घाग (या-घाघ) की हयय्यत सौती-ओ-तहरीरी इसको किसी ता'रीफ़ का मोहताज नहीं रखतीं अल्फ़ाज़ के शक्ल और आवाज़ से कितने और कैसे-कैसे मा'ना अख़्ज़ किए गए हैं। लिसानियात की पूरी तारीख़ इसपर गवाह है। कभी-कभी तलफ़्फ़ुज़ से बोलने वाले की नस्ल और क़बीले का पता लगा लेते हैं। घाग की ता'रीफ़ मंतिक़ या फ़लसफ़ा से नहीं तजुर्बे से की जाती है। ऐसा तजुर्बा जिसे अ'क़्ल-मंद समझ लेता है। बेवक़ूफ़ बरतना चाहता है।
घागियात का एक उसूल यह है कि क़ज़िय्ये में फ़रीक़ से बेहतर क़ाज़ी बनना है। झगड़े में फ़रीक़ होना ख़ामी की दलील है। हुक्म बनना अ'क़्लमंदों का शुआ'र है। अगर हर ईजाद के लिए एक माँ की ज़रूरत है तो हर ज़रूरत के लिए एक घाग लाज़िम आता है। घाग मौजूद न होता तो दुनिया से ज़रूरत का उंसुर मफ़क़ूद हो जाता और “तलब महज़ है सारा आलम” का फ़लसफ़ा इंसिदाद तौहीन-ए-मज़ाहिब के क़ानून की मानिंद नाक़िस होकर रह जाता।घाग का कमाल ये है कि वो घाग न समझा जाये। अगर कोई शख़्स घाग होने का इज़हार करे या बक़ौल शख़्से “मार खा जाए” तो वो घाग नहीं घागस है और ये घाग की अदना क़िस्म है। इनमें इम्तियाज़ करना दुशवार भी है आसान भी है। जैसे किसी रोशन ख़्याल बीवी के जज़्बा-ए-शौहर परस्ती या किसी मौलवी के जज़्बा-ए-ख़ुदातर्सी का सही अंदाज़ा लगाना।
घाग की एक मुनफ़रिद शख़्सियत होती है, वह न कोई ज़ात है न क़बीला, वह सिर्फ़ पैदा हो जाता है लेकिन उसकी नस्ल नहीं चलती, रिवायत क़ायम रहती है। हर तब्क़ा और जमात में कोई न कोई घाग मौजूद होता है। मुआ'शरा, मज़हब, हुकूमत, ग़रज़ वह तमाम इदारे जिनसे इंसान अपने आपको बनाता बिगाड़ता या डरता-डराता रहता है किसी न किसी घाग की दस्तबुर्द में होता है। वह जज़्बात से ख़ाली होता है और अपने मक़सद के हुसूल में न जाहिल को जाहिल समझता है न आ'लिम को आ'लिम। दानिशमंद के सामने वह अपने को अहमक़ और अहमक़ के सामने अहमक़-तर ज़ाहिर करेगा जब तक वह अपने मक़ासिद में कामयाब हो सकता है, उसको ये परवा नहीं होती कि दुनिया उसको क्या कहेगी। वो कामयाबी ही को मक़सद जानता है, वसीले को अहमियत नहीं देता।
घाग का सोसाइटी के जिस तबक़े से तअ'ल्लुक़ होता है उसी ए'तबार से उसकी घागीयत का दर्जा मुतअ'य्यन होता है, निचले तब्क़े का मुतवस्सित तब्क़े और मुतवस्सित तब्क़े का आ'ला तब्क़े के घाग पर फ़ौक़ियत रखता है इसलिए कि मुअख़्ख़िर-उज़-ज़िक्र को अव्वल-उल-ज़िक्र से कहीं ज़्यादा सहूलतें मयस्सर होती हैं। यहाँ तक कि वो घाग न भी हों जब भी अपनी दौलत और असर से काम निकाल सकते हैं। उनसे कम दर्जा वाले को अपनी घागियत के सिवा कुछ और मयस्सर नहीं होता। मसलन घाग होने के ए'तबार से एक पटवारी का दर्जा किसी सफ़ीर से कम नहीं। बशर्तेकि सफ़ीर ख़ुद कभी पटवारी न रह चुका हो।
सियासी घाग को क़ौम और हुकूमत के दरमियान वही हैसियत हासिल होती है जो क़िमारख़ाने के मैनेजर को क़िमारबाज़ों में होती है। या'नी हार-जीत किसी की नफ़ा उसका! वह सदारत की कुर्सी पर सबसे ज़्यादा हार पहनकर तालियों और नारों की गूंज में बैठता है और तहरीर-ओ-तक़रीर में प्रेस और हुकूमत के नुमाइंदों को पेश-ए-नज़र रखता है। कहीं गोली चलने वाली हो या दार-ओ-रस्न का सामना हो तो वह अपने ड्राइंग रूम या कोहस्तानी क़यामगाह को बेहतर-ओ-महफ़ूज़तर जगह समझता है। उसके नज़दीक क़ौम की हैसियत नआ'श की है। उसपर मज़ार ता'मीर करके नज़राने और चढ़ावे वसूल किए जा सकते हैं। लेकिन पेश क़दमी की ज़रूरत हो तो उनसे पाट कर रास्ते हमवार किए जा सकते हैं। अपने अग़राज़ के पेश-ए-नज़र वह नौहा-ए-ग़म और नग़मा-ए-शादी में कोई फ़र्क़ नहीं करता। वह हुकूमत से खु़फ़ीया तौर पर और हुकूमत उससे ए'लानिया डरती है।
घाग सिर्फ़ अपना दोस्त होता है। किसी और की दोस्ती पर ए'तबार नहीं रखता। मौक़ा से फ़ायदा उठाता है मौक़ा को अपने से फ़ायदा नहीं उठाने देता। कभी-कभी वह अपने को ख़तरे में भी डाल देता है लेकिन उसी वक़्त जब उसे यक़ीन होता है कि ख़तरे से उसको नहीं बल्कि उससे ख़तरे को नुक़्सान पहुंचेगा। वह इंतिहापसंद नहीं होता, सिर्फ़ इंतहापसंदों से फ़ायदा उठाता है। उसकी मिसाल एक ऐसी अ'दालती मिस्ल से दी जा सकती है जिसकी रौ से मुतज़ाद फ़ैसले आसानी से दिए जा सकते हैं और वह फ़ैसले आसानी से बहाल भी रखे जा सकते हैं और तोड़े भी जा सकते हैं।
सियासी घाग फ़ैक्ट्री के बड़े पहिए की मानिंद होता है, ब-ज़ाहिर ये मा'लूम होगा कि सिर्फ़ एक बड़ा पहिया गर्दिश कर रहा है लेकिन उस एक पहिए के दम से मा'लूम नहीं कितने और कुल-पुर्जे़ गर्दिश करते होते हैं। कहीं भारी मशीन तैयार होती है कहीं नाज़ुक हल्के हल्के तरह तरह के आलात। कहीं ज़हर, कहीं तिरयाक, कहीं बरहना रखने के लिए कपड़े तैयार होते होंगे कहीं भूका रखने के लिए ख़िरमन जमा किया जा रहा होगा। कहीं हिफ़ाज़त का काम दरपेश होगा कहीं हलाकत के सामान फ़राहम किए जा रहे होंगे। घाग बोलने के मौक़ा पर सोचता है और छींकने को सिर्फ़ एक जमाई पर ख़त्म कर देता है, वह ज़ब्ता-ए-फ़ौजदारी और किताब-ए-इलाही दोनों की ताक़त और कमज़ोरी से वाक़िफ़ होता है। आराम कमरे में बैठ कर जेलख़ाने पर अ'ज़ाब झेलने वालों से हमदर्दी करेगा। कभी-कभी वह मल्कूल मौत की ज़द में न हो।
वह हुकूमत के ख़िताबात नहीं क़ुबूल करता लेकिन ख़िताब याफ़्तों को अपने असर में रखता है। कौंसिल और कमेटी में नहीं बोलता लेकिन कौंसिल और कमेटी में बोलने वाले उसकी ज़बान से बोलते हैं। वह कभी बीमार नहीं पड़ता लेकिन बीमारी उसी तरह मनाता है जिस तरह दूसरे ता'तील मनाते हैं, उसका बीमार होना दर हक़ीक़त अपनी सेहत मनाना होता है। वह हर तरह के जुर्म का मुर्तक़िब होता है लेकिन मा-ख़ुद किसी में नहीं होता।जराइमपेशा होता है सज़ा याफ़्ता नहीं होता।
मज़हबी घाग को मज़हब से वही निस्बत है जो बा'ज़ नौजवानों को अपने वालदैन से होती है। वह वालदैन को अपना कमज़ोर और मज़बूत दोनों पहलू समझता है। एक तरफ़ तो वो उनको हुक्काम के आस्तानों पर हाज़िर होकर मुरादें मांगने का वसीला समझता है दूसरी तरफ़ अगर वह ख़ुद ता'लीम याफ़्ता रोशन ख़याल और इसी तरह की बीवी का शौहर है और वालदैन ज़ी हैसियत नहीं हैं तो उनको हुक्काम-ए-आ'ली मक़ाम के चपरासी से भी छुपाने की कोशिश करेगा। ज़रूरत पड़ जाएगा तो मज़हब का वास्ता दिलाकर दूसरों को हिंदोस्तान से हिज्रत पर आमादा करेगा किसी और मौक़े पर मज़हब ही की आड़ पकड़ कर दार-उल-हरब में सूद लेने लगा। वह तारक-ए- हवालात रहेगा। तारक-ए-लज़्ज़त न होगा।
एक शख़्स का किरदार यूँ बयान किया गया। पेश मुल्ला क़ाज़ी पेश क़ाज़ी मुल्ला। पेश हीच हर दो व पेश हर दो हीच। या'नी वह मुल्ला के सामने क़ाज़ी बना रहता है और क़ाज़ी के सामने मुल्ला। दोनों में से किसी का सामना न हो तो दोनों हैसियतें इख़्तियार कर लेता है या और दोनों मौजूद हूँ तो कहीं का नहीं रहता। ये मक़ूला घागस पर सादिक़ आता है। घाग ऐसा मौक़ा ही नहीं आने देता कि वह कहीं का न रहे घाग की ये मुस्तनद है।
दफ़अ'तन हाजी बलग़-उल-अली वारिद हुए और आते ही बे-रब्त सवालात और दूसरे इज़्तिरारी या इख़्तियारी मश्ग़ाल से एक दम धूम मचा दी। कमरे में दाख़िल होने से पहले दौर ही से सलाम अलैकुम। कम्बल बर्दोश रेश बदामाँ, पूछने लगे, नज़र क्यों नहीं आते, सिगरेट लाओ। पानी मँगाओ, आख़िर देर क्या है , खाना खा चुके हो , कुछ मा'लूम हुआ, कमीशन वाले आज टेनिस खेलेंगे या डॉक्टर ज़ियाउद्दीन साहब का बयान लेंगे। अच्छा कोई गाना सुनाओ। “आमद-ए-शहज़ादा है गुलशन है सारा लखनऊ!” एक कुर्सी पर जा बैठे ठीक तौर से जगह नहीं पकड़ी थी कि खड़े होकर दीवार पर आवेज़ाँ तस्वीर देखने लगे लेकिन जैसे तस्वीर देखना नहीं वक़्त गुज़ारना नामदाद-ए- नज़र हो। वहीं से बात जस्त की तो चारपाई पर दराज़ और कम्बल में मलफ़ूफ़ चंद लम्हे के बाद उठ बैठे जैसे कोई भूली बात याद आ गई हो। फिर यूँ लेट गए जैसे उस चीज़ को उसके साथ सारी काइनात को सब्र कर बैठे हों। पानी आया, फ़रमाया नहीं दियासलाई लाओ। वह आई तो जलाने के बजाए उससे ख़िलाल करने लगे। कुछ किताबें उलटीं। अख़बार के औराक़ ज़ेर-ओ-ज़बर कर डाले, फ़रमाया ये सब तो हुआ बताओ, फ़लाँ साहब मकान पर मिलेंगे। और हाँ तुम कुछ लिख रहे थे, अ'र्ज़ किया “घाग” फ़रमाया शैतनत से बाज़ न आओगे। अब देखता हूँ तो हाजी साहब सहन के दरवाज़े से ग़ायब होते नज़र आए।
जैसा कि बयान किया जा सकता है, हर जमात में घाग होते हैं। यहाँ तक कि फ़रिश्तों में जब “मुसलसल-ओ-मुदाम” इबादत होने लगी तो मस्लेहत-ए-इलाही ने आदम को पैदा किया। फ़रिश्तों का ये कहना कि ये सफ़ा-ए-हस्ती पर फ़साद पर फैलाएंगे घाग की आमद का पेशख़ेमा था। जिस तौर पर कट्टर मुल्हिद और दहरिए कभी कभी कट्टर मुवह्हिद और मुत्तक़ी हो जाते हैं, उसी तौर पर फ़रिश्तों के मासूम तब्क़े में इब्लीस (घाग) पैदा हुआ। गंदुम चशी पर आदम-ओ-हव्वा से बाज़पुर्स की गई। घागस थे घिघ्घी बंध गई। अपनी ख़ता का इस तरह ए'तिराफ़ किया जैसे उसपर उनको क़ुदरत हासिल थी। घाग से जवाब तलब किया गया तो उसने जवाब दिया,
“मुझे आख़िर किसने गुमराह किया”, ये सवाल इर्तिकाब-ए-जुर्म से ज़्यादा संगीन था। घाग और घागस दोनों जिला-वतन किए गए और इस जहान में फेंक दिए गए जहाँ नबर्द आज़माई के हर एक को मसावी मवाक़े मिले जिसकी तरफ़ इक़बाल ने इशारा किया है,
मज़ी अन्दर जहान कौर ज़ौक़े
कि यज़्दान-दारद व शैतान नदारद।।
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