एक लड़का अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
दयार-ए-शर्क़ की आबादियों के ऊँचे टीलों पर
कभी आमों के बाग़ों में कभी खेतों की मेंडों पर
कभी झीलों के पानी में कभी बस्ती की गलियों में
कभी कुछ नीम उर्यां कमसिनों की रंगरलियों में
सहर-दम झुटपुटे के वक़्त रातों के अँधेरे में
कभी मेलों में नाटक-टोलियों में उन के डेरे में
तआक़ुब में कभी गुम तितलियों के सूनी राहों में
कभी नन्हे परिंदों की नहुफ़्ता ख़्वाब-गाहों में
बरहना पाँव जलती रेत यख़-बस्ता हवाओं में
गुरेज़ाँ बस्तियों से मदरसों से ख़ानक़ाहों में
कभी हम-सिन हसीनों में बहुत ख़ुश-काम ओ दिल-रफ़्ता
कभी पेचाँ बगूला साँ कभी ज्यूँ चश्म-ए-ख़ूँ-बस्ता
हवा में तैरता ख़्वाबों में बादल की तरह उड़ता
परिंदों की तरह शाख़ों में छुप कर झूलता मुड़ता
मुझे इक लड़का आवारा-मनुश आज़ाद सैलानी
मुझे इक लड़का जैसे तुंद चश्मों का रवाँ पानी
नज़र आता है यूँ लगता है जैसे ये बला-ए-जाँ
मिरा हम-ज़ाद है हर गाम पर हर मोड़ पर जौलाँ
इसे हम-राह पाता हूँ ये साए की तरह मेरा
तआक़ुब कर रहा है जैसे मैं मफ़रूर मुल्ज़िम हूँ
ये मुझ से पूछता है अख़्तर-उल-ईमान तुम ही हो
ख़ुदा-ए-इज़्ज़-ओ-जल की नेमतों का मो'तरिफ़ हूँ मैं
मुझे इक़रार है उस ने ज़मीं को ऐसे फैलाया
कि जैसे बिस्तर-ए-कम-ख़्वाब हो दीबा-ओ-मख़मल हो
मुझे इक़रार है ये ख़ेमा-ए-अफ़्लाक का साया
उसी की बख़्शिशें हैं उस ने सूरज चाँद तारों को
फ़ज़ाओं में सँवारा इक हद-ए-फ़ासिल मुक़र्रर की
चटानें चीर कर दरिया निकाले ख़ाक-ए-असफ़ल से
मिरी तख़्लीक़ की मुझ को जहाँ की पासबानी दी
समुंदर मोतियों मूँगों से कानें लाल-ओ-गौहर से
हवाएँ मस्त-कुन ख़ुशबुओं से मामूर कर दी हैं
वो हाकिम क़ादिर-ए-मुतलक़ है यकता और दाना है
अँधेरे को उजाले से जुदा करता है ख़ुद को मैं
अगर पहचानता हूँ उस की रहमत और सख़ावत है
उसी ने ख़ुसरवी दी है लईमों को मुझे नक्बत
उसी ने यावा-गोयों को मिरा ख़ाज़िन बनाया है
तवंगर हिर्ज़ा-कारों को किया दरयूज़ा-गर मुझ को
मगर जब जब किसी के सामने दामन पसारा है
ये लड़का पूछता है अख़्तर-उल-ईमान तुम ही हो
मईशत दूसरों के हाथ में है मेरे क़ब्ज़े में
जुज़ इक ज़ेहन-ए-रसा कुछ भी नहीं फिर भी मगर मुझ को
ख़रोश-ए-उम्र के इत्माम तक इक बार उठाना है
अनासिर मुंतशिर हो जाने नब्ज़ें डूब जाने तक
नवा-ए-सुब्ह हो या नाला-ए-शब कुछ भी गाना है
ज़फ़र-मंदों के आगे रिज़्क़ की तहसील की ख़ातिर
कभी अपना ही नग़्मा उन का कह कर मुस्कुराना है
वो ख़ामा-सोज़ी शब-बेदारियों का जो नतीजा हो
उसे इक खोटे सिक्के की तरह सब को दिखाना है
कभी जब सोचता हूँ अपने बारे में तो कहता हूँ
कि तू इक आबला है जिस को आख़िर फूट जाना है
ग़रज़ गर्दां हूँ बाद-ए-सुब्ह-गाही की तरह लेकिन
सहर की आरज़ू में शब का दामन थामता हूँ जब
ये लड़का पूछता है अख़्तर-उल-ईमान तुम ही हो
ये लड़का पूछता है जब तो मैं झल्ला के कहता हूँ
वो आशुफ़्ता-मिज़ाज अंदोह-परवर इज़्तिराब-आसा
जिसे तुम पूछते रहते हो कब का मर चुका ज़ालिम
उसे ख़ुद अपने हाथों से कफ़न दे कर फ़रेबों का
इसी की आरज़ूओं की लहद में फेंक आया हूँ
मैं उस लड़के से कहता हूँ वो शोला मर चुका जिस ने
कभी चाहा था इक ख़ाशाक-ए-आलम फूँक डालेगा
ये लड़का मुस्कुराता है ये आहिस्ता से कहता है
ये किज़्ब-ओ-इफ़्तिरा है झूट है देखो मैं ज़िंदा हूँ
आख़िरी मुलाक़ात अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मोहब्बत मनाएँ हम!
आती नहीं कहीं से दिल-ए-ज़िंदा की सदा
सूने पड़े हैं कूचा ओ बाज़ार इश्क़ के
है शम-ए-अंजुमन का नया हुस्न जाँ-गुदाज़
शायद नहीं रहे वो पतिंगों के वलवले
ताज़ा न रह सकेंगी रिवायात-ए-दश्त-ओ-दर
वो फ़ित्ना-सर गए जिन्हें काँटे अज़ीज़ थे
अब कुछ नहीं तो नींद से आँखें जलाएँ हम
आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मोहब्बत मनाएँ हम!
सोचा न था कि आएगा ये दिन भी फिर कभी
इक बार फिर मिले हैं, ज़रा मुस्कुरा तो लें!
क्या जाने अब न उल्फ़त-ए-देरीना याद आए
इस हुस्न-ए-इख़्तियार पे आँखें झुका तो लें
बरसा लबों से फूल तिरी उम्र हो दराज़
सँभले हुए तो हैं प ज़रा डगमगा तो लें
और अपना अपना अहद-ए-वफ़ा भूल जाएँ हम
आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मोहब्बत मनाएँ हम!
बरसों की बात है कि मिरे जी में आई थी
मैं सोचता था तुझ से कहूँ, छोड़ क्या कहूँ
अब कौन उन शिकस्ता मज़ारों की बात लाए
माज़ी पे अपने हाल को तरजीह क्यूँ न दूँ
मातम ख़िज़ाँ का हो कि बहारों का, एक है
शायद न फिर मिले तिरी आँखों का ये फ़ुसूँ
जो शम्अ-ए-इंतिज़ार जली थी बुझाएँ हम
आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मोहब्बत मनाएँ हम!
तब्दीली अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
इस भरे शहर में कोई ऐसा नहीं
जो मुझे राह चलते को पहचान ले
और आवाज़ दे ओ बे ओ सर-फिरे
दोनों इक दूसरे से लिपट कर वहीं
गिर्द-ओ-पेश और माहौल को भूल कर
गालियाँ दें हँसें हाथा-पाई करें
पास के पेड़ की छाँव में बैठ कर
घंटों इक दूसरे की सुनें और कहें
और इस नेक रूहों के बाज़ार में
मेरी ये क़ीमती बे-बहा ज़िंदगी
एक दिन के लिए अपना रुख़ मोड़ ले
डासना स्टेशन का मुसाफ़िर अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
कौन सा स्टेशन है?
डासना है साहिब-जी
आप को उतरना है?
'जी नहीं, नहीं,'' लेकिन
डासना तो था ही वो
मेरे साथ 'क़ैसर' थी
ये बड़ी बड़ी आँखें
इक तलाश में खोई
रात भर नहीं सोई
जब मैं उस को पहुँचाने
इस उजाड़ बस्ती में
साथ ले के आया था
मैं ने उन से फिर पूछा
आप मुस्तक़िल शायद
डासना में रहते हैं?
'जी यहाँ पे कुछ मेरी
सूत की दुकानें हैं
कुछ तआम-ख़ाने हैं''
मैं सुना किया बैठा
बोलता रहा वो शख़्स
'कुछ ज़मीन-दारी है
मेरे बाप दादा ने
कुछ मकान छोड़े थे
उन को बेच कर मैं ने
कारोबार खोला है
इस हक़ीर बस्ती में
कौन आ के रहता था
लेकिन अब यही बस्ती
बम्बई है दिल्ली है
क़ीमतें ज़मीनों की
इतनी बढ़ गईं साहिब
इक ज़मीन ही क्या है
खाने पीने की चीज़ें
आम जीने की चीज़ें
भाव दस-गुने हैं अब''
बोलता रहा वो शख़्स
'इस क़दर गिरानी है
आग लग गई जैसे
आसमान हद है बस''
मैं ने चौंक कर पूछा
आसमाँ महल था इक
सय्यदों की बस्ती में
आसमाँ नहीं साहिब
अब महल कहाँ होगा?
हँस पड़ा ये कह कर वो
मेरे ज़ेहन में उस की
बात पय-ब-पय गूँजी
'अब महल कहाँ होगा''
इस दयार में शायद
क़ैसर' अब नहीं रहती
वो बड़ी बड़ी आँखें
अब न देख पाऊँगा
मुल्क का ये बटवारा
ले गया कहाँ उस को
देवढ़ी का सन्नाटा
और हमारी सरगोशी
'मुझ से कितने छोटे हो''
मैं ने कुछ कहा था फिर
उस ने कुछ कहा था फिर
है रक़म कहाँ वो सब
दर्द की गिराँ-जानी
मेरी शोला-अफ़्शानी
उस की जल्वा-सामानी
है रक़म कहाँ वो अब
कर्ब-ए-ज़ीस्त सब मेरा
गुफ़्तुगू का ढब मेरा
उस का हाथ हाथों में
ले के जब मैं कहता था
अब छुड़ाओ तो जानूँ
रस्म-ए-बेवफ़ाई को
आज मो'तबर मानूँ
उस को ले के बाहोँ में
झुक के उस के चेहरे पर
भेंच कर कहा था ये
बोलो कैसे निकलोगी
मेरी दस्तरस से तुम
मेरे इस क़फ़स से तुम
भूरे बादलों का दल
दूर उड़ता जाता है
पेड़ पर कहीं बैठा
इक परिंद गाता है
'चिल-चिल'' इक गिलहरी की
कान में खटकती है
रेल चलने लगती है
राह के दरख़्तों की
छाँव ढलने लगती है
'मुझ से कितने छोटे हो''
और मिरी गिराँ-गोशी
देवढ़ी का सन्नाटा
और हमारी सरगोशी
है रक़म कहाँ वो सब?
दूर उस परिंदे ने
अपना गीत दोहराया
'आज हम ने अपना दिल
ख़ूँ किया हुआ देखा
गुम किया हुआ पाया''
यादें अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
लो वो चाह-ए-शब से निकला पिछले-पहर पीला महताब
ज़ेहन ने खोली रुकते रुकते माज़ी की पारीना किताब
यादों के बे-म'अनी दफ़्तर ख़्वाबों के अफ़्सुर्दा शहाब
सब के सब ख़ामोश ज़बाँ से कहते हैं ऐ ख़ाना-ख़राब
गुज़री बात सदी या पल हो गुज़री बात है नक़्श-बर-आब
ये रूदाद है अपने सफ़र की इस आबाद ख़राबे में
देखो हम ने कैसे बसर की इस आबाद ख़राबे में
शहर-ए-तमन्ना के मरकज़ में लगा हुआ है मेला सा
खेल-खिलौनों का हर-सू है इक रंगीं गुलज़ार खिला
वो इक बालक जिस को घर से इक दिरहम भी नहीं मिला
मेले की सज-धज में खो कर बाप की उँगली छोड़ गया
होश आया तो ख़ुद को तन्हा पा के बहुत हैरान हुआ
भीड़ में राह मिली नहीं घर की इस आबाद ख़राबे में
देखो हम ने कैसे बसर की इस आबाद ख़राबे में
वो बालक है आज भी हैराँ मेला जूँ-का-तूँ है लगा
हैराँ है बाज़ार में चुप-चुप क्या क्या बिकता है सौदा
कहीं शराफ़त कहीं नजाबत कहीं मोहब्बत कहीं वफ़ा
आल-औलाद कहीं बिकती है कहीं बुज़ुर्ग और कहीं ख़ुदा
हम ने इस अहमक़ को आख़िर इसी तज़ब्ज़ुब में छोड़ा
और निकाली राह मफ़र की इस आबाद ख़राबे में
देखो हम ने कैसे बसर की इस आबाद ख़राबे में
होंट तबस्सुम के आदी हैं वर्ना रूह में ज़हर-आगीं
घुपे हुए हैं इतने नश्तर जिन की कोई तादाद नहीं
कितनी बार हुई है हम पर तंग ये फैली हुई ज़मीं
जिस पर नाज़ है हम को इतना झुकी है अक्सर वही जबीं
कभी कोई सिफ़्ला है आक़ा कभी कोई अब्ला फ़र्ज़ीं
बेची लाज भी अपने हुनर की इस आबाद ख़राबे में
देखो हम ने कैसे बसर की आबाद ख़राबे में
काले कोस ग़म-ए-उल्फ़त के और मैं नान-ए-शबीना-जू
कभी चमन-ज़ारों में उलझा और कभी गंदुम की बू
नाफ़ा-ए-मुश्क-ए-ततारी बन कर लिए फिरी मुझ को हर-सू
यही हयात-ए-साइक़ा-फ़ितरत बनी तअत्तुल कभी नुमू
कभी किया रम इश्क़ से ऐसे जैसे कोई वहशी आहू
और कभी मर-मर के सहर की इस आबाद ख़राबे में
देखो हम कैसे बसर की इस आबाद ख़राबे में
कभी ग़नीम-ए-जौर-ओ-सितम के हाथों खाई ऐसी मात
अर्ज़-ए-अलम में ख़्वार हुए हम बिगड़े रहे बरसों हालात
और कभी जब दिन निकला तो बीत गए जुग हुई न रात
हर-सू मह-वश सादा क़ातिल लुत्फ़-ओ-इनायत की सौग़ात
शबनम ऐसी ठंडी निगाहें फूलों की महकार सी बात
जूँ-तूँ ये मंज़िल भी सर की इस आबाद ख़राबे में
देखो हम ने कैसे बसर की इस आबाद ख़राबे में
राह-नवर्द-ए-शौक़ को रह में कैसे कैसे यार मिले
अब्र-ए-बहाराँ अक्स-ए-निगाराँ ख़ाल-ए-रुख़-ए-दिल-दार मिले
कुछ बिल्कुल मिट्टी के माधो कुछ ख़ंजर की धार मिले
कुछ मंजधार में कुछ साहिल पर कुछ दरिया के पार मिले
हम सब से हर हाल में लेकिन यूँही हाथ पसार मिले
सिर्फ़ उन की ख़ूबी पे नज़र की इस आबाद ख़राबे में
देखो हम ने कैसे बसर की इस आबाद ख़राबे में
सारी है बे-रब्त कहानी धुँदले धुँदले हैं औराक़
कहाँ हैं वो सब जिन से जब थी पल-भर की दूरी भी शाक़
कहीं कोई नासूर नहीं गो हाएल है बरसों का फ़िराक़
किर्म-ए-फ़रामोशी ने देखो चाट लिए कितने मीसाक़
वो भी हम को रो बैठे हैं चलो हुआ क़र्ज़ा बे-बाक़
खुली तो आख़िर बात असर की इस आबाद ख़राबे में
देखो हम ने कैसे बसर की इस आबाद ख़राबे में
ख़्वाब थे इक दिन औज-ए-ज़मीं से काहकशाँ को छू लेंगे
खेलेंगे गुल-रंग शफ़क़ से क़ौस-ए-क़ुज़ह में झूलेंगे
बाद-ए-बहारी बन के चलेंगे सरसों बन कर फूलेंगे
ख़ुशियों के रंगीं झुरमुट में रंज-ओ-मेहन सब भूलेंगे
दाग़-ए-गुल-ओ-ग़ुंचा के बदले महकी हुई ख़ुश्बू लेंगे
मिली ख़लिश पर ज़ख़्म-ए-जिगर की इस आबाद ख़राबे में
देखो हम ने कैसे बसर की इस आबाद ख़राबे में
ख़्वार हुए दमड़ी के पीछे और कभी झोली-भर माल
ऐसे छोड़ के उट्ठे जैसे छुआ तो कर देगा कंगाल
स्याने बन कर बात बिगाड़ी ठीक पड़ी सादा सी चाल
छाना दश्त-ए-मोहब्बत कितना आबला-पा मजनूँ की मिसाल
कभी सिकंदर कभी क़लंदर कभी बगूला कभी ख़याल
स्वाँग रचाए और गुज़र की इस आबाद ख़राबे में
देखो हम ने कैसे बसर की इस आबाद ख़राबे में
ज़ीस्त ख़ुदा जाने है क्या शय भूक तजस्सुस अश्क फ़रार
फूल से बच्चे ज़ोहरा-जबीनें मर्द मुजस्सम बाग़-ओ-बहार
किया है रूह-ए-अर्ज़ को आख़िर और ये ज़हरीले अफ़्कार
किस मिट्टी से उगते हैं सब जीना क्यूँ है इक बेगार
इन बातों से क़त-ए-नज़र की इस आबाद ख़राबे में
देखो हम ने कैसे बसर की आबाद ख़राबे में
दूर कहीं वो कोयल कूकी रात के सन्नाटे में दूर
कच्ची ज़मीं पर बिखरा होगा महका महका आम का बोर
बार-ए-मशक़्क़त कम करने को खलियानों में काम से चूर
कम-सिन लड़के गाते होंगे लो देखो वो सुब्ह का नूर
चाह-ए-शब से फूट के निकला मैं मग़्मूम कभी मसरूर
सोच रहा हूँ इधर उधर की इस आबाद ख़राबे में
देखो हम ने कैसे बसर की इस आबाद ख़राबे में
नींद से अब भी दूर हैं आँखें गो कि रहीं शब-भर बे-ख़्वाब
यादों के बे-म'अनी दफ़्तर ख़्वाबों के अफ़्सुर्दा शहाब
सब के सब ख़ामोश ज़बाँ से कहते हैं ऐ ख़ाना-ख़राब
गुज़री बात सदी या पल हो गुज़री बात है नक़्श-बर-आब
मुस्तक़बिल की सोच, उठा ये माज़ी की पारीना किताब
मंज़िल है ये होश-ओ-ख़बर की इस आबाद ख़राबे में
देखो हम ने कैसे बसर की इस आबाद ख़राबे में
बाज़-आमद --- एक मुन्ताज अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
तितलियाँ नाचती हैं
फूल से फूल पे यूँ जाती हैं
जैसे इक बात है जो
कान में कहनी है ख़ामोशी से
और हर फूल हँसा पड़ता है सुन कर ये बात
धूप में तेज़ी नहीं
ऐसे आता है हर इक झोंका हवा का जैसे
दस्त-ए-शफ़क़त है बड़ी उम्र की महबूबा का
और मिरे शानों को इस तरह हिला जाता है
जैसे मैं नींद में हूँ
औरतें चर्ख़े लिए बैठी हैं
कुछ कपास ओटती हैं
कुछ सिलाई के किसी काम में मसरूफ़ हैं यूँ
जैसे ये काम है दर-अस्ल हर इक शय की असास
एक से एक चुहुल करती है
कोई कहती है मिरी चूड़ियाँ खनकीं तो खंखारी मिरी सास
कोई कहती है भरी चाँदनी आती नहीं रास
रात की बात सुनाती है कोई हँस हँस कर
बात की बात सुनाती है कोई हँस हँस कर
लज़्ज़त-ए-वस्ल है आज़ार, कोई कहती है
मैं तो बन जाती हूँ बीमार, कोई कहती है
मैं भी घुस आता हूँ इस शीश-महल में देखो
सब हँसी रोक के कहती हैं निकालो इस को
इक परिंदा किसी इक पेड़ की टहनी पे चहकता है कहीं
एक गाता हुआ यूँ जाता है धरती से फ़लक की जानिब
पूरी क़ुव्वत से कोई गेंद उछाले जैसे
इक फुदकता है सर-ए-शाख़ पे जिस तरह कोई
आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहारी की ख़ुशी में नाचे
गूँदनी बोझ से अपने ही झुकी पड़ती है
नाज़नीं जैसे है कोई ये भरी महफ़िल में
और कल हाथ हुए हैं पीले
कोयलें कूकती हैं
जामुनें पक्की हैं, आमों पे बहार आई है
अरग़नूँ बजता है यकजाई का
नीम के पेड़ों में झूले हैं जिधर देखो उधर
सावनी गाती हैं सब लड़कियाँ आवाज़ मिला कर हर-सू
और इस आवाज़ से गूँज उट्ठी है बस्ती सारी
मैं कभी एक कभी दूसरे झूले के क़रीं जाता हूँ
एक ही कम है, वही चेहरा नहीं
आख़िरश पूछ ही लेता हूँ किसी से बढ़ कर
क्यूँ हबीबा नहीं आई अब तक?
खिलखिला पड़ती हैं सब लड़कियाँ सुन कर ये नाम
लो ये सपने में हैं, इक कहती है
बाओली सपना नहीं, शहर से आए हैं अभी
दूसरी टोकती है
बात से बात निकल चलती है
ठाट की आई थी बारात, चम्बेली ने कहा
बैंड-बाजा भी था, दीपा बोली
और दुल्हन पे हुआ कितना बिखेर
कुछ न कुछ कहती रहीं सब ही मगर मैं ने सिर्फ़
इतना पूछा वो नदी बहती है अब भी, कि नहीं
जिस से वाबस्ता हैं हम और ये बस्ती सारी?
क्यूँ नहीं बहती, चम्बेली ने कहा
और वो बरगद का घना पेड़ किनारे उस के?
वो भी क़ाएम है अभी तक यूँही
वादा कर के जो 'हबीबा' नहीं आती थी कभी
आँखें धोता था नदी में जाकर
और बरगद की घनी छाँव में सो जाता था
माह ओ साल आते, चले जाते हैं
फ़स्ल पक जाती है, कट जाती है
कोई रोता नहीं इस मौक़े पर
हल्क़ा-दर-हल्क़ा न आहन को तपा कर ढालें
कोई ज़ंजीर न हो!
ज़ीस्त-दर-ज़ीस्त का ये सिलसिला बाक़ी न रहे!
भीड़ है बच्चों की छोटी सी गली में देखो
एक ने गेंद जो फेंकी तो लगी आ के मुझे
मैं ने जा पकड़ा उसे, देखी हुई सूरत थी
किस का है मैं ने किसी से पूछा?
ये हबीबा का है, रमज़ानी क़साई बोला
भोली सूरत पे हँसी आ गई उस की मुझ को
वो भी हँसने लगा, हम दोनों यूँही हँसते रहे!
देर तक हँसते रहे!
तितलियाँ नाचती हैं
फूल से फूल पे यूँ जाती हैं
जैसे इक बात है जो
कान में कहनी है ख़ामोशी से
और हर फूल हँसा पड़ता है सुन कर ये बात!
मस्जिद अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
दूर बरगद की घनी छाँव में ख़ामोश ओ मलूल
जिस जगह रात के तारीक कफ़न के नीचे
माज़ी ओ हाल गुनहगार नमाज़ी की तरह
अपने आमाल पे रो लेते हैं चुपके चुपके
एक वीरान सी मस्जिद का शिकस्ता सा कलस
पास बहती हुई नद्दी को तका करता है
और टूटी हुई दीवार पे चंडोल कभी
गीत फीका सा कोई छेड़ दिया करता है
गर्द-आलूद चराग़ों को हवा के झोंके
रोज़ मिट्टी की नई तह में दबा जाते हैं
और जाते हुए सूरज के विदाई अन्फ़ास
रौशनी आ के दरीचों की बुझा जाते हैं
हसरत-ए-शाम-ओ-सहर बैठ के गुम्बद के क़रीब
इन परेशान दुआओं को सुना करती है
जो तरसती ही रहीं रंग-ए-असर की ख़ातिर
और टूटा हुआ दिल थाम लिया करती है
या अबाबील कोई आमद-ए-सरमा के क़रीब
उस को मस्कन के लिए ढूँड लिया करती है
और मेहराब-ए-शिकस्ता में सिमट कर पहरों
दास्ताँ सर्द मुमालिक की कहा करती है
एक बूढ़ा गधा दीवार के साए में कभी
ऊँघ लेता है ज़रा बैठ के जाते जाते
या मुसाफ़िर कोई आ जाता है वो भी डर कर
एक लम्हे को ठहर जाता है आते आते
फ़र्श जारोब-कशी क्या है समझता ही नहीं
कल-अदम हो गया तस्बीह के दानों का निज़ाम
ताक़ में शम्अ के आँसू हैं अभी तक बाक़ी
अब मुसल्ला है न मिम्बर न मुअज़्ज़िन न इमाम
आ चुके साहब-ए-अफ़्लाक के पैग़ाम ओ सलाम
कोह ओ दर अब न सुनेंगे वो सदा-ए-जिब्रील
अब किसी काबे की शायद न पड़ेगी बुनियाद
खो गई दश्त-ए-फ़रामोशी में आवाज़-ए-ख़लील
चाँद फीकी सी हँसी हँस के गुज़र जाता है
डाल देते हैं सितारे धुली चादर अपनी
इस निगार-ए-दिल-ए-यज़्दाँ के जनाज़े पे बस इक
चश्म नम करती है शबनम यहाँ अक्सर अपनी
एक मैला सा अकेला सा फ़सुर्दा सा दिया
रोज़ राशा-ज़दा हाथों से कहा करता है
तुम जलाते हो कभी आ के बुझाते भी नहीं
एक जलता है मगर एक बुझा करता है
तेज़ नद्दी की हर इक मौज तलातुम-बर-दोश
चीख़ उठती है वहीं दूर से फ़ानी फ़ानी
कल बहा लूँगी तुझे तोड़ के साहिल की क़ुयूद
और फिर गुम्बद ओ मीनार भी पानी पानी
ज़िंदगी का वक़्फ़ा अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
रात सन्नाटे की चादर में पड़ी है लिपटी
पत्तियाँ सड़कों की सब जाग रही हैं जैसे
देखना चाहती हैं शहर में क्या होता है
मैं हमेशा की तरह होंटों में सिगरेट को दबाए
सोने से पहले ख़यालात में खोया हुआ हूँ
दिन में क्या कुछ किया इक जाएज़ा लेता है ज़मीर
एक सादा सा वरक़ नामा-ए-आमाल है सब
कुछ नहीं लिक्खा ब-जुज़ इस के पिसे जाओ यूँही
कुछ नहीं लिखा बस इक इतना कि इंसाँ का नसीब
गीली गूंधी हुई मिट्टी का है इक तोदा सा
दिन में सौ शक्लें बना करती हैं इस मिट्टी से
कुछ नहीं लिखा बस इक इतना कि च्यूँटी दिल है
जौक़-दर-जौक़ जो इंसान नज़र आते हैं
दाना ले कर किसी दीवार पे चढ़ना गिरना
और फिर चढ़ना चढ़े जाना यूँही शाम ओ सहर
कुछ नहीं लिक्खा बस इतना कि पिसे जाओ यूँही
और अंदोह तअस्सुफ़ ख़ुशी आलाम नशात
ख़ुद को सौ नामों से बहलाते रहो चलते रहो
साँस रुक जाए जहाँ समझो वहीं मंज़िल है
और इस दौड़ से थक जाओ तो सिगरेट पी लो
बे-चारगी
अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
हज़ार बार हुआ यूँ कि जब उमीद गई
गुलों से राब्ता टूटा न ख़ार अपने रहे
गुमाँ गुज़रने लगा हम खड़े हैं सहरा में
फ़रेब खाने की जा रह गई, न सपने रहे
नज़र उठा के कभी देख लेते थे ऊपर
न जाने कौन से आमाल की सज़ा है कि आज
ये वाहिमा भी गया सर पे आसमाँ है कोई
आमादगी अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
एक इक ईंट गिरी पड़ी है
सब दीवारें काँप रही हैं
अन-थक कोशिशें मे'मारों की
सर को थामे हाँप रही हैं
मोटे मोटे शहतीरों का
रेशा रेशा छूट गया है
भारी भारी जामिद पत्थर
एक इक कर के टूट गया है
लोहे की ज़ंजीरें गल कर
अब हिम्मत ही छोड़ चुकी हैं
हल्क़ा हल्क़ा छूट गया है
बंदिश बंदिश तोड़ चुकी हैं
चूने की इक पतली सी तह
गिरते गिरते बैठ गई है
नब्ज़ें छूट गईं मिट्टी की
मिट्टी से सर जोड़ रही है
सब कुछ ढेर है अब मिट्टी का
तस्वीरें वो दिलकश नक़्शे
पहचानो तो रो दोगी तुम
घर में हूँ बाहर हूँ घर से
अब आओ तो रक्खा क्या है
चश्मे सारे सूख गए हैं
यूँ चाहो तो आ सकती हो
मैं ने आँसू पोंछ लिए हैं
एक एहसास अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
ग़ुनूदगी सी रही तारी उम्र भर हम पर
ये आरज़ू ही रही थोड़ी देर सो लेते
ख़लिश मिली है मुझे और कुछ नहीं अब तक
तिरे ख़याल से ऐ काश दर्द धो लेते
मिरे अज़ीज़ो मिरे दोस्तो गवाह रहो
बिरह की रात कटी आमद-ए-सहर न हुई
शिकस्ता-पा ही सही हम-सफ़र रहा फिर भी
उम्मीद टूटी कई बार मुंतशिर न हुई
हयूला कैसे बदलता है वक़्त हैराँ हूँ
फ़रेब और न खाए निगाह डरता हूँ
ये ज़िंदगी भी कोई ज़िंदगी है पल पल में
हज़ार बार सँभलता हूँ और मरता हूँ
वो लोग जिन को मुसाफ़िर-नवाज़ कहते थे
कहाँ गए कि यहाँ अजनबी हैं साथी भी
वो साया-दार शजर जो सुना था राह में हैं
सब आँधियों ने गिरा डाले अब कहाँ जाएँ
ये बोझ और नहीं उठता कुछ सबील करो
चलो हँसेंगे कहीं बैठ कर ज़माने पर
आगही अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
मैं जब तिफ़्ल-ए-मकतब था, हर बात, हर फ़ल्सफ़ा जानता था
खड़े हो के मिम्बर पे पहरों सलातीन-ए-पारीन-ओ-हाज़िर
हिकायात-ए-शीरीन-ओ-तल्ख़ उन की, उन के दरख़्शाँ जराएम
जो सफ़्हात-ए-तारीख़ पर कारनामे हैं, उन के अवामिर
नवाही, हकीमों के अक़वाल, दाना ख़तीबों के ख़ुत्बे
जिन्हें मुस्तमंदों ने बाक़ी रक्खा उस का मख़्फ़ी ओ ज़ाहिर
फ़ुनून-ए-लतीफ़ा ख़ुदावंद के हुक्म-नामे, फ़रामीन
जिन्हें मस्ख़ करते रहे पीर-ज़ादे, जहाँ के अनासिर
हर इक सख़्त मौज़ू पर इस तरह बोलता था कि मुझ को
समुंदर समझते थे सब इल्म ओ फ़न का, हर इक मेरी ख़ातिर
तग-ओ-दौ में रहता था, लेकिन यकायक हुआ क्या ये मुझ को
ये महसूस होता है सोते से उट्ठा हूँ, हिलने से क़ासिर
किसी बहर के सूने साहिल पे बैठा हूँ गर्दन झुकाए
सर-ए-शाम आई है देखो तो है आगही कितनी शातिर!
तन्हाई में अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
मेरे शानों पे तिरा सर था निगाहें नमनाक
अब तो इक याद सी बाक़ी है सो वो भी क्या है
घर गया ज़ेहन ग़म-ए-ज़ीस्त के अंदाज़ों में
हर हथेली पे धरे सोच रहा हूँ बैठा
काश उस वक़्त कोई पीर-ए-ख़मीदा आ कर
किसी आज़ुर्दा तबीअ'त का फ़साना कहता
इक धुँदलका सा है दम तोड़ चुका है सूरज
दिन के दामन पे हैं धब्बे से रिया-कारी के
और मग़रिब की फ़ना-गाह में फैला हुआ ख़ूँ
दबता जाता है सियाही की तहों के नीचे
दूर तालाब के नज़दीक वो सूखी सी बबूल
चंद टूटे हुए वीरान मकानों से परे
हाथ फैलाए बरहना सी खड़ी है ख़ामोश
जैसे ग़ुर्बत में मुसाफ़िर को सहारा न मिले
उस के पीछे से झिजकता हुआ इक गोल सा चाँद
उभरा बे-नूर शुआ'ओं के सफ़ीने को लिए
मैं अभी सोच रहा हूँ कि अगर तू मिल जाए
ज़िंदगी-गो है गिराँ-बार प इतनी न रहे
चंद आँसू ग़म-ए-गीती के लिए चंद नफ़स
एक घाव है जिसे यूँ ही सिए जाते हैं
मैं अगर जी भी रहा हूँ तो तअ'ज्जुब क्या है
मुझ से लाखों हैं जो बे-सूद जिए जाते हैं
कोई मरकज़ ही नहीं मेरे तख़य्युल के लिए
इस से क्या फ़ाएदा जीते रहे और जी न सके
अब इरादा है कि पत्थर के सनम पूजूँगा
ताकि घबराऊँ तो टकरा भी सकूँ मर भी सकूँ
ऐसे इंसानों से पत्थर के सनम अच्छे हैं
उन के क़दमों पे मचलता हो दमकता हुआ ख़ूँ
और वो मेरी मोहब्बत पे कभी हँस न सकें
मैं भी बे-रंग निगाहों की शिकायत न करूँ
या कहीं गोशा-ए-अहराम के सन्नाटे में
जा के ख़्वाबीदा फ़राईन से इतना पूछूँ
हर ज़माने में कई थे कि ख़ुदा एक ही था
अब तो इतने हैं कि हैरान हूँ किस को पूजूँ
अब तो मग़रिब की फ़ना-गाह में वो सोग नहीं
अक्स तहरीर है इक रात का हल्का हल्का
और पुर-सोज़ धुँदलके से वही गोल सा चाँद
अपनी बे-नूर शुआ'ओं का सफ़ीना खेता
उभरा नमनाक निगाहों से मुझे तकता हुआ
जैसे घुल कर मिरे आँसू में बदल जाएगा
हाथ फैलाए उधर देख रही है वो बबूल
सोचती होगी कोई मुझ सा है ये भी तन्हा
आईना बन के शब-ओ-रोज़ तका करता है
कैसा तालाब है जो उस को हरा कर न सका
यूँ गुज़ारे से गुज़र जाएँगे दिन अपने भी
पर ये हसरत ही रहेगी कि गुज़ारे न गए
ख़ून पी पी के पिला करती है अंगूर की बेल
गर यही रंग-ए-तमन्ना था चलो यूँही सही
ख़ून पीती रही बढ़ती रही कोंपल कोंपल
छाँव तारों की शगूफ़ों को नुमू देती रही
नर्म शाख़ों को थपकते रहे अय्याम के हाथ
यूँही दिन बीत गए सुब्ह हुई शाम हुई
अब मगर याद नहीं क्या था मआल-ए-उम्मीद
एक तहरीर है हल्की सी लहू की बाक़ी
बेल फलती है तो काँटों को छुपा लेती है
ज़िंदगी अपनी परेशाँ थी परेशाँ ही रही
चाहता ये था मिरे ज़ख़्म के अंगूर बंधें
ये न चाहा था मिरा जाम-ए-तही रह जाए
हाथ फैलाए उधर देख रही है वो बबूल
सोचती होगी कोई मुझ सा है ये भी तन्हा
घिर गया ज़ेहन ग़म-ए-ज़ीस्त के अंदाज़ों में
कैसा तालाब है जो उस को हरा कर न सका
काश इस वक़्त कोई पीर-ए-ख़मीदा आ कर
मेरे शानों को थपकता ग़म-ए-तन्हाई में
बिंत-ए-लम्हात अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
तुम्हारे लहजे में जो गर्मी ओ हलावत है
उसे भला सा कोई नाम दो वफ़ा की जगह
ग़नीम-ए-नूर का हमला कहो अंधेरों पर
दयार-ए-दर्द में आमद कहो मसीहा की
रवाँ-दवाँ हुए ख़ुश्बू के क़ाफ़िले हर-सू
ख़ला-ए-सुब्ह में गूँजी सहर की शहनाई
ये एक कोहरा सा, ये धुँद सी जो छाई है
इस इल्तिहाब में, इस सुर्मगीं उजाले में
सिवा तुम्हारे मुझे कुछ नज़र नहीं आता
हयात नाम है यादों का, तल्ख़ और शीरीं
भला किसी ने कभी रंग ओ बू को पकड़ा है
शफ़क़ को क़ैद में रक्खा सबा को बंद किया
हर एक लम्हा गुरेज़ाँ है, जैसे दुश्मन है
न तुम मिलोगी न मैं, हम भी दोनों लम्हे हैं
वो लम्हे जा के जो वापस कभी नहीं आते!
अपाहिज गाड़ी का आदमी अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
कुछ ऐसे हैं जो ज़िंदगी को मह-ओ-साल से नापते हैं
गोश्त से साग से दाल से नापते हैं
ख़त-ओ-ख़ाल से गेसुओं की महक चाल से नापते हैं
सऊबत से जंजाल से नापते हैं
या अपने आमाल से नापते हैं
मगर हम इसे अज़्म-ए-पामाल से नापते हैं
ये लम्हा जो गुज़रा मिरे ख़ून की उस में सुर्ख़ी मिली है?
मिरे आँसुओं का नमक इस की लज़्ज़त में शामिल हुआ है?
पसीने से गिर्दाब-ए-साहिल हुआ है?
ये ला का सफ़र ला रहेगा कि कुछ इस का हासिल हुआ है
कि जैसे थी बरसों से वैसी ही तिश्ना-दिली है?
में कब से ज़मीं पर ज़मीं की तरह चल रहा हूँ
ये दीवाना अंधा सफ़र कब कहाँ जा के छोड़ेगा मुझ को?
मैं इस ज़िंदगी की बहुत सी बहारें ग़िज़ा की तरह खा चुका हूँ
पहन ओढ़ कर पैरहन की तरह फाड़ दी हैं
में रेशम का कीड़ा हूँ कोए में छप जाता हूँ डर के मारे
इसी कोए को खाता रहता हूँ और काट कर इस से आता हूँ बाहर
और अपने जीने का मक़्सद सबब जानना चाहता हूँ
मिरा दिल ख़ुदा की रज़ा ढूँढता फिर रहा है
मिरा जिस्म लज़्ज़ात की जुस्तुजू में लगा है
गुज़रगाह-ए-शाम-ओ-सहर पर कहीं एक दिन मैं उगा था
नबातात की तरह जीता हूँ इस कारगाह-ए-जहाँ में
न एहसास ईमान ईक़ान कोई
न दुनिया में शामिल न ख़ुद अपनी पहचान कोई
गुनह और जहन्नम सवाब और जन्नत?
ये क्यूँ है कि बे-मुज़द कुछ भी नहीं मिल सका है
न कल मिल सकेगा
असातीर फ़रमाँ-रवाओं के अहकाम और सूफ़िया की करामत के क़िस्से
पयम्बर की दिल-सोज़ियों के मज़ाहिर
क़लम-बंद हैं सब!
उन्हें हम ने तावीज़ की तरह अपने गलों में हमाइल किया है
इन्हें हम ने तह-ख़ानों की कोठरी में मुक़फ़्फ़ल किया है
जहाँ लड़खड़ाते हैं इन की मदद ले के चलते हैं आगे
मगर रास्तों का तअय्युन नहीं है!
मैं बिखरा हुआ आदमी हूँ
मिरी ज़ेहनी बीमारियों का सबब ये ज़मीं है
मैं उस दिन से डरता हूँ जब बर्फ़ सारी पिघल कर
इसे ग़र्क़ कर दे
नए आसमानी हवादिस
सिफ़र में बदल दें
या आदमी अपने आमाल से ख़ुद
इसे इक कहानी बना दे
ज़मीं शोरा पुश्तों की आमाज-गह बन गई है
ख़ुदा एक है यूँ तो वावैन में साफ़ लिक्खा हुआ है
मगर ज़ेर-ए-वावैन भी छोटी छोटी बहुत तख़्तियाँ हैं
जली हर्फ़ जिन के बहुत उम्मतों का पता दे रहे हैं
जो ये तख़्तियाँ अपनी गर्दन में लटकाए
ज़ुन्नार पहने हुए कोई तस्बीह थामे
अपनी गर्द-ए-सफ़र के धुँद में लिपटे चले जा रहे हैं
ज़ैतून की शाख़ तुलसी के पत्ते
हवा में उड़े जा रहे हैं
चियूँटियों की क़तारें क़रन-दर-क़रन
मुख़्तलिफ़ पेच-दर-पेच राहों से गुज़री चली जा रही हैं
सैकड़ों सर कटे धड़ बहुत रास्तों पर पड़े हैं
हवन हो रहे हैं
यज्ञ के मंत्रों की सदा
आग में जलने वाली सामग्री की बहुत तेज़ बू
हर तरफ़ फैल कर बस गई है हवा में
और वावैन की क़ैद में जो ख़ुदा है
ला-मकाँ से
जो होता है होता रहेगा
बैठा चुप-चाप सब देखता है
हम भी क्यूँ न ख़ुदा की तरह यूँही चुप साध लें
पेड़ पौदों की मानिंद जीते रहें
ज़ब्ह होते रहें!
वो दुआएँ जो बारूद की बू में बस कर
भटकती हुई ज़ेर-ए-अर्श-ए-बरीं फिर रही हैं
उन्हें भूल जाएँ
ज़िंदगी को ख़ुदा की अता जान कर ज़ेहन माऊफ़ कर लें
यावा-गोई में या ज़ेहनी हिज़्यान में ख़ुद को मसरूफ़ कर लें
उन में मिल जाएँ जो ज़िंदगी को
गोश्त से साग से दाल से नापते हैं
मह-ओ-साल से नापते हैं
अपना ही ख़ून पीने लगे हैं
चाक-दामानियाँ ग़म से सीने लगे हैं
अहद-ए-वफ़ा अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
यही शाख़ तुम जिस के नीचे किसी के लिए चश्म-ए-नम हो यहाँ अब से कुछ साल पहले
मुझे एक छोटी सी बच्ची मिली थी जिसे मैं ने आग़ोश में ले के पूछा था बेटी
यहाँ क्यूँ खड़ी रो रही हो मुझे अपने बोसीदा आँचल में फूलों के गहने दिखा कर
वो कहने लगी मेरा साथी उधर उस ने उँगली उठा कर बताया उधर उस तरफ़ ही
जिधर ऊँचे महलों के गुम्बद मिलों की सियह चिमनियाँ आसमाँ की तरफ़ सर उठाए खड़ी हैं
ये कह कर गया है कि मैं सोने चाँदी के गहने तिरे वास्ते लेने जाता हूँ 'रामी'
दिल्ली की गलियाँ तीन मंज़र अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
पहला मंज़र
सन उन्नीस सौ अड़तीस है
सर्दी की ठिठुरी रातें हैं
रात के कोई आठ बजे हैं
आज ये सब गुज़री बातें हैं
मोरी दरवाज़े के बाहर
नशे में धुत फ़ौजी गोरे
अंग्रेज़ी सरकार के छोरे
ताँगे वालों को पीट रहे हैं
ताँगे वाले घबरा घबरा कर
इधर-उधर सब भाग रहे हैं
और सिपाही आँख चुरा कर
दूसरी जानिब देख रहे हैं
चलते चलते राह में रुक कर
मैं ये मंज़र देख रहा हूँ
दूसरा मंज़र
फ़त्ह-पुरी मस्जिद के आगे
चाँदनी-चौक का लम्बा रस्ता
लाल-क़िलए' तक ले जाता है
हाथ में थामे अपना बस्ता
मैं मकतब की सम्त रवाँ हूँ
शाहजहाँ के लाल-क़िलए' पर
गोरों का पहरा बैठा है
चाँदनी-चौक में दाएँ-बाएँ
गलियों कूचों बाज़ारों में
बिजली के खम्बों पर हर-सू
ढेरों लड़के चढ़े हुए हैं
और तारों को काट रहे हैं
पुलिस गोली चला रही है
चलते चलते राह में रुक कर
मैं ये मंज़र देख रहा हूँ
तीसरा मंज़र
गोरे लंदन चले गए हैं
माँगें पूरी हो गईं आज
नेता राह-नुमा सब ख़ुश हैं
मुल्क ने पाया है स्वराज
लाल-क़िलए' पर आज़ादी का
सह-रंगा परचम लहराया
दिल्ली की गलियों में सब ने
आज़ादी का जश्न मनाया
लेकिन एका-एकी जैसे
पर्दा उट्ठा मंज़र बदला
धुँद सी छाई है हर जानिब
जो कुछ है सब गदला गदला
कोई नहीं सुनता है किसी की
हो गए लोग अचानक बहरे
रेलों में बे-सर की लाशें
सड़कों पर बे-धड़ के चेहरे
हरीजन बस्ती की कुटिया में
ख़ून से लत-पत लहूलुहान
कुटिया जैसे इक शमशान
गाँधी जी की लाश पड़ी है
आज़ादी कुछ दूर खड़ी है
बुलावा अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
नगर नगर के देस देस के पर्बत टीले और बयाबाँ
ढूँड रहे हैं अब तक मुझ को खेल रहे हैं मेरे अरमाँ
मेरे सपने मेरे आँसू इन की छलनी-छाँव में जैसे
धूल में बैठे खेल रहे हों बालक बाप से रूठे रूठे!
दिन के उजाले साँझ की लाली रात के अँधियारे से कोई
मुझ को आवाज़ें देता है आओ आओ आओ आओ
मेरी रूह की ज्वाला मुझ को फूँक रही है धीरे धीरे
मेरी आग भड़क उट्ठी है कोई बुझाओ कोई बुझाओ
मैं भटका भटका फिरता हूँ खोज में तेरी जिस ने मुझ को
कितनी बार पुकारा लेकिन ढूँड न पाया अब तक तुझ को
मेरे संगी मेरे साथी तेरे कारन छूट गए हैं
तेरे कारन जग से मेरे कितने नाते टूट गए हैं
मैं हूँ ऐसा पात हवा में पेड़ से जो टूटे और सोचे
धरती मेरी गोर है या घर ये नीला आकाश जो सर पर
फैला फैला है और इस के सूरज चाँद सितारे मिल कर
मेरा दीप जला भी देंगे या सब के सब रूप दिखा कर
एक इक कर के खो जाएँगे जैसे मेरे आँसू अक्सर
पलकों पर थर्रा थर्रा कर तारीकी में खो जाते हैं
जैसे बालक माँग माँग कर नए खिलौने सो जाते हैं!
काले सफ़ेद परों वाला परिंदा और मेरी एक शाम अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
जब दिन ढल जाता है, सूरज धरती की ओट में हो जाता है
और भिड़ों के छत्ते जैसी भिन-भिन
बाज़ारों की गर्मी, अफ़रा-तफ़री
मोटर, बस, बर्क़ी रेलों का हंगामा थम जाता है
चाय-ख़ानों नाच-घरों से कम-सिन लड़के
अपने हम-सिन माशूक़ों को
जिन की जिंसी ख़्वाहिश वक़्त से पहले जाग उठी है
ले कर जा चुकते हैं
बढ़ती फैलती ऊँची हिमाला जैसी तामीरों पर ख़ामोशी छा जाती है
थेटर तफ़रीह-गाहों में ताले पड़ जाते हैं
और ब-ज़ाहिर दुनिया सो जाती है
मैं अपने कमरे में बैठा सोचा करता हूँ
कुत्तों की दुम टेढ़ी क्यूँ होती है
ये चितकबरी दुनिया जिस का कोई भी किरदार नहीं है
कोई फ़ल्सफ़ा कोई पाइंदा अक़दार नहीं, मेआर नहीं है
इस पर अहल-ए-दानिश विद्वान, फ़लसफ़ी
मोटी मोटी अदक़ किताबें क्यूँ लिक्खा करते हैं?
फ़ुर्क़त' की माँ ने शौहर के मरने पर कितना कोहराम मचाया था
लेकिन इद्दत के दिन पूरे होने से इक हफ़्ता पहले
नीलम' के मामूँ के साथ बदायूँ जा पहुँची थी
बी-बी की सेहनक, कोंडे, फ़ातिहा-ख़्वानी
जंग-ए-सिफ्फ़ीन, जमल और बदर के क़िस्सों
सीरत-ए-नबवी, तर्क-ए-दुनिया और मौलवी-साहब के हलवे मांडे में क्या रिश्ता है?
दिन तो उड़ जाते हैं
ये सब काले पर वाले बगुले हैं
जो हँसते खेलते लम्हों को
अपने पंखों में मूँद के आँखों से ओझल हो जाते हैं
राहत जैसे ख़्वाब है ऐसे इंसानों का
जिन की उम्मीदों के दामन में पैवंद लगे हैं
जामा एक तरफ़ सीते हैं दूसरी जानिब फट जाता है
ये दुनिया लम्हा लम्हा जीती है
मर्यम' अब कपड़े सेती है
आँखों की बीनाई साथ नहीं देती अब
और 'ग़ज़ंफ़र'
जो रूमाल में लड्डू बाँध के उस के घर में फेंका करता था
और उस की आँखों की तौसीफ़ में ग़ज़लें लिखवा कर लाया करता था
उस ने और कहीं शादी कर ली है
अब अपनी लकड़ी की टाल पे बैठा
अपनी कज-राई और जवानी के क़िस्से दोहराया करता है
टाल से उठ कर जब घर में आता है
बेटी पर क़दग़न रखता है
नए ज़माने की औलाद अब वैसी नहीं रह गई
बदकारी बढ़ती जाती है
जो दिन बीत गए कितने अच्छे थे!
बरगद के नीचे बैठो या सूली चढ़ जाओ
भैंसे लड़ने से बाज़ नहीं आएँगे
मौत से हम ने एक तआवुन कर रक्खा है
सड़कों पर से हर लम्हा इक मय्यत जाती है
पस-मंज़र में क्या होता है नज़र कहाँ जाती है
सामने जो कुछ है रंगों आवाज़ों चेहरों का मेला है!
गुर्गल उड़ कर वो पिलखन पर जा बैठी
पीपल में तोते ने बच्चे दे रखे हैं
गुलदुम जो पकड़ी थी कल बे-चारी मर गई
नजमा' के बेले में कितनी कलियाँ आएँ हैं
फूलों की ख़ुश्बू से क्या क्या याद आता है
ये जब का क़िस्सा है सड़कों पर नई नई बिजली आई थी
और मुझे सीने में दिल होने का एहसास हुआ था
ईद के दिन हम ने लट्ठे की शलवारें सिलवाई थीं
और सिवैय्यों का ज़र्दा हम-साए में भेजवाया था
सब नीचे बैठक में बैठे थे
मैं ऊपर के कमरे में बैठा
खिड़की से 'ज़ैनब' के घर में फूलों के गुच्छे फेंक रहा था
कल 'ज़ैनब' का घर नीलाम हो रहा है
सरकारी तहवील में था इक मुद्दत से!
शायद पतझड़ का मौसम आ पहुँचा
पत्तों के गिरने की आवाज़ मुसलसल आती है
चेचक का टीका बीमारी को रोके रखता है
ज़ब्त-ए-तौलीद इस्क़ात वग़ैरा
इंसानी आबादी को बढ़ने से रोकेंगे
बंदर ने जब से दो टाँगों पर चलना सीखा
उस के ज़ेहन ने हरकत में आना सीखा है
पत्तों के गिरने की आवाज़ मुसलसल आती है
सड़कों पर रोज़ नए चेहरे मिलते हैं
मौत से हम ने एक तआवुन कर रक्खा है
पस-मंज़र में नज़र कहाँ जाती है
फूलों की ख़ुश्बू से क्या क्या याद आता है
चौक में जिस दिन फूल पड़े सड़ते थे
ख़ूनी दरवाज़े पर शहज़ादों की फाँसी का एलान हुआ था
ये दुनिया लम्हा लम्हा जीती है
दिल्ली की गलियाँ वैसी ही आबाद शाद हैं सब
दिन तो काले पर वाले बगुले हैं
जो सब लम्हों को
अपने पंखों में मूँद के आँखों से ओझल हो जाते हैं
चारों जानिब रंग रंग के झँडे उड़ते हैं
सब की जेबों में इंसानों के दुख-दर्द का दरमाँ
ख़ुशियों का नुस्ख़ा बंधा पड़ा है
लेकिन ऐसा क्यूँ है
जब नुस्ख़ा खुलता है
1857 जाता है
1947 आ जाता है
शीशा का आदमी अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
उठाओ हाथ कि दस्त-ए-दुआ बुलंद करें
हमारी उम्र का इक और दिन तमाम हुआ
ख़ुदा का शुक्र बजा लाएँ आज के दिन भी
न कोई वाक़िआ गुज़रा न ऐसा काम हुआ
ज़बाँ से कलमा-ए-हक़-रास्त कुछ कहा जाता
ज़मीर जागता और अपना इम्तिहाँ होता
ख़ुदा का शुक्र बजा लाएँ आज का दिन भी
उसी तरह से कटा मुँह-अँधेरे उठ बैठे
प्याली चाय की पी ख़बरें देखीं नाश्ता पर
सुबूत बैठे बसीरत का अपनी देते रहे
ब-ख़ैर ओ ख़ूबी पलट आए जैसे शाम हुई
और अगले रोज़ का मौहूम ख़ौफ़ दिल में लिए
डरे डरे से ज़रा बाल पड़ न जाए कहीं
लिए दिए यूँही बिस्तर में जा के लेट गए
बे-तअल्लुक़ी अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
शाम होती है सहर होती है ये वक़्त-ए-रवाँ
जो कभी संग-ए-गिराँ बन के मिरे सर पे गिरा
राह में आया कभी मेरी हिमाला बन कर
जो कभी उक़्दा बना ऐसा कि हल ही न हुआ
अश्क बन कर मिरी आँखों से कभी टपका है
जो कभी ख़ून-ए-जिगर बन के मिज़ा पर आया
आज बे-वासता यूँ गुज़रा चला जाता है
जैसे मैं कश्मकश-ए-ज़ीस्त में शामिल ही नहीं!
कल की बात अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
ऐसे ही बैठे इधर भय्या थे दाएँ जानिब
उन के नज़दीक बड़ी आपा शबाना को लिए
अपनी ससुराल के कुछ क़िस्से लतीफ़े बातें
यूँ सुनाती थीं हँसे पड़ते थे सब
सामने अम्माँ वहीं खोले पिटारी अपनी
मुँह भरे पान से समधन की इन्हीं बातों पर
झुँझलाती थीं कभी तंज़ से कुछ कहती थीं
हम को घेरे हुए बैठी थीं नईमा शहनाज़
वक़्फ़े वक़्फ़े से कभी दोनों में चश्मक होती
हस्ब-ए-मामूल सँभाले हुए ख़ाना-दारी
मंझली आपा कभी आती कभी जाती थीं
हम से दूर अब्बा उसी कमरे के इक कोने में
काग़ज़ात अपने अराज़ी के लिए बैठे थे
यक-ब-यक शोर हुआ मुल्क नया मुल्क बना
और इक आन में महफ़िल हुई दरहम-बरहम
आँख जो खोली तो देखा कि ज़मीं लाल है सब
तक़्वियत ज़ेहन ने दी ठहरो नहीं ख़ून नहीं
पान की पीक है ये अम्माँ ने थूकी होगी
उम्र-ए-गुरेज़ाँ के नाम अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
उम्र यूँ मुझ से गुरेज़ाँ है कि हर गाम पे मैं
इस के दामन से लिपटता हूँ मनाता हूँ इसे
वास्ता देता हूँ महरूमी ओ नाकामी का
दास्ताँ आबला-पाई की सुनाता हूँ इसे
ख़्वाब अधूरे हैं जो दोहराता हूँ उन ख़्वाबों को
ज़ख़्म पिन्हाँ हैं जो वो ज़ख़्म दिखाता हूँ उसे
उस से कहता हूँ तमन्ना के लब-ओ-लहजे में
ऐ मिरी जान मिरी लैला-ए-ताबिंदा-जबीं
सुनता हूँ तू है मिरी लैला-ए-ताबिंदा-जबीं
सुनता हूँ तू है मह ओ महर से भी बढ़ के हसीं
यूँ न हो मुझ से गुरेज़ाँ कि अभी तक मैं ने
जानना तुझ को कुजा पास से देखा भी नहीं
सुब्ह उठ जाता हूँ जब मुर्ग़ अज़ाँ देते हैं
और रोटी के तआक़ुब में निकल जाता हूँ
शाम को ढोर पलटते हैं चरा-गाहों से जब
शब-गुज़ारी के लिए मैं भी पलट आता हूँ
यूँ न हो मुझ से गुरेज़ाँ मिरा सरमाया अभी
ख़्वाब ही ख़्वाब हैं ख़्वाबों के सिवा कुछ भी नहीं
मुल्तवी करता रहा कल पे तिरी दीद को मैं
गूँगी औरत अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
क्यूँ हैरत से तकती है एक इक चेहरे को
क्या तुझ को शिकवा है तेरी गोयाई की ताक़त
छीन के क़ुदरत ने बे-इंसाफ़ी की है?
क्या तुझ को एहसास है तेरे पास अगर गुफ़्तार की नेमत होती
तो इस चारों जानिब फैली हथियारों की दुनिया
सीना दहला देने वाले तय्यारों की इंसाँ-कुश आवाज़ें
आवाज़ें जिन में इंसाँ की रूह शबाना रोज़ दबी जाती है
महशर-ख़ेज़ आवाज़ें कल-पुर्ज़ों की जिन से नफ़सी-नफ़सी का आलम पैदा हो कर
दिन पर दिन इफ़रीत की सूरत में बढ़ता जाता है
इन आवाज़ों की हैबत-नाकी पर वावैला करती
तू आवाज़ उठाती उस फ़ाशी और तअस्सुब फैलाने वाले उंसुर को बढ़ता पा कर
जो हुब्ब-उल-वतनी के नाम पे इंसाँ-कुश होता जाता है
तू उन रुजहानात की ख़ूब मज़म्मत करती
उन से लड़ती जो इस दुनिया को पीछे ले जाने में कोशाँ हैं
मज़हब और तहज़ीब'
सक़ाफ़त' और 'तरक़्क़ी' कह कर रजअत-परवर हो जाते हैं
ले मैं तुझ को अपनी गोयाई देता हूँ!
ये मेरे काम नहीं आई कुछ
मैं ऐसा बुज़दिल हूँ जो हर बे-इंसाफ़ी को चुपके चुपके सहता है
जिस ने 'मक़्तल' और 'क़ातिल' दोनों देखे हैं
लेकिन दानाई कह कर
अपनी गोयाई को गूँगा कर रखा है!
कार-नामा अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
अज़ीम काम करूँ कोई एक दिन सोचा
कि रहती दुनिया में अपना भी नाम रह जाए
मगर वो काम हो क्या ज़ेहन में नहीं आया
पयम्बरी तो ज़ियाँ जान का है दावा क्या
तू जाने सूली पे चढ़ना हो या चलें आरे
कि ज़िंदा आग की लपटों की नज़्र होना पड़े
ख़याल आया फ़ुनून-ए-लतीफ़ा ढेरों हैं
सनम-तराशी है नग़्मागरी कि नक़्क़ाशी
ये सब ही दाइमी शोहरत का इक वसीला हैं
मगर न लफ़्ज़ों पे क़ुदरत न रंग क़ाबू में
फिर इक ज़रिया सियासत है नाम पाने का
अलावा नाम के मोहरे बना के लोगों को
बिसात-ए-अर्ज़ पे शतरंज खेल सकते हैं
मगर ये फ़न भी मिरी दस्तरस से बाहर था
फिर और क्या हो बहुत कुछ ख़याल दौड़ाया
अलावा इन के मुझे और कुछ नहीं सूझा
ज़माने बाद समुंदर किनारे बैठा था
अज़ीम शय है समुंदर भी मेरे दिल ने कहा
वो क्या तरीक़ा हो मैं इस का भाग बन जाऊँ
समझ में आया नहीं कोई रास्ता भी जब
तो झुँझला के समुंदर में कर दिया पेशाब
मौत अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
कौन आवारा हवाओं का सुबुक-बार हुजूम
आह एहसास की ज़ंजीर गराँ टूट गई
और सरमाया-ए-अन्फ़ास परेशाँ न रहा
मेरे सीने में उलझने लगी फ़रियाद मिरी
फिर निगाहों पे उमँड आया है तारीक धुआँ
टिमटिमाना है मिरे साथ ये मायूस चराग़
आज मिलता नहीं अफ़्सोस पतंगों का निशाँ
मेरे सीने में उलझने लगी फ़रियाद मिरी
टूट कर रह गई अन्फ़ास की ज़ंजीर-ए-गिराँ
तोड़ डालेगा ये कम्बख़्त मकाँ की दीवार
और मैं दब के इसी ढेर में रह जाऊँगा
जी उलझता है मिरी जान पे बन जाएगी
थक गया आज शिकारी की कमाँ टूट गई
लौट आया हूँ बहुत दूर से ख़ाली हाथों
आज उम्मीद का दिन बीत गया शाम हुई
मैं ने चाहा भी मगर तुम से मोहब्बत न हुई
कि चुके अब तो ख़ुदा के लिए ख़ामोश रहो
एक मौहूम सी ख़्वाहिश थी फ़लक छूने की
ज़ंग-आलूद मोहब्बत को तुझे सौंप दिया
सर्द हाथों से मिरी जान मिरे होंट न सी
गर कभी लौट के आ जाए वही साँवली रात
ख़ुश्क आँखों में झलक आए न बे-सूद नमी
ज़लज़ला उफ़ ये धमाका ये मुसलसल दस्तक
बे-अमाँ रात कभी ख़त्म भी होगी कि नहीं
उफ़ ये मग़्मूम फ़ज़ाओं का अलमनाक सुकूत
मेरे सीने में दबी जाती है आवाज़ मिरी
तीरगी उफ़ ये धुँदलका मिरे नज़दीक न आ
ये मिरे हाथ पे जलती हुई क्या चीज़ गिरी
आज इस अश्क-ए-नदामत का कोई मोल नहीं
आह एहसास की ज़ंजीर-ए-गिराँ टूट गई
और ये मेरी मोहब्बत भी तुझे जो है अज़ीज़
कल ये माज़ी के घने बोझ में दब जाएगी
कौन आया है ज़रा एक नज़र देख तो लो
क्या ख़बर वक़्त दबे पाँव चला आया हो
ज़लज़ला उफ़ ये धमाका ये मुसलसल दस्तक
खटखटाता है कोई देर से दरवाज़े को
उफ़ ये मग़्मूम फ़ज़ाअों का अलमनाक सुकूत
कौन आया है ज़रा एक नज़र देख तो लो
तोड़ डालेगा ये कम्बख़्त मकाँ की दीवार
और मैं दब के इसी ढेर में रह जाऊँगा
नया आहंग अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
किरामन-कातिबीन आमाल-नामा लिख के ले जाएँ
दिखाएँ ख़ालिक़-ए-कौन-ओ-मकाँ को और समझाएँ
मआनी और लफ़्ज़ों में वो रिश्ता अब नहीं बाक़ी
लुग़त अल्फ़ाज़ का इक ढेर है लफ़्ज़ों पे मत जाना
नया आहंग होता है मुरत्तब लफ़्ज़ ओ मअनी का
मिरे हक़ में अभी कुछ फ़ैसला सादिर न फ़रमाना
मैं जिस दिन आऊँगा ताज़ा लुग़त हमराह लाऊँगा
काविश अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
नया दिन रोज़ मुझ को कितना पीछे फेंक देता है
ये आज अंदाज़ा होता है कि मैं आहिस्ता आहिस्ता
हज़ारों मील की दूरी पे तुम से आ गया और अब
दिनों सालों महीनों को इकट्ठा कर के गुम-गश्ता
दयार-ए-हू में बैठा हूँ न कुछ आगे न कुछ पीछे
सिवा कुछ वसवसों के कुछ ख़सारों के कमर-बस्ता
कहीं चलने को आगे जिस का वाज़ेह कुछ तसव्वुर ही नहीं कोई
हमारे सब मसाइल जिन का हम पर बोझ है इतना
हमारी किश्त-ए-बे-माया हैं इस सहरा में क्या बोया
बगूलों के सिवा कुछ गर्म झोंकों के सिवा हम ने
चलो इक तेज़ धारे में कहीं पर डाल दें कश्ती
लताफ़त ठंडे पानी की करें महसूस कुछ थोड़ा बिखर जाएँ
हँसें बे-वजह यूँही ग़ुल मचाएँ बे-सबब दौड़ें
उड़ें उन बादलों के पीछे और मीलों निकल जाएँ
तफ़ाउत अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
हम कितना रोए थे जब इक दिन सोचा था हम मर जाएँगे
और हम से हर नेमत की लज़्ज़त का एहसास जुदा हो जाएगा
छोटी छोटी चीज़ें जैसे शहद की मक्खी की भिन भिन
चिड़ियों की चूँ चूँ कव्वों का एक इक तिनका चुनना
नीम की सब से ऊँची शाख़ पे जा कर रख देना और घोंसला बुनना
सड़कें कूटने वाले इंजन की छुक छुक बच्चों का धूल उड़ाना
आधे नंगे मज़दूरों को प्याज़ से रोटी खाते देखे जाना
ये सब ला-यानी बेकार मशाग़िल बैठे बैठे एक दम छिन जाएँगे
हम कितना रोए थे जब पहली बार ये ख़तरा अंदर जागा था
इस गर्दिश करने वाली धरती से रिश्ता टूटेगा हम जामिद हो जाएँगे
लेकिन कब से लब साकित हैं दिल की हंगामा-आराई की
बरसों से आवाज़ नहीं आई और इस मर्ग-ए-मुसलसल पर
इन कम-माया आँखों से इक क़तरा आँसू भी तो नहीं टपका
राह-ए-फ़रार अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
इधर से न जाओ
इधर राह में एक बूढ़ा खड़ा है
जो पेशानियों और चेहरों
पे ऐसी भभूत एक मल देगा सब झुर्रियाँ फट पड़ेंगी
सियह, मार जैसे, चमकते हुए काले बालों
पे ऐसी सपीदी उमँड आएगी कुछ तदारुक नहीं जिस का कोई
कोई रास्ता और ढूँडो
कि इस पीर-ए-फ़र्तूत की तेज़ नज़रों से बच कर
निकल जाएँ और इस की ज़द में न आएँ कभी हम
इधर से न जाओ
इधर मैं ने इक शख़्स को जाते देखा है अक्सर
जवानों को जो राह में रोक लेता है उन से
वहीं बातें करता है मिल कर
जो सुक़रात करता था यूनान के मनचलों से
यक़ीनन उसे एक दिन ज़हर पीना पड़ेगा
इधर से न जाओ
इधर रौशनी है
कहीं आओ छुप जाएँ जाकर तमाम आफ़तों से
मुझे एक तह-ख़ाना मालूम है ख़ुशनुमा सा
जो शाहान-ए-देहली ने बनवाया था इस ग़रज़ से
कि अबदालियों, नादिरी फ़ौज की दस्तरस से
बचें और बैठे रहें सारे हंगामों की ज़द से हट कर
ये दर-अस्ल मीरास है आप की मेरी सब की
सलातीन-ए-देहली से पहले किसी और ने इस की बुनियाद रक्खी थी लेकिन
वो अब क़ब्ल-ए-तारीख़ की बात है कौन जाने
इधर से न जाओ
इधर शाह-नादिर नहीं आज कोई भी लेकिन
वही क़त्ल-ए-आम आज भी हो रहा है
ये मीरास है आप की मेरी सब की
ये सौग़ात बैरूनी हाकिम हमें दे गए हैं
चलो सामने के अंधेरे में घुस कर
उतर जाएँ तह-ख़ाने की ख़ामुशी में
ये सब खिड़कियाँ बंद कर दें
कोई चीख़ने बैन करने की आवाज़ हम तक न आए
कोई ख़ून की छींट दामन पे आकर न बैठे
कभी तुम ने गाँजा पिया है?
कोई भंग का शौक़, कोई जड़ी-बूटी खाई
न कोकेन अफ़यून कुछ भी
कभी कोई नश्शा नहीं तुम ने चक्खा
न अग़लाम-ए-अमर्द-परस्ती से रिश्ता रहा है
कोई तजरबा भी नहीं ज़िंदगी का?
फ़सादात देखे थे तक़्सीम के वक़्त तुम ने
हवा में उछलते हुए डंठलों की तरह शीर-ख़्वारों को देखा था कटते
और पिस्ताँ-बुरीदा जवाँ लड़कियाँ तुम ने देखी थीं क्या बैन करते?
नहीं ये तो नश्शा नहीं तजरबा भी नहीं ऐसा कोई
ये इक सानेहा है
फ़रामोश-गारी का एहसान मानो
ये सब कल की बातें हैं, बोसीदा बातें
जिन्हें भूल जाना बेहतर
फ़रामोश-गारी भी
इक नेमत-ए-बे-बहा है
इधर से न जाओ
कोई राह में रोक लेगा
नया कोई ख़तरा नया मसअला कोई जिस को
न सोचा न समझा न एहसास है जिस का अब तक
कोई ऐसी सूरत निकालो
ये सब आफ़तें अपना दामन न पकड़ें
कोई और राह-ए-फ़रार ऐसी ढूँडो
कि हम ज़िंदगी के जहन्नम को जन्नत समझ लें!
सुकून अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
न ज़हर-ए-ख़ंद लबों पर, न आँख में आँसू
न ज़ख़्म-हा-ए-दरूँ को है जुस्तुजू-ए-मआल
न तीरगी का तलातुम, न सैल-ए-रंग-ओ-नूर
न ख़ार-ज़ार-ए-तमन्ना में गुमरही का ख़याल
न आतिश-ए-गुल-ए-लाला का दाग़ सीने में
न शोरिश-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ न आरज़ू-ए-विसाल
न इश्तियाक़, न हैरत, न इज़्तिराब, न सोग
सुकूत-ए-शाम में खोई हुई कहानी का
तवील रात की तन्हाइयाँ नहीं बे-रंग
अभी हुआ नहीं शायद लहू जवानी का
हयात ओ मौत की हद में हैं वलवले चुप-चाप
गुज़र रहे हैं दबे पाँव क़ाफ़िले चुप-चाप
ए'तिमाद अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
बोली ख़ुद-सर हवा एक ज़र्रा है तू
यूँ उड़ा दूँगी मैं, मौज-ए-दरिया बढ़ी
बोली मेरे लिए एक तिनका है तू
यूँ बहा दूँगी मैं, आतिश-ए-तुंद की
इक लपट ने कहा मैं जला डालूँगी
और ज़मीं ने कहा मैं निगल जाऊँगी
मैं ने चेहरे से अपने उलट दी नक़ाब
और हँस कर कहा, मैं सुलैमान हूँ
इब्न-ए-आदम हूँ मैं यानी इंसान हूँ
तर्ग़ीब और उस के ब'अद अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
तर्ग़ीब:
फिर मैं काम में लग जाऊँगा आ फ़ुर्सत है प्यार करें
नागिन सी बल खाती उठ और मेरी गोद में आन मचल
भेद-भाव की बस्ती में कोई भेद-भाव का नाम न ले
हस्ती पर यूँ छा जा बढ़ कर शर्मिंदा हो जाए अजल
छोड़ ये लाज का घूंगट कब तक रहेगा इन आँखों के साथ
चढ़ती रात है ढलता सूरज खड़ी खड़ी मत पाँव मल
फिर ये जादू सो जाएगा समय जो बीता गहरी नींद
जो कुछ है अनमोल है अब तक एक इक लम्हा एक इक पल
बिन छूई मिट्टी की ख़ुशबू उस का सूँधा सूँधा-पन
सब कुछ छिन जाएगा इक दिन अब भी वक़्त है देख सँभल
नर्म रगों में मीठी मीठी टीस जो ये उठती है आज
बढ़ती मौज का रेला है इक, टीस न उठेगी कल
मस्त रसीली आँखों से ये छलकी छलकी सी इक शय
जिस ने आज अपनाया इस को समझो उस के कार सफल
मैं तेरे शोलों से खेलूँ तू भी मेरी आग से खेल
मैं भी तेरी नींद चुराउँ तू भी मेरी नींदें छल
नर्म हवा के झोंकों ही से खुलती है फूलों की आँख
वर्ना बरसों साथ रहे हैं ठहरा पानी बंद कँवल!
उस के ब'अद:
भीगी रात का नश्शा टूटा डूब गया है चढ़ता चाँद
थके थके हैं आज़ा सारे और हुईं पलकें बोझल
शबनम का रस पी गईं किरनें दिन का रंग चमक उट्ठा
गूँज है भँवरों की कानों में पर हैं आँखों से ओझल
हुस्न और इश्क़ की इस दुनिया में किस ने किस का साथ दिया
मैं अपने रस्ते जाता हूँ और तू अपनी डगर पर चल!
फ़ासला अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
हवाएँ ले गईं वो ख़ाक भी उड़ा के जिसे
कभी तुम्हारे क़दम छू गए थे और मैं ने
ये जी से चाहा था दामन में बाँध लूँगा उसे
सुना था मैं ने कभी यूँ हुआ है दुनिया में
कि आग लेने गए और पयम्बरी पाई
कभी ज़मीं ने समुंदर उगल दिए लेकिन
भँवर ही ले गए कश्ती बचा के तूफ़ाँ से
में सोचता हूँ पयम्बर नहीं अगर न सही
कि इतना बोझ उठाने की मुझ में ताब न थी
मगर ये क्यूँ न हुआ ग़म मिला था दूरी का
तो हौसला भी मिला होता संग ओ आहन सा
मगर ख़ुदा को ये सब सोचने का वक़्त कहाँ?
मुफ़ाहमत अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
जब उस का बोसा लेता था सिगरेट की बू नथनों में घुस जाती थी
मैं तम्बाकू-नोशी को इक ऐब समझता आया हूँ
लेकिन अब मैं आदी हूँ, ये मेरी ज़ात का हिस्सा है
वो भी मेरे दाँतों की बद-रंगी से मानूस है, इन की आदी है
जब हम दोनों मिलते हैं, लफ़्ज़ों से बेगाना से हो जाते हैं
कमरे में कुछ साँसें और पसीने की बू, तन्हाई रह जाती है!
हम दोनों शायद मुर्दा हैं एहसास का चश्मा सूखा है
या फिर शायद ऐसा है ये अफ़्साना बोसीदा है
दर्द-ए-ज़ेह से ज़ीस्त यूँही हलकान तड़पती रहती है
नए मसीहा आते हैं और सूली पर चढ़ जाते हैं
इक मटियाला इंसान सफ़ों को चीर के आगे बढ़ता है और मिम्बर से चिल्लाता है
हम मस्लूब के वारिस हैं ये ख़ून हमारा विर्सा है
और वो सब आदर्श, वो सब जो वजह-ए-मलामत ठहरा था
इस मटियाले शख़्स के गहरे मेदे में खुप जाता है
फिर तफ़सीरों और तावीलों की शक्ल में बाहर आता है
ये तावीलें मजबूरों का इक मौहूम सहारा हैं
या शायद सब का सहारा हैं
यूँही में आदर्श इंसान का जूया हूँ
सब ही सपने देखते हैं ख़्वाबों में हवा में उड़ते हैं
फिर इक मंज़िल आती है जब फूट फूट कर रोते हैं
शाख़ों की तरह टूटते हैं
इक रूह-ए-जान-ओ-दिल को जो दुनिया में सब से बढ़ कर है पा लेते हैं
फिर उस से नफ़रत करते हैं गो फिर भी मोहब्बत करते हैं!
मैं उस से नफ़रत करता हूँ वो मुझ को नीच समझती है
लेकिन जब हम मिलते हैं तन्हाई में तारीकी में
दोनों ऐसे हो जाते हैं जैसे आग़ुश्ता मिट्टी हैं
नफ़रत ज़म हो जाती है इक सन्नाटा रह जाता है
सन्नाटा तख़्लीक़-ए-ज़मीं के बाद जो हर-सू तारी था
हम दोनों टूटते रहते हैं जैसे हम कच्ची शाख़ें हैं
ख़्वाबों का ज़िक्र नहीं करते दोनों ने कभी जो देखते थे
ख़ुशियों का ज़िक्र नहीं करते जो कब की सुपुर्द-ए-ख़ाक हुईं
बस दोनों टूटते रहते हैं
मैं बादा-नोशी पर माइल हूँ, वो सिगरेट पीती रहती है
इक सन्नाटे की चादर में हम दोनों लिपटे जाते हैं
हम दोनों टूटते रहते हैं जैसे हम कच्ची शाख़ें हैं!
इत्तिफ़ाक़ अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
दयार-ए-ग़ैर में कोई जहाँ न अपना हो
शदीद कर्ब की घड़ियाँ गुज़ार चुकने पर
कुछ इत्तिफ़ाक़ हो ऐसा कि एक शाम कहीं
किसी इक ऐसी जगह से हो यूँही मेरा गुज़र
जहाँ हुजूम-ए-गुरेज़ाँ में तुम नज़र आ जाओ
और एक एक को हैरत से देखता रह जाए!
सिलसिले अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
शहर-दर-शहर, क़र्या-दर-क़र्या
साल-हा-साल से भटकता हूँ
बार-हा यूँ हुआ कि ये दुनिया
मुझ को ऐसी दिखाई दी जैसे
सुब्ह की ज़ौ से फूल खिलता हो
बार-हा यूँ हुआ कि रौशन चाँद
यूँ लगा जैसे एक अंधा कुआँ
या कोई गहरा ज़ख़्म रिसता हुआ
मैं बहर-ए-कैफ़ फिर भी ज़िंदा हूँ
और कल सोचता रहा पहरों
मुझ को ऐसी कभी लगन तो न थी
हर जगह तेरी याद क्यूँ आई
मताअ-ए-राएगाँ अख़्तर-उल-ईमान नज़्म नज़्में
ये दर्द-ए-ज़िंदगी किस की अमानत है किसे दे दूँ
कोई वारिस नहीं इस का मताअ-ए-राएगाँ है ये
मसीहा अब न आएँगे यही नश्तर रग-ए-जाँ में
ख़लिश बनता रहेगा मेरी साँसों में निहाँ है ये
ख़ुदाया हम से पहले लोग भी जो इस ज़मीं पर थे
यूँही पामाल होते थे, जो इस के बाद आएँगे
उमीद-ए-सुब्ह के ख़ंजर से ज़ख़्मी हो के जाएँगे?
(कहाँ जा कर रुकेगा क़ाफ़िला इन सोगवारों का)
ये फिर भी तेरे बंदे हैं तिरी ही हम्द गाएँगे
इन्हें आँखें तो दे दी हैं बसारत भी इन्हें दे दे
तुझे सब ढूँडते हैं इस तरह अंधे हैं सब जैसे
इसी कोरे वरक़ पर कुछ इबारत भी उन्हें दे दे
खड़ा है मुँह किए मशरिक़ की जानिब, कोई मग़रिब की
(मिरी तस्वीर में इन चीख़ते रंगों की ऐसी क्या ज़रूरत थी)
ख़ुदाया बख़्श दे इन बे-गुनाहों के गुनाहों को
ये मअनी ढूँडते हैं कश्मकश में रात और दिन की
हक़ीक़त को समझना चाहते हैं साल और सिन की
ये सब मजबूर हैं इन पर दर-ए-तौबा खुला रखना
ये दुनिया ख़ौफ़ और लालच पे जिस की नीव रक्खी है
इसी मिट्टी से फूटे हैं इसी धरती के पाले हैं
उजाला भी यही हैं इस ज़मीं का और अंधेरा भी
यही शहकार हैं तेरा यही पाँव के छाले हैं
(ये सब के सब लिबास-ए-फ़ाख़िरा में मैली भेड़ें हैं)
इलाह-अल-आलमीं इन की ख़ता से दर-गुज़र करना
Dasna station ka musafir Akhtarul Iman Nazm Nazmein
kaun sā station hai?
Dāsna hai sāhib-jī
aap ko utarnā hai?
'jī nahīñ, nahīñ,'' lekin
Dāsna to thā hī vo
mere saath 'qīsar' thī
ye baḌī baḌī āñkheñ
ik talāsh meñ khoī
raat bhar nahīñ soī
jab maiñ us ko pahuñchāne
is ujaaḌ bastī meñ
saath le ke aayā thā
maiñ ne un se phir pūchhā
aap mustaqil shāyad
Dāsna meñ rahte haiñ?
'jī yahāñ pe kuchh merī
suut kī dukāneñ haiñ
kuchh ta.ām-ḳhāne haiñ''
maiñ sunā kiyā baiThā
boltā rahā vo shaḳhs
'kuchh zamīn-dārī hai
mere baap daadā ne
kuchh makān chhoḌe the
un ko bech kar maiñ ne
kārobār kholā hai
is haqīr bastī meñ
kaun aa ke rahtā thā
lekin ab yahī bastī
bamba.ī hai dillī hai
qīmateñ zamīnoñ kī
itnī baḌh ga.iiñ sāhib
ik zamīn hī kyā hai
khāne piine kī chīzeñ
aam jiine kī chīzeñ
bhaao das-gune haiñ ab''
boltā rahā vo shaḳhs
'is qadar girānī hai
aag lag ga.ī jaise
āsmān had hai bas''
maiñ ne chauñk kar pūchhā
āsmāñ mahl thā ik
sayyadoñ kī bastī meñ
āsmāñ nahīñ sāhib
ab mahl kahāñ hogā?
hañs paḌā ye kah kar vo
mere zehn meñ us kī
baat pai-ba-pai gūñjī
'ab mahl kahāñ hogā
is dayār meñ shāyad
qaisar' ab nahīñ rahtī
vo baḌī baḌī āñkheñ
ab na dekh pā.ūñgā
mulk kā ye baTvārā
le gayā kahāñ us ko
devḌhī kā sannāTā
aur hamārī sargoshī
'mujh se kitne chhoTe ho''
maiñ ne kuchh kahā thā phir
us ne kuchh kahā thā phir
hai raqam kahāñ vo sab
dard kī girāñ-jānī
merī shola-afshānī
us kī jalva-sāmānī
hai raqam kahāñ vo ab
karb-e-zīst sab merā
guftugū kā Dhab merā
us kā haath hāthoñ meñ
le ke jab maiñ kahtā thā
ab chuḌāo to jānūñ
rasm-e-bevafā.ī ko
aaj mo'tabar mānūñ
us ko le ke bāhoñ meñ
jhuk ke us ke chehre par
bheñch kar kahā thā ye
bolo kaise niklogī
merī dastaras se tum
mere is qafas se tum
bhūre bādaloñ kā dal
duur uḌtā jaatā hai
peḌ par kahīñ baiThā
ik parind gaatā hai
'chil-chil'' ik gilahrī kī
kaan meñ khaTaktī hai
rail chalne lagtī hai
raah ke daraḳhtoñ kī
chhāñv Dhalne lagtī hai
'mujh se kitne chhoTe ho''
aur mirī girāñ-goshī
devḌhī kā sannāTā
aur hamārī sargoshī
hai raqam kahāñ vo sab?
duur us parinde ne
apnā giit dohrāyā
'aaj ham ne apnā dil
ḳhuuñ kiyā huā dekhā
gum kiyā huā pāyā''
kaun sa station hai?
Dasna hai sahib-ji
aap ko utarna hai?
ji nahin, nahin, lekin
Dasna to tha hi wo
mere sath 'qisar' thi
ye baDi baDi aankhen
ek talash mein khoi
raat bhar nahin soi
jab main us ko pahunchane
is ujaD basti mein
sath le ke aaya tha
main ne un se phir puchha
aap mustaqil shayad
Dasna mein rahte hain?
ji yahan pe kuchh meri
sut ki dukanen hain
kuchh taam-KHane hain
main suna kiya baiTha
bolta raha wo shaKHs
kuchh zamin-dari hai
mere bap dada ne
kuchh makan chhoDe the
un ko bech kar main ne
karobar khola hai
is haqir basti mein
kaun aa ke rahta tha
lekin ab yahi basti
bambai hai dilli hai
qimaten zaminon ki
itni baDh gain sahib
ek zamin hi kya hai
khane pine ki chizen
aam jine ki chizen
bhao das-gune hain ab
bolta raha wo shaKHs
is qadar girani hai
aag lag gai jaise
aasman had hai bas
main ne chaunk kar puchha
aasman mahl tha ek
sayyadon ki basti mein
aasman nahin sahib
ab mahl kahan hoga?
hans paDa ye kah kar wo
mere zehn mein us ki
baat pai-ba-pai gunji
ab mahl kahan hoga
is dayar mein shayad
qaisar' ab nahin rahti
wo baDi baDi aankhen
ab na dekh paunga
mulk ka ye baTwara
le gaya kahan us ko
dewDhi ka sannaTa
aur hamari sargoshi
mujh se kitne chhoTe ho
main ne kuchh kaha tha phir
us ne kuchh kaha tha phir
hai raqam kahan wo sab
dard ki giran-jaani
meri shola-afshani
us ki jalwa-samani
hai raqam kahan wo ab
karb-e-zist sab mera
guftugu ka Dhab mera
us ka hath hathon mein
le ke jab main kahta tha
ab chuDao to jaanun
rasm-e-bewafai ko
aaj mo'tabar manun
us ko le ke bahon mein
jhuk ke us ke chehre par
bhench kar kaha tha ye
bolo kaise niklogi
meri dastaras se tum
mere is qafas se tum
bhure baadalon ka dal
dur uDta jata hai
peD par kahin baiTha
ek parind gata hai
chil-chil ek gilahri ki
kan mein khaTakti hai
rail chalne lagti hai
rah ke daraKHton ki
chhanw Dhalne lagti hai
mujh se kitne chhoTe ho
aur meri giran-goshi
dewDhi ka sannaTa
aur hamari sargoshi
hai raqam kahan wo sab?
dur us parinde ne
apna git dohraya
aaj hum ne apna dil
KHun kiya hua dekha
gum kiya hua paya
yaaden Akhtarul Iman Nazm Nazmein
lo vo chāh-e-shab se niklā pichhle-pahar piilā mahtāb
zehn ne kholī rukte rukte maazī kī pārīna kitāb
yādoñ ke be-ma.anī daftar ḳhvāboñ ke afsurda shahāb
sab ke sab ḳhāmosh zabāñ se kahte haiñ ai ḳhāna-ḳharāb
guzrī baat sadī yā pal ho guzrī baat hai naqsh-bar-āb
ye rūdād hai apne safar kī is ābād ḳharābe meñ
dekho ham ne kaise basar kī is ābād ḳharābe meñ
shahr-e-tamannā ke markaz meñ lagā huā hai melā sā
khel-khilaunoñ kā har-sū hai ik rañgīñ gulzār khilā
vo ik bālak jis ko ghar se ik dirham bhī nahīñ milā
mele kī saj-dhaj meñ kho kar baap kī uñglī chhoḌ gayā
hosh aayā to ḳhud ko tanhā pā ke bahut hairān huā
bhiiḌ meñ raah milī nahīñ ghar kī is ābād ḳharābe meñ
dekho ham ne kaise basar kī is ābād ḳharābe meñ
vo bālak hai aaj bhī hairāñ mela jūñ-kā-tūñ hai lagā
hairāñ hai bāzār meñ chup-chup kyā kyā biktā hai saudā
kahīñ sharāfat kahīñ najābat kahīñ mohabbat kahīñ vafā
āl-aulād kahīñ biktī hai kahīñ buzurg aur kahīñ ḳhudā
ham ne is ahmaq ko āḳhir isī tazabzub meñ chhoḌā
aur nikālī raah mafar kī is ābād ḳharābe meñ
dekho ham ne kaise basar kī is ābād ḳharābe meñ
hoñT tabassum ke aadī haiñ varna ruuh meñ zahr-āgīñ
ghupe hue haiñ itne nashtar jin kī koī ta.adād nahīñ
kitnī baar huī hai ham par tañg ye phailī huī zamīñ
jis par naaz hai ham ko itnā jhukī hai aksar vahī jabīñ
kabhī koī sifla hai aaqā kabhī koī abla farzīñ
bechī laaj bhī apne hunar kī is ābād ḳharābe meñ
dekho ham ne kaise basar kī ābād ḳharābe meñ
kaale kos ġham-e-ulfat ke aur maiñ nān-e-shabīna-jū
kabhī chaman-zāroñ meñ uljhā aur kabhī gandum kī bū
nāfa-e-mushk-e-tatārī ban kar liye phirī mujh ko har-sū
yahī hayāt-e-sā.iqa-fitrat banī ta.attul kabhī numū
kabhī kiyā ram ishq se aise jaise koī vahshī aahū
aur kabhī mar-mar ke sahar kī is ābād ḳharābe meñ
dekho ham kaise basar kī is ābād ḳharābe meñ
kabhī ġhanīm-e-jaur-o-sitam ke hāthoñ khaa.ī aisī maat
arz-e-alam meñ ḳhvār hue ham bigḌe rahe barsoñ hālāt
aur kabhī jab din niklā to biit ga.e jug huī na raat
har-sū mah-vash saada qātil lutf-o-ināyat kī sauġhāt
shabnam aisī ThanDī nigāheñ phūloñ kī mahkār sī baat
jūñ-tūñ ye manzil bhī sar kī is ābād ḳharābe meñ
dekho ham ne kaise basar kī is ābād ḳharābe meñ
rāh-navard-e-shauq ko rah meñ kaise kaise yaar mile
abr-e-bahārāñ aks-e-nigārāñ ḳhāl-e-ruḳh-e-dil-dār mile
kuchh bilkul miTTī ke mādho kuchh ḳhanjar kī dhaar mile
kuchh mañjdhār meñ kuchh sāhil par kuchh dariyā ke paar mile
ham sab se har haal meñ lekin yūñhī haath pasār mile
sirf un kī ḳhūbī pe nazar kī is ābād ḳharābe meñ
dekho ham ne kaise basar kī is ābād ḳharābe meñ
saarī hai be-rabt kahānī dhuñdle dhuñdle haiñ aurāq
kahāñ haiñ vo sab jin se jab thī pal-bhar kī duurī bhī shaaq
kahīñ koī nāsūr nahīñ go haa.el hai barsoñ kā firāq
kirm-e-farāmoshī ne dekho chaaT liye kitne mīsāq
vo bhī ham ko ro baiThe haiñ chalo huā qarzā be-bāq
khulī to āḳhir baat asar kī is ābād ḳharābe meñ
dekho ham ne kaise basar kī is ābād ḳharābe meñ
ḳhvāb the ik din auj-e-zamīñ se kāhkashāñ ko chhū leñge
kheleñge gul-rañg shafaq se qaus-e-quzah meñ jhūleñge
bād-e-bahārī ban ke chaleñge sarsoñ ban kar phūleñge
ḳhushiyoñ ke rañgīñ jhurmuT meñ rañj-o-mehan sab bhūleñge
dāġh-e-gul-o-ġhuncha ke badle mahkī huī ḳhushbū leñge
milī ḳhalish par zaḳhm-e-jigar kī is ābād ḳharābe meñ
dekho ham ne kaise basar kī is ābād ḳharābe meñ
ḳhvār hue damḌī ke pīchhe aur kabhī jholī-bhar maal
aise chhoḌ ke uTThe jaise chhuā to kar degā kañgāl
syāne ban kar baat bigāḌī Thiik paḌī saada sī chaal
chhānā dasht-e-mohabbat kitnā ābla-pā majnūñ kī misāl
kabhī sikandar kabhī qalandar kabhī bagūla kabhī ḳhayāl
svāñg rachā.e aur guzar kī is ābād ḳharābe meñ
dekho ham ne kaise basar kī is ābād ḳharābe meñ
ziist ḳhudā jaane hai kyā shai bhuuk tajassus ashk farār
phuul se bachche zohra-jabīneñ mard mujassam bāġh-o-bahār
kiyā hai rūh-e-arz ko āḳhir aur ye zahrīle afkār
kis miTTī se ugte haiñ sab jiinā kyuuñ hai ik begār
in bātoñ se qat-e-nazar kī is ābād ḳharābe meñ
dekho ham ne kaise basar kī ābād ḳharābe meñ
duur kahīñ vo koyal kuukī raat ke sannāTe meñ duur
kachchī zamīñ par bikhrā hogā mahkā mahkā aam kā bor
bār-e-mashaqqat kam karne ko khaliyānoñ meñ kaam se chuur
kam-sin laḌke gaate hoñge lo dekho vo sub.h kā nuur
chāh-e-shab se phuuT ke niklā maiñ maġhmūm kabhī masrūr
soch rahā huuñ idhar udhar kī is ābād ḳharābe meñ
dekho ham ne kaise basar kī is ābād ḳharābe meñ
niiñd se ab bhī duur haiñ āñkheñ go ki rahīñ shab-bhar be-ḳhvāb
yādoñ ke be-ma.anī daftar ḳhvāboñ ke afsurda shahāb
sab ke sab ḳhāmosh zabāñ se kahte haiñ ai ḳhāna-ḳharāb
guzrī baat sadī yā pal ho guzrī baat hai naqsh-bar-āb
mustaqbil kī soch, uThā ye maazī kī pārīna kitāb
manzil hai ye hosh-o-ḳhabar kī is ābād ḳharābe meñ
dekho ham ne kaise basar kī is ābād ḳharābe meñ
lo wo chah-e-shab se nikla pichhle-pahar pila mahtab
zehn ne kholi rukte rukte mazi ki parina kitab
yaadon ke be-mani daftar KHwabon ke afsurda shahab
sab ke sab KHamosh zaban se kahte hain ai KHana-KHarab
guzri baat sadi ya pal ho guzri baat hai naqsh-bar-ab
ye rudad hai apne safar ki is aabaad KHarabe mein
dekho hum ne kaise basar ki is aabaad KHarabe mein
shahr-e-tamanna ke markaz mein laga hua hai mela sa
khel-khilaunon ka har-su hai ek rangin gulzar khila
wo ek baalak jis ko ghar se ek dirham bhi nahin mila
mele ki saj-dhaj mein kho kar bap ki ungli chhoD gaya
hosh aaya to KHud ko tanha pa ke bahut hairan hua
bhiD mein rah mili nahin ghar ki is aabaad KHarabe mein
dekho hum ne kaise basar ki is aabaad KHarabe mein
wo baalak hai aaj bhi hairan mela jun-ka-tun hai laga
hairan hai bazar mein chup-chup kya kya bikta hai sauda
kahin sharafat kahin najabat kahin mohabbat kahin wafa
aal-aulad kahin bikti hai kahin buzurg aur kahin KHuda
hum ne is ahmaq ko aaKHir isi tazabzub mein chhoDa
aur nikali rah mafar ki is aabaad KHarabe mein
dekho hum ne kaise basar ki is aabaad KHarabe mein
honT tabassum ke aadi hain warna ruh mein zahr-agin
ghupe hue hain itne nashtar jin ki koi tadad nahin
kitni bar hui hai hum par tang ye phaili hui zamin
jis par naz hai hum ko itna jhuki hai aksar wahi jabin
kabhi koi sifla hai aaqa kabhi koi abla farzin
bechi laj bhi apne hunar ki is aabaad KHarabe mein
dekho hum ne kaise basar ki aabaad KHarabe mein
kale kos gham-e-ulfat ke aur main nan-e-shabina-ju
kabhi chaman-zaron mein uljha aur kabhi gandum ki bu
nafa-e-mushk-e-tatari ban kar liye phiri mujh ko har-su
yahi hayat-e-saiqa-fitrat bani tattul kabhi numu
kabhi kiya ram ishq se aise jaise koi wahshi aahu
aur kabhi mar-mar ke sahar ki is aabaad KHarabe mein
dekho hum kaise basar ki is aabaad KHarabe mein
kabhi ghanim-e-jaur-o-sitam ke hathon khai aisi mat
arz-e-alam mein KHwar hue hum bigDe rahe barson haalat
aur kabhi jab din nikla to bit gae jug hui na raat
har-su mah-wash sada qatil lutf-o-inayat ki saughat
shabnam aisi ThanDi nigahen phulon ki mahkar si baat
jun-tun ye manzil bhi sar ki is aabaad KHarabe mein
dekho hum ne kaise basar ki is aabaad KHarabe mein
rah-naward-e-shauq ko rah mein kaise kaise yar mile
abr-e-bahaaran aks-e-nigaran KHal-e-ruKH-e-dil-dar mile
kuchh bilkul miTTi ke madho kuchh KHanjar ki dhaar mile
kuchh manjdhaar mein kuchh sahil par kuchh dariya ke par mile
hum sab se har haal mein lekin yunhi hath pasar mile
sirf un ki KHubi pe nazar ki is aabaad KHarabe mein
dekho hum ne kaise basar ki is aabaad KHarabe mein
sari hai be-rabt kahani dhundle dhundle hain auraq
kahan hain wo sab jin se jab thi pal-bhar ki duri bhi shaq
kahin koi nasur nahin go hael hai barson ka firaq
kirm-e-faramoshi ne dekho chaT liye kitne misaq
wo bhi hum ko ro baiThe hain chalo hua qarza be-baq
khuli to aaKHir baat asar ki is aabaad KHarabe mein
dekho hum ne kaise basar ki is aabaad KHarabe mein
KHwab the ek din auj-e-zamin se kahkashan ko chhu lenge
khelenge gul-rang shafaq se qaus-e-quzah mein jhulenge
baad-e-bahaari ban ke chalenge sarson ban kar phulenge
KHushiyon ke rangin jhurmuT mein ranj-o-mehan sab bhulenge
dagh-e-gul-o-ghuncha ke badle mahki hui KHushbu lenge
mili KHalish par zaKHm-e-jigar ki is aabaad KHarabe mein
dekho hum ne kaise basar ki is aabaad KHarabe mein
KHwar hue damDi ke pichhe aur kabhi jholi-bhar mal
aise chhoD ke uTThe jaise chhua to kar dega kangal
syane ban kar baat bigaDi Thik paDi sada si chaal
chhana dasht-e-mohabbat kitna aabla-pa majnun ki misal
kabhi sikandar kabhi qalandar kabhi bagula kabhi KHayal
swang rachae aur guzar ki is aabaad KHarabe mein
dekho hum ne kaise basar ki is aabaad KHarabe mein
zist KHuda jaane hai kya shai bhuk tajassus ashk farar
phul se bachche zohra-jabinen mard mujassam bagh-o-bahaar
kiya hai ruh-e-arz ko aaKHir aur ye zahrile afkar
kis miTTi se ugte hain sab jina kyun hai ek begar
in baaton se qat-e-nazar ki is aabaad KHarabe mein
dekho hum ne kaise basar ki aabaad KHarabe mein
dur kahin wo koyal kuki raat ke sannaTe mein dur
kachchi zamin par bikhra hoga mahka mahka aam ka bor
bar-e-mashaqqat kam karne ko khaliyanon mein kaam se chur
kam-sin laDke gate honge lo dekho wo subh ka nur
chah-e-shab se phuT ke nikla main maghmum kabhi masrur
soch raha hun idhar udhar ki is aabaad KHarabe mein
dekho hum ne kaise basar ki is aabaad KHarabe mein
nind se ab bhi dur hain aankhen go ki rahin shab-bhar be-KHwab
yaadon ke be-mani daftar KHwabon ke afsurda shahab
sab ke sab KHamosh zaban se kahte hain ai KHana-KHarab
guzri baat sadi ya pal ho guzri baat hai naqsh-bar-ab
mustaqbil ki soch, uTha ye mazi ki parina kitab
manzil hai ye hosh-o-KHabar ki is aabaad KHarabe mein
dekho hum ne kaise basar ki is aabaad KHarabe mein
baz-amad --- ek muntaj Akhtarul Iman Nazm Nazmein
titliyāñ nāchtī haiñ
phuul se phuul pe yuuñ jaatī haiñ
jaise ik baat hai jo
kaan meñ kahnī hai ḳhāmoshī se
aur har phuul hañsā paḌtā hai sun kar ye baat
dhuup meñ tezī nahīñ
aise aatā hai har ik jhoñkā havā kā jaise
dast-e-shafqat hai baḌī umr kī mahbūba kā
aur mire shānoñ ko is tarah hilā jaatā hai
jaise maiñ niiñd meñ huuñ
aurteñ charḳhe liye baiThī haiñ
kuchh kapās oTtī haiñ
kuchh silā.ī ke kisī kaam meñ masrūf haiñ yuuñ
jaise ye kaam hai dar-asl har ik shai kī asaas
ek se ek chuhul kartī hai
koī kahtī hai mirī chūḌiyāñ khankīñ to khankhārī mirī saas
koī kahtī hai bharī chāñdnī aatī nahīñ raas
raat kī baat sunātī hai koī hañs hañs kar
baat kī baat sunātī hai koī hañs hañs kar
lazzat-e-vasl hai āzār, koī kahtī hai
maiñ to ban jaatī huuñ bīmār, koī kahtī hai
maiñ bhī ghus aatā huuñ is shīsh-mahal meñ dekho
sab hañsī rok ke kahtī haiñ nikālo is ko
ik parinda kisī ik peḌ kī Tahnī pe chahaktā hai kahīñ
ek gaatā huā yuuñ jaatā hai dhartī se falak kī jānib
puurī quvvat se koī geñd uchhāle jaise
ik phudaktā hai sar-e-shāḳh pe jis tarah koī
āmad-e-fasl-e-bahārī kī ḳhushī meñ nāche
gūñdnī bojh se apne hī jhukī paḌtī hai
nāznīñ jaise hai koī ye bharī mahfil meñ
aur kal haath hue haiñ piile
koyaleñ kūktī haiñ
jāmuneñ pakkī haiñ, aamoñ pe bahār aa.ī hai
arġhanūñ bajtā hai yakjā.ī kā
niim ke peḌoñ meñ jhūle haiñ jidhar dekho udhar
sāvanī gaatī haiñ sab laḌkiyāñ āvāz milā kar har-sū
aur is āvāz se guuñj uTThī hai bastī saarī
maiñ kabhī ek kabhī dūsre jhūle ke qarīñ jaatā huuñ
ek hī kam hai, vahī chehra nahīñ
āḳhirash pūchh hī letā huuñ kisī se baḌh kar
kyuuñ habība nahīñ aa.ī ab tak?
khilkhilā paḌtī haiñ sab laḌkiyāñ sun kar ye naam
lo ye sapne meñ haiñ, ik kahtī hai
bāolī sapnā nahīñ, shahr se aa.e haiñ abhī
dūsrī Toktī hai
baat se baat nikal chaltī hai
ThaaT kī aa.ī thī bārāt, chambelī ne kahā
band-bājā bhī thaa, diipā bolī
aur dulhan pe huā kitnā bikher
kuchh na kuchh kahtī rahīñ sab hī magar maiñ ne sirf
itnā pūchhā vo nadī bahtī hai ab bhii, ki nahīñ
jis se vābasta haiñ ham aur ye bastī sārī?
kyuuñ nahīñ bahtī, chambelī ne kahā
aur vo bargad kā ghanā peḌ kināre us ke?
vo bhī qaa.em hai abhī tak yūñhī
va.ada kar ke jo 'habība' nahīñ aatī thī kabhī
āñkheñ dhotā thā nadī meñ jākar
aur bargad kī ghanī chhāñv meñ so jaatā thā
maah o saal aate, chale jaate haiñ
fasl pak jaatī hai, kaT jaatī hai
koī rotā nahīñ is mauqe par
halqa-dar-halqa na aahan ko tapā kar Dhāleñ
koī zanjīr na ho!
zīst-dar-zīst kā ye silsila baaqī na rahe!
bhiiḌ hai bachchoñ kī chhoTī sī galī meñ dekho
ek ne geñd jo pheñkī to lagī aa ke mujhe
maiñ ne jā pakḌā use, dekhī huī sūrat thī
kis kā hai maiñ ne kisī se pūchā?
ye habība kā hai, ramzānī qasā.ī bolā
bholī sūrat pe hañsī aa ga.ī us kī mujh ko
vo bhī hañsne lagā, ham donoñ yūñhī hañste rahe!
der tak hañste rahe!
titliyāñ nāchtī haiñ
phuul se phuul pe yuuñ jaatī haiñ
jaise ik baat hai jo
kaan meñ kahnī hai ḳhāmoshī se
aur har phuul hañsā paḌtā hai sun kar ye baat!
titliyan nachti hain
phul se phul pe yun jati hain
jaise ek baat hai jo
kan mein kahni hai KHamoshi se
aur har phul hansa paDta hai sun kar ye baat
dhup mein tezi nahin
aise aata hai har ek jhonka hawa ka jaise
dast-e-shafqat hai baDi umr ki mahbuba ka
aur mere shanon ko is tarah hila jata hai
jaise main nind mein hun
aurten charKHe liye baiThi hain
kuchh kapas oTti hain
kuchh silai ke kisi kaam mein masruf hain yun
jaise ye kaam hai dar-asl har ek shai ki asas
ek se ek chuhul karti hai
koi kahti hai meri chuDiyan khankin to khankhaari meri sas
koi kahti hai bhari chandni aati nahin ras
raat ki baat sunati hai koi hans hans kar
baat ki baat sunati hai koi hans hans kar
lazzat-e-wasl hai aazar, koi kahti hai
main to ban jati hun bimar, koi kahti hai
main bhi ghus aata hun is shish-mahal mein dekho
sab hansi rok ke kahti hain nikalo is ko
ek parinda kisi ek peD ki Tahni pe chahakta hai kahin
ek gata hua yun jata hai dharti se falak ki jaanib
puri quwwat se koi gend uchhaale jaise
ek phudakta hai sar-e-shaKH pe jis tarah koi
aamad-e-fasl-e-bahaari ki KHushi mein nache
gundni bojh se apne hi jhuki paDti hai
naznin jaise hai koi ye bhari mahfil mein
aur kal hath hue hain pile
koyalen kukti hain
jamunen pakki hain, aamon pe bahaar aai hai
arghanun bajta hai yakjai ka
nim ke peDon mein jhule hain jidhar dekho udhar
sawani gati hain sab laDkiyan aawaz mila kar har-su
aur is aawaz se gunj uTThi hai basti sari
main kabhi ek kabhi dusre jhule ke qarin jata hun
ek hi kam hai, wahi chehra nahin
aaKHirash puchh hi leta hun kisi se baDh kar
kyun habiba nahin aai ab tak?
khilkhila paDti hain sab laDkiyan sun kar ye nam
lo ye sapne mein hain, ek kahti hai
baoli sapna nahin, shahr se aae hain abhi
dusri Tokti hai
baat se baat nikal chalti hai
ThaT ki aai thi baraat, chambeli ne kaha
band-baja bhi tha, dipa boli
aur dulhan pe hua kitna bikher
kuchh na kuchh kahti rahin sab hi magar main ne sirf
itna puchha wo nadi bahti hai ab bhi, ki nahin
jis se wabasta hain hum aur ye basti sari?
kyun nahin bahti, chambeli ne kaha
aur wo bargad ka ghana peD kinare us ke?
wo bhi qaem hai abhi tak yunhi
wada kar ke jo 'habiba' nahin aati thi kabhi
aankhen dhota tha nadi mein jakar
aur bargad ki ghani chhanw mein so jata tha
mah o sal aate, chale jate hain
fasl pak jati hai, kaT jati hai
koi rota nahin is mauqe par
halqa-dar-halqa na aahan ko tapa kar Dhaalen
koi zanjir na ho!
zist-dar-zist ka ye silsila baqi na rahe!
bhiD hai bachchon ki chhoTi si gali mein dekho
ek ne gend jo phenki to lagi aa ke mujhe
main ne ja pakDa use, dekhi hui surat thi
kis ka hai main ne kisi se pucha?
ye habiba ka hai, ramzani qasai bola
bholi surat pe hansi aa gai us ki mujh ko
wo bhi hansne laga, hum donon yunhi hanste rahe!
der tak hanste rahe!
titliyan nachti hain
phul se phul pe yun jati hain
jaise ek baat hai jo
kan mein kahni hai KHamoshi se
aur har phul hansa paDta hai sun kar ye baat!
masjid Akhtarul Iman Nazm Nazmein
duur bargad kī ghanī chhāñv meñ ḳhāmosh o malūl
jis jagah raat ke tārīk kafan ke nīche
maazī o haal gunahgār namāzī kī tarah
apne āmāl pe ro lete haiñ chupke chupke
ek vīrān sī masjid kā shikasta sā kalas
paas bahtī huī naddī ko takā kartā hai
aur TuuTī huī dīvār pe chanDol kabhī
giit phīkā sā koī chheḌ diyā kartā hai
gard-ālūd charāġhoñ ko havā ke jhoñke
roz miTTī kī na.ī tah meñ dabā jaate haiñ
aur jaate hue sūraj ke vidā.ī anfās
raushnī aa ke darīchoñ kī bujhā jaate haiñ
hasrat-e-shām-o-sahar baiTh ke gumbad ke qarīb
in pareshān duāoñ ko sunā kartī hai
jo tarastī hī rahīñ rañg-e-asar kī ḳhātir
aur TuuTā huā dil thaam liyā kartī hai
yā abābīl koī āmad-e-sarmā ke qarīb
us ko maskan ke liye DhūñD liyā kartī hai
aur mehrāb-e-shikasta meñ simaT kar pahroñ
dāstāñ sard mumālik kī kahā kartī hai
ek būḌhā gadhā dīvār ke saa.e meñ kabhī
uuñgh letā hai zarā baiTh ke jaate jaate
yā musāfir koī aa jaatā hai vo bhī Dar kar
ek lamhe ko Thahar jaatā hai aate aate
farsh jārob-kashī kyā hai samajhtā hī nahīñ
kal-adam ho gayā tasbīh ke dānoñ kā nizām
taaq meñ sham.a ke aañsū haiñ abhī tak baaqī
ab musallā hai na mimbar na muazzin na imaam
aa chuke sāhab-e-aflāk ke paiġhām o salām
koh o dar ab na suneñge vo sadā-e-jibraīl
ab kisī kaabe kī shāyad na paḌegī buniyād
kho ga.ī dasht-e-farāmoshī meñ āvāz-e-ḳhalīl
chāñd phīkī sī hañsī hañs ke guzar jaatā hai
Daal dete haiñ sitāre dhulī chādar apnī
is nigār-e-dil-e-yazdāñ ke janāze pe bas ik
chashm nam kartī hai shabnam yahāñ aksar apnī
ek mailā sā akelā sā fasurda sā diyā
roz rāsha-zada hāthoñ se kahā kartā hai
tum jalāte ho kabhī aa ke bujhāte bhī nahīñ
ek jaltā hai magar ek bujhā kartā hai
tez naddī kī har ik mauj talātum-bar-dosh
chīḳh uThtī hai vahīñ duur se faanī faanī
kal bahā lūñgī tujhe toḌ ke sāhil kī quyūd
aur phir gumbad o mīnār bhī paanī paanī
dur bargad ki ghani chhanw mein KHamosh o malul
jis jagah raat ke tarik kafan ke niche
mazi o haal gunahgar namazi ki tarah
apne aamal pe ro lete hain chupke chupke
ek viran si masjid ka shikasta sa kalas
pas bahti hui naddi ko taka karta hai
aur TuTi hui diwar pe chanDol kabhi
git phika sa koi chheD diya karta hai
gard-alud charaghon ko hawa ke jhonke
roz miTTi ki nai tah mein daba jate hain
aur jate hue suraj ke widai anfas
raushni aa ke darichon ki bujha jate hain
hasrat-e-sham-o-sahar baiTh ke gumbad ke qarib
in pareshan duaon ko suna karti hai
jo tarasti hi rahin rang-e-asar ki KHatir
aur TuTa hua dil tham liya karti hai
ya ababil koi aamad-e-sarma ke qarib
us ko maskan ke liye DhunD liya karti hai
aur mehrab-e-shikasta mein simaT kar pahron
dastan sard mumalik ki kaha karti hai
ek buDha gadha diwar ke sae mein kabhi
ungh leta hai zara baiTh ke jate jate
ya musafir koi aa jata hai wo bhi Dar kar
ek lamhe ko Thahar jata hai aate aate
farsh jarob-kashi kya hai samajhta hi nahin
kal-adam ho gaya tasbih ke danon ka nizam
taq mein shama ke aansu hain abhi tak baqi
ab musalla hai na mimbar na muazzin na imam
aa chuke sahab-e-aflak ke paigham o salam
koh o dar ab na sunenge wo sada-e-jibrail
ab kisi kabe ki shayad na paDegi buniyaad
kho gai dasht-e-faramoshi mein aawaz-e-KHalil
chand phiki si hansi hans ke guzar jata hai
Dal dete hain sitare dhuli chadar apni
is nigar-e-dil-e-yazdan ke janaze pe bas ek
chashm nam karti hai shabnam yahan aksar apni
ek maila sa akela sa fasurda sa diya
roz rasha-zada hathon se kaha karta hai
tum jalate ho kabhi aa ke bujhate bhi nahin
ek jalta hai magar ek bujha karta hai
tez naddi ki har ek mauj talatum-bar-dosh
chiKH uThti hai wahin dur se fani fani
kal baha lungi tujhe toD ke sahil ki quyud
aur phir gumbad o minar bhi pani pani
zindagi ka waqfa Akhtarul Iman Nazm Nazmein
raat sannāTe kī chādar meñ paḌī hai lipTī
pattiyāñ saḌkoñ kī sab jaag rahī haiñ jaise
dekhnā chāhtī haiñ shahr meñ kyā hotā hai
maiñ hamesha kī tarah hoñToñ meñ cigarette ko dabā.e
sone se pahle ḳhayālāt meñ khoyā huā huuñ
din meñ kyā kuchh kiyā ik jā.eza letā hai zamīr
ek saada sā varaq nāma-e-āmāl hai sab
kuchh nahīñ likkhā ba-juz is ke pise jaao yūñhī
kuchh nahīñ likhā bas ik itnā ki insāñ kā nasīb
giilī gūñdhī huī miTTī kā hai ik toda sā
din meñ sau shakleñ banā kartī haiñ is miTTī se
kuchh nahīñ likhā bas ik itnā ki chyūñTī dil hai
jauq-dar-jauq jo insān nazar aate haiñ
daana le kar kisī dīvār pe chaḌhnā girnā
aur phir chaḌhnā chaḌhe jaanā yūñhī shaam o sahar
kuchh nahīñ likkhā bas itnā ki pise jaao yūñhī
aur andoh ta.assuf ḳhushī ālām nashāt
ḳhud ko sau nāmoñ se bahlāte raho chalte raho
saañs ruk jaa.e jahāñ samjho vahīñ manzil hai
aur is dauḌ se thak jaao to cigarette pī lo
raat sannaTe ki chadar mein paDi hai lipTi
pattiyan saDkon ki sab jag rahi hain jaise
dekhna chahti hain shahr mein kya hota hai
main hamesha ki tarah honTon mein cigarette ko dabae
sone se pahle KHayalat mein khoya hua hun
din mein kya kuchh kiya ek jaeza leta hai zamir
ek sada sa waraq nama-e-amal hai sab
kuchh nahin likkha ba-juz is ke pise jao yunhi
kuchh nahin likha bas ek itna ki insan ka nasib
gili gundhi hui miTTi ka hai ek toda sa
din mein sau shaklen bana karti hain is miTTi se
kuchh nahin likha bas ek itna ki chyunTi dil hai
jauq-dar-jauq jo insan nazar aate hain
dana le kar kisi diwar pe chaDhna girna
aur phir chaDhna chaDhe jaana yunhi sham o sahar
kuchh nahin likkha bas itna ki pise jao yunhi
aur andoh tassuf KHushi aalam nashat
KHud ko sau namon se bahlate raho chalte raho
sans ruk jae jahan samjho wahin manzil hai
aur is dauD se thak jao to cigarette pi lo
be-chaargi Akhtarul Iman Nazm Nazmein
hazār baar huā yuuñ ki jab umiid ga.ī
guloñ se rābta TuuTā na ḳhaar apne rahe
gumāñ guzarne lagā ham khaḌe haiñ sahrā meñ
fareb khāne kī jā rah ga.ii, na sapne rahe
nazar uThā ke kabhī dekh lete the uupar
na jaane kaun se a.amāl kī sazā hai ki aaj
ye vāhima bhī gayā sar pe āsmāñ hai koī
hazar bar hua yun ki jab umid gai
gulon se rabta TuTa na KHar apne rahe
guman guzarne laga hum khaDe hain sahra mein
fareb khane ki ja rah gai, na sapne rahe
nazar uTha ke kabhi dekh lete the upar
na jaane kaun se aamal ki saza hai ki aaj
ye wahima bhi gaya sar pe aasman hai koi
aamadgi Akhtarul Iman Nazm Nazmein
ek ik iiñT girī paḌī hai
sab dīvāreñ kaañp rahī haiñ
an-thak koshisheñ me.amāroñ kī
sar ko thāme haañp rahī haiñ
moTe moTe shahtīroñ kā
resha resha chhūT gayā hai
bhārī bhārī jāmid patthar
ek ik kar ke TuuT gayā hai
lohe kī zanjīreñ gal kar
ab himmat hī chhoḌ chukī haiñ
halqa halqa chhūT gayā hai
bandish bandish toḌ chukī haiñ
chūne kī ik patlī sī tah
girte girte baiTh ga.ī hai
nabzeñ chhūT ga.iiñ miTTī kī
miTTī se sar joḌ rahī hai
sab kuchh Dher hai ab miTTī kā
tasvīreñ vo dilkash naqshe
pahchāno to ro dogī tum
ghar meñ huuñ bāhar huuñ ghar se
ab aao to rakkhā kyā hai
chashme saare suukh ga.e haiñ
yuuñ chāho to aa saktī ho
maiñ ne aañsū poñchh liye haiñ
ek ek inT giri paDi hai
sab diwaren kanp rahi hain
an-thak koshishen meamaron ki
sar ko thame hanp rahi hain
moTe moTe shahtiron ka
resha resha chhuT gaya hai
bhaari bhaari jamid patthar
ek ek kar ke TuT gaya hai
lohe ki zanjiren gal kar
ab himmat hi chhoD chuki hain
halqa halqa chhuT gaya hai
bandish bandish toD chuki hain
chune ki ek patli si tah
girte girte baiTh gai hai
nabzen chhuT gain miTTi ki
miTTi se sar joD rahi hai
sab kuchh Dher hai ab miTTi ka
taswiren wo dilkash naqshe
pahchano to ro dogi tum
ghar mein hun bahar hun ghar se
ab aao to rakkha kya hai
chashme sare sukh gae hain
yun chaho to aa sakti ho
main ne aansu ponchh liye hain
ek ehsas Akhtarul Iman Nazm Nazmein
ġhunūdgī sī rahī taarī umr bhar ham par
ye aarzū hī rahī thoḌī der so lete
ḳhalish milī hai mujhe aur kuchh nahīñ ab tak
tire ḳhayāl se ai kaash dard dho lete
mire azīzo mire dosto gavāh raho
birah kī raat kaTī āmad-e-sahar na huī
shikasta-pā hī sahī ham-safar rahā phir bhī
ummīd TuuTī ka.ī baar muntashir na huī
hayūlā kaise badaltā hai vaqt hairāñ huuñ
fareb aur na khaa.e nigāh Dartā huuñ
ye zindagī bhī koī zindagī hai pal pal meñ
hazār baar sambhaltā huuñ aur martā huuñ
vo log jin ko musāfir-navāz kahte the
kahāñ ga.e ki yahāñ ajnabī haiñ sāthī bhī
vo sāya-dār shajar jo sunā thā raah meñ haiñ
sab āñdhiyoñ ne girā Daale ab kahāñ jaa.eñ
ye bojh aur nahīñ uThtā kuchh sabīl karo
chalo hañseñge kahīñ baiTh kar zamāne par
ghunudgi si rahi tari umr bhar hum par
ye aarzu hi rahi thoDi der so lete
KHalish mili hai mujhe aur kuchh nahin ab tak
tere KHayal se ai kash dard dho lete
mere azizo mere dosto gawah raho
birah ki raat kaTi aamad-e-sahar na hui
shikasta-pa hi sahi ham-safar raha phir bhi
ummid TuTi kai bar muntashir na hui
hayula kaise badalta hai waqt hairan hun
fareb aur na khae nigah Darta hun
ye zindagi bhi koi zindagi hai pal pal mein
hazar bar sambhalta hun aur marta hun
wo log jin ko musafir-nawaz kahte the
kahan gae ki yahan ajnabi hain sathi bhi
wo saya-dar shajar jo suna tha rah mein hain
sab aandhiyon ne gira Dale ab kahan jaen
ye bojh aur nahin uThta kuchh sabil karo
chalo hansenge kahin baiTh kar zamane par
No comments:
Post a Comment