1. स्वप्न पट
ग्राम नहीं, वे ग्राम आज
औ’ नगर न नगर जनाकर,
मानव कर से निखिल प्रकृति जग
संस्कृत, सार्थक, सुंदर।
देश राष्ट्र वे नहीं,
जीर्ण जग पतझर त्रास समापन,
नील गगन है: हरित धरा:
नव युग: नव मानव जीवन।
आज मिट गए दैन्य दुःख,
सब क्षुधा तृषा के क्रंदन
भावी स्वप्नों के पट पर
युग जीवन करता नर्तन।
डूब गए सब तर्क वाद,
सब देशों राष्ट्रों के रण,
डूब गया रव घोर क्रांति का,
शांत विश्व संघर्षण।
जाति वर्ण की, श्रेणि वर्ग की
तोड़ भित्तियाँ दुर्धर
युग युग के बंदीगृह से
मानवता निकली बाहर।
नाच रहे रवि शशि,
दिगंत में,-नाच रहे ग्रह उडुगण,
नाच रहा भूगोल,
नाचते नर नारी हर्षित मन।
फुल्ल रक्त शतदल पर शोभित
युग लक्ष्मी लोकोज्ज्वल
अयुत करों से लुटा रही
जन हित, जन बल, जन मंगल!
ग्राम नहीं वे, नगर नहीं वे,-
मुक्त दिशा औ’ क्षण से
जीवन की क्षुद्रता निखिल
मिट गई मनुज जीवन से।
2. ग्राम कवि
यहाँ न पल्लव वन में मर्मर,
यहाँ न मधु विहगों में गुंजन,
जीवन का संगीत बन रहा
यहाँ अतृप्त हृदय का रोदन!
यहाँ नहीं शब्दों में बँधती
आदर्शों की प्रतिमा जीवित,
यहाँ व्यर्थ है चित्र गीत में
सुंदरता को करना संचित!
यहाँ धरा का मुख कुरूप है,
कुत्सित गर्हित जन का जीवन,
सुंदरता का मूल्य वहाँ क्या
जहाँ उदर है क्षुब्ध, नग्न तन?-
जहाँ दैन्य जर्जर असंख्य जन
पशु-जघन्य क्षण करते यापन,
कीड़ों-से रेंगते मनुज शिशु,
जहाँ अकाल वृद्ध है यौवन!
सुलभ यहाँ रे कवि को जग में
युग का नहीं सत्य शिव सुंदर,
कँप कँप उठते उसके उर की
व्यथा विमूर्छित वीणा के स्वर!
3. ग्राम
बृहद् ग्रंथ मानव जीवन का, काल ध्वंस से कवलित,
ग्राम आज है पृष्ठ जनों की करुण कथा का जीवित!
युग युग का इतिहास सभ्यताओं का इसमें संचित,
संस्कृतियों की ह्रास वृद्धि जन शोषण से रेखांकित।
हिंस्र विजेताओं, भूपों के आक्रमणों की निर्दय
जीर्ण हस्तलिपि यह नृशंस गृह संघर्षों की निश्चय!
धर्मों का उत्पात, जातियों वर्गों का उत्पीड़न,
इसमें चिर संकलित रूढ़ि, विश्वास, विचार सनातन।
घर घर के बिखरे पन्नों में नग्न, क्षुधार्त कहानी,
जन मन के दयनीय भाव कर सकती प्रकट न वाणी।
मानव दुर्गति की गाथा से ओतप्रोत मर्मांतक
सदियों के अत्याचारों की सूची यह रोमांचक!
मनुष्यत्व के मूलतत्त्व ग्रामों ही में अंतर्हित,
उपादान भावी संस्कृति के भरे यहाँ हैं अविकृत।
शिक्षा के सत्याभासों से ग्राम नहीं हैं पीड़ित,
जीवन के संस्कार अविद्या-तम में जन के रक्षित।
4. ग्राम दृष्टि
देख रहा हूँ आज विश्व को मैं ग्रामीण नयन से,
सोच रहा हूँ जटिल जगत पर, जीवन पर जन मन से।
ज्ञान नहीं है, तर्क नहीं है, कला न भाव विवेचन,
जन हैं, जग है, क्षुधा, काम, इच्छाएँ जीवन साधन।
रूप जगत है, रूप दृष्टि है, रूप बोधमय है मन,
माता पिता, बंधु बांधव, परिजन, पुरजन, भू गो धन।
रूढ़ि रीतियों के प्रचलित पथ, जाति पाँति के बंधन,
नियत कर्म हैं, नियत कर्म फल,-जीवन चक्र सनातन।
जन्म मरण के, सुख दुख के ताने बानों का जीवन,
निठुर नियति के धूपछाँह जग का रहस्य है गोपन!
देख रहा हूँ निखिल विश्व को मैं ग्रामीण नयन से,
सोच रहा हूँ जग पर, मानव जीवन पर जन मन से।
रूढ़ि नहीं है, रीति नहीं है, जाति वर्ण केवल भ्रम,
जन जन में है जीव, जीव जीवन में सब जन हैं सम।
ज्ञान वृथा है, तर्क वृथा, संस्कृतियाँ व्यर्थ पुरातन,
प्रथम जीव है मानव में, पीछे है सामाजिक जन।
मनुष्यत्व के मान वृथा, विज्ञान वृथा रे दर्शन,
वृथा धर्म, गण तंत्र,-उन्हें यदि प्रिय न जीव जन जीवन!
5. ग्राम चित्र
यहाँ नहीं है चहल पहल वैभव विस्मित जीवन की,
यहाँ डोलती वायु म्लान सौरभ मर्मर ले वन की।
आता मौन प्रभात अकेला, संध्या भरी उदासी,
यहाँ घूमती दोपहरी में स्वप्नों की छाया सी।
यहाँ नहीं विद्युत दीपों का दिवस निशा में निर्मित,
अँधियाली में रहती गहरी अँधियाली भय-कल्पित।
यहाँ खर्व नर (बानर?) रहते युग युग से अभिशापित,
अन्न वस्त्र पीड़ित असभ्य, निर्बुद्धि, पंक में पालित।
यह तो मानव लोक नहीं रे, यह है नरक अपरिचित,
यह भारत का ग्राम,-सभ्यता, संस्कृति से निर्वासित।
झाड़ फूँस के विवर,-यही क्या जीवन शिल्पी के घर?
कीड़ों-से रेंगते कौन ये? बुद्धिप्राण नारी नर?
अकथनीय क्षुद्रता, विवशता भरी यहाँ के जग में,
गृह- गृह में है कलह, खेत में कलह, कलह है मग में!
यह रवि शशि का लोक,-जहाँ हँसते समूह में उडुगण,
जहाँ चहकते विहग, बदलते क्षण क्षण विद्युत् प्रभ घन।
यहाँ वनस्पति रहते, रहती खेतों की हरियाली,
यहाँ फूल हैं, यहाँ ओस, कोकिला, आम की डाली!
ये रहते हैं यहाँ,-और नीला नभ, बोई धरती,
सूरज का चौड़ा प्रकाश, ज्योत्स्ना चुपचाप विचरती!
प्रकृति धाम यह: तृण तृण, कण कण जहाँ प्रफुल्लित जीवित,
यहाँ अकेला मानव ही रे चिर विषण्ण जीवनन्मृत!
(दिसंबर’ ३९)
सुमित्रानंदन पंत कविता संग्रह (मुख्य पृष्ठ देखें ) / Sumitranandan Pant Poem Introduction & Collection
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