हिल बदरि कुच पुन नवरंग। दिन-दिन बाढ़ए पिड़ए अनंग।
से पुन भए गेल बीजकपोर। अब कुच बाढ़ल सिरिफल जोर।
माधव पेखल रमनि संधान। घाटहि भेटलि करइत असनान।
तनसुक सुबसन हिरदय लाग। जे पए देखब तिन्हकर भाग।
उर हिल्लोलित चांचर केस। चामर झांपल कनक महेस।
भनइ विद्यापति सुनह मारारि। सुपुरुख बिलसए से बर नारि।
[नागार्जुन का अनुवाद : कुच पहले बेर बराबर हुए, फिर नारंगी जैसे। वे दिन-दिन बढ़ने लगे। कामदेव अंग अंग को पीड़ा पहुंचाने लगा। स्तन बढ़ते बढ़ते अमरूद जैसे दिखाई देने लगे। उन्होंने आगे ज़ोर मारा और बेल जैसे लगने लगे। कन्हाई अवसर की टोह में था। उसने सुन्दरी को ढूँढ़ निकाला। वह घाट पर नहा रही थी। भीगा हुआ महीन वस्त्र वक्ष से चिपका हुआ था। ऐसी भूमिका में जो भी इस तरुणी को देखता, उसके भाग्य जग जाते। लम्बे, गीले, काले बाल इधर-उधर छाती के इर्द-गिर्द लहरा रहे थे। सोने के दोनों शिवलिंगों (स्तनों) को चँवर ने ढँक लिया था। विद्यापति कहते हैं, ‘मैं तुमसे साफ-साफ बतला दूँ, कुँवर कन्हैया, सुन्दर पुरुष ही ऐसी सुन्दरी के साथ रंगरेलियाँ मनाता है…]
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