सुमिरो हरि नमहि बौरे।
चक्रहूं चाहि चलै चित चंचल, मूलमता गहि निस्चल कौरे।
पांचहु ते परिचै करू प्रानी, काहे के परत पचीस के झौरे।
जौं लगि निरगुन पंथ न सूझै, काज कहा महि मंडल बौरे।
सब्द अनाहद लखि नहिं आवै, चारो पन चलि ऐसहि गौरे।
ज्यांे तेली को बैल बेचारा, घरहिं में कोस पचासक भौरे।
दया धरम नहिं साधु की सेवा, काहे के सो जनमे घर चौरे।
धरनीदास तासु बलिहारी, झूठ तज्यो जिन सांचहि धौरे।
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