भारत भूषण अग्रवाल हिंदी के प्रमुख कवियों और साहित्यकारों में से एक थे। वे नई कविता आंदोलन के महत्वपूर्ण स्तंभ माने जाते हैं। उनका लेखन स्वतंत्रता के बाद के समय के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों को गहराई से दर्शाता है।
भारत भूषण अग्रवाल ने हिंदी साहित्य में विशेष रुचि ली और शिक्षा के साथ-साथ लेखन में सक्रिय योगदान दिया। साहित्य के क्षेत्र में उनकी गहरी पकड़ थी, और उन्होंने समकालीन समाज के मुद्दों को कविता के माध्यम से प्रस्तुत किया।
भारत भूषण अग्रवाल की कविताएँ सहज, सरल और गहरी संवेदनाओं से युक्त हैं। उन्होंने मानव जीवन के दुख, संघर्ष और प्रेम को अपनी कविताओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया। उनका लेखन यथार्थवादी था, जिसमें आम आदमी के जीवन की झलक मिलती है।
भारत भूषण अग्रवाल नई कविता आंदोलन से जुड़े कवियों में से थे। यह आंदोलन हिंदी साहित्य में प्रगतिशीलता और आधुनिकता का परिचायक बना। उन्होंने कविता को परंपरागत बंधनों से मुक्त करके उसे नई दिशा दी।
अहिंसा / भारत भूषण अग्रवाल कविता / कविताएँ
खाना खा कर कमरे में बिस्तर पर लेटा
सोच रहा था मैं मन ही मन: 'हिटलर बेटा'
बड़ा मूर्ख है, जो लड़ता है तुच्छ-क्षुद्र मिट्टी के कारण
क्षणभंगुर ही तो है रे! यह सब वैभव-धन।
अन्त लगेगा हाथ न कुछ, दो दिन का मेला।
लिखूँ एक ख़त, हो जा गाँधी जी का चेला।
वे तुझ को बतलायेंगे आत्मा की सत्ता
होगी प्रकट अहिंसा की तब पूर्ण महत्ता।
कुछ भी तो है नहीं धरा दुनिया के अन्दर।'
छत पर से पत्नी चिल्लायी : "दौड़ो , बन्दर!"
फूटा प्रभात भारत भूषण अग्रवाल कविता / कविताएँ
फूटा प्रभात, फूटा विहान
बह चले रश्मि के प्राण, विहग के गान, मधुर निर्झर के स्वर
झर-झर, झर-झर।
प्राची का अरुणाभ क्षितिज,
मानो अम्बर की सरसी में
फूला कोई रक्तिम गुलाब, रक्तिम सरसिज।
धीरे-धीरे,
लो, फैल चली आलोक रेख
घुल गया तिमिर, बह गई निशा;
चहुँ ओर देख,
धुल रही विभा, विमलाभ कांति।
अब दिशा-दिशा
सस्मित,
विस्मित,
खुल गए द्वार, हँस रही उषा।
खुल गए द्वार, दृग खुले कंठ
खुल गए मुकुल
शतदल के शीतल कोषों से निकला मधुकर गुंजार लिए
खुल गए बंध, छवि के बंधन।
जागो जगती के सुप्त बाल!
पलकों की पंखुरियाँ खोलो, खोलो मधुकर के अलस बंध
दृग भर
समेट तो लो यह श्री, यह कांति
बही आती दिगंत से यह छवि की सरिता अमंद
झर-झर।
फूटा प्रभात, फूटा विहान,
छूटे दिनकर के शर ज्यों छवि के वह्नि-बाण
(केशर फूलों के प्रखर बाण}
आलोकित जिनसे धरा
प्रस्फुटित पुष्पों से प्रज्वलित दीप,
लौ-भरे सीप।
फूटीं किरणें ज्यों वह्नि-बाण, ज्यों ज्योति-शल्य
तरु-वन में जिनसे लगी आग।
लहरों के गीले गाल, चमकते ज्यों प्रवाल,
अनुराग लाल।
भारतत्व भारत भूषण अग्रवाल कविता / कविताएँ
गाँवों में समाजवाद, शहरों में पूँजीवाद, दफ़्तर में सामन्तवाद
घर में अधिनायकत्व है
कभी-कभी लगता है
यही भारतत्व है ।
मिलन भारत भूषण अग्रवाल कविता / कविताएँ
छलक कर आई न पलकों पर विगत पहचान
मुस्करा पाया न होठों पर प्रणय का गान;
ज्यों जुड़ी आँखें, मुड़ी तुम, चल पड़ा मैं मूक
इस मिलन से और भी पीड़ित हुए ये प्राण।
चलते-चलते भारत भूषण अग्रवाल कविता / कविताएँ
मैं चाह रहा हूँ, गाऊँ केवल एक गान, आख़िरी समय
पर जी में गीतों की भीड़ लगी
मैं चाह रहा हूँ, बस, बुझ जाएँ यहीं प्राण, रुक जाए हृदय
पर साँसों में तेरी प्रीति जगी
इसलिए मौन हो जाता हूँ, स्वीकार करो यह विदा
आज आख़िरी बार;
मत समझो मेरी नीरवता को व्यथा-जात
या मेरा निज पर अनाचार।
मैं आज बिछुड़ कर भी सचमुच सुखी हुआ मेरी रानी!
इतना विश्वास करो मुझ पर
मैं सुखी हूँ कि तुमने अपनी नारी-जन सुलभ चातुरी से
बिखरा दी मेरी नादानी
पानी-पानी करके सत्वर
मैं सुखी हूँ कि इस विदा-समय भी नहीं नयन गीले तेरे,
मैं सुखी हूँ कि तुमने न बँटाए कभी अलभ्य स्वप्न मेरे,
मैं सुखी हूँ कि कर सकीं मुझे तुम निर्वासित यों अनायास,
मैं सुखी हूँ कि मेरा प्रमाद बन सका नहीं तेरा विलास।
मैं सुखी हूँ कि - पर रहने दो, तुम बस इतना ही जानो
मैं हूँ आज सुखी,
अन्तिम बिछोह, दो विदा आज आख़िरी बार ओ इन्दुमुखी!
विदा बेला भारत भूषण अग्रवाल कविता / कविताएँ
पाया स्नेह, पा सकीं न पर तुम विदा-रीति का ज्ञान
पगली! बिछोह की बेला में बिन मांगे ही प्रीति का दान
दो मुझे। कहो इस अन्तिम पल में एक बार ’प्रियतम’ धीमे
पूछो : ’कब लौटोगे वसन्त में? वर्षा में? शारद-श्री में?
शीत की शर्वरी में?’ सरले! मत रह जाओ नतमुख उदास
लाज से दबी। कल जब यह पल होगा अतीत, तब अनायास
मुखरित होगी यह नीरवता, बन व्यथा, वियोगी प्राणों में
तब तुम सोचोगी बार-बार : ’क्यों आँसू में, मुस्कानों में
दुख-सुख की उस अद्वितीय घड़ी को किया न मैंने अमर?’ प्रिये!
यह कसक तुम्हें कलपाएगी : ’क्यों मैंने प्रिय के अश्रु पिये
नयनों से नहला दिया न, संचित किया न क्यों कुछ आश्वासन
इस विरह-काल के लिए हाय! भर आलिंगन, पा कर चुम्बन!
प्रश्नचिह्न भारत भूषण अग्रवाल कविता / कविताएँ
मूर्ति तो हटी, परन्तु
तम में भटकती हुई अनगिनती आंखों को
जिसने नई दृष्टि दी,
खोल दिए सम्मुख नए क्षितिज,
नूतन आलोक से मंडित की सारी भूमि-
जन-मन के मुक्तिदूत
उस देवता के प्रति,
श्रध्दा से प्रेरित हो,
समवेत जन ने,
प्रतिमा प्रतिष्ठित की अपने सम्मुख विराट!
अपने हृदयों में बसी ऊर्ध्यबाहु कल्पना,
पत्थर पर आंकी अति यत्न से!
मूर्ति वह अद्वितीय, महाकाय,
शीश पर जिसके हाथ, धरते थे मेघराज,
चरणों में जिसके जन, झुकते थे भक्ति से
अंजलि के फूल-भार के समान,
अधरों पर जिसके थी मंत्रमयी मुसकान
उल्लसित करती थी लोक-प्राण!
यों ही दिन बीत चले,
और वह मूर्ति-
दिन-पर-दिन, स्वयमेव
मानो और बडी, और बडी होती चली गई!
जड प्रतिमा में बंद यह रहस्य, यह जादू,
कितने समझ सके, कितने न समझे- यह कहना कठिन है।
क्योंकि उसे पूजा सब जन ने
भूलकर एक छोटा सत्य यह,
पत्थर न घटता है, न बढता है रंच मात्र,
मूर्ति बडी होती जा रही थी क्योंकि
वे स्वयं छोटे होते जाते थे,
भूलकर एक बडा सत्य यह,
मूर्ति की विराटता ने ढंक लिए वे क्षितिज,
देवता ने एक-एक करके जो खोले थे।
आखिर में एक दिन ऐसा भी आ पहुंचा,
मूर्ति जब बन चुकी थी आसमान,
और जन बन चुके थे चूहों-से, मेंढक-से,
छोटे-ओछे, नगण्य!
क्षितिजों के सूर्य की जगह भी वह मुस्कान,
जिसमें नहीं था कोई अपना आलोक-स्रोत!
होकर वे तम में बंद
फिर छटपटाने लगे!
तभी कुछ साहसी जनों ने बढ
अपनी लघुता का ज्ञान दिया हर व्यक्ति को।
और फिर,
शून्य बन जाने के भय से अनुप्राणित हो-
समवेत जन ने-
अपने ही हाथों से गढी हुई देवता की मूर्ति वह
तोड डाली-
छैनी से, टांकी से, हथौडी से,
जिसको जो मिला उसी शस्त्र से,
गढते समय भी ऐसा उत्साह कब था?
देखा तब सबने आश्चर्य से :
प्रतिमा की ओट में जो रमी रही एक युग,
उनकी वे दृष्टियां अब असमर्थ थीं,
कि सह सके सहज प्रकाश आसमान का!
और फिर सबने यह देखा असमंजस से :
मूर्ति तो हटी, परंतु सामने डटा था प्रश्न चिह्न यह :
मूंद लें वे आंखें या कि प्रतिमा गढें नई?
हर अंधी श्रध्दा की परिणति है यह खण्डन!
हर खण्डित मूर्ति का प्रसाद है यह प्रश्नचिह्न!
समाधि लेख भारत भूषण अग्रवाल कविता / कविताएँ
रस तो अनंत था, अंजुरी भर ही पिया,
जी में वसंत था, एक फूल ही दिया।
मिटने के दिन आज मुझको यह सोच है,
कैसे बडे युग में कैसा छोटा जीवन जिया।
परिणति भारत भूषण अग्रवाल कविता / कविताएँ
उस दिन भी ऐसी ही रात थी।
ऐसी ही चांदनी थी।
उस दिन भी ऐसे ही अकस्मात्,
हम-तुम मिल गए थे।
उस दिन भी इसी पार्क की इसी बेंच पर बैठ कर,
हमने घंटों बाते की थीं-
घर की, बाहर की, दुनिया भर की।
पर एक बात हम ओठों पर न ला पाए थे
जिसे हम दोनों,
मन ही मन,
माला की तरह फेरते रहे थे।
आज भी वैसी ही रात है,
वैसी ही चांदनी है।
आज भी वैसे ही अकस्मात्,
हम-तुम मिल गए हैं।
आज भी उसी पार्क की उसी बेंच पर बैठकर,
हमने घंटों बातें की हैं-
घर की, बाहर की, दुनिया भर की।
पर एक बात हम ओठों पर नहीं ला पाए हैं,
जिसे हम दोनों-
मन ही मन,
माला की तरह फेरते रहे हैं।
वही रात है,
वही चांदनी है।
वही वंचना की भूल-भुलैया है।
पर इस एक समानता को छोडकर,
देखो तो-
आज हम कितने असमान हो गए हैं।
पर नहीं,
अभी एक समानता और भी है,
आज हम दोनों जाने की जल्दी में है,
तुम्हारा बच्चा भूखा होगा,
मेरी सिगरेटें खत्म हो चुकी हैं।
विदेह भारत भूषण अग्रवाल कविता / कविताएँ
आज जब घर पहुंचा शाम को
तो बडी अजीब घटना हुई
मेरी ओर किसी ने भी कोई ध्यान ही न दिया।
चाय को न पूछा आके पत्नी ने
बच्चे भी दूसरे ही कमरे में बैठे रहे
नौकर भी बडे ढीठ ढंग से झाडू लगाता रहा
मानो मैं हूँ ही नहीं-
तो क्या मैं हूँ ही नहीं?
और तब विस्मय के साथ यह बोध मन में जगा
अरे, मेरी देह आज कहां है?
रेडियो चलाने को हुआ-हाथ गायब हें
बोलने को हुआ-मुंह लुप्त है
दृष्टि है परन्तु हाय! आंखों का पता नहीं
सोचता हूँ- पर सिर शायद नदारद है
तो फिर-तो फिर मैं भला घर कैसे आया हूँ
और तब धीरे-धीरे ज्ञान हुआ
भूल से मैं सिर छोड आया हूँ दफ्तर में
हाथ बस में ही टंगे रह गए
आंखें जरूर फाइलों में ही उलझ गईं
मुंह टेलीफोन से ही चिपटा सटा होगा
और पैर हो न हो क्यू में रह गए हैं-
तभी तो मैं आज आया हूँ विदेह ही!
देहहीन जीवन की कल्पना तो
भारतीय संस्कृति का सार है
पर क्या उसमें यह थकान भी शामिल है
जो मुझ अंगहीन को दबोचे ही जाती है?
तुक्तक और मुक्तक भारत भूषण अग्रवाल कविता / कविताएँ
(आत्मकथा की झाँकी)
मैं जिसका पट्ठा हूँ
उस उल्लू को खोज रहा हूँ
डूब मरूँगा जिसमें
उस चुल्लू को खोज रहा हूँ ।।
न लेना नाम भारत भूषण अग्रवाल कविता / कविताएँ
न लेना नाम भी अब तुम इलम का
लिखो बस हुक्के का चिलम का
अभी खुल जाएगा रस्ता फिलम का ।
तुक की व्यर्थता भारत भूषण अग्रवाल कविता / कविताएँ
दर्द दिया तुमने बिन माँगे, अब क्या माँगू और ?
मन के मीत ! गीत की लय, लो, टूट गई इस ठौर
गान अधूरा रहे भटकता परिणति को बेचैन
केवल तुक लेकर क्या होगा : गौर, बौर, लाहौर ?
पथहीन भारत भूषण अग्रवाल कविता / कविताएँ
कौन सा पथ है?
मार्ग में आकुल – अधीरातुर बटोही यों ही पुकारा
कौन सा पथ है?
महाजन जिस ओर जाएं - शास्त्र हुंकारा
अंतरात्मा ले चले जिस ओर – बोला न्याय पंडित
साथ आओ सर्वसाधारण जनों के – क्रांति वाणी।
पर महाजन - मार्ग - गमोचित न संबल है, न रथ है,
अंतरात्मा अनिश्चय – संशय – ग्रसित,
क्रांति - गति – अनुसरण – योग्या है न पद सामर्थ्य।
कौन सा पथ है?
मार्ग में आकुल – अधीरातुर बटोही यों ही पुकारा
कौन सा पथ है?
मेरा पिट्ठू भारत भूषण अग्रवाल कविता / कविताएँ
मैं और मेरा पिट्ठू
देह से अकेला होकर भी
मैं दो हूँ
मेरे पेट में पिट्ठू है।
जब मैं दफ़्तर में
साहब की घंटी पर उठता-बैठता रहता हूँ,
मेरा पिट्ठू
नदी किनारे वंशी बजाता रहता है!
जब मेरी ‘नोटिंग’ कट-कुट कर ‘टाइप’ होती है
तब साप्ताहिक के मुख पृष्ठ पर
मेरे पिट्ठू की तस्वीर छपती है!
शाम को जब मैं
बस के फुटबोर्ड पर टँगा-टँगा घर आता हूँ
तब मेरा पिट्ठू
चाँदिनी की बाँहों में बाँहें डाले
मुग़ल-गार्डेंस में टहलता रहता है!
और जब मैं
बच्चे की दवा के लिए
‘आउटडोर वार्ड’ की क्यू में खड़ा रहता हूँ।
तब मेरा पिट्ठू
कवि-सम्मेलन के मंच पर पुष्पमालाएं पहनता है!
इन सरगर्मियों से तंग आकर
मैं अपने पिट्ठू से कहता हूँ:
भई! यह ठीक नहीं
एक म्यान में दो तलवारें नहीं रहतीं,
तो मेरा पिट्ठू हँसकर कहता है:
पर एक जेब में दो कलमें तो सभी रखते हैं!
तब मैं झल्लाकर, आस्तीनें चढ़ाकर
अपने पिट्ठू को ललकारता हूँ-
तो फिर जा, भाग जा, मेरा पिंड छोड़,
मात्र कलम बनकर रह!
और यह सुनकर वह चुपके से
मेरे सामने गीता की कॉपी रख देता है!
और जब मैं
हिम्मत बांधकर
आँखें मींचकर, मुट्ठियाँ भींचकर
तय करता हूँ कि अपनी देह उसी को दे दूँगा
तब मेरा पिट्ठू
मुझे झकझोरकर
‘एफिशिएंसी बार’ की याद दिला देता है!
एक दीखने वाली मेरी इस देह में
दो ‘मैं’ है।
एक मैं
और एक मेरा पिट्ठू।
मैं तो खैर, मामूली-सा क्लर्क हूँ
पर, मेरा पिट्ठू?
वह जीनियस है!
जागते रहो भारत भूषण अग्रवाल कविता / कविताएँ
डूबता दिन, भीगती-सी शाम
बन्द कर दो काम,
लो विश्राम ।
यह तिमिर की शाल
ओढ़ लो वसुधे ! न सिकुड़े शीत से यह लाल,
जग का बाल ।
वलय की खनकार,
दीप बालो री सुहागिनी ! जग उठे गृह-द्वार
बन्दनवार !
किन्तु साथी ! देख
हम न सोएँगे, हमारा कार्य है अवशिष्ट
अपनी प्रगति का अब भी अधूरा लेख ।
जागरण, फिर जागरण ही है हमारा इष्ट !
लो, क्षितिज के पास --
वह उठा तारा, अरे ! वह लाल तारा, नयन का तारा हमारा
सर्वहारा का सहारा
विजय का विश्वास ।
पथहीन भारत भूषण अग्रवाल कविता / कविताएँ
कौन सा पथ है?
मार्ग में आकुल – अधीरातुर बटोही यों ही पुकारा
कौन सा पथ है?
महाजन जिस ओर जाएं - शास्त्र हुंकारा
अंतरात्मा ले चले जिस ओर – बोला न्याय पंडित
साथ आओ सर्वसाधारण जनों के – क्रांति वाणी।
पर महाजन - मार्ग - गमोचित न संबल है, न रथ है,
अंतरात्मा अनिश्चय – संशय – ग्रसित,
क्रांति - गति – अनुसरण – योग्या है न पद सामर्थ्य।
कौन सा पथ है?
मार्ग में आकुल – अधीरातुर बटोही यों ही पुकारा
कौन सा पथ है?
जो लिख चुका भारत भूषण अग्रवाल कविता / कविताएँ
जो लिख चुका
वह सब मिथ्या है
उसे मत गहो!
जो लिखा नहीं गया
घुमड़कर भीतर ही रहा
वही सच है
जो मैं देना चाहता हूँ!
लो, यह दे दिया
सूनी हवा की लहरों पर
दिये-सा सिराकर
तुम्हारा नाम!
रचनाकाल : 17 मार्च 1966
वसीयत भारत भूषण अग्रवाल कविता / कविताएँ
भला राख की ढेरी बनकर क्या होगा ?
इससे तो अच्छा है
कि जाने के पहले
अपना सब कुछ दान कर जाऊँ ।
अपनी आँखें
मैं अपनी स्पेशल के ड्राइवर को दे जाऊँगा ।
ताकि वह गाड़ी चलाते समय भी
फ़ुटपाथ पर चलती फुलवारियाँ देख सके
अपने कान
अपने अफ़सर को
कि वे चुग़लियों के शोर में कविता से वंचित न हों
अपना मुँह
नेताजी को
--बेचारे भाषण के मारे अभी भूखे रह जाते हैं
अपने हाथ
श्री चतुर्भुज शास्त्री को
ताकि वे अपना नाम सार्थ्क कर सकें
अपने पैर
उस अभागे चोर को
जिसके, सुना है, पैर नहीं होते हैं
और अपना दिल
मेरी जान ! तुमको
ताकि तुम प्रेम करके भी पतिव्रता बनी रहो !
मेरे खिलौने भारत भूषण अग्रवाल कविता / कविताएँ
कितने सुंदर और सलौने,
देखो मेरे नए खिलौने।
यह देखो फर्तीला घोड़ा,
नहीं चाहिए इसको कोड़ा।
चाबी से चलता है सरपट,
और लौटकर आता झटपट।
यह देखो यह बिल्ली आई,
आ पंजों में गेंद दबाई।
जब भी इसकी पूँछ घुमाऊँ,
यह कहती है ‘म्याऊँ-म्याऊँ’।
कंधे पर बंदूक उठाए,
यह लो वीर सिपाही आए।
ताकत वाले, हिम्मत वाले,
ये हैं इन सबके रखवाले!
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