मंज़र: एक तंग-व-तारीक कमरा जिस में बजुज़ एक पुरानी सी मेज़ और लर्ज़ा बर-अनदाम कुर्सी के और कोई फ़र्निचर नहीं। ज़मीन पर एक तरफ़ चटाई बिछी है जिस पर बे-शुमार किताबों का अंबार लगा है। इस अंबार में से जहां तक किताबों की पुश्तें नज़र आती हैं वहां शेक्सपियर, टॉलस्टॉय, वर्ड्सवर्थ वग़ैरा मशाहीर-ए-अदब के नाम दिखाई दे जाते हैं। बाहर कहीं पास ही कुत्ते भौंक रहे हैं। क़रीब ही एक बरात उतरी हुई है। उसके बैंड की आवाज़ भी सुनाई दे रही है जिसके बजाने वाले दिक़, दमा, खांसी और इसी क़िस्म के दीगर अमराज़ में मुब्तला मा’लूम होते हैं। ढोल बजाने वाले की सेहत अलबत्ता अच्छी है।
पतरस नामी एक नादार मुअ’ल्लिम मेज़ पर काम कर रहा है। नौजवान है लेकिन चेहरे पर गुज़श्ता तंदरुस्ती और ख़ुश-बाशी के आसार सिर्फ़ कहीं कहीं बाक़ी हैं। आँखों के गिर्द स्याह हलक़े पड़े हुए हैं। चेहरे से ज़हानत पसीना बन कर टपक रही है।
सामने लटकी हुई एक जंत्री से मालूम होता है कि महीने की आख़िरी तारीख़ है।
बाहर से कोई दरवाज़ा खटखटाता है। पतरस उठकर दरवाज़ा खोल देता है। तीन तालिब-ए-इ’ल्म निहायत आ’ला लिबास ज़ेब-ए-तन किये अंदर दाख़िल होते हैं।
पतरस: हज़रात अन्दर तशरीफ़ ले आइये। आप देखते हैं कि मेरे पास सिर्फ़ एक कुर्सी है। लेकिन जाह-व-हशमत का ख़्याल बहुत पोच ख़्याल है। इ’ल्म बड़ी ने’मत है। लिहाज़ा ऐ मेरे फ़र्ज़ंदो! इस अंबार से चंद ज़ख़ीम किताबें इंतिख़ाब कर लो और उनको एक दूसरे के ऊपर चुन कर उन पर बैठ जाओ। इ’ल्म ही तुम लोगों का ओढ़ना और इ’ल्म ही तुम लोगों का बिछौना होना चाहिए।
(कमरे में एक पुर असरार नूर सा छा जाता है। फ़रिश्तों के परों की फड़फड़ाहट सुनाई देती है।)
तालिब-ए-इ’ल्म: (तीनों मिल कर) ऐ ख़ुदा के बर्गुज़ीदा बंदे! ऐ हमारे मुहतरम उस्ताद हम तुम्हारा हुक्म मानने को तैयार हैं। इ’ल्म ही हम लोगों का ओढ़ना और इ’ल्म ही हम लोगों का बिछौना होना चाहिए।
(किताबों को जोड़ कर उन पर बैठ जाते हैं)
पतरस: कहो ऐ हिंदुस्तान के सपूतो! आज तुम को कौन से इ’ल्म की तिश्नगी मेरे दरवाज़े तक कशां-कशां ले आयी?
पहला तालिब-ए-इल्म: ऐ नेक इंसान! हम आज तेरे एहसानों का बदला उतारने आये हैं।
दूसरा तालिब-ए-इ’ल्म: ऐ फ़रिश्ते! हम तेरी नवाज़िशों का हदिया पेश करने आये हैं।
तीसरा तालिब-ए-इल्म: ए मेहरबान! हम तेरी मेहनतों का फल तेरे पास लाये हैं।
पतरस: ये न कहो! ये न कहो! ख़ुद मेरी मेहनत ही मेरी मेहनत का फल है। कॉलेज के मुक़र्ररा औक़ात के अ’लावा जो कुछ मैंने तुम को पढ़ाया उसका मुआ’वज़ा मुझे उसी वक़्त वसूल हो गया जब मैंने तुम्हारी आँखों में ज़कावत चमकती देखी। आह तुम क्या जानते हो कि ता’लीम-व-तद्रीस कैसा आसमानी पेशा है ताहम तुम्हारे अल्फ़ाज़ से मेरे दिल में एक अ’जीब मसर्रत सी भर गई है। मुझ पर ए’तमाद करो और बिल्कुल मत घबराओ। जो कुछ कहना है तफ़सील से कहो।
पहला तालिब-ए-इ’ल्म: (सर्व-क़द और दस्त बस्ता खड़ा हो कर) ऐ मोहतरम उस्ताद! हम इ’ल्म की बे-बहा दौलत से महरूम थे। दर्स के मुक़र्ररा औक़ात से हमारी प्यास न बुझ सकती थी। पुलिस और सिविल सर्विस के इम्तिहानात की आज़माइश कड़ी है। तू ने हमारी दस्तगीरी की और हमारे तारीक दिमाग़ों में उजाला हो गया। मुक़तदिर मुअ’ल्लिम! तू जानता है, आज महीने की आख़िरी तारीख़ है। हम तेरी ख़िदमतों का हक़ीर मुआ’वज़ा पेश करने आये हैं। तेरे आ’लिमाना तबह्हुर और तेरी बुजु़र्गाना शफ़क़त की क़ीमत कोई अदा नहीं कर सकता। ताहम इज़हार-ए-तशक्कुर के तौर पर जो कम-माया रक़म हम तेरी ख़िदमत में पेश करें उसे क़बूल कर कि हमारी एहसान-मंदी इससे कहीं बढ़ कर है।
पतरस: तुम्हारे अल्फ़ाज़ से एक अजीब बे-क़रारी मेरे जिस्म पर तारी हो गई है।
(पहले तालिब-ए-इ’ल्म का इशारा पा कर बाक़ी दो तालिब-ए-इ’ल्म भी खड़े हो जाते हैं। बाहर बैंड यक-लख़्त ज़ोर ज़ोर से बजने लगता है।)
पहला तालिब-ए-इ’ल्म (आगे बढ़ कर): ऐ हमारे मेहरबान! मुझ हक़ीर की नज़्र क़बूल कर। (बड़े अदब-व-एहतराम के साथ अठन्नी पेश करता है।)
दूसरा तालिब-ए-इल्म (आगे बढ़ कर): ऐ फ़रिश्ते! मेरे हदिये को शरफ़-ए-क़बूलियत बख़्श। (अठन्नी पेश करता है।)
तीसरा तालिब-ए-इ’ल्म (आगे बढ़ कर): ऐ नेक इंसान मुझ नाचीज़ इंसान को मुफ़्तख़िर फ़रमा। (अठन्नी पेश करता है।)
पतरस (जज़्बात से बेक़ाबू हो कर रिक़्क़त अंगेज़ आवाज़ से): “ऐ मेरे फ़र्ज़ंदो, ख़ुदावंद की रहमत तुम पर हो। तुम्हारी सआ’दत मंदी और फ़र्ज़-शनासी से मैं बहुत मुतास्सिर हुआ हूँ। तुम्हें इस दुनिया में आराम और आख़िरत में नजात नसीब हो और ख़ुदा तुम्हारे सीनों को इ’ल्म के नूर से मुनव्वर रखे। (तीनों अठन्नियां उठा कर मेज़ पर रख लेता है।)
तालिब-ए-इ’ल्म (तीनों मिल कर): अल्लाह के बर्गज़ीदा बंदे! हम फ़र्ज़ से सुबुक-दोश हो गये। अब हम इजाज़त चाहते हैं कि घर पर हमारे वालदैन हमारे लिए बे-ताब होंगे।
पतरस: ख़ुदा तुम्हारा हामी-व-नासिर हो और तुम्हारी इ’ल्म की प्यास और भी बढ़ती रहे।
(तालिब-ए-इ’ल्म चले जाते हैं)
पतरस (तन्हाई में सर-ब-सजूद हो कर): बारी ताला! तेरा लाख-लाख शुक्र है कि तूने मुझे अपनी ना चीज़ मेहनत के समर के लिए बहुत दिनों इंतिज़ार में न रखा। तेरे रहमत की कोई इंतिहा नहीं लेकिन हमारी कम-माईगी इससे भी कहीं बढ़ कर है। ये तेरा ही फ़ज़ल-व-करम है कि तू मेरे वसीले से औरों को भी रिज़्क पहुंचाता है और जो मुलाज़िम मेरी ख़िदमत करता है उसका भी कफ़ील तूने मुझ ही को बना रखा है। तेरी रहमत की कोई इंतिहा नहीं और तेरी बख़्शिश हमेशा-हमेशा जारी रहने वाली है।
(कमरे में फिर एक पुर-असरार सी रोशनी छा जाती है और फ़रिश्तों के परों की फड़फड़ाहट सुनाई देती है कुछ देर के बाद पतरस सजदे से सर उठाता है और मुलाज़िम को आवाज़ देता है।)
पतरस: ऐ ख़ुदा के दयानतदार और मेहनती बंदे! ज़रा यहां तो आइयो।
मुलाज़िम (बाहर से): ऐ मेरे ख़ुश ख़िसाल आक़ा! मैं खाना पका कर आऊँगा कि ताजील शैतान का काम है।
(एक तवील वक़्फ़ा जिस के दौरान दरख़्तों के साये पहले से दुगुने लंबे हो गये हैं।)
पतरस: आह इंतिज़ार की घड़ियां किस क़दर शीरीं हैं। कुत्तों के भौंकने की आवाज़ किस ख़ुश-उसलूबी से बैंड की आवाज़ के साथ मिल रही है।
(सर-ब-सजूद गिर पड़ता है।)
(फिर उठ कर मेज़ के सामने बैठ जाता है । अठन्नियों पर नज़र पड़ती है। उन को फ़ौरन एक किताब के नीचे छुपा देता है।)
पतरस: आह! मुझे ज़र-व-दौलत से नफ़रत है। ख़ुदाया मेरे दिल को दुनिया की लालच से पाक रखियो!
(मुलाज़िम अंदर आता है।)
पतरस: ऐ मज़दूर पेशा इंसान मुझे तुझ पर रहम आता है कि ज़िया इ’ल्म की एक किरन भी कभी तेरे सीने में दाख़िल न हुई। ताहम ख़ुदा-वंद-ए-ताला के दरबार में तुम हम सब बराबर हैं। तू जानता है आज महीने की आख़िरी तारीख़ है। तेरी तनख़्वाह की अदायगी का वक़्त सर पर आ गया। ख़ुश हो कि आज तुझे अपनी मशक़्क़त का मुआ’वज़ा मिल जाएगा। ये तीन अठन्नियां क़बूल कर और बाक़ी के साढे़ अठारह रुपये के लिए किसी लतीफ़ा-ए-ग़ैबी का इंतिज़ार कर। दुनिया उम्मीद पर क़ायम है और मायूसी कुफ़्र है। (मुलाज़िम अठन्नियां ज़ोर से ज़मीन पर फेंक कर घर से बाहर निकल जाता है । बैंड ज़ोर से बजने लगता है)
पतरस : ख़ुदाया! तकब्बुर के गुनाह से हम सब को बचाए रख और अदना तबक़े के लोगों का सा ग़रूर हम से दूर रख!
(फिर काम में मशग़ूल हो जाता है।)
बावर्ची-ख़ाने से खाना जलने की हल्की हल्की बू आ रही है...
एक तवील वक़्फ़ा जिसके दौरान में दरख़्तों के साये चौगुने लंबे हो गये हैं। बैंड बदस्तूर बज रहा है। यक-लख़्त बाहर सड़क पर मोटरों के आ कर रुक जाने की आवाज़ सुनाई देती है।
(थोड़ी देर बाद कोई शख़्स दरवाज़े पर दस्तक देता है।)
पतरस(काम पर से सर उठा कर): ऐ शख़्स तू कौन है?
एक आवाज़: (बाहर से) हुज़ूर! मैं गुलामों का ग़ुलाम हूँ और बाहर दस्त-बस्ता खड़ा हूँ कि इजाज़त हो तो अंदर आऊं और अर्ज़-ए-हाल करूं।
पतरस: (दिल में) मैं इस आवाज़ से ना-आशना हूँ लेकिन लहजे से पाया जाता है कि बोलने वाला कोई शाईस्ता शख़्स है। ख़ुदाया ये कौन है? (बुलंद आवाज़ से) अंदर आ जाये।
(दरवाज़ा खुलता है और एक शख़्स लिबास-ए-फ़ाखिरा पहने अंदर दाख़िल होता है। गो चेहरे से वक़ार टपक रहा है लेकिन नज़रें ज़मीन दोज़ हैं और अदब-व-एहतराम से हाथ बांधे खड़ा है।)
पतरस: आप देखते हैं कि मेरे पास सिर्फ़ एक ही कुर्सी है लेकिन जाह-व-हश्मत का ख़्याल बहुत पोच ख़्याल है। इ’ल्म बड़ी ने’मत है। लिहाज़ा ऐ मोहतरम अजनबी! उस अंबार से चंद ज़ख़ीम किताबें इंतिख़ाब कर लो और उनको एक दूसरे के ऊपर चुन कर उन पर बैठ जाओ। इ’ल्म ही हम लोगों का ओढ़ना और इ’ल्म ही हम लोगों का बिछौना होना चाहिए।
अजनबी: ऐ बर्गज़ीदा शख़्स! मैं तेरे सामने खड़े रहने ही में अपनी सआ’दत समझता हूँ।
पतरस: तुम्हें कौन से इ’ल्म की तिश्नगी मेरे दरवाज़े तक कशां-कशां ले आई?
अजनबी: ऐ ज़ी-इ’ल्म मोहतरम! गो तुम मेरी सूरत से वाक़िफ़ नहीं लेकिन मैं शो’बा-ए-ता’लीम का अफ़्सर-ए-आ’ला हूँ और शर्मिंदा हूँ कि मैं आज तक कभी न्याज़ हासिल करने के लिए हाज़िर न हुआ। मेरी इस कोताही और ग़फ़लत को अपने इ’ल्म-व-फ़ज़्ल के सदक़े माफ़ कर दो।
(आबदीदा हो जाता है ।)
पतरस: ऐ ख़ुदा क्या ये सब वहम है। क्या मेरी आँखें धोका खा रही हैं?
अजनबी: मुझे ता’ज्जुब नहीं कि तुम मेरे आने को वहम समझो क्योंकि आज तक हमने तुम जैसे नेक और बर्गज़ीदा इंसान से इस क़दर ग़फ़्लत बरती कि मुझे ख़ुद अचम्भा मा’लूम होता है लेकिन मुझ पर यक़ीन करो। मैं फ़िल-हक़ीक़त यहां तुम्हारी ख़िद्मत में खड़ा हूँ और तुम्हारी आँखें तुम्हें हरगिज़ धोका नहीं दे रही हैं। ऐ शरीफ़ और ग़म-ज़दा इंसान यक़ीन न हो तो मेरे चुटकी लेकर मेरा इम्तिहान कर लो।
(पतरस अजनबी के चुटकी लेता है। अजनबी बहुत ज़ोर से चीख़ता है।)
पतरस: हाँ मुझे अब कुछ कुछ यक़ीन आ गया लेकिन हुज़ूर-ए-वाला आप का यहां क़दम-रंजा फ़रमाना मेरे लिए इस क़दर बाइस-ए-फ़ख़्र है कि मुझे डर है कहीं मैं दीवाना न हो जाऊं।
अजनबी: ऐसे अल्फ़ाज़ कह कर मुझे कांटों में न घसीटो और यक़ीन जानो कि मैं अपनी गुज़श्ता ख़ताओं पर बहुत नादिम हूँ।
पतरस: (मबहूत हो कर) मुझे अब क्या हुक्म है?
अजनबी: मेरी इतनी मजाल कहाँ कि मैं आप को हुक्म दूं। अलबत्ता एक अ’र्ज़ है अगर आप मंज़ूर कर लें तो मैं अपने आपको दुनिया का सब से ख़ुश-नसीब इंसान समझूँ।
पतरस: आप फ़रमाइए! मैं सुन रहा हूँ। गो मुझे यक़ीन नहीं कि ये आ’लम-ए-बेदारी है। (अजनबी ताली बजाता है। छः ख़ुद्दाम छः बड़े बड़े संदूक़ उठा कर अंदर दाख़िल होते हैं और ज़मीन पर रख कर बड़े अदब से कोर्निश बजा ला कर बाहर चले जाते हैं)
अजनबी: (सन्दूकों के ढकने खोल कर) मैं बादशाह-ए-मुअ’ज़्ज़म, शाहज़ादा-ए-वेल्ज़, वायसरा-ए-हिंद और कमांडर इन चीफ़ इन चारों की ईमा पर ये तहाएफ़ आपकी ख़िदमत में आपके इ’ल्म-व-फ़ज़्ल की क़द्र-दानी के तौर पर लेकर हाज़िर हुआ हूँ (भर्राई हुई आवाज़ से) इनको क़बूल कीजिए और मुझे मायूस वापस न भेजिए वर्ना इन सबका दिल टूट जाएगा।
पतरस: (संदूक़ों को देख कर) सोना, अशर्फ़ियाँ, जवाहरात! मुझे यक़ीन नहीं आता। (आयतल-कुर्सी पढ़ने लगता है।)
अजनबी: इन को क़बूल कीजिए और मुझे मायूस वापस न भेजिए। (आँसू टप टप गिरते हैं।)
गाना: (आज मोरी अँखियाँ पल न लागें)
पतरस: ऐ अजनबी! तेरे आँसू क्यूँ गिर रहे हैं? और तू गा क्यूँ रहा है? मा’लूम होता है तुझे अपने जज़्बात पर क़ाबू नहीं। ये तेरी कमज़ोरी की निशानी है। ख़ुदा तुझे तक़वियत और हिम्मत दे। मैं ख़ुश हूँ कि तू और तेरे आक़ा इ’ल्म से इस क़दर मुहब्बत रखते हैं। बस अब जा कि हमारे मुताले का वक़्त है। कल कॉलेज में अपने लेक्चरों से हमें चार पाँच सौ रूहों को ख़्वाब-ए-जहालत से जगाना है।
अजनबी: (सिसकियां भरते हुए) मुझे इजाज़त हो तो मैं भी हाज़िर हो कर आपके ख़्यालात से मुस्तफ़ीद हूँ।
पतरस: ख़ुदा तुम्हारा हामी-व-नासिर हो और तुम्हारे इ’ल्म की प्यास और भी बढ़ती रहे।
(अजनबी रुख़्सत हो जाता है। पतरस सन्दूकों को खोई हुई नज़रों से देखता रहता है और फिर यक-लख़्त मसर्रत की एक चीख़ मार कर गिर पड़ता है और मर जाता है। कमरे में एक पुर-असरार नूर छा जाता है और फ़रिश्तों के परों की फड़फड़ाहट सुनाई देती है। बाहर बैंड बदस्तूर बज रहा है।)
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