ईसुरी की फाग-1 / बुन्देली
तुम खों छोड़न नहि विचारें
भरवौ लों अख्तयारें
जब ना हती, कछू कर घर की, रए गरे में डारें
अब को छोड़ें देत, प्रान में प्यारी भई हमारें
लगियो न भरमाए काऊ के, रैयो सुरत सम्भारें
ईसुर चाएँ तुमारे पीछें, घलें सीस तलवारें
भावार्थ
तुम्हें छोड़ने का मेरा कोई विचार नहीं है, चाहे मरना पड़ जाए। मैं तुम्हें तब से गले में डाले हुए हूँ, जब तुम जवान नहीं थीं और पुरुष के आनन्द की चीज़ नहीं थीं। अब तो तुम यौवन की मालकिन हो। अब, भला, कैसे छोड़ूंगा तुम्हें। अब तो तुम मेरे मन-प्राण में बसी हुई हो। बस, अब तुम्हें कोई कितना भी भरमाए, उसके भरमाए में मत आना। चाहें तुम्हारे पीछे तलवारें चल जाएँ और सिर कट जाएँ। लेकिन ईसुर को अब किसी बात की परवाह नहीं है।
ईसुरी की फाग-2 / बुन्देली
बैठी बीच बजार तमोलिन ।
पान धरैं अनमोलन ।
रसम रीत से गाहक टेरै, बोलै मीठे बोलन
प्यारी गूद लगे टिपकारी, गोरे बदन कपोलन
खैर सुपारी चूना धरकें, बीरा देय हथेलन
ईसुर हौंस रऔ ना हँसतन, कैऊ जनन के चोलन
भावार्थ
अपने द्वार बैठी तुम तमोलन अनमोल पान धरे हो । रम्य रीति से ग्राहकों को बुलाती हो और मुस्कराती हो तो तुम्हारे
गाल पर जो फोड़े का निशान रह गया है, वह कितना प्यारा लगता है । जब चूना, कत्था, सुपारी मिलाकर पान किसी
की हथेली पर रखती हो तो किसको होश रह जाता होगा ।
ईसुरी की फाग-3 / बुन्देली
मोरी रजऊ से नौनों को है
डगर चलत मन मोहै
अंग अंग में कोल कोल कें ईसुर रंग भरौ है ।
मन कौ हरन गाल कौ गुदना, तिल सौ तनक धरौ है ।
ईसुर कात उठन जोबन की, विरहा जोर करौ है ।
भावार्थ
मेरी रजऊ से सुन्दर कौन है ? रास्ते चलते मन मोह लेती है । ईश्वर ने उसके अंग अंग को तराश कर रंग भरा है ।
उसके गाल का गुदना छोटे तिल-सा लगता है । देखो, ईसुर ! उभरते यौवन को विरह कैसे सता रहा है ?
ईसुरी की फाग-4 / बुन्देली
उनकी होय न हमसों यारी
उनसों होय हमारी
मन आनन्द गईं मन्दिर में, शिव की मूरत ढारी
परसत चरन मनक मुन्दरी में, मुख की दिसा निहारी
गिरजापति वरदान दीजिए, जौ मैं मनें बिचारी
ईसुर सोचें श्री कृष्ण खों, श्री बृखमान दुलारी
भावार्थ
वे हमसे प्रेम करें या न करें, हम उनसे प्रेम करते हैं । वे मन्दिर में गईं, शिव जी पर जल चढ़ाया, पर अपनी अंगूठी के
नग में जब मुखदशा निहारी (तो अपने चेहरे की जगह उदास-निराश ईसुरी ही दिखाई दिए) । मन्दिर में एक ब्राह्मण को
जाने से कौन रोक सकता है ? वृषमान नन्दिनी की तरह उसने वरदान मांगा कि हे गिरिजापति मेरी मनोकामना पूरी
करो ।
ईसुरी की फाग-5 / बुन्देली
दिल की राम हमारी जानें
मित्र झूठ न मानें
हम तुम लाल बतात जात ते, आज रात बर्रानें
सा परतीत आज भई बातें, सपनेन काए दिखानें ?
ना हो, हो, देख लेत हैं, फूले नईं समानें
भौत दिनन से मोरो ईसुर तुमें लगौ दिल चानें
भावार्थ
हमारे मन की बात तो राम ही जानते हैं । मित्र, हमारी बात को झूठ न समझें । आज रात को ही हमने यह सपना
देखा है कि हम उनसे बात कर रहे हैं । तब हमें यह अन्दाज़ हुआ कि सपना हमने क्यों देखा ? हम उन्हें यहाँ-वहाँ
किसी न किसी तरह देख कर ख़ुश होते रहते हैं न, इसलिए अब वे हमें सपने में भी दिखाई देने लगी हैं । अरे ईसुरी,
मेरा दिल उन्हें बहुत दिनों से चाहता है ।
ईसुरी की फाग-6 / बुन्देली
जुवना दए राम ने तोरें
सब कोऊ आवत दौरें
आएँ नहीं खांड़ के घुल्ला, पिएँ लेत ना घोरें
का भऔ जात हाथ के फेरें, लए लेत ना टोरें
पंछी पिए घटी नहीं जातीं, ईसुर समुद हिलौरें
भावार्थ
राम ने तुझे यौवन दिया है, सब लोग तेरे दरवाज़े पर दौड़-दौड़ कर आते हैं यानि तेरे घर के चक्कर लगाते हैं । पर ये
स्तन तेरे कोई खांड के खिलौने तो हैं नहीं जिन्हें हम घोल कर पी जाएंगे । इन पर हाथ फेर लेने दो, तुम्हारा क्या
बिगड़ जाएगा ? हम इन्हें तोड़ तो नहीं लेंगे । ईसुरी कहते हैं कि पंछियों के पीने से समुद्र की लहरें घट नहीं जातीं ।
ईसुरी की फाग-7 / बुन्देली
कैयक हो गए छैल दिमानें
रजऊ तुमारे लानें
भोर भोर नों डरे खोर में, घर के जान सियानें
दोऊ जोर कुआँ पे ठाड़े, जब तुम जातीं पानें
गुन कर करकें गुनियाँ हारे, का बैरिन से कानें
ईसुर कात खोल दो प्यारी, मंत्र तुमारे लानें
भावार्थ
रजऊ ! तुम्हारे लिए कितने ही लोग छैला और दिवाने होकर रात-रात भर गली में पड़े रहते हैं । अभी तो यह बात घर के लोगों को भी पता लग गई है । जब तुम पानी लेने जाती हो तो कितने ही लोग कुएँ के आस-पास खड़े रहते हैं। कितने ही ओझाओं और गुनियों की सहायता से तुम्हारे साथ मिलन का उपाय कर रहे हैं कि उस बैरिन से ऎसी क्या बात कहें कि वह उनकी हो जाए । ईसुरी कहते हैं तुम्हारे लिए इतने जंतर-मंतर किए हैं । अब तो तुम्हें अपने मन की बात खोल ही देनी चाहिए ।
ईसुरी की फाग-8 / बुन्देली
ऎंगर बैठ लेओ कछु काने, काम जनम भर रानें
सबखाँ लागौ रात जियत भर, जौ नइँ कभऊँ बड़ानें
करियो काम घरी भर रै कैं,बिगर कछु नइँ जानें
ई धंधे के बीच 'ईसुरी' करत-करत मर जानें ।
भावार्थ
पास बैठ जाओ कुछ कहना है, काम तो जिंदगी भर रहेगा सभी को ये काम लगा रहता है जब तक वोह जिन्दा रहता है, ये काम कभी ख़त्म नहीं होगा काम थोड़ी देर रुक कर, कर लेना, कुछ बिगड़ नहीं जायेगा ईसुरी कहते है कि इस काम को कर कर के मर जायेंगे ।
ईसुरी की फाग-9 / बुन्देली
अब रित आई बसन्त बहारन, पान-फूल-फल डारन
हारन-हद्द-पहारन-पारन, धाम-धवल-जल-धारन
कपटी कुटिल कन्दरन छाई, गै बैराग बिगारन
चाहत हतीं प्रीत प्यारे की, हा-हा करत हजारन
जिनके कन्त अन्त घर से हैं, तिने देत दुख-दारुन
ईसुर मौर-झोंर के ऊपर, लगे भौंर गुंजारन ।
श्रेणी: लोकगीत
ईसुरी की फाग-10 / बुन्देली
पतरें सोनें कैसे डोरा, रजऊ तुमाये पोरा
बड़ी मुलाम पकरतन घरतन लग न जाए नरोरा
पैराउत में दैया-मैया, दाबत परे दादोरा
रतन भरे सें भारी हो गये, पैरन कंचन बोरा
'ईसुर' कउँ का देखे ऎसे, नर-नारी का जोरा ।
ईसुरी की फाग-11 / बुन्देली
जो तुम छैल, छला हो जाते, परे उंगरियन राते
मौं (मुँह) पौंछत गालन के ऊपर, कजरा देत दिखाते
घरी-घरी घूंघट खोलत में, नज़र सामने आते
'ईसुर' दूर दरस के लानें, ऎसे काए ललाते ?
ईसुरी की फाग-12 / बुन्देली
इक दिन होत सबई का गौनों
होनों औ अनहोंनों ।
जाने परत सासरें साँसऊँ
बुरऔ लगै चाय नौंनों
जा ना बात काउ के बस की
हँसी मचै चाय रौंनों
राखौ चायें जौनों ईसुर
दयें इनईं भर सोनों ।
ईसुरी की फाग-13 / बुन्देली
बखरी बसियत है भारे की दई पिया प्यारे की
कच्ची भींट उठी माटी की, छाई फूस चारे की
बे बंदेज बड़ी बे बाड़ा, जई में दस द्वारे की
एकऊ नईं किबार किबरियाँ, बिना कुची तारे की
ईसुर चाय निकारौ जिदना, हमें कौन उवारे की ।
श्रेणी: लोकगीत
ईसुरी की फाग-14 / बुन्देली
इन पै लगे कुलरियाँ घालन, भैया मानस पालन
इन्हें काटबो न चइयत तौ, काट देत जो कालन
ऎसे रूख भूँख के लानें, लगवा दये नंद लालन
जे कर देत नई सी ईसुर, मरी मराई खालन ।
ईसुरी की फाग-15 / बुन्देली
जब से रजऊ ने पैरी अंगिया, मोय करो बैरगिया
फिरतीं रातीं गली-खोरन में, तनक उगर गई जंगिया
घूमत फिरत नसा के मारे, मानो पी लई भंगिया
ईसुर भये बाग के भौंरा, रजऊ भईं फुलबगिया ।
ईसुरी की फाग-16 / बुन्देली
ऎसी पिचकारी की घालन, कहाँ सीख लई लालन
कपड़ा भींज गये बड़-बड़ के, जड़े हते जर तारन
अपुन फिरत भींजे सो भींजे, भिंजै जात ब्रज-बालन
तिन्नी तरें छुअत छाती हो, लगत पीक गइ गालन
ईसुर अज मदन मोहन नें, कर डारी बेहालन ।
ईसुरी की फाग-17 / बुन्देली
देखी रजऊ काउनें नइयाँ, कौन बरन तन मुइयाँ
काँ तौं उनकी रहस रास है, काँ दये जनम गुसइयाँ
पैलऊँ भेंट हमईं सें न भई सही कृपा हम पैयाँ
ईसुर हमने रजऊ की फागें, कर दई मुलकन मैंया ।
ईसुरी की फाग-18 / बुन्देली
जौ जी रजउ-रजउ के लानैं
का काऊ से कानैं
जौ लौ जीने जियत जिन्दगी
रजुआ हेत कमाने
पैले भोजन करै रजऊआ
पाछे मो खौं खानै
रजउ रजउ को नाँव 'ईसुरी'
लेत लेत मर जानै।
भावार्थ
अपनी प्रेयसी "रजउ" के विरह में तड़पते ईसुरी कहते हैं — मेरे ये प्राण रजउ के ही लिए हैं, मुझे किसी से क्या कहना...? जब तक जीना है ,जीवन है तब तक रजउ के हित के लिए ही कमाना है (यानि उसका प्रेम अर्जित करना है)। पहले रजउ भोजन करेगी फिर मैं खाऊँगा। ईसुरी कहते हैं - मैं रजउ रजउ नाम लेते लेते ही मर जाऊँगा।
ईसुरी की फाग-19 / बुन्देली
तुमखों देखौ भौत दिनन सें
बुरौ लगत रओ मन सें
लुआ न ल्याये पूरा पाले के
कैबे करी सबन सें
एकन सें विनती कर हारी
पालागन एकन सें
मनमें करै उदासी रई हों
भई दूबरी तन सें
ईसुर बलम तुमइये जानौ
मैंने बालापन सें।
भावार्थ
इस चौघड़िया में ईसुरी रजऊ की व्यथा को व्यक्त कर रहे हैं। देखिए — आज तुम्हें बहुत दिनों में देखा, मन में बहुत बुरा लगता था। मैं पास-पड़ोस में सबसे कहती थी, लेकिन मुझे कोई लिवा कर नहीं लाया। किसी से विनती करती, किसी के पैर पड़ती लेकिन मैं हार गयी। मन से उदास रहती थी सो तन से भी दुबली हो गयी हूँ। मैंने तो बचपन से ही तुम्हें अपना प्रियतम जाना है।
ईसुरी की फाग-21 / बुन्देली
रोजई मुस्का कें कड़ जातीं
हमसै कछू न कातीं
जा ना जान परत है दिल की
काये खों सरमातीं
जब कब मिलैं गैल खोरन में
कछू कान सौ चातीं
ना जानै काहे कौ हिरदो
कपटन सोउ दिखातीं
ईसुर कबै कौन दिन हू है
जबै लगाबै छाती।
भावार्थ
ईसुरी अपनी प्रेयसी से संवाद न होने पर कहते हैं — तुम रोज मुस्कुरा कर निकल जाती हो और मुझसे कुछ कहती नहीं हो। पता ही नहीं लगता तुम्हारे दिल में क्या है, क्यों शर्माती हो? जब कभी गली-कूचों में मिलती हो तो लगता है कि कुछ कहना चाहती हो। न जाने तुम्हारा ह्रदय किसका बना है, मुझे तो लगता है तुम कपटी भी हो।
ईसुरी कहते हैं — वह दिन कब आएगा जब मैं तुम्हें अपने ह्रदय से लगाऊँगा..
ईसुरी की फाग-22 / बुन्देली
तोरे नैना मतबारे
तिन घायल कर डारे
खंजन खरल सैल से पैने
बरछन से अनयारे
तरबारन सैं कमती नइयाँ
इनसें सबरई हारे
'ईसुर' चले जात गैलारे
टेर बुला कैं मारे।
भावार्थ
प्रिये, तुम्हारे नयन बहुत मतवाले हैं, जिन्होंने घायल कर दिया है। ये खंजन जैसे आकर्षक, विष के बुझे हुए, पर्वत शिखर की तरह नुकीले हैं और बरछी की तरह तीखे हैं।
ये नयन तलवारों से कम नहीं हैं जिनसे सब हार जाते हैं। ईसुरी कहते हैं कि ये नयन राह चलते को बुला कर मार देते हैं।
ईसुरी की फाग-23 / बुन्देली
ऐसी हती रजउ की सानी
दूजी नईं दिखानी।
बादशाह कै बेगम नइयाँ
ना राजा घर रानी।
तीनऊ लोक भुअन चौदा में
ऐसी नईं दिखानीं।
ईसुर पिरकट भईं हैं जग में
श्री वृषभान भुबानी।
भावार्थ
महाकवि 'ईसुरी' का अपनी प्रेयसी 'रजऊ' से मिलन नहीं हो पाया। इस वियोग में 'रजऊ' के रूप की प्रशंसा करते हुए वे कहते हैं — मेरी 'रजऊ' की ऐसी शान थी कि उसके जैसी दूसरी नहीं दिखाई दी। बादशाह की बेगम और राजा की रानी भी वैसी नहीं हो सकती। तीनों लोक और चौदह भुवनों में भी ऐसी कोई नहीं दिखती।
ऐसा लगता है मानो रजऊ के रूप में वृषभान कुमारी यानि राधा जी ही प्रकट हो गई हैं।
ईसुरी की फाग-24 / बुन्देली
बाँकी रजउ तुमारी आँखें
रव घूंगट में ढाँके।
हमने अबै दूर से देखीं
कमल फूल सी पाँखें।
जिदना चोट लगत नैंनन की
डरे हजारन कांखें।
जैसी राखे रई 'ईसुरी'
ऐसईं रईयो राखें।
भावार्थ
महाकवि 'ईसुरी' अपनी प्रेयसी 'रजऊ' की आँखों की प्रशंसा करते हुए कहते हैं — प्रिय रजऊ, तुम्हारी आँखें बेहद सुन्दर हैं इनको तुम घूँघट में ही छिपा लो। अभी तो मैंने दूर से देखी हैं लेकिन मानो वो कमल की पंखुड़ियों हैं। जिस दिन इन आँखों की चोट लगती है उस दिन हज़ारों लोग कराहते हैं। लेकिन मेरे प्रति जैसा प्रेम भाव अब रखे हो वैसा ही रखना।
ईसुरी की फाग-25 / बुन्देली
जाके होत विधाता डेरे
को कर सकत सहेरे।
पाव रती के जोड़ लगाए
परे हाथ के फेरे।
अदिन-दिना जब आन परत हैं
दालुद्दर नै घेरे।
मारे-मारे फिरत 'ईसुरी'
संजा और सबेरे।
भावार्थ
महाकवि 'ईसुरी' अपनी प्रेयसी 'रजऊ' से कहते हैं — जिसके स्वयं विधाता ही प्रतिकूल है उसकी सहायता भला कौन कर सकता है। जैसे-तैसे पाव-रत्ती जोड़ कर कुछ हैसियत बनाता हूँ लेकिन फिर वही दिन आ जाते हैं। बुरे दिनों में दरिद्रता ही घेर लेती है। ईसुरी कहते हैं — ऐसे में सुबह शाम मारा-मारा भटकता फिरता हूँ।
ईसुरी की फाग-26 / बुन्देली
मिलती कभऊं अकेली नइयाँ
बतकाये खाँ गुइयाँ।
मिल जातीं मन की कै लेते
जैसी हती कवइयाँ।
बाहर सें भीतर खाँ कड़ गईं
कुल्ल लुगाइन मइयाँ।
'ईसुर' फिरत तुमाये लानें
ढूंढत कुआं तलइयाँ।
भावार्थ
महाकवि 'ईसुरी' अपनी प्रेयसी 'रजऊ' को उलाहना देते हुए कहते हैं — प्रिये , तुम कभी अकेले में नहीं मिलतीं कि प्रेम की दो बातें कर सकूँ। अगर मिलतीं तो जो कहने लायक होतीं वो बातें कह लेता। तुम औरतों के झुण्ड की ओट लेकर बाहर से भीतर को निकल गईं, जबकि मैं तुम्हारे लिए कुओं, तालाबों पर भटकता फिरता हूँ।
ईसुरी की फाग-27 / बुन्देली
जब सें गए हमारे सईयाँ
देस बिराने गुइयाँ।
ना बिस्वास घरें आबे कौ
करी फेर सुध नइयाँ।
जैसो जो दिल रात भीतरौ
जानत राम गुसैयाँ।
ईसुर प्यास पपीहा कैसी
लगी रात दिन मइयाँ।
भावार्थ
महाकवि 'ईसुरी' की विरहिणी नायिका अपनी वेदना का वर्णन करते हुए कहती है — हे सखी ! जब से मेरे प्रियतम परदेश गए हैं, तब से ये भरोसा भी नहीं रहा कि वे कभी घर भी आएँगे। उन्होंने मुझे याद तक नहीं किया। मेरे ह्रदय की दशा राम ही जानते हैं। मेरी प्यास पपीहे की प्यास जैसी है, जो हृदय में रात-दिन लगी रहती है।
ईसुरी की फाग-28 / बुन्देली
मिलकै बिछुर रजउ जिन जाओ
पापी प्रान जियाओ।
जबसे चरचा भई जाबे की
टूटन लगो हियाओ।
अँसुआ चुअत जात नैनन सैं
रजउ पोंछ लो आओ।
ईसुर कात तुमाये संगै
मेरौ भओ बिआओ।
भावार्थ
महाकवि 'ईसुरी' अपने विरह का वर्णन करते हुए कहते हैं — रजउ, तुम मिलकर बिछड़ मत जाना। मेरे पापी प्राणों को जी लेने दो। जबसे तुम्हारे जाने की चर्चा सुनी है मेरा दिल टूटने लगा है। मेरे आँसुओं को तुम्हीं आकर पोंछ दो। ईसुर कहते हैं कि तुम्हारे साथ मेरा ब्याह हुआ है।
ईसुरी की फाग-20 / बुन्देली
पग में लगत महाउर भारी
अत कोमल है प्यारी
आद रती कौ लांगा पैरें
तिल की ओढ़ें सारी
खस खस की इक अंगिया तन में
आदी कोर किनारी
रती रती के बीच 'ईसुरी'
एक नायिका ढारी।
भावार्थ
ईसुरी ने रजऊ के सुकुमारपन के वर्णन में अतिशयोक्ति अलंकार का अनूठा प्रयोग किया है। देखिए — ईसुरी कहते हैं कि प्रिया अति कोमल और सुकुमार है। महावर लगने से पैर नहीं उठते। उसके लंहगे का वजन आधी रत्ती भर है और जो साड़ी ओढ़ी है उसका वजन तिल के बराबर है। उसने जो चोली पहनी है वो खसखस यानि पोस्त के दाने की है जिसकी किनारी भी आधी है यानि बेहद बारीक है। इस तरह नायिका का रूप रत्ती-रत्ती से ही ढला है।
| isuri bundeli rachnakar |
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