कैलाश गौतम / Kailash Gautam
कैलाश गौतम / परिचय
Kailash Gautam |
काव्य प्रेमियों के मानस को अपनी कलम और वाणी से झकझोरने वाले जादुई कवि का नाम है 'कैलाश गौतम'। जनवादी सोच और ग्राम्य संस्कृति का संवाहक यह कवि दुर्भाग्य से अब हमारे बीच नहीं है। आकाशवाणी इलाहाबाद से सेवानिवृत्त होने के बाद तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने कैलाश गौतम को आजादी के पूर्व स्थापित हिन्दुस्तानी एकेडेमी के अध्यक्ष पद पर मनोनीत किया। एकेडेमी के अध्यक्ष पद पर रहते हुए इस महान कवि का ९ दिसम्बर २००६ को निधन हो गया। कैलाश गौतम को अपने जीवनकाल में पाठकों और श्रोताओं से जो प्रशंसा या खयाति मिली वह दशकों बाद किसी विरले कवि को नसीब होती है। कैलाश गौतम जिस गरिमा के साथ हिन्दी कवि सम्मेलनों का संचालन करते थे उसी गरिमा के साथ कागज पर अपनी कलम को धार देते थे। ८ जनवरी १९४४ को बनारस के डिग्घी गांव (अब चन्दौली) में जन्मे इस कवि ने अपना कर्मक्षेत्र चुना प्रयाग को। इसलिए कैलाश गौतम के स्वभाव में काशी और प्रयाग दोनों के संस्कार रचे-बसे थे। जोड़ा ताल, सिर पर आग, तीन चौथाई आन्हर, कविता लौट पड ी, बिना कान का आदमी (प्रकाशनाधीन) आदि प्रमुख काव्य कृतियां हैं जो कैलाश गौतम को कालजयी बनाती हैं। जै-जै सियाराम, और 'तम्बुओं का शहर' जैसे महत्वपूर्ण उपन्यास अप्रकाशित रह गये। 'परिवार सम्मान', प्रतिष्ठित ऋतुराज सम्मान और मरणोपरान्त तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने कैलाश गौतम को 'यश भारती सम्मान' (राशि ५.०० लाख रुपये) से इस कवि को सम्मानित किया। अमौसा क मेला, कचहरी और गांव गया था गांव से भागा कैलाश गौतम की सर्वाधिक लोकप्रिय रचनाएं हैं।
कैलाश गौतम / कविता / प्रतिनिधि रचनाएँ
Kailash Gautam Kavita Sangrah
यही सोच कर / कैलाश गौतम
यही सोचकर आज नहीं निकला -
गलियारे में
मिलते ही पूछेंगे बादल
तेरे बारे में ।
लहराते थे झील-ताल, पर्वत
हरियाते थे
हम हँसते थे झरना-झरना हम
बतियाते थे
इन्द्रधनुष उतरा करता था
एक इशारे में ।
छूती थी पुरवाई खिड़की, बिजली
छूती थी
झूला छूता था, झूले की कजली -
छूती थी
टीस गई बरसात भरी
पिछले पखवारे में ।
जंगल में मौसम सोने का हिरना
लगता था
कितना अच्छा चाँद का नागा करना-
लगता था
मन चकोर का बसता है
अब भी अंगारे में ।।
हिरना आँखें / कैलाश गौतम
हिरना आँखें झील-झील
गलियारे पिया असाढ़ में,
गलियारे की नीम, निमौली-
मारे पिया असाढ़ में ।।
मेहँदी पहन रही पुरवाई
उतरी नदी पहाड़ों से
देख रहे हैं उड़ते बादल
हम अधखुले किवाड़ों से
आग लगाकर भाग रहे
आवारे पिया असाढ़ में ।।
दूर कहीं बरसा है पानी
सोंधी गंध हवाओं में
सिर धुनती लौटेंगी लहरें
कल से इन्हीं दिशाओं में
रेत की मछली छू जाती
अनियारे पिया असाढ़ में ।।
दिन भर देते हाथ बुलाते
टीले हरे कछारों में
देह हुई है महुवर जैसी
आज मधुर बौछारों में
इंद्रधनुष की छाँह, और
उद्गारे पिया असाढ़ में ।।
सिर पर आग (कविता) / कैलाश गौतम
सिर पर आग
पीठ पर पर्वत
पाँव में जूते काठ के
क्या कहने इस ठाठ के ।।
यह तस्वीर
नई है भाई
आज़ादी के बाद की
जितनी क़ीमत
खेत की कल थी
उतनी क़ीमत
खाद की
सब
धोबी के कुत्ते निकले
घर के हुए न घाट के
क्या कहने इस ठाठ के ।।
बिना रीढ़ के
लोग हैं शामिल
झूठी जै-जैकार में
गूँगों की
फ़रियाद खड़ी है
बहरों के दरबार में
खड़े-खड़े
हम रात काटते
खटमल
मालिक खाट के
क्या कहने इस ठाठ के ।।
मुखिया
महतो और चौधरी
सब मौसमी दलाल हैं
आज
गाँव के यही महाजन
यही आज ख़ुशहाल हैं
रोज़
भात का रोना रोते
टुकड़े साले टाट के
क्या कहने इस ठाठ के ।।
कैसी चली हवा / कैलाश गौतम
बूँद-बूँद सागर जलता है
पर्वत रवा-रवा
पत्ता-पत्ता चिनगी मालिक कैसी चली हवा ?
धुआँ-धुआँ चंदन वन सारा
चिता सरीखी धरती
बस्ती-बस्ती लगती जैसे
जलती हुई सती
बादल वरुण इंद्र को शायद मार गया लकवा ।।
चोरी छिपे ज़िंदगी बिकती
वह भी पुड़िया-पुड़िया
किसने ऐसा पाप किया है
रोटी हो गई चिड़िया
देखें कब जूठा होता है मुर्चा लगा तवा ।।
किसके लिए ध्वजारोहण अब
और सुबह की फेरी
बाबू भइया सब बोते हैं
नागफनी झरबेरी
ऐरे-ग़ैरे नत्थू-खैरे रोज़ दे रहे फतवा ।।
अग्नि परीक्षा एक तरफ़ है
एक तरफ़ है कोप-भवन
कभी अकेले कभी दुकेले
रोज़ हो रहा चीरहरण
फ़रियादी को कच्ची फाँसी कौन करे शिकवा ।।
अमौसा के मेला / कैलाश गौतम
भक्ति के रंग में रंगल गाँव देखा,
धरम में, करम में, सनल गाँव देखा.
अगल में, बगल में सगल गाँव देखा,
अमौसा नहाये चलल गाँव देखा.
एहू हाथे झोरा, ओहू हाथे झोरा,
कान्ही पर बोरा, कपारे पर बोरा.
कमरी में केहू, कथरी में केहू,
रजाई में केहू, दुलाई में केहू.
आजी रँगावत रही गोड़ देखऽ,
हँसत हँउवे बब्बा, तनी जोड़ देखऽ.
घुंघटवे से पूछे पतोहिया कि, अईया,
गठरिया में अब का रखाई बतईहा.
एहर हउवे लुग्गा, ओहर हउवे पूड़ी,
रामायण का लग्गे ह मँड़ुआ के डूंढ़ी.
चाउर आ चिउरा किनारे के ओरी,
नयका चपलवा अचारे का ओरी.
अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.
(इस गठरी और इस व्यवस्था के साथ गाँव का आदमी जब गाँव के बाहर रेलवे स्टेशन पर आता है तब क्या स्थिति होती है ?)
मचल हउवे हल्ला, चढ़ावऽ उतारऽ,
खचाखच भरल रेलगाड़ी निहारऽ.
एहर गुर्री-गुर्रा, ओहर लुर्री-लुर्रा,
आ बीचे में हउव शराफत से बोलऽ
चपायल ह केहु, दबायल ह केहू,
घंटन से उपर टँगायल ह केहू.
केहू हक्का-बक्का, केहू लाल-पियर,
केहू फनफनात हउवे जीरा के नियर.
बप्पा रे बप्पा, आ दईया रे दईया,
तनी हम्मे आगे बढ़े देतऽ भईया.
मगर केहू दर से टसकले ना टसके,
टसकले ना टसके, मसकले ना मसके,
छिड़ल ह हिताई-मिताई के चरचा,
पढ़ाई-लिखाई-कमाई के चरचा.
दरोगा के बदली करावत हौ केहू,
लग्गी से पानी पियावत हौ केहू.
अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.
(इसी भीड़ में गाँव का एक नया जोड़ा, साल भर के अन्दरे के मामला है, वो भी आया हुआ है. उसकी गती से उसकी अवस्था की जानकारी हो जाती है बाकी आप आगे देखिये…)
गुलब्बन के दुलहिन चलै धीरे धीरे
भरल नाव जइसे नदी तीरे तीरे.
सजल देहि जइसे हो गवने के डोली,
हँसी हौ बताशा शहद हउवे बोली.
देखैली ठोकर बचावेली धक्का,
मने मन छोहारा, मने मन मुनक्का.
फुटेहरा नियरा मुस्किया मुस्किया के
निहारे ली मेला चिहा के चिहा के.
सबै देवी देवता मनावत चलेली,
नरियर प नरियर चढ़ावत चलेली.
किनारे से देखैं, इशारे से बोलैं
कहीं गाँठ जोड़ें कहीं गाँठ खोलैं.
बड़े मन से मन्दिर में दर्शन करेली
आ दुधै से शिवजी के अरघा भरेली.
चढ़ावें चढ़ावा आ कोठर शिवाला
छूवल चाहें पिण्डी लटक नाहीं जाला.
अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.
(इसी भीड़ में गाँव की दो लड़कियां, शादी वादी हो जाती है, बाल बच्चेदार हो जाती हैं, लगभग दस बारह बरसों के बाद मिलती हैं. वो आपस में क्या बतियाती हैं …)
एही में चम्पा-चमेली भेंटइली.
बचपन के दुनो सहेली भेंटइली.
ई आपन सुनावें, ऊ आपन सुनावें,
दुनो आपन गहना-गजेला गिनावें.
असो का बनवलू, असो का गढ़वलू
तू जीजा क फोटो ना अबतक पठवलू.
ना ई उन्हें रोकैं ना ऊ इन्हैं टोकैं,
दुनो अपना दुलहा के तारीफ झोंकैं.
हमैं अपना सासु के पुतरी तूं जानऽ
हमैं ससुरजी के पगड़ी तूं जानऽ.
शहरियो में पक्की देहतियो में पक्की
चलत हउवे टेम्पू, चलत हउवे चक्की.
मने मन जरै आ गड़ै लगली दुन्नो
भया तू तू मैं मैं, लड़ै लगली दुन्नो.
साधु छुड़ावैं सिपाही छुड़ावैं
हलवाई जइसे कड़ाही छुड़ावै.
अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.
(कभी-कभी बड़ी-बड़ी दुर्घटनायें हो जाती हैं. दो तीन घटनाओं में मैं खुद शामिल रहा, चाहे वो हरिद्वार का कुंभ हो, चाहे वो नासिक का कुंभ रहा हो. सन ५४ के कुंभ में इलाहाबाद में ही कई हजार लोग मरे. मैंने कई छोटी-छोटी घटनाओं को पकड़ा. जहाँ जिन्दगी है, मौत नहीं है. हँसी है दुख नहीं है….)
करौता के माई के झोरा हेराइल
बुद्धू के बड़का कटोरा हेराइल.
टिकुलिया के माई टिकुलिया के जोहै
बिजुरिया के माई बिजुरिया के जोहै.
मचल हउवै हल्ला त सगरो ढुढ़ाई
चबैला के बाबू चबैला के माई.
गुलबिया सभत्तर निहारत चलेले
मुरहुआ मुरहुआ पुकारत चलेले.
छोटकी बिटउआ के मारत चलेले
बिटिइउवे प गुस्सा उतारत चलेले.
गोबरधन के सरहज किनारे भेंटइली.
(बड़े मीठे रिश्ते मिलते हैं.)
गोबरधन के सरहज किनारे भेंटइली.
गोबरधन का संगे पँउड़ के नहइली.
घरे चलतऽ पाहुन दही गुड़ खिआइब.
भतीजा भयल हौ भतीजा देखाइब.
उहैं फेंक गठरी, परइले गोबरधन,
ना फिर फिर देखइले धरइले गोबरधन.
अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.
(अन्तिम पंक्तियाँ हैं. परिवार का मुखिया पूरे परिवार को कइसे लेकर के आता है यह दर्द वही जानता है. जाड़े के दिन होते हैं. आलू बेच कर आया है कि गुड़ बेच कर आया है. धान बेच कर आया है, कि कर्ज लेकर आया है. मेला से वापस आया है. सब लोग नहा कर के अपनी जरुरत की चीजें खरीद कर चलते चले आ रहे हैं. साथ रहते हुये भी मुखिया अकेला दिखाई दे रहा है….)
केहू शाल, स्वेटर, दुशाला मोलावे
केहू बस अटैची के ताला मोलावे
केहू चायदानी पियाला मोलावे
सुखौरा के केहू मसाला मोलावे.
नुमाइश में जा के बदल गइली भउजी
भईया से आगे निकल गइली भउजी
आयल हिंडोला मचल गइली भउजी
देखते डरामा उछल गइली भउजी.
भईया बेचारु जोड़त हउवें खरचा,
भुलइले ना भूले पकौड़ी के मरीचा.
बिहाने कचहरी कचहरी के चिंता
बहिनिया के गौना मशहरी के चिंता.
फटल हउवे कुरता टूटल हउवे जूता
खलीका में खाली किराया के बूता
तबो पीछे पीछे चलल जात हउवें
कटोरी में सुरती मलत जात हउवें.
अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.
कहीं चलो ना, जी ! / कैलाश गौतम
आज का मौसम कितना प्यारा
कहीं चलो ना, जी !
बलिया बक्सर पटना आरा
कहीं चलो ना, जी !
हम भी ऊब गए हैं इन
ऊँची दीवारों से,
कटकर जीना पड़ता है
मौलिक अधिकारों से ।
मानो भी प्रस्ताव हमारा
कहीं चलो ना, जी !
बोल रहा है मोर अकेला
आज सबेरे से,
वन में लगा हुआ है मेला
आज सबेरे से ।
मेरा भी मन पारा -पारा
कहीं चलो ना, जी !
झील ताल अमराई पर्वत
कबसे टेर रहे,
संकट में है धूप का टुकड़ा
बादल घेर रहे ।
कितना कोई करे किनारा
कहीं चलो ना, जी !
सुनती नहीं हवा भी कैसी
आग लगाती है,
भूख जगाती है यह सोई
प्यास जगाती है ।
सूख न जाए रस की धारा
कहीं चलो ना, जी !
जाने किसके नाम / कैलाश गौतम
जाने किसके नाम
हवा बिछाती पीले पत्ते
रोज सुबह से शाम।
टेसू के फूलों में कोई मौसम फूट रहा
टीले पर रुमाल नाव में रीबन छूट रहा
बंद गली के सिर आया है
एक और इल्जाम।
क्या कहने हैं पढ़ने लायक सरसों के तेवर
भाभी खातिर कच्ची अमियाँ बीछ रहे देवर
नये -नये अध्याय खोलते
नए नए आयाम।
टूट रही है देह सुबह से उलझ रही आँखे
फिर बैठी मुंडेर पर मैना फुला रही पाँखे
मेरे आंगन महुआ फूला
मेरी नींद हराम।
दूर होने दो अँधेरा / कैलाश गौतम
दूर
होने दो अँधेरा
अब घरों से
दूर होने दो ।
और ताज़ा कर सके
माहौल को जो
साज़ ऐसा दो
बाँध ले
गिरते समय के मूल्य को
अंदाज़ ऐसा दो
आग बोओ
और काटो
रोशनी भरपूर होने दो ।।
हम सँवारेंगे
हरे पन्ने
गुलाबी धूप के अक्षर
दूर तक
गूँजे दिशाओं में
पसीने के उभरते स्वर
कल खिलेगा
और तोड़ो पर्वतों को
चूर होने दो ।।
यह कैसी अनहोनी मालिक / कैलाश गौतम
यह कैसी अनहोनी मालिक
यह कैसा संयोग |
कैसी -कैसी कुर्सी पर हैं
कैसे -कैसे लोग |
जिनको आगे होना था
वो पीछे छूट गये
जितने पानीदार थे शीशे
तड़ से टूट गये
प्रेमचन्द से मुक्तिबोध से
कहो निराला से
कलम बेचने वाले अब हैं
करते छप्पन भोग |
हँस -हँस कालिख बोने वाले
चांदी काट रहे
हल की मूठ पकड़ने वाले
जूठन चाट रहे
जाने वाले जाते -जाते
सब कुछ झाड़ गये
भुतहे घर में छोड़ गये हैं
सौ -सौ छुतहे रोग |
धोने वाले हाथ धो रहे
बहती गंगा में
अपने मन का सौदा करते
कर्फ्यू दंगा में
मिनटों में मैदान बनाते हैं
आबादी को
लाठी ,आँसू गैस पुलिस का
करते जहाँ प्रयोग |
ममता से करुणा से / कैलाश गौतम
ममता से, करुणा से, नेह से दुलार से
घाव जहाँ भी देखो, सहलाओ प्यार से ।
नारों से भरो नहीं
भरो नहीं वादों से
अंतराल भरो सदा
गीतों-संवादों से
हो जाएँगे पठार शर्तिया कछार से ।
भटके ना राहगीर
कोई अँधियारे में
दीये की तरह जलो
घर के गलियारे में
लड़ो आर-पार की लड़ाई अंधकार से ।
हाथ बनो, पैर बनो
राह बनो जंगल में
लहरों में नाव बनो
सेतु बनो दलदल में
प्यासों की प्यास हरो पानी की धार से ।
वसंती दोहे / कैलाश गौतम
गोरी धूप कछार की हम सरसों के फूल ।
जब-जब होंगे सामने तब-तब होगी भूल ।।
लगे फूँकने आम के बौर गुलाबी शंख ।
कैसे रहें क़िताब में हम मयूर के पंख ।।
दीपक वाली देहरी तारों वाली शाम ।
आओ लिख दूँ चँद्रमा आज तुम्हारे नाम ।।
हँसी चिकोटी गुदगुदी चितवन छुवन लगाव ।
सीधे-सादे प्यार के ये हैं मधुर पड़ाव ।।
कानों में जैसे पड़े मौसम के दो बोल ।
मन में कोई चोर था, भागा कुंडी खोल ।।
रोली-अक्षत छू गए खिले गीत के फूल ।
खुल करके बातें हुई मौसम के अनुकूल ।।
पुल बोए थे शौक से, उग आई दीवार ।
कैसी ये जलवायु है, हे मेरे करतार ।।
कैसे कैसे लोग / कैलाश गौतम
यह कैसी अनहोनी मालिक यह कैसा संयोग
कैसी-कैसी कुर्सी पर हैं कैसे-कैसे लोग ?
जिनको आगे होना था
वे पीछे छूट गए
जितने पानीदार थे शीशे
तड़ से टूट गए
प्रेमचंद से मुक्तिबोध से कहो निराला से
क़लम बेचने वाले अब हैं करते छप्पन भोग ।।
हँस-हँस कालिख बोने वाले
चाँदी काट रहे
हल की मूँठ पकड़ने वाले
जूठन चाट रहे
जाने वाले जाते-जाते सब कुछ झाड़ गए
भुतहे घर में छोड़ गए हैं सौ-सौ छुतहे रोग ।।
धोने वाले हाथ धो रहे
बहती गंगा में
अपने मन का सौदा करते
कर्फ्यू-दंगा में
मिनटों में मैदान बनाते हैं आबादी को
लाठी आँसू गैस पुलिस का करते जहाँ प्रयोग ।।
कैलाश गौतम की ग़ज़लें / Kailash Gautam Ghazals
कैसे कैसे तलवे / कैलाश गौतम
कैसे कैसे तलवे अब सहलाने पड़ते हैं
कदम कदम पर सौ सौ बाप बनाने पड़ते हैं
क्या कहने हैं दिन बहुरे हैं जब से घूरों के
घूरे भी अब सिर माथे बैठाने पड़ते हैं
शायद उसको पता नहीं वो गाँव की औरत है
इस रस्ते में आगे चलकर थाने पड़ते हैं
काम नहीं होता है केवल अर्जी देने से
कुर्सी कुर्सी पान फूल पहुँचाने पड़ते हैं
इस बस्ती में जीने के दस्तूर निराले हैं
हर हालत में वे दस्तूर निभाने पड़ते हैं
हँस हँस करके सारा गुस्सा पीना पड़ता है
रो रोकर लोहे के चने चबाने पड़ते हैं
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