अठन्नियां (कहानी) : गुलज़ार Atthaniyan (Hindi Story) : Gulzar



चन्दू, तीसरी जमात से जो भागा, तो सीधा बम्बई आके दम लिया। ये और बात है कि आज वो मिनिस्टर साहब के बंगले पर नौकरी करता है। लेकिन उसे याद है सब!

तीन दिन तक, रात-दिन जागने के बाद, जब पहली बार भायखला के फुटपाथ पर सोया था तो आधी रात को हवलदार ने ठुड्डे से जगा के पूछा था।

‘क्यूं भाई? कौन सी यूपी से आया है?’
‘फैजाबाद से।’
‘अच्छा…? निकाल अठन्नी! फुटपाथ पे मुफ्त में नहीं सोने का- क्या?’
चन्दू को लगा- उसे किसी फिल्म में देखा है। वहां भी ‘क्या?’ बोल के बात करता था।
‘पैसे नहीं हैं मेरे पास। इसीलिए तो शहर आया हूं।’
‘ये शहर नहीं है। मुम्बई है- क्या?…महानगर बोलते हैं इसको। चल निकाल अठन्नी।’

पास पड़े झुमरू की आंख खुल गई।
‘ऐ देवा।।क्यूं तंग करता है?… ये ले अठन्नी और सोने दे।’

झुमरू ने तकिये के नीचे बिखरे चिल्लर से एक अठन्नी उठाई और उछाल दी उसकी तरफ। देवा ने लपक ली और बोला- ‘तेरा कोई सगे वाला है क्या? तू तो मलिया है साला।’

हवलदार हाथ की अठन्नियां बजाता हुआ आगे बढ़ गया। चन्दू को समझ नहीं आया। कैसा शहर है यार। मारता भी है। पालता भी है। बाकी रात उसे फिर नींद नहीं आई। सुबह उठ के झुमरू से मुलाकात हुई।

‘गांव से आया है? बालों में तेल लगा के हीरो बनेगा?’
‘नहीं यार मैं तो।।’
‘ऐ…’ झुमरू ने डांट दिया। ‘यार होते हैं रंडियों के। अपन को चाचा कह के बुलाना। सब यही बोलते हैं। झुमरू चाचा।’

चन्दू थूक निगल के चुप हो गया। झुमरू बोला- ‘देवा फिर आएगा। हफ्ते की अठन्नी लेता है यहां सोने की।’ चन्दू का चेहरा पीला पड़ गया।

‘ये हल्दी होने से काम नहीं चलेगा। मिर्ची बनो। लाल मिर्ची।’ झुमरू फिर बोला।
‘चल चौपटी पे भाषण है आज। पांच रुपया मिलेगा।’
‘करना क्या होगा?’
‘भाषण सुनना पड़ेगा। ताली बजानी होगी। और ‘जय हो’ बोलना पड़ेगा।’

चन्दू मुस्कुराया।

‘इसके लिए पांच रुपये मिलेंगे?’
‘हां! पन फिफ्टी पर्सेंट अपन का होगा। देख पार्टी (पाल्टी) से दस रुपया मिलता है। देवा पांच काट के, पांच अपने को देता है। अपने फुटपाथ से उसको पचास आदमी का आर्डर मिला है। मेरे को जुगाड़ करना है- समझा?’

चन्दू से सर हिला दिया। ‘हो!’ मराठी का पहला शब्द उसने यही सीखा था। एक बार फिर चन्दू को वही लगा। अजीब शहर है! पालता भी है। काटता भी है।

झुमरू ने कहा- ‘अपन सब कोमड़ी के माफिक है।’
‘कोमड़ी क्या?’
‘मुर्गी- ये नगर सब को दाना फेंकता है। हम लोग कोमड़ी के माफिक टुक-टुक चुगते रहते हैं। फिर जब कोमड़ी पल जाती है तो उसको काट देते है।’
‘कौन काटता है?’
‘राजा लोग।’
‘राजा कौन है?’

‘इधर दो किस्म का लोग राज करता है। एक तो पार्टी वाला है। बात करता है। भाषण देता है। नोट देता। वोट लेता है। दूसरा गोली चाकू चलाने वाला है। माल देता है, जान देता है। कभी जान लेता है, माल देता है।’

‘तुम्हारा मतलब गुंडे लोग!’
‘गुंडे तो दोनों हीच हैं। लेकिन दोनों का स्टाइल अलग-अलग है।’

चन्दू को महानगर के तरीके सीखते वक्त नहीं लगा। अगली बार देवा के साथ एक पार्टी वाला आदमी आया था। उसने आदमी गिने और पूछा- ‘ नेताजी बोलेंगे, ‘मुम्बई कोणाची’ तुम लोग क्या बोलोगे?’

सबने एक आवाज हो कर कहा-‘मुम्बई आम्ची!’
‘ऐ मदरासी…।मराठी में बोलने का। तमिल में नहीं। क्या बोलेगा?’
‘मुम्बई आम्ची!’
‘गुड’

वो चला गया तो चन्दू ने देवा से पूछा- ‘भाऊ’
उसने दूसरों को सुना था देवा को इस नाम से बुलाते। उसका चेहरा फौरन नर्म पड़ जाता था।
‘भाऊ…इस पार्टी वाले को कितना पैसा मिलता होगा एक आदमी बुलाने को?’
देवा का चेहरा सख्त हो गया। ‘तेरे को क्या?… तुझे पांच अठन्नी मिला ना?’
‘पांच अठन्नी से क्या होता है भाऊ?’
‘सोने का हो गया। खाने का क्या करूं भाऊ?’
‘क्या हम बुलाया था तेरे को? कौन से यू।पी। से आया बोल?’
‘फैजाबाद।’
‘फैजाबाद में कौन देता है खाने को? क्या…बोल?’

चन्दू ने इतना बड़ा झूठ बोला कि वो खुद ही हिल गया। उसके होंठ फड़-फड़ाने लगे। ‘ह…ह्ह…हम लोग खेतों में मजदूर थे। वो कुछ टैरेरिस्ट लोग आये और ताड़-ताड़ गोलियों से सबको भून दिया। मेरी पूरी फैमली मां-बाप भाई बच्चे सब…’

उससे आगे की कहानी नहीं बना पाया। कांपने लगा। लेकिन भाऊ का चेहरा नर्म पड़ गया। उसने समझा सच बोल रहा है। ‘मैं देखता हूं। कोई काम लगा देता हूं तेरो को। कुछ लिखना पढ़ना आता है?’
‘हिंदी में तीन जमात पढ़ा हूं गांव में।’
‘अपना नाम लिख लेता है?’
‘हो।’
‘मेरा भी लिख सकता है?’
‘हो।’
‘कल से मेरे साथ चल। मेरे को हफ्ते का डायरी भरना होता है। अपनी हिंदी अच्छी नहीं। राष्ट्र भाषा है ना। क्या करने का। लिखना पड़ता है। वही बोल के नौकरी मिला था। वो साला…।एक है चार अठन्नी लेता है, भर के देने का। इस नगर में कोई काम फोकट में नहीं होता- क्या?’

चन्दू का काम बन गया। मगर उसने पूछा- ‘भाऊ तुम सारा हिसाब अठन्नियों में क्यूं रखते?’

भाऊ आधा हंस के बोला- ‘अपने जैसे ‘कौमन मैन’ के पास सब कुछ आधा हीच होता है। आधा खाना, आधा सोना, आधा हंसना, आधा रोना, आधा जीना, आधाच मरना…।ये अठन्नी साला कभी पूरा रुपया नहीं होता है।’

फिर रुक के बोला- ‘है ना ऊपर की बात?।।अपन को एक (hushed tone) नक्सलाइट बोला था।’

चन्दू भाऊ के साथ रिपोर्टर की तरह जाने लगा। वो जो भी करता था। चन्दू से कहता था, ‘लिख ले।’ चन्दू भाऊ की खोली में ही रहने लगा। कभी-कभी खाना बना कर पहुंच जाता। जहां भी ड्यूटी होती।

भायखला के नीचे वो ‘सारवी’ होटल के पीछे से निकलती हुई एक गली है, उस पर एक आदमी खोंचा लगाता था। बड़ा उर्दू जैसा लगता था। लाइसेंस नहीं था। भाऊ पहुंच गया एक दिन, डायरी निकाली और पूछा- ‘क्या बेचते हो तुम?’

वो खास लखनवी लहजे में बोला। ‘खमीरे की गुलकन्दियां’
भाऊ चौंक गया। ‘क्या?’
‘खमीरे की गुलकन्दियां, साहब।’
‘ये क्या होता है?’

‘खा के देखिये।’
‘हूं- अपन चा नाव काये?’ वो मराठी में बोला- ‘नाम क्या है?’
‘इस्हाकुल रहमान सिद्दीकी।’

भाऊ ने जोर देकर कहा- ‘हिंदी में बोल, हिंदी में।’
उसने दोहराया। ‘इस्हाकुल रहमान सिद्दीकी।’
भाऊ ने लंबी सांस ली। पैनसिल डायरी पर रखी और पूछा- ”छोटी ‘इ’ कि बड़ी ‘ई’ ?”
‘वो क्या है साहब?’
भाऊ ने डायरी बंद की और बोला- ‘देख मैं छोड़ देता है तेरे को। लेकिन रिपोर्ट में ये नहीं चलेगा। रिपोर्ट में तू बाबू है और आलू बेचता है। क्या?’

इतने में चन्दू पहुंच गया। भाऊ बोला- ‘लिख ले- नाम है बाबू, बेचता है आलू…चन्दू चार अठन्नी रखवा ले।’ और ये कहते हुए आगे बढ़ गया।

एक बार फिर कुछ ऐसा ही हुआ। चन्दू को बुखार था वो गया नहीं। भाऊ ने आ के बताया। ‘वो है ना…विनायेक रावचा रास्ता।’

ये उन दिनों की बात है जब देवा की तब्दीली, वार्डन रोड की तरफ हो चुकी थी। और खोली अब वर्ली में थी। चन्दू ने फिर पूछा। ‘हां, तो विनायेक राव मार्ग पर क्या हुआ।’ चन्दू को सब रास्तों के नाम याद थे।

‘एक गाय मर गयी।’
‘किस की थी?’
‘पता नहीं। वो जो गाय लोग रोड पर इधर-उधर घूमती रहती हैं परिवार के साथ। उसको भी रोड पर आकर मरना था साला। इतना बड़ा नाम…विनायेक राव पट्टवर्धन मार्ग। कौन लिखता है?…हिंदी में?’

चन्दू हंस पड़ा।
‘फिर क्या किया?’

‘दो घंटा लगा। दुम से खैंच खैंच के, खैंच खैंच के दम गया साला…दो घंटे लगे…दो घंटे में ले जा के सामने वाली रोड पर डाला।’
‘वहां क्यूं?’
‘बापू रोड। और लिख दिया।’
‘अठन्नी किसने दी?’
‘जिसके दरवाजे पर मरी थी।’

भाऊ और चन्दू की दोस्ती अब कई साल पुरानी हो गई थी। इस बीच में भाऊ ने कई जगह उसे काम पर लगाया, और कई जगह छुड़ाया। और फिर एक बार, एक पार्टी वाले से कह के, एक मिनिस्टर के उधर चौकीदार लगवा दिया।

चन्दू अब पूरा मुम्बई वाला बन चुका था। मिनिस्टर साहब को भी बहुत भरोसा था उस पर। अपने निजी काम भी उसे को देते थे। ब्रीफकेस पहुंचाना और ब्रीफकेस लाना। अब उसी का काम था। उसने अठन्नियों में गिनना छोड़ दिया था। लेकिन बीच-बीच में अठन्नियों का लेन-देन चलता रहता।

एक दिन एक बड़ा धमाका हुआ। बंगले पर।

मिनिस्टर साहब दफ्तर में थे। चौंक कर खड़े हो गए। उसके साथ ही धाड़ से चन्दू आ के गिरा फर्श पर। उसके पीछे एक बन्दूक वाला, ए।के। -47 लिए खड़ा था।

”क्या।।? क्या…? ये क्या है…?”
और डांट के बोले।
‘चन्दू।। अंदर क्यूं आने दिया इसे?’
‘मैं कहां…साहब। ये मुझे लेकर अन्दर आ गया।’
वो लड़खड़ाता हुआ खड़ा हो गया। बन्दूक की नोक पर।
‘ कौन हो भई तुम ?’ मिनिस्टर की आवाज बन्दूक देखकर नर्म पड़ने लगी।
‘तुम्हें क्या लगता है?’
‘तुम तो…कोई टैरेरिस्ट लगते हो भई!’
टैरेरिस्ट मुस्कुराया। मिनिस्टर भी मुस्कुराया।
‘इसे क्यूं पकड़ रखा है?’ मिनिस्टर ने चन्दू की तरफ इशारा किया।
‘ये मेरा होस्टेज है।’
मिनिस्टर ने भी मजाक किया।
‘मेरा भी वही है…।होस्टेज।’
‘कब से?…ये तो बाहर घूम रहा था।’
‘मुझे तुम्हारी तरह बन्दूक नहीं दिखानी पड़ती। होस्टेज बनाने के लिए।’
‘तो कैसे पकड़ के रखते हो?’
‘पहले नोट से, फिर वोट से। पांच साल के लिए।’
‘और फिर…।?’
‘हर पांच साल के बाद, हम मियाद रिन्यू (renew) कर देते हैं।’
टैरेरिस्ट ने पैंतरा बदला। बंन्दूक संभाली और बोला- ‘ये Leave and License का सिस्टम अब नहीं चलेगा।’
‘तो क्या चलेगा?’

‘इसी से पूछो। मेरे तुम्हारे बीच यही कौमन है। कौमन मैन!!’
मिनिस्टर ने चन्दू से पूछा- ‘बोलो…एक बार गोली खाकर मरना अच्छा लगता है तु्म्हे?…या।।’
टैरेरिस्ट जरा सा सामने आया।
‘…या।।तिल तिल कर के…हर पांच-पांच साल में मरना अच्छा लगता है?’

चन्दू रुका जरा सा, दोनों को देखा। फिर जेब में हाथ डाला।
टैरेरिस्ट ने धमका के पूछा- ‘क्या है जेब में?’
चन्दू ने आराम से जवाब दिया।
‘कुछ नहीं एक अठन्नी है। टॉस कर के देखता हूं।’
एक कदम आगे बढ़ा। और जैसे ही अठन्नी उछाली, वो दोनों चिल्लाये।
‘हैड!!’
शुक्र है वो अठन्नी वापस नहीं आई। वरना…उसके दोनों तरफ चन्दू का हैड था!

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