरियांह।
सुरपति बाहन भानु सुत मिलि कपोल रोयांह॥
फिर गर्जना के साथ आषाढ़ आया और कुंजर-यूथ बनकर मेघ आकाश में आ पहुँचे। चारों और अवनिमत बिजली चमकने लगी। ऐ प्रिय, वर्षा ऋतु आ गई अब तो घूमने-फिरने वाले बनजारे भी आ गए हैं। वर्षा ऋतु भी आ गई है और तुम परदेश में ही छा रहे हो! यात्री सब वापस अपने घर आ गए हैं, क्योंकि मार्ग नहीं रह गया है। अब मेरा मन धीरज नहीं धर पा रहा है। जल-प्रवाह में मार्ग भी बह चला और जगत् में जल-भार छा गया है। ऐ दुर्लभ, सावन पुनः आया है और जगत् जल-भार से भर रहा है। इन्द्र-वाहन और भानु सुत ने मिलकर...।
सौंदर्य वर्णन (एक)
करसों करिल संवारेसि बारा। देखेउ मांग बहुत जिय मारा।
मांग सेत चंदन घसि भरी। कै रे पांति मोतिन्ह के धरी।
कै बग पांति जस आहि सुहाई। बादर घन कारे महं आई।
मांग जोति अस भौ उजियारा। निसि अंधियारि टूट जस तारा।
खरग धार जसि मांग सिर आही। लागे दुइ रे टूक होइ चाही।
हम सिर लागि भएउ दस खांडा कर बेगर सिर पाव।
अंब्रित सींचि जिआए तौ हि हौं कहौं सो भाव॥
उसने हाथों से अपने घने बालों को संवार रक्खा था। मैंने उसकी मांग को देखा जो अत्यधिक प्राणघात करने वाली थी। वह मांग श्वेत चंदन घिस कर भरी हुई थी, अथवा उस पर मोतियों की एक पंक्ति रक्खी हुई थी। वह काले-घने बालों में ऐसी प्रतीत हो रही थी मानो घने काले बादलों में सुहावनी बक-पंक्ति हो। उस मांग की ज्योति से ऐसा प्रकाश हो रहा था जैसे अँधेरी रात में कोई तारा टूट पड़ा हो। उसके सिर पर वह मांग खड्ग की धारा जैसी थी, जिसके लगने से कोई भी दो टूक होना चाहे। वह खड्ग मेरे सिर पर लगा, तो मैं दस खंड हो गया। हाथ, सिर, पैर सब अलग-अलग हो गए। तूने अमृत से सींच कर मुझे जिलाया, तभी मैं उसके सौंदर्य का वर्णन कर रहा हूँ।
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