सेवासदन (उपन्यास) (भाग-1) : मुंशी प्रेमचंद
Sevasadan (Novel) (Part-1) : Munshi Premchand
1
पश्चाताप के कड़वे फल कभी-न-कभी सभी को चखने पड़ते हैं, लेकिन और लोग बुराईयों पर पछताते हैं, दारोगा कृष्णचन्द्र अपनी भलाइयों पर पछता रहे थे। उन्हें थानेदारी करते हुए पच्चीस वर्ष हो गए, लेकिन उन्होंने अपनी नीयत को कभी बिगड़ने नहीं दिया था। यौवनकाल में भी, जब चित्त भोग-विलास के लिए व्याकुल रहता है, उन्होंने निस्पृह भाव से अपना कर्तव्य पालन किया था। लेकिन इतने दिनों के बाद आज वह अपनी सरलता और विवेक पर हाथ मल रहे थे।
उनकी पत्नी गंगाजली सती-साध्वी पुत्री थी। उसने सदैव अपने पति को कुमार्ग से बचाया था। पर इस समय वह चिंता में डूबी हुई थी। उसे स्वयं संदेह हो रहा था कि जीवन-भर की सच्चरित्रता बिल्कुल व्यर्थ तो नहीं हो गयी।
दारोगा कृष्णचन्द्र रसिक, उदार और बड़े सज्जन पुरुष थे। मातहतों के साथ वह भाईचारे का-सा व्यवहार करते थे किंतु मातहतों की दृष्टि में उनके इस व्यवहार का कुछ मूल्य न था। वह कहा करते थे कि यहां हमारा पेट नहीं भरता, हम उनकी भलमनसी को लेकर क्या करें-चाटें ? हमें घुड़की, डांट-डपट, सख्ती सब स्वीकार है, केवल हमारा पेट भरना चाहिए। रूखी रोटियां चांदी के थाल में परोसी जाएं वे पूरियाँ न हो जाएंगी।
दारोगाजी के अफसर भी उनसे प्रायः प्रसन्न न रहते। वह दूसरे थाने में जाते तो उनका बड़ा आदर-सत्कार होता था, उनके अहलमद, मुहर्रिर और अरदली खूब दावतें उड़ाते। अहलमद को नजराना मिलता, अरदली इनाम पाता और अफसरों को नित्य डालियाँ मिलती थीं, पर कृण्णचन्द्र के यहाँ यह आदर-सत्कार कहां ? वह न दावतें करते थे, न डालियां ही लगाते थे। जो किसी से लेता नहीं वह किसी को देगा कहां से ? दारोगा कृष्णचन्द्र की इस शुष्कता को लोग अभिमान समझते थे।
लेकिन इतना निर्लोभ होने पर भी दारोगाजी के स्वभाव में किफायत का नाम न था। वह स्वयं तो शौकीन न थे, लेकिन अपने घरवालों को आराम देना अपना कर्तव्य समझते थे। उनके सिवा घर में तीन प्राणी और थे; स्त्री और दो लड़कियाँ। दारोगाजी इन लड़कियों को प्राण से भी अधिक प्यार करते थे। उनके लिए अच्छे-अच्छे कपड़े लाते और शहर से नित्य तरह-तरह की चीजें मंगाया करते। बाजार में कोई तहदार कपड़ा देखकर उनका जी नहीं मानता था, लड़कियों के लिए अवश्य ले आते थे। घर में सामान जमा करने की उन्हें धुन थी। सारा मकान कुर्सियों, मेजों, अलमारियों से भरा हुआ था। नगीने के कलमदान, झाँसी के कालीन, आगरे की दरियां बाजार में नजर आ जातीं, तो उन पर लट्टू हो जाते। कोई लूट के धन पर भी इस भाँति न टूटता होगा। लड़कियों को पढ़ाने और सीना-पिरोना सिखाने के लिए उन्होंने एक ईसाई लेडी रख ली थी। कभी-कभी वे स्वयं उनकी परीक्षा लिया करते थे।
गंगाजली चतुर स्त्री थी। उन्हें समझाया करती थी जरा हाथ रोककर खर्च करो। जीवन में यदि और कुछ नहीं करना है तो लड़कियों का विवाह तो करना ही पड़ेगा, उस समय किसके सामने हाथ फैलाते फिरोगे ? अभी तो उन्हें मखमली जूतियाँ पहनाते हो, कुछ इसकी भी चिंता है कि आगे क्या होगा ? दरोगाजी इन बातों को हँसी में उड़ा देते, कहते, जैसे और सब काम चलते हैं, वैसे ही यह काम भी हो जाएगा। कभी झुंझलाकर कहते ऐसी बात करके मेरे ऊपर चिंता का बोझ मत डालो।
इस प्रकार दिन बातते चले गये थे। दोनों लड़कियां कमल के समान खिलती जाती थीं, बड़ी लड़की सुमन सुंदर, चंचल और अभिमानी थी, छोटी लड़की शान्ता भोली, गंभीर, सुशील थी। सुमन दूसरों से बढ़कर रहना चाहती थी। यदि बाजार से दोनों बहनों के लिए एक ही प्रकार की साड़ियाँ आतीं। तो सुमन मुँह फुला लेती थी। शान्ता को जो कुछ मिल जाता, उसी में प्रसन्न रहती।
गंगाजली पुराने विचार के अनुसार लड़कियों के ऋण से शीघ्र मुक्त होना चाहती थी। पर दरोगाजी कहते, यह अभी विवाह योग्य नहीं है। शास्त्रों में लिखा है कन्या का विवाह सोलह वर्ष की आयु से पहले करना पाप है। वह इस प्रकार मन को समझाकर टालते जाते थे। समाचार पत्रों में जब दहेज-विरोधी के बड़े–बड़े लेख पढ़ते, तो बहुत प्रसन्न होते। गंगाजली से कहते कि अब एक दो साल में ही यह कुरीति मिटी जाती है। चिंता की कोई जरूरत नहीं। यहां तक कि इसी तरह सुमन का सोलहवां वर्ष लग गया।
अब कृष्णचन्द्र अपने को अधिक धोखा नहीं दे सके। उनकी पूर्व निश्चिंतता वैसी न थी, जो अपने सामर्थ्य के ज्ञान से उत्पन्न होती है। उसका मूल कारण उनकी अकर्मण्यता थी। उस पथिक की भाँति, जो दिन भर किसी वृक्ष के नीचे आराम से सोने के बाद संध्या को उठे और सामने एक ऊँचा पहाड़ देखकर हिम्मत हार बैठे। दारोगाजी भी घबरा गए। वर की खोज में दौड़ने लगे, कई जगहों से टिप्पणियां मंगवाईं। वह शिक्षित परिवार चाहते थे। वह समझते थे कि ऐसे घरों में लेन-देन की चर्चा न होगी, पर उन्हें यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि वरों का मोल उनकी शिक्षा के अनुसार है। राशि वर्ण ठीक हो जाने पर जब लेन-देन की बातें होने लगतीं, तब कृष्णचन्द्र की आँखों के सामने अंधेरा छा जाता था। कोई चार हजार सुनाता। कोई पांच हजार। और कोई इससे भी आगे बढ़ जाता। बेचारे निराश होकर लौट आते। आज छह महीने से दरोगाजी इसी चिंता में पड़े हैं। बुद्धि काम नहीं करती। इसमें संदेह नहीं कि शिक्षित सज्जनों को उनसे सहानुभूति थी; पर वह एक-न एक ऐसी पख निकाल देते थे कि कि दारोगाजी को निरुत्तर हो जाना पड़ता था। एक सज्जन ने कहा- महाशय, मैं स्वयं इस कुप्रथा का जानी दुश्मन हूँ, लेकिन क्या करूँ अभी पिछले साल लड़की का विवाह किया, दो हजार रुपये केवल दहेज में देने पड़े दो हजार और खाने पीने में खर्च करने पडे़, आप ही कहिए यह कमी कैसे पूरी हो ?
दूसरे महाशय इनसे अधिक नीतिकुशल थे। बोले-दारोगाजी, मैंने लड़के को पाला है, सहस्रों रुपये उसकी पढ़ाई में खर्च किए हैं। आपकी लड़की को इससे उतना ही लाभ होगा, जितना मेरे लड़के को। तो आप ही न्याय कीजिए कि यह सारा भार मैं अकेला कैसे उठा सकता हूँ ?
कृष्णचन्द्र को अपनी ईमानदारी और सच्चाई पर पश्चाताप होने लगा। अपनी निस्पृहता पर उन्हें जो घमंड था टूट गया। वह सोच रहे थे कि यदि मैं पाप से न डरता, तो आज मुझे यों मुझे ठोकरें न खानी पड़तीं। इस समय दोनों स्त्री-पुरुष चिंता में डूबे बैठे थे। बड़ी देर के बाद कृष्णचन्द्र बोले-देख लिया, संसार में संमार्ग पर चलने का यह फल होता है। यदि आज मैंने लोगों को लूटकर अपना घर भर लिया होता, तो लोग मुझसे संबंध करना अपना सौभाग्य समझते, नहीं तो कोई सीधे मुंह बात नहीं करता है।
परमात्मा के दरबार में यह न्याय होता है ! अब दो ही उपाय हैं, या तो सुमन को किसी कंगाल के पल्ले बाँध दूँ या कोई सोने की चिड़िया फसाऊँ। पहली बात तो होने से रही। बस अब सोने की चिड़िया की खोज में निकलता हूँ। धर्म का मजा चख लिया, सुनीति का हल भी देख चुका। अब लोगों को खूब दबाऊँगा; खूब रिश्वत लूँगा, यही अंतिम उपाय है, संसार यही चाहता है, और कदाचित् ईश्वर भी यही चाहता है। यही सही। आज से मैं भी वहीं करूँगा, जो सब करते हैं। गंगाजली सिर झुकाए अपने पति की बातें सुन कर दुःखित हो रही थी। वह चुप थी। आँखों में आँसू भरे हुए थे।
2
दारोगाजी के हल्के में एक महन्त रामदास रहते थे। वह साधुओं की एक गद्दी के महंत थे। उनके यहां सारा कारोबार ‘श्री बांकेबिहारीजी’ के नाम पर होता था। ‘श्री बांकेबिहारीजी’ लेन-देन करते थे और बत्तीस रुपये प्रति सैकड़े से कम सूद न लेते थे। वही मालगुजारी वसूल करते थे, वही रेहननामे-बैनामे लिखाते थे। ‘श्री बांकेबिहारीजी’ की रकम दबाने का किसी को साहस न होता था और न अपनी रकम के लिए कोई दूसरा आदमी उनसे कड़ाई कर सकता था। ‘श्री बांकेबिहारीजी’ को रुष्ट करके उस इलाके में रहना कठिन था। महंत रामदास के यहाँ दस-बीस मोटे-ताजे साधु स्थायी रूप से रहते थे। वह अखाड़े में दंड पेलते, भैंस का ताजा दूध पीते, संध्या को दूधिया भंग छानते और गांजे-चरस की चिलम तो कभी ठंडी न होने पाती थी। ऐसे बलवान जत्थे के विरुद्ध कौन सिर उठाता?
मंहतजी का अधिकारियों में खूब मान था। ‘श्री बांकेबिहारीजी’ उन्हें खूब मोतीचूर के लड्डू और मोहनभोग खिलाते थे। उनके प्रसाद से कौन इनकार कर सकता था? ठाकुरजी संसार में आकर संसार की रीति पर चलते थे।
महंत रामदास जब अपने इलाके की निगरानी करने निकलते, तो उनका जुलूस राजसी ठाटबाट के साथ चलता था। सबके आगे हाथी पर ‘श्रीबांकेबिहारीजी’ की सवारी होती थी, उनके पीछे पालकी पर महंत जी चलते थे, उसके बाद साधुओं की सेना घोड़ों पर सवार, राम-नाम के झंडे लिए अपनी विचित्र शोभा दिखाती थी, ऊंटों पर छोलदारियां, डेरे और शामियाने लदे होते थे। यह दल जिस गांव में जा पहुँचता था, उसकी शामत आ जाती थी।
इस साल महंतजी तीर्थयात्रा करने गए थे। वहाँ से आकर उन्होंने एक बड़ा यज्ञ किया था। एक महीने तक हवनकुंड जलता रहा, महीनों तक कड़ाह न उतरे, पूरे दस हजार महात्माओं का निमंत्रण था। इस यज्ञ के लिए इलाके के प्रत्येक आसामी से हल पीछे पांच रुपया चंदा उगाहा गया था। किसी ने खुशी से दे दिया, किसी ने उधार लेकर और जिनके पास न था, उसे रुक्का ही लिखना पड़ा। ‘श्रीबांकेबिहारीजी’ की आज्ञा को कौन टाल सकता था? यदि ठाकुर जी को हार माननी पड़ी, तो केवल एक अहीर से, जिसका नाम चैतू था। वह बूढ़ा दरिद्र आदमी था। कई साल से उसकी फसल खराब हो रही थी। थोड़े ही दिन हुए ‘श्रीबांकेबिहारीजी’ ने उस पर इजाफा लगान की नालिश करके उसे ऋण के बोझ से और दबा दिया था। उसने यह चंदा देने से इनकार किया, यहां तक कि रुक्का भी न लिखा। ठाकुरजी ऐसे द्रोही को भला कैसे क्षमा करते? एक दिन कई महात्मा चैतू को पकड़ लाए। ठाकुरद्वारे के सामने उस पर मार पड़ने लगी। चैतू भी बिगड़ा। हाथ तो बँधे हुए थे, मुँह से लात-घूंसों का जवाब देता रहा और जब तक जबान बंद न हो गई, चुप न हुआ। इतना कष्ट देकर ठाकुरजी को संतोष न हुआ, उसी रात को उसके प्राण हर लिए। प्रातः काल चौकीदार ने थाने में रिपोर्ट की।
दरोगा कृष्णचन्द्र को मालूम हुआ, मानो ईश्वर ने बैठे-बिठाये सोने की चिड़ियाँ उनके पास भेज दी। तहकीकात करने चले।
लेकिन महंत जी की उस इलाके में ऐसी धाक जमी हुई थी कि दारोगाजी को कोई गवाही न मिल सकी। लोग एकांत में आकर उनसे सारा वृतांत कह जाते थे, पर कोई अपना बयान नहीं देता था।
इस प्रकार तीन-चार दिन बीत गए। महंत पहले तो बहुत अकड़े रहे। उन्हें निश्चय था कि यह भेद न खुल सकेगा। लेकिन जब पता चला कि दारोगाजी ने कई आदमियों को फोड़ लिया है, तो कुछ नरम पड़े। अपने मुख्तार को दरोगाजी के पास भेजा। कुबेर की शरण ली। लेन-देन की बातचीत होने लगी। कृष्णचन्द्र ने कहा– मेरा हाल तो आप लोग जानते हैं कि रिश्वत को काला नाग समझता हूं। मुख्तार ने कहा– हां यह तो मालूम है, किंतु साधु-संतों पर कृपा रखनी ही चाहिए। इसके बाद दोनों सज्जनों में कानाफूसी हुई मुख्तार ने कहा– नहीं सरकार, पांच हजार बहुत होते हैं। महंतजी को आप जानते हैं। वह अपनी टेक पर आ जाएंगे, तो चाहे फांसी ही हो जाए जौ-भर न हटेंगे। ऐसा कीजिए कि उनको कष्ट न हो, आपका भी काम निकल जाए। अंत में तीन हजार में बात पक्की हो गई।
पर कड़वी दवा खरीदकर लाने, उसका काढ़ा बनाने, और उसे उठाकर पीने में बहुत अंतर है। मुख्तार तो महंत के पास गया और कृष्णचन्द्र सोचने लगे, यह मैं क्या कर रहा हूं?
एक ओर रुपयों का ढेर था और चिंता-व्याधि से मुक्त होने की आशा, दूसरी ओर आत्मा का सर्वनाश और परिणाम का भय। न हां करते बनता था, न नहीं।
जन्म भर निर्लोभ रहने के बाद इस समय अपनी आत्मा का बलिदान करने में दारोगाजी को बड़ा दुःख होता था। वह सोचते थे, यदि यही करना था तो आज से पच्चीस साल पहले क्यों न किया, अब तक सोने की दीवार खड़ी कर दी होती। इलाके ले लिए होते। इतने दिनों तक त्याग का आनंद उठाने के बाद बुढ़ापे में यह कलंक, पर मन कहता था, इसमें तुम्हारा क्या अपराध? तुमने जब तक निभ सका, निबाहा। भोग-विलास के पीछे अधर्म नहीं किया, लेकिन जब देश, काल, प्रथा और अपने बंधुओं का लोभ तुम्हें कुमार्ग की ओर ले जा रहे हैं, तो तुम्हारा क्या दोष? तुम्हारी आत्मा अब भी पवित्र है। तुम ईश्वर के सामने अब भी निरपराध हो। इस प्रकार तर्क करके दारोगाजी ने अपनी आत्मा को समझा लिया।
लेकिन परिणाम का भय किसी तरह पीछा न छोड़ता था। उन्होंने कभी रिश्वत नहीं ली थी। हिम्मत न खुली थी। जिसने कभी किसी पर हाथ न उठाया हो, वह सहसा तलवार का वार नहीं कर सकता। यदि कहीं बात खुल गई, तो जेलखाने के सिवा और कहीं ठिकाना नहीं, सारी नेकनामी धूल में मिल जाएगी, आत्मा तर्क से परास्त हो सकती है, पर परिणाम का भय तर्क से दूर नहीं होता। वह पर्दा चाहता है। दारोगाजी ने यथासंभव इस मामले को गुप्त रखा। मुख्तार को ताकीद कर दी कि इस बात की भनक भी किसी के कान में न पड़ने पाए। थाने के कांस्टेबलों और अमलों से भी सारी बातें गुप्त रखी गईं।
रात के नौ बजे थे। दारोगाजी ने अपने तीनों कांस्टेबलों को किसी बहाने से थाने के बाहर भेज दिया। चौकीदारों को भी रसद का सामान जुटाने के लिए इधर-उधर भेज दिया था और आप अकेले बैठे हुए मुख्तार की राह देख रहे थे। मुख्तार अभी तक नहीं लौटा, कर क्या रहा है? चौकीदार सब आकर घेर लेंगे तो बड़ी मुश्किल पड़ेगी। इसी से मैंने कह दिया था कि जल्द आना। अच्छा मान लो, जो महंत तीन हजार पर भी राजी न हुआ तो? नहीं, इससे कम न लूंगा। इससे कम में विवाह हो ही नहीं सकता।
दारोगाजी मन-ही-मन हिसाब लगाने लगे कि कितने रुपए दहेज में दूंगा और कितने खाने-पीने में खर्च करूंगा।
कोई आध घंटे के बाद मुख्तार के आने की आहट मिली। उनकी छाती धड़कने लगी। चारपाई से उठ बैठे, फिर पानदान खोलकर पान लगाने लगे कि इतने में मुख्तार भीतर आया।
कृष्णचन्द्र– कहिए?
मुख्तार– महंतजी…
कृष्णचन्द्र ने दरवाजे की तरफ देखकर कहा– रुपए लाए या नहीं?
मुख्तार– जी हां, लाया हूँ, पर महंतजी ने…
कृष्णचन्द्र ने फिर चारों तरफ चौकन्नी आंखों से देखकर कहा– मैं एक कौड़ी भी कम न करूंगा।
मुख्तार– अच्छा, मेरा हक तो दीजिएगा न?
कृष्णचन्द्र– अपना हक महन्तजी से लेना।
मुख्तार– पांच रुपया सैकड़े तो हमारा बंधा हुआ है।
कृष्णचन्द्र– इसमें से एक कौड़ी भी न मिलेगी। मैं अपनी आत्मा बेच रहा हूं, कुछ लूट नहीं रहा हूं।
मुख्तार– आपकी जैसी मर्जी, पर मेरा हक मारा जाता है।
कृष्णचन्द्र– मेरे साथ घर तक चलना पड़ेगा।
तुरंत बहली तैयार हुई और दोनों आदमी उस पर बैठकर चले। बहली के आगे-पीछे चौकीदारों का दल था। कृष्णचन्द्र उड़कर घर पहुंचना चाहते थे। गाड़ीवान को बार-बार हांकने के लिए कहकर कहते– अरे, क्या सो रहा है? हांके चल।
ग्यारह बजते-बजते लोग घर पहुंचे। दारोगाजी मुख्तार को लिए हुए अपने कमरे में गए और किवाड़ बंद कर दिए। मुख्तार ने थैली निकाली। कुछ गिन्नियां थीं, कुछ नोट और कुछ नकद रुपए। कृष्णचन्द्र ने झट थैली ले ली और बिना देखे-सुने उसे अपने संदूक में डालकर ताला लगा दिया।
गंगाजली अभी तक उनकी राह देख रही थी। कृष्णचंद्र मुख्तार को विदा करके घर में गए। गंगाजली ने पूछा– इतनी देर क्यों की?
कृष्णचन्द्र– काम ही ऐसा आन पड़ा और दूर भी बहुत था।
भोजन करके दारोगाजी लेटे, पर नींद न आती थी। स्त्री से रुपए की बात कहते उन्हें संकोच हो रहा था। गंगाजली को भी नींद न आती थी। वह बार-बार पति के मुंह की ओर देखती, मानों पूछ रही थी कि बचे या डूबे।
अंत में कृष्णचन्द्र बोले– यदि तुम नदीं के किनारे खड़ी हो और पीछे से एक शेर तुम्हारे ऊपर झपटे तो क्या करोगी?
गंगाजली इस प्रश्न का अभिप्राय समझ गई। बोली– नदी मे चली जाऊंगी।
कृष्णचन्द्र– चाहे डूब ही जाओ?
गंगाजली– हां डूब जाना शेर के मुंह में पड़ने से अच्छा है।
कृष्णचन्द्र– अच्छा, यदि तुम्हारे घर में आग लगी हो और दरवाजों से निकलने का रास्ता न हो, तो क्या करोगी?
गंगाजली– छत पर चढ़ जाऊंगी और नीचे कूद पडूंगी।
कृष्णचन्द्र– इन प्रश्नों का मतलब तुम्हारी समझ में आया?
गंगाजली ने दीनभाव से पति को ओर देखकर कहा– तब क्या ऐसी बेसमझ हूं?
कृष्णचन्द्र– मैं कूद पड़ा हूं। बचूंगा या डूब जाऊंगा, यह मालूम नहीं।
3
पण्डित कृष्णचन्द्र रिश्वत लेकर उसे छिपाने के साधन न जानते थे । इस विषय में अभी नोसिखुए थे । उन्हें मालूम न था कि हराम का माल अकेले मुश्किल से पचता है । मुख्तार ने अपने मन मे कहा, हमीं ने सब कुछ किया और हमीं से यह चाल ! हमें क्या पड़ी थी कि इस झगड़े में पड़ते और रात दिन बैठे तुम्हारी खुशामद करते । महन्त फसते या बचते, मेरी बला से, मुझे तो अपने साथ न ले जाते । तुम खुश होते या नाराज, मेरी बला से, मेरा क्या बिगाड़ते ? मैंने जो इतनी दौड़-धूप की, वह कुछ आशा ही रख कर की थी ।
वह दारोगा जी के पास से उठ कर सीधे थाने में आया और बातों ही बातों में सारा भण्डा फोड़ गया।
थाने के अमलों ने कहा, वाह हमसे यह चाल ! हमसे छिपा-छिपा कर यह रकम उड़ाई जाती है । मानो हम सरकार के नौकर ही नहीं हैं । देखें यह माल कैसे हजम होता है । यदि इस बगुला भगत को मजा न चखा दिया तो देखना ।
कृणचन्द्र तो विवाह की तैयारियों में मग्न थे । वर सुन्दर, सुशील सुशिक्षित था । कुछ ऊँचा और धनी । दोनों ओर से लिखा-पढी हो रही थी । उधर हाकिमों के पास गुप्त चिट्ठियाँ पहुँच रही थी । उनमें सारी घटना ऐसी सफाई से बयान की गयी थी, आक्षेपों के ऐसे सबल प्रमाण दिये गए थे, व्यवस्या की ऐसी उत्तम विवेचना की गई थी कि हाकिमों के मन में सन्देह उत्पन्न हो गया। उन्होने गुप्त रीति से तहकीकात की। संदेह जाता रहा । सारा रहस्य खुल गया।
एक महीना बीत चुका था । कल तिलक जाने की साइत थी । दारोगा जी संध्या समय थाने में मसनद लगाये बैठे थे, उस समय सामने से सुपरिन्टेन्डेन्ट पुलिस आता हुआ दिखाई दिया । उसके पीछे दो थानेदार और कई कान्सटेबल चले आ रहे थे । कृष्णचन्द्र उन्हें देखते ही घबरा कर उठे कि एक थानेदार ने बढ़ कर उन्हें गिरफ्तारी का वारण्ट दिखाया । कृष्णचन्द्र का मुख पीला पड़ गया। वह जड़मूर्ति की भांति चुपचाप खड़े हो गए और सिर झुका लिया । उनके चेहरे पर भय न था, लज्जा थी । यह वही दोनो थानेदार थे, जिनके सामने वह अभिमान से सिर उठा कर चलते थे, जिन्हें वह नीच समझते थे । पर आज उन्हीं के सामने वह सिर नीचा किये खड़े थे । जन्म भर की नेक-नामी एक क्षण में धूल में मिल गयी । थाने के अमलों ने मन में कहा, और अकेले-अकेले रिश्वत उड़ाओ ।
सुपरिन्टेन्डेन्ट ने कहा,-वेल किशनचन्द्र, तुम अपने बारे में कुछ कहना चाहता है ?
कृष्णचन्द्र ने सोचा–क्या कहूँ ? क्या कह दूं कि मैं बिल्कुल निरपराध हूँ, यह सब मेरे शत्रुओं की शरारत है, थानेवालों ने मेरी ईमानदारी से तंग आकर मुझे यहाँ से निकालने के लिए यह चाल खेली है ?
पर वह पापाभिनय में ऐसे सिद्धहस्त न थे । उनकी आत्मा स्वयं अपने अपराध के बोझ से दबी जा रही थी। वह अपनी ही दृष्टि में गिर गए थे ।
जिस प्रकार बिरले ही दुराचारियों को अपने कुकर्मों का दण्ड मिलता है उसी प्रकार सज्जन का दंड पाना अनिवार्य है । उसका चेहरा, उसकी आँखें,उसके आकार-प्रकार, सब जिह्वा बन-बन कर उसके प्रतिकूल साक्षी देते हैं । उसकी आत्मा स्वयं अपना न्यायाधीश बन जाती है । सीधे मार्ग पर चलने वाला मनुष्य पेचीदा गलियों में पड़ जाने पर अवश्य राह भूल जाता है ।
कृष्ण–सुनो, यह रोने धोने का समय नही है । मै कानून के पन्जे में फँसा हूँ और किसी तरह नही बच सकता । धैर्य से काम लो, परमात्मा की इच्छा होगी तो फिर भेंट होगी ।
यह कहकर वह बाहर की ओर चले कि दोनो लड़कियाँ आकर उनके पैरों से चिमट गई । गंगाजली ने दोनों हाथों से उनकी कमर पकड़ ली और तीनों चिल्लाकर रोने लगीं।
कृष्णचन्द्र भी कातर हो गए । उन्होंने सोचा, इन अबलाओं की क्या गति होगी ? परमात्मा ! तुम दीनों के रक्षक हो, इनकी भी रक्षा करना ।
एक क्षण में वह अपने को छुडा़कर बाहर चले गये । गंगाजली ने उन्हें पकड़ने को हाथ फैलाये, पर उसके दोनों हाथ फैले ही रह गये, जैसे गोली खाकर गिरनेवाली किसी चिड़िया के दोनों पंख खुले रह जाते हैं ।
4
कृष्णचन्द्र अपने कस्बे में सर्वप्रिय थे । यह खबर फैलते ही सारी बस्ती में हलचल मच गई । कई भले आदमी उनकी जमानत करने आये लेकिन साहब ने जमानत न ली ।
इसके एक सप्ताह बाद कृष्णचन्द्र पर रिश्वत लेने का अभियोग चलाया गया। महन्त रामदास भी गिरफ्तार हुए ।
दोनों मुकदमे महीने भर तक चलते रहे । हाकिम ने उन्हें दीरे सुपुर्द कर दिया ।
वहाँ भी एक महीना लगा । अन्त मे कृष्णचन्द्र को पाँच वर्ष की कैद हुई । महन्त जी सात वर्ष के लिए गये और दोनों चेलों को कालेपानी का दण्ड मिला ।
गंगाजली के एक सगे भाई पण्डित उमानाथ थे । कृष्णचन्द्र की उनसे जरा भी न बनती थी। वह उन्हें धूर्त और पाखंडी कहा करते, उनके लम्बे तिलक की चुटकी लेते । इसलिए उमानाथ उनके यहाँ बहुत कम आते थे ।
लेकिन इस दुर्घटना का समाचार पाकर उमानाथ से न रहा गया । वह आकर अपनी बहन और भांजियों को अपने घर ले गए । कृष्णचन्द्र को सगा भाई न था । चाचा के दो लड़के थे, पर वह अलग रहते थे । उन्होने बात तक न पूछी ।
कृष्णचन्द्र ने चलते-चलते गंगाजली को मना किया था कि रामदास के रुपयों में से एक कौड़ी भी मुकदमे में न खर्च करना। उन्हें निश्चय था कि मेरी सजा अवश्य होगी । लेकिन गंगाजली का जी न माना । उसने दिल खोलकर रुपये खर्च किए । वकील लोग अन्त समय तक यही कहते रहे कि वे छूट जायेंगे ।
जज के फैसले की हाईकोर्ट में अपील हुई । महन्तजी की सजा में कमी न हुई । पर कृष्णचन्द्रजी की सजा घट गई । पाँच के चार वर्ष रह गए ।
गंगाजली आने को तो मैके आई, पर अपनी भूल पर पछताया करती थी । यह वह मैका न था जहाँ उसने अपनी बालकपन की गुडियाँ खेली थीं, मिट्टी के घरौंदे बनाये थे, माता पिता की गोद में पली थी। माता पिता का स्वर्गवास हो चुका था, गाँव में वह आदमी न दिखाई देते थे । यहाँ तक कि पेड़ों की जगह खेत और खेतों की जगह पेड़ लगे हुए थे । वह अपना घर भी मुश्किल से पहचान सकी और सबसे दुःखकी बात यह थी कि वहाँ उसका प्रेम या आदर न था । उसकी भावज जाह्नवी उससे मुंह फुलाये रहती । जाह्नवी अब अपने घर बहुत कम रहती । पड़ोसियों के यहाँ बैठी हुई गंगाजली का दुखड़ा रोया करती । उसके दो लड़कियाँ थीं । वह भी सुमन और शान्ता से दूर-दूर रहतीं ।
गंगाजली के पास रामदास के रुपयों मे से कुछ न बचा था। यही चार पाँच सौ रुपये रह गये थे जो उसने पहले काट कपटकर जमा किए थे । इसलिए वह उमानाथ से सुमन के विवाह के विषय में कुछ न कहती । यहाँ तक कि छः महीने बीत गये। कृष्णचंद्र ने जहाँ पहला संबंध ठीक किया था, वहाँ से साफ जवाब आ चुका था।
लेकिन उमानाथ को यह चिंता बराबर लगी रहती थी। उन्हें जब अवकाश मिलता तो दो-चार दिन के लिए वर की खोज में निकल जाते। ज्योंही वह किसी गाँव में पहुँचते वहाँ हलचल मच जाती। युवक गठरियों से वह कपड़े निकालते जिन्हें वह बारातों में पहना करते थे। अँगूठियाँ और मोहनमाले मँगनी माँग कर पहन लेते। माताएँ अपने बालकों को नहला-धुलाकर आँखों में काजल लगा देती और धुले हुए कपड़े पहनाकर खेलने को भेजतीं। विवाह के इच्छुक बूढ़े नाइयों से मोछ कंटवाते और पके हुए बाल चुनवाने लगते | गाँव के नाई और कहार खेतों से बुला लिए जाते, कोई अपना बड़प्पन दिखाने के लिए उनसे पैर दबवाता, कोई धोती छँटवाता। जब तक उमानाथ वहाँ रहते, स्त्रियाँ घरों से न निकलती, कोई अपने हाथ से पानी न भरता, कोई खेत में न जाता। पर उमानाथ की आँखों में यह घर न जँचते थे। सुमन कितनी रूपवती, कितनी गुणशील, कितनी पढ़ी-लिखी लड़की है, इन मूर्खों के घर पड़कर उसका जीवन नष्ट हो जायेगा।
अंत में उमानाथ ने निश्चय किया कि शहर में कोई वर ढूँढ़ना चाहिए। सुमन के योग्य वर देहात में नहीं मिल सकता। शहरवालों की लम्बी-चौड़ी बातें सुनीं तो उनके होश उड़ गये, बड़े आदमियों का तो कहना ही क्या, दफ्तरों में मुसद्दी और क्लर्क भी हजारों का राग अलापते थे। लोग उनकी सूरत देखकर भड़क जाते। दो-चार सज्जन उनकी कुल-मर्यादा का हाल सुनकर विवाह करने को उत्सुक हुए, पर कहीं तो कुंडली न मिली और कहीं उमानाथ का मन ही न भरा। वह अपनी कुल-मर्यादा से नीचे न उतरना चाहते थे।
इस प्रकार पूरा एक साल बीत गया। उमानाथ दौड़ते-दौड़ते तंग आ गये, यहाँ तक कि उनकी दशा औषधियों के विज्ञापन बाँटनेवाले उस मनुष्य की-सी हो गयी जो दिन भर बाबू संप्रदाय को विज्ञापन देने के बाद सन्ध्या को अपने पास विज्ञापनों का एक भारी पुलिंदा पड़ा हुआ पाता है और उस बोझ से मुक्त होने के लिए उन्हें सर्वसाधारण को देने लगता है। उन्होंने मान, विद्या, रूप और गुण की ओर से आँखे बंद करके कुलीनता को पकड़ा। इसे वह किसी भाँति न छोड़ सकते थे।
माघ का महीना था। उमानाथ स्नान करने गये। घर लौटे तो सीधे गंगाजली के पास जाकर बोले-लो बहन, मनोरथ पूरा हो गया। बनारस में विवाह ठीक हो गया।
गंगा०-भला, किसी तरह तुम्हारी दौड़-धूप तो ठिकाने लगी। लड़का पढ़ता है न?
उमानाथ- पढ़ता नहीं, नौकर है। एक कारखाने में १५) का बाबू है।
गंगा०–घर-द्वार है न?
उमा०-शहर में किसके घर होता है। सब किराये के घर में रहते हैं।
गंगा०-भाई-बंद, माँ-बाप हैं?
उमा०-माँ-बाप दोनों मर चुके हैं और भाई-बंद शहर में किसके होते है?
गंगा०-उमर क्या है?
उमा०-यही, कोई तीस साल के लगभग होगी।
गंगा०-देखने-सुनने में कैसा है?
उमा०-सौ में एक। शहर में कोई कुरूप तो होता ही नहीं। सुन्दर बाल, उजले कपड़े सभी के होते हैं और गुण, शील, बातचीत का तो पूछना ही क्या है? बात करते मुँह से फूल झड़ते हैं। नाम गजाधर प्रसाद है।
गंगा०-तो दुआह होगा?
उमा०-हाँ, है तो दुआह, पर इससे क्या? शहर में कोई बुड्ढा तो होता ही नहीं। जवान लड़के होते हैं और बुड्ढे जवान; उनकी जवानी सदा बहार होती है। वही हँसी-दिललगी, वही तेल-फुलेल का शौक। लोग जवान ही रहते हैं और, जवान ही मर जाते हैं ।
गंगा- कुल कैसा है ?
उमा- बहुत ऊँचा । हमसे भी दो विश्वे बड़ा है । पसन्द है न ? गंगाजली ने उदासीन भाव से कहा, जब तुम्हें पसन्द है तो मुझे भी पसन्द ही है ।
5
फागुन में सुमन का विवाह हो गया। गंगाजली दामाद को देखकर बहुत रोई। उसे ऐसा दुःख हुआ, मानो किसी ने सुमन को कुएं में डाल दिया।
सुमन ससुराल आई तो यहां की अवस्था उससे भी बुरी पाई, जिसकी उसने कल्पना की थी। मकान में केवल दो कोठरियां थी और एक सायबान। दीवारों में चारों ओर लोनी लगी थी। बाहर से नालियों की दुर्गंध आती रहती थी। धूप और प्रकाश का कहीं गुजर नहीं। इस घर का किराया तीन रुपये महीना देना पड़ता था।
सुमन के दो महीने आराम से कटे। गजाधर की एक बूढ़ी फूआ घर का सारा काम-काज करती थी। लेकिन गर्मियों में शहर में हैजा फैला और बुढ़िया चल बसी। अब वह बड़े फेर में पड़ी। चौका-बर्तन करने के लिए महरियां तीन रुपये से कम पर राजी न होती थीं। दो दिन घर में चूल्हा नहीं जला। गजाधर सुमन से कुछ न कह सकता था। दोनों दिन बाजार से पूरियां लाया। वह सुमन को प्रसन्न रखना चाहता था। उसके रूप-लावण्य पर मुग्ध हो गया था। तीसरे दिन वह घड़ी रात रहे उठा और सारे बर्तन मांज डाले, चौका लगा दिया, नल से पानी भर लाया। सुमन जब सोकर उठी, तो यह कौतुक देखकर दंग रह गई। समझ गई कि इन्होंने सारा काम किया। लज्जा के मारे उसने कुछ न पूछा। संध्या को उसने आप ही सारा काम किया। बर्तन मांजती थी और रोती जाती थी।
पर थोड़े ही दिनों में उसे इन कामों की आदत पड़ गई। उसे अपने जीवन में आनंद-सा अनुभव होने लगा। गजाधर को ऐसा मालूम होता था, मानो जग जीत लिया है। अपने मित्रों से सुमन की प्रशंसा करता फिरता। स्त्री नहीं है, देवी है। इतने बड़े घर की लड़की, घर का छोटे-से-छोटा काम भी अपने हाथ से करती है। भोजन तो ऐसा बनाती है कि दाल-रोटी में पकवान का स्वाद आ जाता है। दूसरे महीने में वह वेतन पाया, तो सबका-सब सुमन के हाथों में रख दिया। जिंदगी में आज स्वच्छंदता का आनंद प्राप्त हुआ। अब उसे एक-एक पैसे के लिए किसी के सामने हाथ न फैलाना पड़ेगा। वह इन रुपयों को जैसे चाहे, खर्च कर सकती है। जो चाहे खा-पी सकती है।
पर गृह-प्रबंध में कुशल न होने के कारण वह आवश्यक और अनावश्यक खर्च का ज्ञान न रखती थी। परिणाम यह हुआ कि महीने में दस दिन बाकी थे कि सुमन ने सब रुपए खर्च कर डाले थे। उसने गृहिणी बनने की नहीं, इंद्रियों के आनंद-भोग की शिक्षा पाई थी। गजाधर ने यह सुना, तो सन्नाटे मंक आ गया। अब महीना कैसे कटेगा? उसके सिर पर एक पहाड़-सा टूट पड़ा। इसकी शंका उसे कुछ पहले ही हो रही थी। सुमन से कुछ न बोला, पर सारे दिन उस पर चिंता सवार रही, अब बीच में रुपए कहां से आएं?
गजाधर ने सुमन को घर की स्वामिनी बना तो दिया था, पर वह स्वभाव से कृपण था। जलपान की जलेबियां उसे विष के सामान लगती थीं। दाल में घी देखकर उसके हृदय में शूल होने लगता। वह भोजन करता तो बटुली की ओर देखता कि कहीं अधिक तो नहीं बना है। दरवाजे पर दाल-चावल फेंका देखकर शरीर में ज्वाला-सी लग जाती थी, पर सुमन की मोहिनी सूरत ने उसे वशीभूत कर लिया था। मुंह से कुछ न कह सकता।
पर आज जब कई आदमियों से उधार मांगने पर रुपए न मिले, तो वह अधीर हो गया। घर में आकर बोला– रुपए तो तुमने खर्च कर दिए, अब बताओ, कहां से आएं?
सुमन– मैंने कुछ उड़ा तो नहीं दिए।
गजाधर– उड़ाए नहीं, पर यह तो मालूम था कि इसी में महीने भर चलाना है। उसी हिसाब से खर्च करना था।
सुमन– उतने रुपयों में बरकत थोड़े ही हो जाएगी।
गजाधर– तो मैं डाका तो नहीं मार सकता।
बातों-बातों में झगड़ा हो गया। गजाधर ने कुछ कठोर बातें कहीं। अंत में सुमन ने अपनी हंसुली गिरवी रखने को दी और गजाधर भुनभुनाता हुआ लेकर चला गया।
लेकिन सुमन का जीवन सुख में कटा था। उसे अच्छा खाने, अच्छा पहनने की आदत थी। अपने द्वार पर खोमचेवालों की आवाज सुनकर उससे रहा न जाता। अब तक वह गजाधर को भी खिलाती थी। अब से अकेली ही खा जाती। जिह्वा-रस भोगने के लिए पति से कपट करने लगी।
धीरे-धीरे सुमन के सौंदर्य की चर्चा मुहल्ले में फैली। पास-पड़ोस की स्त्रियां आने लगीं। सुमन उन्हें नीच दृष्टि से देखती, उनसे खुलकर न मिलती। पर उसके रीति-व्यवहार में वह गुण था, जो ऊंचे कुलों में स्वाभाविक होता है। पड़ोसियों ने शीघ्र ही उसका आधिपत्य स्वीकार कर लिया। सुमन उनके बीच में रानी मालूम होती थी। उसकी सगर्वा प्रकृति को इसमें अत्यंत आनंद प्राप्त होता था। वह उन स्त्रियों के सामने अपने गुणों को बढ़ाकर दिखाती। वे अपने भाग्य को रोतीं, सुमन अपने भाग्य सराहती। वे किसी की निंदा करतीं, तो सुमन उन्हें समझाती। वह उसके सामने रेशमी साड़ी पहनकर बैठती, जो वह मैके से लाई थी। रेशमी जाकट खूंटी पर लटका दी। उन पर इस प्रदर्शन का प्रभाव सुमन की बातचीत से कहीं अधिक होता था। वे आभूषण के विषय में उसकी सम्मति को बड़ा महत्त्व देतीं। नए गहने बनवातीं तो सुमन से सलाह लेतीं, साड़ियां लेतीं तो पहले सुमन को अवश्य दिखा लेतीं। सुमन गौर से उन्हें निष्काम भाव से सलाह देती, पर उससे मन में बड़ा दुःख होता। वह सोचती, यह सब नए-नए गहने बनवाती हैं, नए-नए कपड़े लेती हैं और यहां रोटियों के लाले हैं। क्या संसार में मैं ही सबसे अभागिन हूं? उसने अपने घर यही सीखा था कि मनुष्य को जीवन में सुख-भोग करना चाहिए। उसने कभी वह धर्म-चर्चा न सुनी थी, वह धर्म-शिक्षा न पाई थी, जो मन में संतोष का बीजारोपण करती है। उसका हृदय असंतोष से व्याकुल रहने लगा।
गजाधर इन दिनों बड़ी मेहनत करता। कारखाने से लौटते ही एक दूसरी दुकान पर हिसाब-किताब लिखने चला जाता था। वहां से आठ बजे रात को लौटता। इस काम के लिए उसे पांच रुपए और मिलते थे। पर उसे अपनी आर्थिक दशा में कोई अंतर न दिखाई देता था। उसकी सारी कमाई खाने-पीने में उड़ जाती थी। उसका संचयशील हृदय इस ‘खा-पी बराबर’ दशा से बहुत दुःखी रहता था। उस पर सुमन उसके सामने अपने फूटे कर्म का रोना रो-रोकर उसे और भी हताश कर देती थी। उसे स्पष्ट दिखाई देता था कि सुमन का हृदय मेरी ओर से शिथिल होता जाता है। उसे यह न मालूम था कि सुमन मेरी प्रेम-रसपूर्ण बातों से मिठाई के दोनों को अधिक आनंदप्रद समझती है। अतएव वह अपने प्रेम और परिश्रम से फल न पाकर, उसे अपने शासनाधिकार से प्राप्त करने की चेष्टा करने लगा। इस प्रकार रस्सी में दोनों ओर से तनाव होने लगा।
हमारा चरित्र कितना ही दृढ़ हो, पर उस पर संगति का असर अवश्य होता है। सुमन अपने पड़ोसियों को जितनी शिक्षा देती थी, उससे अधिक उनसे ग्रहण करती थी। हम अपने गार्हस्थ्य जीवन की ओर से कितने बेसुध हैं, उसके लिए किसी तैयारी, किसी शिक्षा की जरूरत नहीं समझते। गुड़िया खेलनेवाली बालिका, सहेलियों के साथ विहार करनेवाली युवती, गृहिणी बनने के योग्य समझी जाती है। अल्हड़ बछड़े के कंधे पर भारी जुआ रख दिया जाता है। ऐसी दशा में यदि हमारा गार्हस्थ जीवन आनंदमय न हो, तो कोई आश्चर्य नहीं। जिन महिलाओं के साथ सुमन उठती-बैठती थी, वे अपने पतियों को इंद्रियसुख का यंत्र समझती थीं। पति, चाहे जैसे हो, अपनी स्त्री को सुंदर आभूषणों से, उत्तम वस्त्रों से सजाए, उसे स्वादिष्ट पदार्थ खिलाए। यदि उसमें वह सामर्थ्य नहीं है तो वह निखट्टू है, अपाहिज है, उसे विवाह करने का कोई अधिकार नहीं था, वह आदर और प्रेम के योग्य नहीं। सुमन ने भी यही शिक्षा प्राप्त की और गजाधरप्रसाद जब कभी उसके किसी काम से नाराज होते, तो उन्हें पुरुषों के कर्त्तव्य पर एक लंबा उपदेश सुनना पड़ता था।
उस मुहल्ले में रसिक युवकों तथा शोहदों की भी कमी न थी। स्कूल से आते हुए युवक सामने के द्वार की ओर टकटकी लगाते हुए चले जाते। शोहदे उधर से निकलते तो राधा और कान्हा के गीत गाने लगते। सुमन कोई काम भी करती हो, पर उन्हें चिक की आड़ से एक झलक दिखा देती। उसके चंचल हृदय को इस ताक-झांक में असीम आनंद प्राप्त होता था। किसी कुवासना से नहीं, केवल अपने यौवन की छटा दिखाने के लिए केवल दूसरों के हृदय पर विजय पाने के लिए वह यह खेल खेलती थी।
6
सुमन के घर के सामने भोली नाम की एक वेश्या का मकान था। भोली नित नए श्रृंगार करके अपने कोठे के छज्जे पर बैठती। पहर रात तक उसके कमरे से मधुर गान की ध्वनि आया करती। कभी-कभी वह फिटन पर हवा खाने जाया करती। सुमन उसे घृणा की दृष्टि से देखती थी।
सुमन ने सुन रखा था कि वेश्याएं अत्यंत दुश्चरित्र और कुलटा होती हैं। वह अपने कौशल से नवयुवकों को अपने मायाजाल में फंसा लिया करती हैं। कोई भलामानुस उनसे बातचीत नहीं करता, केवल शोहदे रात को छिपकर उनके यहां जाया करते हैं। भोली ने कई बार उसे चिक की आड़ में खड़े देखकर इशारे से बुलाया था, पर सुमन उससे बोलने में अपना अपमान समझती। वह अपने को उससे बहुत श्रेष्ठ समझती थी। मैं दरिद्र सही, दीन सही, पर अपनी मर्यादा पर दृढ़ हूं। किसी भलेमानुष के घर में मेरी रोक तो नहीं, कोई मुझे नीच तो नहीं समझता। वह कितना ही भोग-विलास करे, पर उसका कहीं आदर तो नहीं होता। बस, अपने कोठे पर बैठी अपनी निर्लज्जता और अधर्म का फल भोगा करे। लेकिन सुमन को शीघ्र ही मालूम हुआ कि मैं इसे जितना नीच समझती हूं, उससे वह कहीं ऊंची है।
आषाढ़ के दिन थे। गरमी के मारे सुमन का दम फूल रहा था। संध्या को उससे किसी तरह न रहा गया। उसने चिक उठा दी और द्वार पर बैठी पंखा झल रही थी। देखती क्या है कि भोलीबाई के दरवाजे पर किसी उत्सव की तैयारियां हो रही हैं। भिश्ती पानी का छिड़काव कर रहे थे। आंगन में एक शामियाना ताना जा रहा था। उसे सजाने के लिए बहुत-से फूल-पत्ते रखे हुए थे। शीशे के सामान ठेलों पर लदे चले आते थे। फर्श बिछाया जा रहा था। बीसों आदमी इधर-से-उधर दौड़ते फिरते थे, इतने में भोली की निगाह उस घर पर गई। सुमन के समीप आकर बोली– आज मेरे यहां मौलूद है। देखना चाहो तो परदा करा दूं?
सुमन ने बेपरवाही से कहा– मैं यहीं बैठे-बैठे देख लूंगी।
भोली– देख तो लोगी, पर सुन न सकोगी। हर्ज क्या है, ऊपर परदा करा दूं?
सुमन– मुझे सुनने की उतनी इच्छा नहीं है।
भोली ने उसकी ओर एक करुणासूचक दृष्टि से देखा और मन में कहा, यह गंवारिन अपने मन में न जाने क्या समझे बैठी है। अच्छा, आज तू देख ले कि मैं कौन हूं? वह बिना कुछ कहे चली गई।
रात हो रही थी। सुमन को चूल्हे के सामने जाने का जी न चाहता था। बदन में यों ही आग लगी हुई है। आंच कैसे सही जाएगी, पर सोच-विचारकर उठी। चूल्हा जलाया, खिचड़ी डाली और फिर आकर वहां तमाशा देखने लगी। आठ बजते-बजते शामियाना गैस के प्रकाश से जगमगा उठा। फूल-पत्तों की सजावट उसकी शोभा को और भी बढ़ा रही थी। चारों ओर से दर्शक आने लगे। कोई बाइसिकिल पर आता था, कोई टमटम पर, कोई पैदल। थोड़ी देर में दो-तीन फिटनें भी आ पहुंचीं। और उनमें से कई बाबू लोग उतर पड़े। एक घंटे में सारा आंगन भर गया। कई सौ मनुष्यों का जमाव हो गया। फिर मौलाना साहब की सवारी आई। उनके चेहरे से प्रतिभा झलक रही थी। वह सजे हुए सिंहासन पर मसनद लगाकर बैठ गए और मौलूद होने लगा। कई आदमी मेहमानों का स्वागत-सत्कार कर रहे थे। कोई गुलाब छिड़क रहा था, कोई खसदान पेश करता था। सभ्य पुरुषों का ऐसा समूह सुमन ने कभी न देखा था।
नौ बजे गजाधरप्रसाद आए। सुमन ने उन्हें भोजन कराया। भोजन करके गजाधर भी जाकर उसी मंडली में बैठे। सुमन को तो खाने की भी सुध न रही। बारह बजे रात तक वह वहीं बैठी रही– यहां तक कि मौलूद समाप्त हो गया। फिर मिठाई बंटी और बारह बजे सभा विसर्जित हुई। गजाधर घर में आए तो सुमन ने कहा– यह सब कौन लोग बैठे हुए थे?
गजाधर– मैं सबको पहचानता थोड़े ही हूं। पर भले-बुरे सभी थे। शहर के कई रईस भी थे।
सुमन– क्या यह लोग वेश्या के घर आने में अपना अपमान नहीं समझते?
गजाधर– अपमान समझते तो आते ही क्यों?
सुमन– तुम्हें तो वहां जाते हुए संकोच हुआ होगा?
गजाधर– जब इतने भलेमानुष बैठे हुए थे, तो मुझे क्यों संकोच होने लगा। वह सेठजी भी आए हुए थे, जिनके यहां मैं शाम को काम करने जाया करता हूं।
सुमन ने विचारपूर्ण भाव से कहा– मैं समझती थी कि वेश्याओं को लोग बड़ी घृणा की दृष्टि से देखते हैं।
गजाधर– हां, ऐसे मनुष्य भी हैं, गिने-गिनाए। पर अंग्रेजी शिक्षा ने लोगों को उदार बना दिया है। वेश्याओं का अब उतना तिरस्कार नहीं किया जाता। फिर भोलीबाई का शहर में बड़ा मान है।
आकाश में बादल छा रहे थे। हवा बंद थी। एक पत्ती भी न हिलती थी। गजाधरप्रसाद दिन-भर के थके हुए थे। चारपाई पर जाते ही निद्रा में निमग्न हो गए, पर सुमन को बहुत देर तक नींद न आई।
दूसरे दिन संध्या को जब फिर चिक उठाकर बैठी, तो उसने भोली को छज्जे पर बैठे देखा। उसने बरामदे में निकलकर भोली से कहा– रात तो आपके यहां बड़ी धूम थी।
भोली समझ गई कि मेरी जीत हुई। मुस्कुराकर बोली– तुम्हारे लिए शीरीनी भेज दूं? हलवाई की बनाई हुई है। ब्राह्मण लाया है।
सुमन ने संकोच से कहा– भिजवा देना।
7
सुमन को ससुराल आए डेढ़ साल के लगभग हो चुका था, पर उसे मैके जाने का सौभाग्य न हुआ था। वहां से चिट्ठियां आती थीं। सुमन उत्तर में अपनी मां को समझाया करती, मेरी चिंता मत करना, मैं बहुत आनंद से हूं, पर अब उसके उत्तर अपनी विपत्ति की कथाओं से भरे होते थे। मेरे जीवन के दिन रो-रोकर कट रहे हैं। मैंने आप लोगों का क्या बिगाड़ा था कि मुझे इस अंधे कुएं में धकेल दिया। यहां न रहने को घर है, न पहनने को वस्त्र, न खाने को अन्न। पशुओं की भांति रहती हूं।
उसने अपनी पड़ोसिनों से मैके का बखान करना छोड़ दिया। कहां तो उनसे अपने पति की सराहना किया करती थी, कहां अब उसकी निंदा करने लगी। मेरा कोई पूछनेवाला नहीं है। घरवालों ने समझ लिया कि मर गई। घर में सब कुछ हैं; पर मेरे किस काम का? वह समझते होंगे, यहां मैं फूलों की सेज पर सो रही हूं, और मेरे ऊपर जो बीत रही है, वह मैं ही जानती हूं।
गजाधरप्रसाद के साथ उसका बर्ताव पहले से कहीं रूखा हो गया। वह उन्हीं को अपनी इस दशा का उत्तरदायी समझती थी। वह देर में सोकर उठती, कई दिन घर में झाड़ू नहीं देती। कभी-कभी गजाधर को बिना भोजन किए काम पर जाना पड़ता। उसकी समझ में न आता कि यह क्या मामला है, यह कायापलट क्यों हो गई है।
सुमन को अपना घर अच्छा न लगता। चित्त हर घड़ी उचटा रहता। दिन-दिन पड़ोसिनों के घर बैठी रहती।
एक दिन गजाधर आठ बजे लौटे, तो घर का दरवाजा बंद पाया। अंधेरा छाया हुआ था। सोचने लगे, रात को वह कहां गई है? अब यहां तक नौबत पहुंच गई? किवाड़ खटखटाने लगे कि कहीं पड़ोस में होगी, तो सुनकर चली आवेगी। मन में निश्चय कर लिया था कि आज उसकी खबर लूंगा। सुमन उस समय भोलीबाई के कोठे पर बैठी हुई बातें कर रही थी। भोली ने आज उसे बहुत आग्रह करके बुलाया था। सुमन इनकार कैसे करती? उसने अपने दरवाजे का खटखटाना सुना, तो घबराकर उठ खड़ी हुई और भागी हुई अपने घर आई। बातों में उसे मालूम ही न हुआ कि कितनी रात चली गई। उसने जल्दी से किवाड़ खोले, चटपट दीया जलाया और चूल्हे में आग जलाने लगी। उसका मन अपना अपराध स्वीकार कर रहा था। एकाएक गजाधर ने क्रुद्ध भाव से कहा– तुम इतनी रात तक वहां बैठी क्या कर रही थीं? क्या लाज-शर्म बिल्कुल घोलकर पी ली है?
सुमन ने दीन भाव से उत्तर दिया– उसने कई बार बुलाया तो चली गई। कपड़े उतारो, अभी खाना तैयार हुआ जाता है। आज तुम और दिनों से जल्दी आए हो।
गजाधर– खाना पीछे बनाना, मैं ऐसा भूखा नहीं हूं। पहले यह बताओं कि तुम वहां मुझसे पूछे बिना गई क्यों? क्या तुमने मुझे बिल्कुल मिट्टी का लोंदा ही समझ लिया है?
सुमन– सारे दिन अकेले इस कुप्पी में बैठे भी तो नहीं रहा जाता।
गजाधर– तो इसलिए अब वेश्याओं से मेल-जोल करोगी? तुम्हें अपनी इज्जत आबरू का भी कुछ विचार है?
सुमन– क्यों, भोली के घर जाने में कोई हानि है? उसके घर तो बड़े-बड़े लोग आते हैं, मेरी क्या गिनती है।
गजाधर– बड़े-बड़े भले ही आवें, लेकिन तुम्हारा वहां जाना बड़ी लज्जा की बात है। मैं अपनी स्त्री को वेश्या से मेल-जोल करते नहीं देख सकता। तुम क्या जानती हो कि जो बड़े-बड़े लोग उसके घर आते हैं, वह कौन लोग हैं? केवल धन से कोई बड़ा थोड़े ही हो जाता है? धर्म का महत्त्व धन से कहीं बढ़कर है। तुम उस मौलूद के दिन जमाव देखकर धोखे में आ गई होगी, पर यह समझ लो कि उनमें से एक भी सज्जन पुरुष नहीं था। मेरे सेठजी लाख धनी हों, पर उन्हें मैं अपनी चौखट न लांघने दूंगा। यह लोग धन के घमंड में धर्म की परवाह नहीं करते। उनके आने से भोली पवित्र नहीं हो गई है। मैं तुम्हें सचेत कर देता हूं कि आज से फिर कभी उधर मत जाना, नहीं तो अच्छा न होगा।
सुमन के मन में बात आ गई। ठीक ही है, मैं क्या जानती हूं कि वह कौन लोग थे। धनी लोग तो वेश्याओं के दास हुआ ही करते हैं। यह बात रामभोली भी कह रही थी। मुझे बड़ा धोखा हो गया था।
सुमन को इस विचार से बड़ा संतोष हुआ। उसे विश्वास हो गया कि वे लोग प्रकृति के विषय-वासनावाले मनुष्य थे। उसे अपनी दशा अब उतनी दुखदायी न प्रतीत होती थी। उसे भोली से अपने को ऊंचा समझने के लिए एक आधार मिल गया था।
सुमन की धर्मनिष्ठा जागृत हो गई। वह भोली पर अपनी धार्मिकता का सिक्का जमाने के लिए नित्य गंगास्नान करने लगी। एक रामायण मंगवाई और कभी-कभी अपनी सहेलियों को उसकी कथाएं सुनाती। कभी अपने-आप उच्च स्वर में पढ़ती। इससे उसकी आत्मा को तो शांति क्या होती, पर मन को बहुत संतोष होता था।
चैत का महीना था। रामनवमी के दिन सुमन कई सहेलियों के साथ एक बड़े मंदिर में जन्मोत्सव देखने गई। मंदिर खूब सजाया हुआ था। बिजली की बत्तियों से दिन का-सा प्रकाश हो रहा था, बड़ी भीड़ थी। मंदिर के आंगन में तिल धरने की भी जगह न थी। संगीत की मधुर ध्वनि आ रही थी।
सुमन ने खिड़की से आंगन में झांका, तो क्या देखती है कि वही पड़ोसिन भोली बैठी हुई गा रही है। सभा में एक-से-एक आदमी बैठे हुए थे, कोई वैष्णव तिलक लगाए, कोई भस्म रमाए, कोई गले में कंठी-माला डाले और राम-नाम की चादर ओढ़े, कोई गेरुए वस्त्र पहने। उनमें से कितनों ही को सुमन नित्य गंगास्नान करते देखती थी। वह उन्हें धर्मात्मा, विद्वान समझती थी। वही लोग यहां इस भांति तन्मय हो रहे थे, मानो स्वर्गलोक में पहुंच गए हैं। भोली जिसकी ओर कटाक्षपूर्ण नेत्रों से देखती थी, वह मुग्ध हो जाता था, मानो साक्षात् राधाकृष्ण के दर्शन हो गए।
इस दृश्य ने सुमन के हृदय पर वज्र का-सा आघात किया। उसका अभिमान चूर-चूर हो गया। वह आधार जिस पर वह पैर जमाए खड़ी थी, पैरों के नीचे से सरक गया। सुमन वहां एक क्षण भी न खड़ी रह सकी। भोली के सामने केवल धन ही सिर नहीं झुकाता, धर्म ही उसका कृपाकांक्षी है। धर्मात्मा लोग भी उसका आदर करते हैं वही वेश्या– जिसे मैं अपने धर्म-पाखंड से परास्त करना चाहती हूं– यहां महात्माओं की सभा में, ठाकुरजी के पवित्र निवास-स्थान में आदर और सम्मान का पात्र बनी हुई है और मेरे लिए कहीं खड़े होने की जगह नहीं।
सुमन ने अपने घर में आकर रामायण बस्ते में बांधकर रख दी, गंगास्नान तथा व्रत से उसका मन फिर गया। कर्णधार-रहित नौका के समान उसका जीवन फिर डांवाडोल होने लगा।
8
गजाधरप्रसाद की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो चोरों के बीच में अशर्फियों की थैली लिए बैठा हो। सुमन का वह मुख-कमल, जिस पर वह कभी भौंरे की भांति मंडराया करता था, अब उसकी आँखों में जलती हुई आग के समान था। वह उससे दूर-दूर रहता। उसे भय था कि वह मुझे जला न दे। स्त्रियों का सौंदर्य उनका पति-प्रेम है। इसके बिना उनकी सुंदरता इन्द्रायण का फल है, विषमय और दग्ध करने वाला।
गजाधर ने सुमन को सुख से रखने के लिए, अपने से जो कुछ हो सकता था, सब करके देख लिया और अपनी स्त्री के लिए आकाश के तारे तोड़ लाना उसके सामर्थ्य से बाहर था।
इन दिनों उसे सबसे बड़ी चिंता अपना घर बदलने की थी। इस घर में आंगन नहीं था, इसलिए जब कभी सुमन से कहता कि चिक के पास खड़ी मत हुआ करो, तो चट उत्तर देती, क्या इसी काल-कोठरी में पड़े-पड़े मर जाएं? घर में आंगन होगा, तब तो वह बहाना न कर सकेगी। इसके अतिरिक्त वह यह भी चाहता था कि सुमन का इन स्त्रियों से साथ छूट जाए। उसे यह निश्चय हो गया था कि उन्हीं की कुसंगति से सुमन का यह हाल हो गया है। वह दूसरे मकान की खोज में चारों ओर जाता, पर किराया सुनते ही निराश होकर लौट आता।
एक दिन वह सेठजी के यहां से आठ बजे रात को लौटा, तो क्या देखता है कि भोलीबाई उसकी चारपाई पर बैठी सुमन से हंस-हंसकर बात कर रही है। क्रोध के मारे गजाधर के होंठ फड़कने लगे। भोली ने उसे देखा तो जल्दी से बाहर निकल गई और बोली– अगर मुझे मालूम होता कि आप सेठजी के यहां नौकर हैं, तो अब तक कभी की आपकी तरक्की हो जाती। यह बहूजी से मालूम हुआ। सेठजी मेरे ऊपर बड़ी निगाह रखते हैं।
इन शब्दों ने गजाधर के घाव पर नमक छिड़क दिया। यह मुझे इतना नीच समझती है कि मैं इसकी सिफारिश से अपनी तरक्की कराऊंगा। ऐसी तरक्की पर लात मारता हूं। उसने भोली को कुछ जवाब न दिया।
सुमन ने उसके तेवर देखे, तो समझ गई कि आग भड़का ही चाहती है, पर वह उसके लिए तैयार बैठी हुई थी। गजाधर ने भी अपने क्रोध को छिपाया नहीं। चारपाई पर बैठते हुए बोला– तुमने फिर भोली से नाता जोड़ा? मैंने उस दिन मना नहीं किया था?
सुमन ने सावधान होकर उत्तर दिया– उसमें कोई छूत तो नहीं लगी है। शील स्वभाव में वह किसी से घटकर नहीं, मान-मर्यादा में किसी से कम नहीं, फिर उससे बातचीत करने में मेरी क्या हेठी हुई जाती है? वह चाहे तो हम जैसों को नौकर रख ले।
गजाधर– फिर तुमने वही बेसिर-पैर की बातें कीं। मान-मर्यादा धन से नहीं होती।
सुमन– पर धर्म से तो होती है?
गजाधर– तो वह बड़ी धर्मात्मा है?
सुमन– यह भगवान् जाने, पर धर्मात्मा लोग उसका आदर करते हैं। अभी राम-नवमी के उत्सव में मैंने उसे बड़े-बड़े पंडितों और महात्माओं की मंडली में गाते देखा। कोई उससे घृणा नहीं करता था। सब उसका मुंह देख रहे थे। लोग उसका आदर-सत्कार ही नहीं करते थे, बल्कि उससे बातचीत करने में अपना अहोभाग्य समझते थे। मन में वह उससे घृणा करते थे या नहीं, यह ईश्वर जाने, पर देखने में तो उस समय भोली-ही-भोली दिखाई देती थी। संसार तो व्यवहारों को ही देखता है, मन की बात कौन किसकी जानता है?
गजाधर– तो तुमने उन लोगों के बड़े-बड़े तिलक छापे देखकर ही उन्हें धर्मात्मा समझ लिया? आजकल धर्म तो धूर्तों का अड्डा बना हुआ है। इस निर्मल सागर में एक-से-एक मगरमच्छ पड़े हुए हैं। भोले-भाले भक्तों को निगल जाना उनका काम है। लंबी-लंबी जटाएं, लंबे-लंबे तिलक छापे और लंबी-लंबी दाढ़ियां देखकर लोग धोखे में आ जाते हैं, पर वह सब के सब महापाखंडी, धर्म के उज्जवल नाम को कलंकित करने वाले, धर्म के नाम पर टका कमानेवाले, भोग-विलास करने वाले पापी हैं। भोली का आदर-सम्मान उनके यहां न होगा, तो किसके यहां होगा?
सुमन ने सरल भाव से पूछा– फुसला रहे हो या सच कह रहे हो?
गजाधर ने उसकी ओर करुण दृष्टि से देखकर कहा– नहीं सुमन, वास्तव में यही बात है। हमारे देश में सज्जन मनुष्य बहुत कम हैं, पर अभी देश उनसे खाली नहीं है। वह दयावान होते हैं, सदाचारी होते हैं, सदा परोपकार में तत्पर रहते हैं। भोली यदि अप्सरा बनकर आवे, तो वह उसकी ओर आंख उठाकर भी न देखेंगे।
सुमन चुप हो गई। वह गजाधर की बातों पर विचार कर रही थी।
9
दूसरे दिन से सुमन ने चिक के पास खड़ा होना छोड़ दिया। खोंचेवाले आते और पुकार कर चले जाते। छैले गजल गाते हुए निकल जाते। चिक की आड़ में अब उन्हें कोई न दिखाई देता था। भोली ने कई बार बुलाया, लेकिन सुमन ने बहाना कर दिया कि मेरा जी अच्छा नहीं है। दो-तीन बार वह स्वयं आई, पर सुमन उससे खुलकर न मिली।
सुमन को यहां आए अब दो साल हो गए थे। उसकी रेशमी साड़ियां फट चली थीं। रेशमी जाकटें तार-तार हो गई थीं। सुमन अब अपनी मंडली की रानी न थी। उसकी बातें उतने आदर से न सुनी जाती थीं। उसका प्रभुत्व मिटा जाता था। उत्तम वस्त्र-विहीन होकर वह अपने उच्चासन से गिर गई थी। इसलिए वह पड़ोसिनों के घर भी न जाती। पड़ोसिनों का आना-जाना भी कम हो गया था। सारे दिन अपनी कोठरी में पड़ी रहती। कभी कुछ पढ़ती, कभी सोती।
बंद कोठरी में पड़े-पड़े उसका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। सिर में पीड़ा हुआ करती। कभी बुखार आ जाता, कभी दिल में धड़कन होने लगती। मंदाग्नि के लक्षण दिखाई देने लगे। साधारण कामों से भी जी घबराता। शरीर क्षीण हो गया और कमल-सा बदन मुरझा गया।
गजाधर को चिंता होने लगी। कभी-कभी वह सुमन पर झुंझलाता और कहता– जब देखो तब पड़ी रहती हो। जब तुम्हारे रहने से मुझे इतना भी सुख नहीं कि ठीक समय पर भोजन मिल जाए तो तुम्हारा रहना न रहना दोनों बराबर हैं।
पर शीघ्र ही उसे सुमन पर दया आ जाती। अपनी स्वार्थपरता पर लज्जित होता। उसे धीरे-धीरे ज्ञान होने लगा कि सुमन के सारे रोग अपवित्र वायु के कारण हैं। कहां तो उसे चिक के पास खड़े होने से मना किया करता था, मेलों में जाने और गंगास्नान करने से रोकता था, कहां अब स्वयं चिक उठा देता और सुमन को गंगास्नान करने के लिए ताकीद करता। उसके आग्रह से सुमन कई दिन लगातार स्नान करने गई और उसे अनुभव हुआ कि उसका जी कुछ हल्का हो रहा है। फिर तो वह नियमित रूप से नहाने लगी। मुरझाया हुआ पौधा पानी पाकर फिर लहलहाने लगा।
माघ का महीना था। एक दिन सुमन की कई पड़ोसिनें भी उसके साथ नहाने चलीं। मार्ग में बेनी-बाग पड़ता था। उसमें नाना प्रकार के जीव-जन्तु पले हुए थे। पक्षियों के लिए लोहे के पतले तारों से एक विशाल गुंबद बनाया गया था। लौटती बार सबकी सलाह हुई कि बाग की सैर करनी चाहिए। सुमन तत्काल ही लौट आया करती थी, पर आज सहेलियों के आग्रह से उसे भी बाग में जाना पड़ा। सुमन बहुत देर वहां के अद्भुत जीवधारियों को देखती रही। अंत में वह थककर एक बेंच पर बैठ गई। सहसा कानों में आवाज आई– अरे यह कौन औरत बेंच पर बैठी है? उठ वहां से। क्या सरकार ने तेरे ही लिए बेंच रख दी है?
सुमन ने पीछे फिरकर कातर नेत्रों से देखा। बाग का रक्षक खड़ा डांट बता रहा था।
सुमन लज्जित होकर बेंच पर से उठ गई और इस अपमान को भुलाने के लिए चिड़ियों को देखने लगी। मन में पछता रही थी कि कहां मैं इस बेंच पर बैठी। इतने में एक किराए की गाड़ी आकर चिड़ियाघर के सामने रुकी। बाग के रक्षक ने दौड़कर गाड़ी के पट खोले। दो महिलाएं उतर पड़ीं। उनमें से एक वही सुमन की पड़ोसिन भोली थी। सुमन एक पेड़ की आड़ में छुप गई और वह दोनों स्त्रियां बाग की सैर करने लगीं। उन्होंने बंदरों को चने खिलाए, चिड़ियों को दाने चुगाए, कछुए की पीठ पर खड़ी हुईं, फिर सरोवर में मछलियों को देखने चली गईं। रक्षक उनके पीछे-पीछे सेवकों की भांति चल रहा था। वे सरोवर के किनारे मछलियों की क्रीड़ा देख रही थीं, तब तक रक्षक ने दौड़कर दो गुलदस्ते बनाए और उन महिलाओं को भेंट किए। थोड़ी देर बाद वह दोनों आकर उसी बेंच पर बैठ गईं, जिस पर से सुमन उठा दी गई थी। रक्षक एक किनारे अदब से खड़ा था।
यह दशा देखकर सुमन की आंखों से क्रोध के मारे चिनगारियां निकलने लगीं। उसके एक-एक रोम से पसीना निकल आया। देह तृण के समान कांपने लगी। हृदय में अग्नि की एक प्रचंड ज्वाला दहक उठी। वह आंचल में मुंह छिपाकर रोने लगी। ज्योंही दोनों वेश्याएं वहां से चली गईं, सुमन सिंहनी की भांति लपककर रक्षक के सम्मुख आ खड़ी हुई और क्रोध से कांपती हुई बोली– क्यों जी, तुमने तो बेंच पर से उठा दिया, जैसे तुम्हारे बाप ही की है, पर उन दोनों रांडों से कुछ न बोले?
रक्षक ने अपमानसूचक भाव से कहा– वह और तुम बारबर।
आग पर घी जो काम करता है, वह इस वाक्य ने सुमन के हृदय पर किया। ओठ चबाकर बोली– चुप रह मूर्ख! टके के लिए वेश्याओं की जूतियां उठाता है, उस पर लज्जा नहीं आती। ले देख तेरे सामने बेंच पर बैठती हूं। देखूं, तू मुझे कैसे उठाता है।
रक्षक पहले तो कुछ डरा, किंतु सुमन के बैंच पर बैठते ही वह उसकी ओर लपका कि उसका हाथ पकड़कर उठा दे। सुमन सिंहनी की भांति आग्नेय नेत्रों से ताकती हुई उठ खड़ी हुई। उसकी एंडियां उछल पड़ती थीं। सिसकियों के आवेग को बलपूर्वक रोकने के कारण मुंह से शब्द न निकलते थे। उसकी सहेलियां, जो इस समय चारों ओर से घूमघाम कर चिड़ियाघर के पास आ गईं थीं, दूर से खड़ी यह तमाशा देख रही थीं। किसी की बोलने की हिम्मत न पड़ती थी।
इतने में फिर एक गाड़ी सामने से आ पहुंची। रक्षक अभी सुमन से हाथापाई कर ही रहा था कि गाड़ी में से एक भलेमानस उतरकर चौकीदार के पास झपटे हुए आए और उसे जोर से धक्का देकर बोले– क्यों बे, इनका हाथ क्यों पकड़ता? दूर हट।
चौकीदार हकलाकर पीछे हट गया। चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। बोला– सरकार क्या यह आपके घर की हैं?
भद्र पुरुष ने क्रोध में कहा– हमारे घर की हो या न हों, तू इनसे हाथापाई क्यों कर रहा था? अभी रिपोर्ट कर दूं तो नौकरी से हाथ धो बैठेगा।
चौकीदार हाथ-पैर जोड़ने लगा। इतने में गाड़ी में बैठी हुई महिला ने सुमन को इशारे से बुलाया और पूछा– यह तुमसे क्या कह रहा था?
सुमन– कुछ नहीं। मैं इस बेंच पर बैठी थी, वह मुझे उठाना चाहता था। अभी दो वेश्याएं इसी बेंच पर बैठी थीं। क्या मैं ऐसी गई बीती हूं कि वह मुझे वेश्याओं से भी नीच समझे?
रमणी ने उसे समझाया कि यह छोटे आदमी, जिससे चार पैसे पाते है, उसी की गुलामी करते हैं। इनके मुंह लगना अच्छा नहीं।
दोनों स्त्रियों में परिचय हुआ। रमणी का नाम सुभद्रा था। वह भी सुमन के मुहल्ले में, पर उसके मकान से जरा दूर रहती थी। उसके पति वकील थे। स्त्री-पुरुष गंगास्नान करके घर जा रहे थे। यहां पहुंचकर उसके पति ने देखा कि चौकीदार एक भले घर की स्त्री से झगड़ा कर रहा है, तो गाड़ी से उतर पड़े।
सुभद्रा सुमन के रंग-रूप, बातचीत पर ऐसी मोहित हुई कि उसे अपनी गाड़ी में बैठा लिया। वकील साहब कोचबक्स पर जा बैठे। गाड़ी चली। सुमन को ऐसा मालूम हो रहा था कि वह विमान पर बैठी स्वर्ग को जा रही है। सुभद्रा यद्यपि बहुत रूपवती न थी और उसके वस्त्राभूषण भी साधारण ही थे, पर उसका स्वभाव ऐसा नम्र, व्यवहार ऐसा सरल तथा विनयपूर्ण था कि सुमन का हृदय पुलकित हो गया। रास्ते में उसने उसकी सहेलियों को जाते देख, खिड़की खोलकर उनकी ओर गर्व से देखा, मानो कह रही थी, तुम्हें भी कभी यह सौभाग्य प्राप्त हो सकता है? इस पर गर्व के साथ ही उसे यह भय भी था कि कहीं मेरा मकान देखकर सुभद्रा मेरा तिरस्कार न करने लगे। जरूर यही होगा। यह क्या जानती है कि मैं ऐसे फटेहालों रहती हूं। यह कैसी भाग्यवान स्त्री है! कैसा देवरूप पुरुष है। यह न आ जाते, तो वह निर्दयी चौकीदार न जाने मेरी क्या दुर्गति करता। कितनी सज्जनता है कि मुझे भीतर बिठा दिया और आप कोचवान के साथ जा बैठे। वह इन्हीं विचारों में मग्न थी कि उसका घर आ गया। उसने सकुचाते हुए सुभद्रा से कहा– गाड़ी रुकवा दीजिए, मेरा घर आ गया।
सुभद्रा ने गाड़ी रुकवा दी। सुमन ने एक बार भोलीबाई के मकान की ओर ताका। वह अपने छज्जे पर टहल रही थी। दोनों की आंखें मिलीं, भोली ने मानो कहा, अच्छे ये ठाट हैं! सुमन ने जैसे उत्तर दिया, अच्छी तरह देख लो, यह कौन लोग हैं। तुम मर भी जाओ, तो इस देवी के साथ बैठना नसीब न हो।
सुमन उठ खड़ी हुई और सुभद्रा की ओर सजल नेत्रों से देखती हुई बोली– इतना प्रेम लगाकर बिसार मत देना। मेरा मन लगा रहेगा।
सुभद्रा ने कहा– नहीं बहन, अभी तो तुमसे कुछ बातें भी न करने पाई। मैं तुम्हें कल बुलाऊंगी।
सुमन उतर पड़ी। गाड़ी चली गई। सुमन अपने घर में गई, तो उसे मालूम हुआ, मानो कोई आनंदमय स्वप्न देखकर जागी है।
गजाधर ने पूछा– यह गाड़ी किसकी थी?
सुमन– यहीं के कोई वकील हैं। बेनीबाग में उनकी स्त्री से भेंट हो गई। जिद करके गाड़ी पर बिठा लिया। मानती ही न थीं।
गजाधर– तो क्या तुम वकील के साथ बैठी थी?
सुमन– कैसी बातें करते हो? वह बेचारे तो कोचवान के साथ बैठे थे।
गजाधर– तभी इतनी देर हुई।
सुमन– दोनों सज्जनता के अवतार हैं।
गजाधर– अच्छा, चल के चूल्हा जलाओं, बहुत बखान हो चुका।
सुमन– तुम वकील साहब को जानते तो होगे?
गजाधर– इस मुहल्ले में तो यही एक पद्मसिंह वकील हैं? वही रहे होंगे?
सुमन– गोरे-गोरे लंबे आदमी हैं। ऐनक लगाते हैं।
गजाधर– हां, हां, वही हैं। यह क्या पूरब की ओर रहते हैं।
सुमन– कोई बड़े वकील हैं?
गजाधर– मैं उनके जमाखर्च थोड़े ही लिखता हूं। आते-जाते कभी-कभी देख लेता हूं। आदमी अच्छे हैं।
सुमन ताड़ गई कि वकील साहब की चर्चा गजाधर को अच्छी नहीं मालूम होती। उसने कपड़े बदले और भोजन बनाने लगी।
10
दूसरे दिन सुमन नहाने न गई। सबेरे ही से अपनी एक रेशमी साड़ी की मरम्मत करने लगी।
दोपहर को सुभद्रा की एक महरी उसे लेने आई। सुमन ने मन में सोचा था, गाड़ी आवेगी। उसका जी छोटा हो गया। वही हुआ जिसका उसे भय था।
वह महरी के साथ सुभद्रा के घर गई और दो-तीन घंटे तक बैठी रही। उसका वहां से उठने को जी न चाहता था। उसने अपने मैके का रत्ती-रत्ती भर हाल कह सुनाया पर सुभद्रा अपनी ससुराल की ही बातें करती रही।
दोनों स्त्रियों में मेल-मिलाप बढ़ने लगा। सुभद्रा जब गंगा नहाने जाती, तो सुमन को साथ ले लेती। सुमन को भी नित्य एक बार सुभद्रा के घर गए बिना कल न पड़ती थी।
जैसे बालू पर तड़पती हुई मछली जलधारा में पहुंचकर किलोंले करने लगती है, उसी प्रकार सुमन भी सुभद्रा की स्नेहरूपी जलधारा में अपनी विपत्ति को भूलकर आमोद-प्रमोद में मग्न हो गई।
सुभद्रा कोई काम करती होती, तो सुमन स्वयं उसे करने लगती। कभी-कभी पंडित पद्मसिंह के लिए जलपान बना देती, कभी पान लगाकर भेज देती। इन कामों में उसे जरा भी आलस्य न होता था। उसकी दृष्टि में सुभद्रा-सी सुशीला स्त्री और पद्मसिंह सरीखे सज्जन मनुष्य संसार में और न थे।
एक बार सुभद्रा को ज्वर आने लगा। सुमन कभी उसके पास से न टलती। अपने घर एक क्षण के लिए जाती और कच्चा-पका खाना बनाकर फिर भाग आती, पर गजाधर उसकी इन बातों से जलता था। उसे सुमन पर विश्वास न था। वह उसे सुभद्रा के यहां जाने से रोकता था, पर सुमन उसका कहना न मानती थी।
फागुन के दिन थे। सुमन को यह चिंता हो रही थी कि होली के लिए कपड़ों का क्या प्रबन्ध करे? गजाधर को इधर एक महीने से सेठजी ने जवाब दे दिया था। उसे अब केवल पन्द्रह रुपयों का ही आधार था। वह एक तंजेब की साड़ी और रेशमी मलमल की जाकेट के लिए गजाधर से कई बार कह चुकी थी, पर गजाधर हूं-हां करके टाल जाता था। वह सोचती, यह पुराने कपड़े पहनकर सुभद्रा के घर होली खेलने कैसे जाऊंगी?
इसी बीच सुमन को अपनी माता के स्वर्गवास होने का शोक समाचार मिला। सुमन को इसका इतना शोक न हुआ, जितना होना चाहिए था, क्योंकि उसका हृदय अपनी माता की ओर से फट गया था। लेकिन होली के लिए नए और उत्तम वस्त्रों की चिंता से निवृत्त हो गई। उसने सुभद्रा से कहा– बहूजी, अब मैं अनाथ हो गई हूं। अब गहने-कपड़े की तरफ ताकने को जी नहीं चाहता। बहुत पहन चुकी। इस दुःख ने सिंगारपटार की अभिलाषा ही नहीं रहने दी। जी अधम है, शरीर से निकलता नहीं, लेकिन हृदय पर जो कुछ बीत रही है, वह मैं ही जानती हूं, अपनी सहचरियों से भी उसने ऐसी ही शोकपूर्ण बातें कीं। सब-की-सब उसकी मातृभक्ति की प्रशंसा करने लगीं।
एक दिन वह सुभद्रा के पास बैठी रामायण पढ़ रही थी कि पद्मसिंह प्रसन्नचित्त घर में आकर बोले– आज बाजी मार ली।
सुभद्रा ने उत्सुक होकर कहा– सच?
पद्मसिंह– अरे, क्या अब भी संदेह था?
सुभद्रा– अच्छा, तो लाइए मेरे रुपए दिलवाइए। वहां आपकी बाजी थी, यहां मेरी बाजी है।
पद्मसिंह– हां-हां, तुम्हारे रुपए मिलेंगे, जरा सब्र करो। मित्र लोग आग्रह कर रहे हैं कि धूमधाम से आनंदोत्सव किया जाए।
सुभद्रा– हां, कुछ-न-कुछ तो करना ही पड़ेगा और यह उचित भी है।
पद्मसिंह– मैंने प्रीतिभोज का प्रस्ताव किया, किंतु इसे कोई स्वीकार नहीं करता। लोग भोलीबाई का मुजरा कराने के लिए अनुरोध कर रहे हैं।
सुभद्रा– अच्छा, तो उन्हीं की मान लो, कौन हजारों का खर्च है। होली भी आ गई है, बस होली के दिन रखो। ‘एक पंथ दो काज’ हो जाएगा।
पद्मसिंह– खर्च की बात नहीं, सिद्धांत की बात है।
सुभद्रा– भला, अब की बार सिद्धांत के विरुद्ध ही सही।
पद्मसिंह– विट्ठलदास किसी तरह राजी नहीं होते। पीछे पड़ जाएंगे।
सुभद्रा– उन्हें बकने दो। संसार के सभी आदमी उनकी तरह थोड़े ही हो जाएंगे।
पंडित पद्मसिंह आज कई वर्षों के विफल उद्योग के बाद म्युनिसिपैलिटी के मेंबर बनने में सफल हुए थे, इसी के आनंदोत्सव की तैयारियां हो रही थीं। वे प्रतिभोज करना चाहते थे, किंतु मित्र लोग मुजरे पर जोर देते थे। यद्यपि वे स्वयं बड़े आचारवान मनुष्य थे, तथापि अपने सिद्धांतों पर स्थिर रहने का सामर्थ्य उनमें नहीं था। कुछ तो मुरौव्वत से, कुछ अपने सरल स्वभाव से और कुछ मित्रों की व्यंग्योक्ति के भय से वह अपने पक्ष पर अड़ न सकते थे। बाबू विट्ठलदास उनके परम मित्र थे। वह वेश्याओं के नाचगाने के कट्टर शत्रु थे। इस कुप्रथा को मिटाने के लिए उन्होंने एक सुधारक संस्था स्थापित की थी। पंडित पद्मसिंह उनके इने-गिने अनुयायियों में थे। पंडितजी इसीलिए विट्ठलदास से डरते थे। लेकिन सुभद्रा के बढ़ावा देने से उनका संकोच दूर हो गया।
वह अपने वेश्याभक्त मित्रों से सहमत हो गए। भोलीबाई का मुजरा होगा, यह बात निश्चित हो गई।
इसके चार दिन पीछे होली आई। उसी रात को पद्मसिंह की बैठक ने नृत्यशाला का रूप धारण किया। सुंदर रंगीन कालीनों पर मित्रवृंद बैठे हुए थे और भोलीबाई अपने समाजियों के साथ मध्य में बैठी हुई भाव बता-बताकर मधुर स्वर में गा रही थी। कमरा बिजली की दिव्य बत्तियों से ज्योतिर्मय हो रहा था। इत्र और गुलाब की सुगंध उड़ रही थी। हास-परिहास, आमोद-प्रमोद का बाजार गर्म था।
सुमन और सुभद्रा दोनों झरोखों में चिक की आड़ से यह जलसा देख रही थीं। सुभद्रा को भोली का गाना नीरस, फीका मालूम होता था। उसको आश्चर्य मालूम होता था कि लोग इतने एकाग्रचित्त होकर क्यों सुन रहे हैं? बहुत देर के बाद गीत के शब्द उसकी समझ में आए। शब्द अलंकारों से दब गए थे। सुमन अधिक रसज्ञ थी। वह गाने को समझती थी और ताल-स्वर का ज्ञान रखती थी। गीत कान में आते ही उसके स्मरण पट पर अंकित हो जाते थे। भोलीबाई ने गाया–
ऐसी होली में आग लगे,
पिया विदेश, मैं द्वारे ठाढ़ी, धीरज कैसे रहे?
ऐसी होली में आग लगे।
सुमन ने भी इस पद को धीरे-धीरे गुनगुनाकर गाया और अपनी सफलता पर मुग्ध हो गई। केवल गिटकिरी न भर सकी। लेकिन उसका सारा ध्यान गाने पर ही था। वह देखती कि सैकड़ों आंखें भोलीबाई की ओर लगी हुई हैं। उन नेत्रों में कितनी तृष्णा थी! कितनी विनम्रता, कितनी उत्सुकता! उनकी पुतलियां भोली के एक-एक इशारे पर एक-एक भाव पर नाचती थीं, चमकती थीं। जिस पर उसकी दृष्टि पड़ जाती थी, वह आनंद से गद्गद हो जाता और जिससे वह हंसकर दो-एक बातें कर लेती, उसे तो मानो कुबेर का धन मिल जाता था। उस भाग्यशाली पुरुष पर सारी सभा की सम्मान दृष्टि पड़ने लगती। उस सभा में एक-से-एक धनवान, एक-से-एक विद्वान, एक-से-एक रूपवान सज्जन उपस्थित थे, किंतु सब-के-सब इस वेश्या के हाव-भाव पर मिटे जाते थे। प्रत्येक मुख इच्छा और लालसा का चित्र बना हुआ था।
सुमन सोचने लगी, इस स्त्री में कौन-सा जादू है।
सौंदर्य? हां-हां, वह रूपवती है, इसमें संदेह नहीं। मगर मैं भी तो ऐसी बुरी नहीं हूं। वह सांवली है, मैं गोरी हूं। वह मोटी है, मैं दुबली हूं।
पंडितजी के कमरे में एक शीशा था। सुमन इस शीशे के सामने जाकर खड़ी हो गई और उसमें अपना रूप नख से शिख तक देखा। भोलीबाई के हृदयांकित चित्र से अपने एक-एक अंग की तुलना की। तब उसने सुभद्रा से कहा– बहूजी, एक बात पूछूं, बुरा न मानना। यह इंद्र की परी क्या मुझसे बहुत सुंदर है?
सुभद्रा ने उसकी ओर कौतुहल से देखा और मुस्कुराकर पूछा– यह क्यों पूछती हो?
सुमन ने शर्म से सिर झुकाकर कहा– कुछ नहीं, यों ही। बतलाओ?
सुभद्रा ने कहा– उसका सुख का शरीर है, इसलिए कोमल है, लेकिन रंग-रूप में वह तुम्हारे बराबर नहीं।
सुमन ने फिर सोचा, तो क्या उसके बनाव-सिंगार पर, गहने-कपड़े पर लोग इतने रीझे हुए हैं? मैं भी यदि वैसा बनाव-चुनाव करूँ, वैसे गहने-कपड़े पहनूं, तो मेरा रंग-रूप और न निखर जाएगा, मेरा यौवन और न चमक जाएगा? लेकिन कहां मिलेंगे?
क्या लोग उसके स्वर-लालित्य पर इतने मुग्ध हो रहे हैं? उसके गले में लोच नहीं, मेरी आवाज उससे अच्छी है। अगर कोई महीने-भर भी सिखा दे, तो मैं उससे अच्छा गाने लगूं। मैं भी वक्र नेत्रों से देख सकती हूं। मुझे भी लज्जा से आंखें नीची करके मुस्कुराना आता है।
सुमन बहुत देर तक वहाँ बैठी कार्य से कारण का अनुसंधान करती रही। अंत में वह इस परिणाम पर पहुंची कि वह स्वाधीन है, मेरे पैरों में बेड़ियां हैं। उसकी दुकान खुली है, इसलिए ग्राहकों की भीड़ है, मेरी दुकान बंद है, इसलिए कोई खड़ा नहीं होता। वह कुत्तों के भूकने की परवाह नहीं करती, मैं लोक-निंदा से डरती हूं। वह परदे के बाहर है, मैं परदे के अंदर हूं। वह डालियों पर स्वच्छंदता से चहकती है, मैं उसे पकड़े हुए हूं। इसी लज्जा ने, इसी उपहास के भय ने मुझे दूसरे की चेरी बना रखी है।
आधी रात बीत चुकी थी। सभा विसर्जित हुई। लोग अपने-अपने घर गए। सुमन भी अपने घर की ओर चली। चारों तरफ अंधकार छाया हुआ था। सुमन के हृदय में भी नैराश्य का कुछ ऐसा ही अंधकार था। वह घर तो जाती थी, पर बहुत धीरे-धीरे, जैसे घोड़ा (?) बम की तरफ जाता है। अभिमान जिस प्रकार नीचता से दूर भागता है, उसी प्रकार उसका हृदय उस घर से दूर भागता था।
गजाधर नियमानुसार नौ बजे घर आया। किवाड़ बंद थे। चकराया कि इस समय सुमन कहां गई? पड़ोस में एक विधवा दर्जिन रहती थी, जाकर उससे पूछा। मालूम हुआ कि सुभद्रा के घर किसी काम से गई है। कुंजी मिल गई, आकर किवाड़ खोले, खाना तैयार था। वह द्वार पर बैठकर सुमन की राह देखने लगा। जब दस बज गए तो उसने खाना परोसा, लेकिन क्रोध में कुछ खाया न गया। उसने सारी रसोई उठाकर बाहर फेंक दी और भीतर से किवाड़ बंद करके सो रहा। मन में यह निश्चय कर लिया कि आज कितना ही सिर पटके, किवाड़ न खोलूंगा, देखें कहां जाती है। किंतु उसे बहुत देर तक नींद न आई। जरा-सी आहट होती, तो डंडा लिए किवाड़ के पास आ जाता। उस समय यदि सुमन उसे मिल जाती, तो उसकी कुशल न थी। ग्यारह बजने के बाद निद्रा का देव उसे दबा बैठा।
सुमन जब अपने द्वार पर पहुंची, तो उसके कान में एक बजने की आवाज आई। वह आवाज उसकी नस-नस में गूंज उठी। वह अभी तक दस-ग्यारह के धोखे में थी। प्राण सूख गए। उसने किवाड़ की दरारों से झांका, ढिबरी जल रही थी, उसके धुएं से कोठरी भरी हुई थी और गजाधर हाथ में डंडा लिए चित्त पड़ा, जोर से खर्राटे ले रहा था। सुमन का हृदय कांप उठा, किवाड़ खटखटाने का साहस न हुआ।
पर इस समय जाऊं कहां? पद्मसिंह के घर का दरवाजा भी बंद हो गया होगा, कहार सो गए होंगे। बहुत चीखने-चिल्लाने पर किवाड़ तो खुल जाएंगे, लेकिन वकील साहब अपने मन में न जाने क्या समझें? नहीं, वहां जाना उचित नहीं, क्यों न यहीं बैठी रहूं, एक बज ही गया है, तीन-चार घंटे में सबेरा हो जाएगा। यह सोचकर वह बैठ गई, किंतु यह धड़का लगा हुआ था कि कोई मुझे इस तरह यहां बैठे देख ले, तो क्या हो? समझेगा कि चोर है, घात में बैठा है। सुमन वास्तव में अपने ही घर में चोर बनी हुई थी।
फागुन में रात को ठंडी हवा चलती है। सुमन की देह पर एक फटी हुई रेशमी कुरती थी। हवा तीर के समान उसकी हड्डियों में चुभी जाती थी। हाथ-पांव अकड़ रहे थे। उस पर नीचे नाली से ऐसी दुर्गंध उठ रही थी कि सांस लेना कठिन था। चारों ओर तिमिर मेघ छाया हुआ था, केवल भोलीबाई के कोठे पर से प्रकाश की रेखाएं अंधेरी गली की तरफ दया की स्नेहरहित दृष्टि से ताक रही थीं।
सुमन ने सोचा, मैं कैसी हतभागिनी हूं, एक वह स्त्रियां हैं, जो आराम से तकिए लगाए सो रही हैं, लौंडियां पैर दबाती हैं। एक मैं हूं कि यहां बैठी हुई अपने नसीब को रो रही हूं। मैं यह सब दुःख क्यों झेलती हूं? एक झोंपड़ी में टूटी खाट पर सोती हूं, रूखी रोटियां खाती हूं, नित्य घुड़कियां सुनती हूं, क्यों? मर्यादा-पालन के लिए ही न? लेकिन संसार मेरे इस मर्यादा-पालन को क्या समझता है? उसकी दृष्टि में इसका क्या मूल्य है? क्या यह मुझसे छिपा हुआ है? दशहरे के मेले में, मोहर्रम के मेले में, फूल बाग में, मंदिरों में, सभी जगह तो देख रही हूं। आज तक मैं समझती थी कि कुचरित्र लोग ही इन रमणियों पर जान देते हैं, किंतु आज मालूम हुआ कि उनकी पहुंच सुचरित्र और सदाचारशील पुरुषों में भी कम नहीं है। वकील साहब कितने सज्जन आदमी हैं, लेकिन आज वह भोलीबाई पर कैसे लट्टू हो रहे थे।
इस तरह सोचते हुए वह उठी कि किवाड़ खटखटाऊं, जो कुछ होना है, हो जाए। ऐसा कौन-सा सुख भोग रही हूं, जिसके लिए यह आपत्ति सहूं? यह मुझे कौन सोने का कौर खिला देते हैं, कौन फूलों की सेज पर सुला देते हैं? दिन-भर छाती फाड़कर काम करती हूं, तब एक रोटी खाती हूं। उस पर यह धौंस। लेकिन गजाधर के डंडे को देखते ही फिर छाती दहल गई। पशुबल ने मनुष्य को परास्त कर दिया।
अकस्मात् सुमन ने दो कांस्टेबलों को कंधे पर लट्ट रखे आते देखा। अंधकार में वह बहुत भयंकर दिख पड़ते थे। सुमन का रक्त सूख गया, कहीं छिपने की जगह न थी। सोचने लगी कि यदि यही बैठी रहूं, तो यह सब अवश्य ही कुछ पूछेंगे, तो क्या उत्तर दूंगी। वह झपटकर उठी और जोर से किवाड़ खटखटाया। चिल्लाकर बोली– दो घड़ी से चिल्ला रही हूं, सुनते ही नहीं।
गजाधर चौंका। पहली नींद पूरी हो चुकी थी। उठकर किवाड़ खोल दिए। सुमन की आवाज में कुछ भय था, कुछ घबराहट। कृत्रिम क्रोध के स्वर में कहा– वाह रे सोने वाले! घोड़े बेचकर सोए हो क्या? दो घड़ी से चिल्ला रही हूं, मिनकते ही नहीं, ठंड के मारे हाथ-पांव अकड़ गए।
गजाधर निःशंक होकर बोला– मुझसे उड़ो मत। बताओ, सारी रात कहां रहीं?
सुमन निर्भय होकर बोली– कैसी रात, नौ बजे सुभद्रादेवी के घर गईं। दावत थी, बुलावा आया था। दस बजे उनके यहां से लौट आई। दो घंटे से तुम्हारे द्वार पर खड़ी चिल्ला रही हूं। बारह बजे होंगे, तुम्हें अपनी नींद में कुछ सुध भी रहती है।
गजाधर– तुम दस बजे आई थीं?
सुमन ने दृढ़ता से कहा– हां-हां, दस बजे।
गजाधर– बिल्कुल झूठ। बारह का घंटा अपने कानों से सुनकर सोया हूं।
सुमन– सुना होगा, नींद में सिर-पैर की खबर नहीं रहती, ये घंटे गिनने बैठे थे।
गजाधर– अब ये धांधली न चलेगी। साफ-साफ बताओ, तुम अब तक कहां रहीं? मैं तुम्हारा रंग आजकल देख रहा हूं। अंधा नहीं हूं। मैंने भी त्रियाचरित्र पढ़ा है। ठीक-ठीक बता दो, नहीं तो आज जो कुछ होना है, हो जाएगा।
सुमन– एक बार तो कह दिया कि मैं दस-ग्यारह बजे यहां से आ गई। अगर तुम्हें विश्वास नहीं आता, न आवे। जो गहने गढ़ाते हो, मत गढ़ाना। रानी रूठेंगी, अपना सुहाग लेंगी। जब देखो, म्यान से तलवार बाहर ही रहती है, न जाने किस बिरते पर।
यह कहते-कहते सुमन चौंक गई। उसे ज्ञात हुआ कि मैं सीमा से बाहर हुई जाती हूँ। अभी द्वार पर बैठी हुई उसने जो-जो बातें सोची थीं और मन में जो बातें स्थिर की थी, वह सब उसे विस्मृति हो गईं। लोकाचार और हृदय में जमे हुए विचार हमारे जीवन में आकस्मिक परिवर्तन नहीं होने देते।
गजाधर सुमन की यह कठोर बातें सुनकर सन्नाटें में आ गया। यह पहला ही अवसर था कि सुमन यों उसके मुंह आई थी। क्रोधोन्मत्त होकर बोला– क्या तूं चाहती है कि जो कुछ तेरा जी चाहे, किया करे और मैं चूं न करूं? तू सारी रात न जाने कहां रही, अब जो पूछता हूं तो कहती है, मुझे तुम्हारी परवाह नहीं है, तुम मुझे क्या कर देते हो? मुझे मालूम हो गया कि शहर का पानी तुझे भी लगा, तूने भी अपनी सहेलियों का रंग पकड़ा। बस, अब मेरे साथ तेरा निबाह न होगा। कितना समझाता रहा कि इन चुड़ैलों के साथ न बैठ, मेले-ठेले मत जा, लेकिन तूने न सुना– न सुना। मुझे तू जब तक बता न देगी कि तू सारी रात कहां रही, तब तक मैं तुझे घर में बैठने न दूंगा। न बतावेगी, तो समझ ले कि आज से तू मेरी कोई नहीं। तेरा जहां जी चाहे जा, जो मन में आवे कर।
सुमन ने कातर भाव से कहा– वकील साहब के घर को छोड़कर मैं और कहीं नहीं गई; विश्वास न हो तो आप जाकर पूछ लो। वहीं चाहे जितनी देर हो। गाना हो रहा था, सुभद्रादेवी ने आने नहीं दिया।
गजाधर ने लांछनायुक्त शब्दों में कहा– अच्छा, तो अब वकील साहब से मन मिला है, यह कहो! फिर भला, मजूर की परवाह क्यों होने लगी?
इस लांछन ने सुमन के हृदय पर कुठाराघात का काम किया। झूठा इलजाम कभी नहीं सहा जाता। वह सरोष होकर बोली– कैसी बातें मुंह से निकालते हो? हक-नाहक एक भलेमानस को बदनाम करते हो! मुझे आज देर हो गई है। मुझे जो चाहो कहो, मारो, पीटो; वकील साहब को क्यों बीच में घसीटते हो? वह बेचारे तो जब तक मैं घर में रहती हूं, अंदर कदम नहीं रखते।
गजाधर– चल छोकरी, मुझे न चरा। ऐसे-ऐसे कितने भले आदमियों को देख चुका हूं। वह देवता हैं, उन्हीं के पास जा। यह झोंपड़ी तेरे रहने योग्य नहीं है। तेरे हौंसले बढ़ रहे हैं। अब तेरा गुजर यहां न होगा।
सुमन देखती थी कि बात बढ़ती जाती है। यदि उसकी बातें किसी तरह लौट सकतीं तो उन्हें लौटा लेती, किन्तु निकला हुआ तीर कहां लौटता है? सुमन रोने लगी और बोली– मेरी आंखें फूट जाएं, अगर मैंने उनकी तरफ ताका भी हो। मेरी जीभ गिर जाए, अगर मैंने उनसे एक बात की हो। जरा मन बहलाने सुभद्रा के पास चली जाती हूं। अब मना करते हो, न जाऊंगी।
मन में जब एक बार भ्रम प्रवेश हो जाता है, तो उसका निकलना कठिन हो जाता है। गजाधर ने समझा कि सुमन इस समय केवल मेरा क्रोध शांत करने के लिए यह नम्रता दिखा रही है। कटुतापूर्ण स्वर से बोला– नहीं, जाओगी क्यों नहीं? वहां ऊंची अटारी सैर को मिलेगी, पकवान खाने को मिलेंगे, फूलों की सेज पर सोओगी, नित्य राग-रंग की धूम रहेगी।
व्यंग्य और क्रोध में आग और तेल का संबंध है। व्यंग्य हृदय को इस प्रकार विदीर्ण कर देता है, जैसे छेनी बर्फ के टुकड़े को। सुमन क्रोध से विह्वल होकर बोली– अच्छा तो जबान संभालो, बहुत हो चुका। घंटे भर में मुंह में जो अनाप-शनाप आता है, बकते जाते हो। मैं तरह देती जाती हूँ, उसका यह फल है। मुझे कोई कुलटा समझ लिया है?
गजाधर– मैं तो ऐसा ही समझता हूं।
सुमन– तुम मुझे मिथ्या पाप लगाते हो, ईश्वर तुमसे समझेंगे।
गजाधर– चली जा मेरे घर से रांड़, कोसती है।
सुमन– हां, यों कहो कि मुझे रखना नहीं चाहते। मेरे सिर पाप क्यों लगाते हो? क्या तुम्हीं मेरे अन्नदाता हो? जहां मजूरी करूंगी, वहीं पेट पाल लूंगी।
गजाधर– जाती है कि खड़ी गालियां देती है?
सुमन जैसी सगर्वा स्त्री इस अपमान को सह न सकी। घर से निकालने की धमकी भयंकर इरादों को पूरा कर देती है।
सुमन बोली– अच्छा लो, जाती हूं।
यह कहकर उसने दरवाजे की तरफ एक कदम बढ़ाया, किंतु अभी उसने जाने का निश्चय नहीं किया था।
गजाधर एक मिनट तक कुछ सोचता रहा, फिर बोला– अपने गहने-कपड़े लेती जा, यहां कोई काम नहीं है।
इस वाक्य ने टिमटिमाते हुए आशारूपी दीपक को बुझा दिया। सुमन को विश्वास हो गया कि अब यह घर मुझसे छूटा। रोती हुई बोली– मैं लेकर क्या करूंगी?
सुमन ने संदूकची उठा ली और द्वार से निकल आई, अभी तक उसकी आस नहीं टूटी थी। वह समझती थी कि गजाधर अब भी मनाने आवेगा, इसलिए वह दरवाजे के सामने सड़क पर चुपचाप खड़ी रही। रोते-रोते आंचल भीग गया था। एकाएक गजाधर ने दोनों किवाड़ ज़ोर से बंद कर लिए। वह मानों सुमन की आशा का द्वार था, जो सदैव के लिए उसकी ओर बंद हो गया। सोचने लगी, कहां जाऊं? उसे अब ग्लानि और पश्चात्ताप के बदले गजाधर पर क्रोध आ रहा था। उसने अपनी समझ में ऐसा कोई काम नहीं किया था, जिसका ऐसा कठोर दंड मिलना चाहिए था। उसे घर आने में देर हो गई थी, इसके लिए दो-चार घुड़कियां बहुत थीं। यह निर्वासन उसे घोर अन्याय प्रतीत होता था।
उसने गजाधर को मनाने के लिए क्या नहीं किया? विनती की, खुशामद की, रोई, किंतु उसने सुमन का अपमान ही नहीं किया, उस पर मिथ्या दोषारोपण भी किया। इस समय यदि गजाधर मनाने भी आता, तो सुमन राजी न होती। उसने चलते-चलते कहा था, जाओ अब मुंह मत दिखाना। यह शब्द उसके कलेजे में चुभ गए थे। मैं ऐसी गई-बीती हूं कि अब मेरा मुंह भी देखना नहीं चाहते, तो फिर क्यों उन्हें मुंह दिखाऊं? क्या संसार में सब स्त्रियों के पति होते हैं? क्या अनाथाएं नहीं हैं? मैं भी अब अनाथा हूं।
वसंत के समीर और ग्रीष्म की लू में कितना अंतर है। एक सुखद और प्राणपोषक, दूसरी अग्निमय और विनाशिनी। प्रेम-वसंत-समीर है, द्वेष ग्रीष्म की लू। जिस पुष्प को वसंत-समीर महीनों खिलाती है, उसे लू का एक झोंका जलाकर राख कर देता है। सुमन के घर से थोड़ी दूर पर एक खाली बरामदा था। वहां जाकर उसने संदूकची सिरहाने रखी और लेट गई। तीन बज चुके थे। दो घंटे उसने यह सोचने में काटे कि कहां जाऊं। उसकी सहचरियों में हिरिया नाम की एक दुष्ट स्त्री थी, वहां आश्रय मिल सकता था, किंतु सुमन उधर नहीं गई।
आत्मसम्मान का कुछ अंश अभी बाकी था। अब वह एक प्रकार से स्वच्छंद थी और उन दुष्कामनाओं को पूर्ण कर सकती थी, जिनके लिए उसका मन बरसों से लालायित हो रहा था। अब उस सुखमय जीवन के मार्ग में बाधा न थी। लेकिन जिस प्रकार बालक किसी गाय या बकरी को दूर से देखकर प्रसन्न होता है, पर उसके निकट आते ही भय से मुंह छिपा लेता है, उसी प्रकार सुमन अभिलाषाओं के द्वार पर पहुंचकर भी प्रवेश न कर सकी। लज्जा, खेद, घृणा, अपमान ने मिलकर उसके पैरों में बेड़ी-सी डाल दी। उसने निश्चय किया कि सुभद्रा के घर चलूं, वही खाना पका दिया करूंगी, सेवा-टहल करूंगी और पड़ी रहूंगी। आगे ईश्वर मालिक है।
उसने संदूकची आंचल में छिपा ली और पंडित पद्मसिंह के घर आ पहुंची। मुवक्किल हाथ-मुंह धो रहे थे। कोई आसन बिछाए ध्यान करता था और सोचता था, कहीं मेरे गवाह न बिगड़ जाएं। कोई माला फेरता था, मगर उसके दानों से उन रुपयों का हिसाब लगा रहा था, जो आज उसे व्यंय करने पड़ेंगे। मेहतर रात की पूड़िया समेट रहा था। सुमन को भीतर जाते हुए कुछ संकोच हुआ, लेकिन जीतन कहार को आते देखकर वह शीघ्रता से अंदर चली गई। सुभद्रा ने आश्चर्य से पूछा– घर से इतने सबेरे कैसे चलीं?
सुमन ने कुंठित स्वर से कहा– घर से निकाल दी गई हूं।
सुभद्रा– अरे। यह किस बात पर।
सुमन– यही कि रात मुझे यहां से जाने में देर हो गई।
सुभद्रा– इस जरा-सी बात का इतना बतंगड़। देखो, मैं उन्हें बुलवाती हूं। विचित्र मनुष्य हैं।
सुमन– नहीं, नहीं, उन्हें न बुलाना, मैं रो धोकर हार गई। लेकिन उस निर्दयी को तनिक भी दया न आई। मेरा हाथ पकड़कर घर से निकाल दिया। उसे घमंड है कि मैं ही इसे पालता हूं। मैं उसका यह घमंड तोड़ दूंगी।
सुभद्रा– चलो, ऐसी बातें न करो। मैं उन्हें बुलवाती हूं।
सुमन– मैं अब उसका मुंह नहीं देखना चाहती।
सुभद्रा– तो क्या ऐसा बिगाड़ हो गया है?
सुमन– हां, अब ऐसा ही है। अब उससे मेरा कोई नाता नहीं।
सुभद्रा ने सोचा, अभी क्रोध में कुछ न सूझेगा, दो-एक रोज में शांत हो जाएगी। बोली– अच्छा मुंह-हाथ धो डालो, आँखें चढ़ी हुई हैं। मालूम होता है, रात-भर सोई नहीं हो। कुछ देर सो लो, फिर बातें होंगी।
सुमन– आराम से सोना ही लिखा होता, तो क्या ऐसे कुपात्र से पाला पड़ता। अब तो तुम्हारी शरण में आई हूं। शरण दोगी तो रहूंगी, नहीं कहीं मुंह में कालिख लगाकर डूब मरूंगी। मुझे एक कोने में थोड़ी-सी जगह दे दो, वहीं पड़ी रहूंगी, अपने से जो कुछ हो सकेगा, तुम्हारी सेवा-टहल कर दिया करूंगी।
जब पंडितजी भीतर आए, तो सुभद्रा ने सारी कथा उनसे कही। पंडितजी बड़ी चिंता में पड़े। अपरिचित स्त्री को उसके पति से पूछे बिना अपने घर में रखना अनुचित मालूम हुआ। निश्चित किया कि चलकर गजाधर को बुलवाऊं और समझाकर उसका क्रोध शांत कर दूं। इस स्त्री का यहां से चला जाना ही अच्छा है।
उन्होंने बाहर आकर तुरंत गजाधर के बुलाने को आदमी भेजा, लेकिन वह घर पर न मिला। कचहरी से आकर पंडितजी ने फिर गजाधर को बुलवाया, लेकिन फिर वही हाल हुआ।
उधर गजाधर को ज्योंही मालूम हुआ कि सुमन पद्मसिंह के घर गई है, उसका संदेह पूरा हो गया है। वह घूम-घूमकर शर्माजी को बदनाम करने लगा। पहले विट्ठलदास के पास गया। उन्होंने उसकी कथा को वेद-वाक्य समझा। यह देश का सेवक और सामाजिक अत्याचारों का शत्रु– उदारता और अनुदारता का विलक्षण संयोग था। उसके विश्वासी हृदय में सारे जगत के प्रति सहानुभूति थी, किंतु अपने वादी के प्रति लेशमात्र भी सहानुभूति न थी। वैमनस्य में अंधविश्वास की चेष्टा होती है। जब से पद्मसिंह ने मुजरे का प्रस्ताव किया था, विट्ठलदास को उनसे द्वेष हो गया था। वे यह समाचार सुनते ही फूले न समाए। शर्माजी के मित्र और सहयोगियों के पास जा-जाकर इसकी सूचना दे आए। लोगों को कहते, देखा आपने। मैं कहता न था कि यह जलसा अवश्य रंग लाएगा। एक ब्राह्मणी को उसके घर से निकालकर अपने घर में रख लिया। बेचारा पति चारों ओर से रोता फिरता है। यह है उच्च शिक्षा का आदर्श। मैं तो ब्राह्मणी को उनके यहां देखते ही भांप गया था कि दाल में कुछ काला है। लेकिन यह न समझता था कि अंदर-ही-अंदर यह खिचड़ी पक रही है।
आश्चर्य तो यह था कि जो लोग शर्माजी के स्वभाव से भली-भांति परिचित थे, उन्होंने भी इस पर विश्वास कर लिया।
दूसरे दिन प्रातःकाल जीतन किसी काम से बाहर गया। चारों तरफ यही चर्चा सुनी। दुकानदार पूछते थे, क्यों जीतन, नई मालकिन के क्या रंग-ढंग हैं? जीतन यह आलोचनापूर्ण बातें सुनकर घबराया हुआ घर आया और बोला– भैया, बहूजी ने जो गजाधर की दुलहिन को घर में ठहरा लिया है, इस पर बाजार में बड़ी बदनामी हो रही है। ऐसा मालूम होता है कि यह गजाधर से लड़कर आई है।
वकील साहब ने यह सुना तो सन्नाटे में आ गए। कचहरी जाने के लिए अचकन पहन रहे थे, एक हाथ आस्तीन में था, दूसरा बाहर। कपड़े पहनने की सुधि न रही। उन्हें जिस बात का भय था, वह हो ही गई। अब उन्हें गजाधर की लापरवाही का मर्म ज्ञात हुआ। मूर्तिवत खड़े सोचते रहे कि क्या करूं? इसके सिवा और कौन-सा उपाय है कि उसे घर से निकाल दूं। उस पर जो बीतनी हो बीते, मेरा क्या वश है? किसी तरह बदनामी से तो बचूं। सुभद्रा पर जी में झुंझलाए इसे क्या पड़ी थी कि उसे अपने घर में ठहराया? मुझसे पूछा तक नहीं। उसे तो घर में बैठे रहना है, दूसरों के सामने आंखें तो मेरी नीची होंगी। मगर यहां से निकाल दूंगा तो बेचारी जाएगी कहां? यहां तो उसका कोई ठिकाना नहीं मालूम होता। गजाधर अब उसे शायद अपने घर में न रखेगा। आज दूसरा दिन है, उसने खबर तक नहीं ली। इससे तो यह विदित होता है कि उसने उसे छोड़ने का निश्चय कर लिया है। दिल में मुझे दयाहीन और क्रूर समझेगी। लेकिन बदनामी से बचने का यही एकमात्र उपाय है। इसके सिवा और कुछ नहीं हो सकता। यह विवेचना करके वह जीतन से बोले– तुमने अब तक मुझसे क्यों न कहा?
जीतन– सरकार, मुझे आज ही तो मालूम हुआ है, नहीं तो जान लो भैया, मैं बिना कहे नहीं रहता।
शर्माजी– अच्छा, तो घर में जाओ और सुमन से कहो कि तुम्हारे यहां रहने से उनकी बदनामी हो रही है। जिस तरह बन पड़े, आज ही यहां से चली जाए। जरा आदमी की तरह बोलना, लाठी मत मारना। खूब समझाकर कहना कि उनका कोई वश नहीं है।
जीतन बहुत प्रसन्न हुआ। उसे सुमन से बड़ी चिढ़ थी, जो नौकरों को उन छोटे मनुष्यों से होती है, जो उनके स्वामी के मुंहलगे होते हैं। सुमन की चाल उसे अच्छी नहीं लगती थी। बुड्ढे लोग साधारण बनाव-श्रृंगार को भी संदेह की दृष्टि से देखते हैं। वह गंवार था। काले को काला कहता था, उजले को उजला; काले को उजला करने का ढंग उसे न आता था। यद्यपि शर्माजी ने समझा दिया था कि सावधानी से बातचीत करना, किंतु उसने जाते-ही-जाते सुमन का नाम लेकर जोर से पुकारा। सुमन शर्माजी के लिए पान लगा रही थी। जीतन की आवाज सुनकर चौंक पड़ी और कातर नेत्रों से उसकी ओर ताकने लगी।
जीतन ने कहा– ताकती क्या हो, वकील साहब का हुक्म है कि आज ही यहां से चली जाओ। सारे देश-भर में बदनाम कर दिया। तुमको लाज नहीं है, उनको तो नाम की लाज है। बांड़ा आप गए, चार हाथ की पगहिया भी लेते गए।
सुभद्रा के कान में भनक पड़ी, आकर बोली– क्या है जीतन, क्या कह रहे हो?
जीतन– कुछ नहीं, सरकार का हुक्म है कि यह अभी यहां से चली जाएं। देशभर में बदनामी हो रही है।
सुभद्रा– तुम जाकर जरा उन्हीं को यहां भेज दो।
सुमन की आँखों में आंसू भरे थे। खड़ी होकर बोली– नहीं बहूजी, उन्हें क्यों बुलाती हो? कोई किसी के घर में जबरदस्ती थोड़े ही रहता है। मैं अभी चली जाती हूं। अब इस चौखट के भीतर फिर पांव न रखूंगी।
विपत्ति में हमारी मनोवृत्तियां बड़ी प्रबल हो जाती हैं। उस समय बेमुरौवती घोर अन्याय प्रतीत होती है और सहानुभूति असीम कृपा। सुमन को शर्माजी से ऐसी आशा न थी। उस स्वाधीनता के साथ जो आपत्तिकाल में हृदय पर अधिकार पा जाती है, उसने शर्माजी को दुरात्मा, भीरु, दयाशून्य तथा नीच ठहराया। तुम आज अपनी बदनामी को डरते हो, तुमको इज्जत बड़ी प्यारी है। अभी कल तक एक वेश्या के साथ बैठे हुए फूले न समाते थे, उसके पैरों तले आंख बिछाते थे, तब इज्जत न जाती थी। आज तुम्हारी इज्जत में बट्टा लग गया है।
उसने सावधानी से संदूकची उठा ली और सुभद्रा को प्रणाम करके घर से चली गई।
11
दरवाजे पर आकर सुमन सोचने लगी कि अब कहां जाऊं। गजाधर की निर्दयता से भी उसे दुःख न हुआ था, जितना इस समय हो रहा था। उसे अब मालूम हुआ कि मैंने अपने घर से निकलकर बड़ी भूल की। मैं सुभद्रा के बल पर कूद रही थी। मैं इन पंडितजी को कितना भला आदमी समझती थी। पर अब मुझे मालूम हुआ कि यह भी रंगे हुए सियार हैं। अपने घर के सिवा अब मेरा कोई ठिकाना नहीं है। मुझे दूसरों की चिरौरी करने की जरूरत ही क्या? क्या मेरा कोई घर नहीं था? क्या मैं इनके घर जन्म काटने आई थी। दो-चार दिन में जब उनका क्रोध शांत हो जाता, आप ही चली जाती। ओह! नारायण, क्रोध में बुद्धि कैसी भ्रष्ट हो जाती है। मुझे इनके घर को भूलकर भी न आना चाहिए था, मैंने अपने पांव में आप की कुल्हाड़ी मारी। वह अपने मन में न जाने क्या समझते होंगे?
यह सोचते हुए सुमन आगे चली, पर थोड़ी दूर चलकर उसके विचारों ने फिर पलटा खाया। मैं कहां जा रही हूं? वह अब कदापि मुझे घर में न घुसने देंगे। मैंने कितनी विनती की, पर उन्होंने एक न सुनी। जब केवल रात को कुछ घंटे की देर हो जाने से उन्हें इतना संदेह हो गया, तो अब मुझे चौबीस घंटे हो चुके हैं और मैं शामत की मारी वहीं आई, जहां मुझे न आना चाहिए था। वह तो अब मुझे दूर से ही दुतकार देंगे। यह दुतकार क्यों सहूं? मुझे कहीं रहने का स्थान चाहिए। खाने भर को किसी न किसी तरह कमा लूंगी। कपड़े भी सीऊंगी तो खाने-भर को मिल जाएगा, फिर किसी की धौंस क्यों सहूं? इनके यहां मुझे कौन-सा सुख था? व्यर्थ में एक बेड़ी पैरों में पड़ी हुई थी। और लोक-लाज से मुझे वह रख भी लें, तो उठते-बैठते ताने दिया करेंगे। बस, चलकर एक मकान ठीक कर लूं। भोली क्या मेरे साथ इतना भी सलूक न करेगी? वह मुझे अपने घर बार-बार बुलाती थी, क्या इतनी दया भी न करेगी?
अमोला चली जाऊँ तो कैसा हो? लेकिन वहां पर कौन बैठा हुआ है? अम्मा मर गई। शान्ता है। उसी का निर्वाह होना कठिन है, मुझे कौन पूछने वाला है? मामी जीने न देंगी। छेद-छेदकर मार डालेंगी। चलूं भोली से कहूं, देखूं क्या कहती है? कुछ न हुआ तो गंगा तो कहीं नहीं गई है? यह निश्चय करके सुमन भोली के घर चली। इधर-उधर ताकती थी। कहीं गजाधर न आता हो।
भोली के द्वार पर पहुंचकर सुमन ने सोचा, इसके यहां क्यों जाऊं? किसी पड़ोसिन के घर जाने से काम न चलेगा? इतने में भोली ने उसे देखा और इशारे से ऊपर बुलाया। सुमन ऊपर चली गई।
भोली का कमरा देखकर सुमन की आँखें खुल गईं। एक बार वह पहले भी आई थी, लेकिन नीचे के आंगन से ही लौट गई थी। कमरा फर्श मसनद, चित्रों और शीशे के सामानों से सजा हुआ था। एक छोटी-सी चौकी पर चांदी का पानदान रखा हुआ था दूसरी चौकी पर चांदी की तश्तरी और चांदी का एक गिलास रखा हुआ था। सुमन यह सामान देखकर दंग रह गई।
भोली ने पूछा– आज यह संदूकची लिए इधर कहां से आ रही थीं?
सुमन– यह राम-कहानी फिर कहूंगी; इस समय तुम मेरे ऊपर कृपा करो कि मेरे लिए कहीं अलग एक छोटा-सा मकान ठीक करा दो। मैं उसमें रहना चाहती हूं।
भोली ने विस्मित होकर कहा– यह क्यों, शौहर से लड़ाई हो गई है?
सुमन– नहीं, लड़ाई की क्या बात है? अपना जी ही तो है।
भोली– जरा मेरे सामने ताको। हां, चेहरा साफ कह रहा है। क्या बात हुई?
सुमन– सच कहती हूं, कोई बात नहीं है। अगर अपने रहने से किसी को कोई तकलीफ हो तो क्यों रहे?
भोली– अरे, तो मुझसे साफ-साफ कहती क्यों नहीं, किस बात पर बिगड़े हैं?
सुमन– बिगड़ने की कोई बात नहीं। जब बिगड़ ही गए तो क्या रह गया?
भोली– तुम लाख छिपाओ, मैं ताड़ गई सुमन, बुरा न मानों तो कह दूं। मैं जानती थी कि कभी-न-कभी तुमसे खटकेगी जरूर। एक गाड़ी में कहीं अरबी घोड़ी और कहीं लद्दू, टट्टू जुत सकते हैं? तुम्हें तो किसी बड़े घर की रानी बनना चाहिए था। मगर पाले पड़ी एक खूसट के, जो तुम्हारा पैर धोने लायक भी नहीं। तुम्हीं हो कि यों निबाह रही हो, दूसरी होती तो मियां पर लात मारकर कभी की चली गई होती। अगर अल्लाहताला ने तुम्हारी शक्ल-सूरत मुझे दी होती, तो मैंने अब तक सोने की दीवार खड़ी कर ली होती। मगर मालूम नहीं, तुम्हारी तबीयत कैसी है। तुमने शायद अच्छी तालीम नहीं पाई।
सुमन– मैं दो साल तक एक ईसाई लेडी से पढ़ चुकी हूं।
भोली– दो-तीन साल की और कसर रह गई। इतने दिन और पढ़ लेती, तो फिर यह ताक न लगी रहती। मालूम हो जाता कि हमारी जिंदगी का क्या मकसद है, हमें जिंदगी का लुत्फ कैसे उठाना चाहिए। हम कोई भेड़-बकरी तो नहीं कि मां-बाप जिसके गले मढ़ दें, बस उसी की हो रहें। अगर अल्लाह को मंजूर होता कि तुम मुसीबतें झेलो, तो तुम्हें परियों की सूरत क्यों देता? यह बेहूदा रिवाज यहीं के लोगों में है कि औरत को इतना जलील समझते हैं; नहीं तो और सब मुल्कों की औरतें आजाद हैं, अपनी पसंद से शादी करती हैं और उससे रास नहीं आती, तो तलाक दे देती हैं। लेकिन हम सब वही पुरानी लकीर पीटे जा रही हैं।
सुमन ने सोचकर कहा– क्या करूं बहन, लोक-लाज का डर है, नहीं तो आराम से रहना किसे बुरा मालूम होता है?
भोली– यह सब उसी जिहालत का नतीजा है। मेरे मां-बाप ने मुझे एक बूढ़े मियां के गले बांध दिया था। उसके यहां दौलत थी और सब तरह का आराम था, लेकिन उसकी सूरत से मुझे नफरत थी। मैंने किसी तरह छह महीने तो काटे, आखिर निकल खड़ी हुई। जिंदगी जैसी नियामत रो-रोकर दिन काटने के लिए नहीं दी गई है। जिंदगी का मजा ही न मिला, तो उससे फायदा ही क्या? पहले मुझे भी डर लगता था कि बड़ी बदनामी होगी, लोग मुझे जलील समझेंगे; लेकिन घर से निकलने की देरी थी, फिर तो मेरा वह रंग जमा कि अच्छे-अच्छे खुशामदें करने लगे। गाना मैंने घर पर ही सीखा था, कुछ और सीख लिया, बस सारे शहर में धूम मच गई। आज यहां कौन रईस, कौन महाजन, कौन मौलवी, कौन पंडित ऐसा है, जो मेरे तलुवे सहलाने में अपनी इज्जत न समझे? मंदिरों में, ठाकुरद्वारों में मेरे मुजरे होते हैं। लोग मिन्नतें करके ले जाते हैं। इसे मैं अपनी बेइज्जती कैसे समझूं? अभी एक आदमी भेज दूं, तो तुम्हारे कृष्ण-मंदिर के महंतजी दौड़े चले आवें। अगर कोई इसे बेइज्जती समझे, तो समझा करे।
सुमन– भला, यह गाना कितने दिन में आ जाएगा।
भोली– तुम्हें छह महीने में आ जाएगा; यहां गाने को कौन पूछता है, धुप्रद और तिल्लाने की जरूरत ही नहीं। बस, चली हुई गजलों की धूम है। दो-चार ठुमरियां और कुछ थिएटर के गाने आ जाएं और बस, फिर तुम्हीं तुम हो। यहां तो अच्छी सूरत और मजेदार बातें चाहिए, सो खुदा ने यह दोनों बातें तुममें कूट-कूटकर भर दी हैं। मैं कसम खाकर कहती हूं सुमन, तुम एक बार इस लोहे की जंजीर को तोड़ दो; फिर देखो, लोग कैसे दीवानों की तरह दौड़ते हैं।
सुमन ने चिंतित भाव से कहा– यही बुरा मालूम होता है कि…
भोली– हां-हां, कहो, यही कहना चाहती हो न कि ऐरे-गैरे सबसे बेशरमी करनी पड़ती है। शुरू में मुझे भी यही झिझक होती थी। मगर बाद को मालूम हुआ कि यह ख्याल-ही-ख्याल है। यहां ऐरे-गैरे के आने की हिम्मत ही नहीं होती। यहां तो सिर्फ रईस लोग आते हैं। बस, उन्हें फंसाए रखना चाहिए। अगर शरीफ है, तब तो तबीयत आप-ही-आप उससे मिल जाती है और बेशरमी का ध्यान भी नहीं होता, लेकिन अगर उससे अपनी तबीयत न मिले, तो उसे बातों में लगाए रहो, जहां तक उसे नोचते-खसोटते बने, नोचो-खसोटो। आखिर को वह परेशान होकर खुद ही चला जाएगा, उसके दूसरे भाई और आ फंसेंगे। फिर पहले-पहल तो झिझक होती ही है। क्या शौहर से नहीं होती? जिस तरह धीरे-धीरे उसके साथ झिझक दूर होती है, उसी तरह यहां होता है।
सुमन ने मुस्कराकर कहा– तुम मेरे लिए एक मकान ठीक कर दो।
भोली ने ताड़ लिया कि मछली चारा कुतरने लगी, अब शिस्त को कड़ा करने की जरूरत है। बोली– तुम्हारे लिए यही घर हाजिर है। आराम से रहो।
सुमन– तुम्हारे साथ न रहूंगी।
भोली– बदनाम हो जाओगी, क्यों?
सुमन– (झेंपकर) नहीं, यह बात नहीं।
भोली– खानदान की नाक कट जाएगी?
सुमन– तुम तो हंसी उड़ाती हो।
भोली– फिर क्या, पंडित गजाधरप्रसाद पांडे नाराज हो जाएंगे?
सुमन– अब मैं तुमसे क्या कहूं?
सुमन के पास यद्यपि भोली का जवाब देने के लिए कोई दलील न थी। भोली ने उसकी शंकाओं का मजाक उड़ाकर उन्हें पहले से ही निर्बल कर दिया था। यद्यपि अधर्म और दुराचार से मनुष्य का जो स्वाभाविक घृणा होती है, वह उसके हृदय को डावांडोल कर रही थी। वह इस समय अपने भावों को शब्दों में न कह सकती थी। उसकी दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो किसी बाग में पके फल को देखकर ललचाता है, पर माली के न रहते हुए भी उन्हें तोड़ नहीं सकता।
इतने में भोली ने कहा– तो कितने किराये तक का मकान चाहती हो, मैं अभी अपने मामा को बुलाकर ताकीद कर दूं।
सुमन– यही दो-तीन रुपए।
भोली– और क्या करोगी?
सुमन– सिलाई का काम कर सकती हूं।
भोली– और अकेली ही रहोगी?
सुमन– हां और कौन है?
भोली– कैसी बच्चों की-सी बातें कर रही हो। अरी पगली, आंखों से देखकर अंधी बनती है। भला, अकेले घर में एक दिन भी तेरा निबाह होगा? दिन-दहाड़े आबरू लुट जाएगी। इससे तो हजार दर्जे यही अच्छा है कि तुम अपने शौहर के ही पास चली जाओ।
सुमन– उसकी तो सूरत देखने को जी नहीं चाहता। अब तुमसे क्या छिपाऊं, अभी परसों वकील साहब के यहां तुम्हारा मुजरा हुआ था। उनकी स्त्री मुझसे प्रेम रखती है। उन्होंने मुझे मुजरा देखने को बुलाया और बारह-एक बजे तक मुझे आने न दिया। जब तुम्हारा गाना खत्म हो चुका तो मैं घर आई। बस, इतनी-सी बात पर वह इतने बिगड़े कि जो मुंह में आया, बकते रहे। यहां तक कि वकील साहब से भी पाप लगा दिया। कहने लगे, चली जा, अब सूरत न दिखाना। बहन, मैं ईश्वर को बीच देकर कहती हूं, मैंने उन्हें मनाने का बड़ा यत्न किया। रोई, पर उन्होंने घर से निकाल ही दिया। अपने घर में कोई नहीं रखता, तो क्या जबरदस्ती है। वकील साहब के घर गई कि दस-पांच दिन रहूंगी, फिर जैसा होगा देखा जाएगा, पर इस निर्दयी ने वकील साहब को बदनाम कर डाला। उन्होंने मुझे कहला भेजा कि यहां से चली जाओ। बहन, और सब दुःख था, पर यह संतोष तो था कि नारायण इज्जत से निबाहे जाते हैं; पर कलंक की कालिख मुंह में लग गई, अब चाहे सिर पर जो कुछ पड़े, मगर उस घर में न जाऊंगी।
यह कहते-कहते सुमन की आंखें भर आईं। भोली ने दिलासा देकर कहा– अच्छा, पहले हाथ-मुंह तो धो डालो, कुछ नाश्ता कर लो, फिर सलाह होगी। मालूम होता है कि तुम्हें रात-भर नींद नहीं आई।
सुमन– यहां पानी मिल जाएगा?
भोली ने मुस्कराकर कहा– सब इंतजाम हो जाएगा। मेरा कहार हिंदू है। यहां कितने ही हिंदू आया करते हैं। उनके लिए एक हिन्दू कहार रख लिया है।
भोली की बूढ़ी मामी सुमन को गुसलखाने में ले गई। वहां उसने साबुन से स्नान किया। तब मामी ने उसके बाल गूंथे। एक नई रेशमी साड़ी पहनने के लिए लाई। सुमन जब ऊपर आई और भोली ने उसे देखा, तो मुस्कराकर बोली– जरा जाकर आईने में मुंह देख लो।
सुमन शीशे के सामने गई। उसे मालूम हुआ कि सौंदर्य की मूर्ति सामने खड़ी है। सुमन अपने को इतना सुंदर न समझती थी। लज्जायुक्त अभिमान से मुखकमल खिल उठा और आंखों में नशा छा गया। वह एक कोच पर लेट गई।
भोली के अपनी मामी से कहा– क्यों जहूरन, अब तो सेठजी आ जाएंगे पंजे में?
जहूरन बोली– तलुवे सहलाएंगे– तलुवे।
थोड़ी देर में कहार मिठाइयां लाया। सुमन ने जलपान किया। पान खाया और फिर आईने के सामने खड़ी हो गई। उसने अपने मन में कहा, यह सुख छोड़कर उस अंधेरी कोठरी में क्यों रहूं?
भोली ने पूछा– गजाधर शायद मुझे तुम्हारे बारे में कुछ पूछे, तो क्या कह दूंगी?
सुमन ने कहा– कहला देना कि यहां नहीं है।
भोली का मनोरथ पूरा हो गया– उसे निश्चय हो गया कि सेठ बलभद्रदास जो अब तक मुझसे कन्नी काटते फिरते थे, इस लावण्यमयी सुंदरी पर भ्रमर की भांति मंडराएंगे।
सुमन की दशा उस लोभी डाक्टर की-सी थी, जो अपने किसी रोगी मित्र को देखने जाता है और फीस के रुपए अपने हाथों में नहीं लेता। संकोचवश कहता है, इसकी क्या जरूरत है, लेकिन रुपए जब उसकी जेब में डाल दिए जाते हैं, तो हर्ष से मुस्कराता हुआ घर की राह लेता है।
हिंदी कवि पर कविता, कहानी, ग़ज़ल - शायरी, गीत -लोकगीत, दोहे, भजन, हास्य - व्यंग्य और कुछ अन्य रचनाएं साहित्य के भंडार से
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
Featured post
हिंदी भजन लिरिक्स | भजन-संग्रह | Bhajan Lyrics in Hindi
लोकप्रिय हिंदी भजन लिरिक्स विभिन्न कलाकारों , भक्त कवियों और संतों द्वारा गाए और रचाए गए भजन गीत भक्ति गीत का लिखित संग्रह क्लिक कर पढ़ें एवं...
-
खोय देत हो जीवन बिना काम के भजन करो कछु राम के / बुन्देली लोकगीत खोय देत हो जीवन बिना काम के, भजन करो कछु राम के। जी बिन देह जरा न रुकती, ...
-
हे री मैं तो प्रेम दिवानी मीरा के पद अर्थ meera ke pad arth Mira Pad हे री मैं तो प्रेम दिवानी, मेरा दरद न जाने कोय।. सूली ऊपर सेज हमारी, ...
-
mangesh dabral hindi poet author परिचय मंगलेश डबराल एक प्रसिद्ध हिंदी कवि और लेखक थे, जिन्हें विशेष रूप से उनकी सामयिक और सामाजिक कविता के...
Labels
Aakhari Kalaam
Aalam Sheikh Kavita
Aansu
Aao Aao Yashoda Ke Laal
Aao Rama Bhog Lagao Shyama
Aaradhya Shri Ram lyrics
Aarti Geet
Aawazon Ke Ghere
Ab Kripa Karo Shri Ram Nath Dukh Taaro
acharya ramchandra shukla
Achyutashtakam lyrics
Ada Jafri
ada Zafri
Adam Gondvi
Adeem Hashmi Ghazal
Adil Mansuri Ghazal
ae maalik tere bande
Agam Singh Giri
Agyatvaas Katha
Ahmad Mushtaq Ghazal
Ahmed Faraz Ghazal
Ahmed Nadeem Qasami Ghazal
ai ishq hamein barbaad na kar
Aisi Bhole Ki Re Chadhi Hai Baraat
Aitbar Sajid Ghazal
Ajneya ke quote
Akbar Allahabadi
Akbar Allahabadi Ghazal
Akbar Allahabadi Ke Kisse
Akbar-Birbal
Akharavat
Akhilesh Tiwari Ghazal
Akhtar Shirani Ghazal
AKHTAR SHIRANI NAZM
AKHTARUL IMAN NAZM
Akshay Upadhyay ki Kavita
Albeli Ali ke Pad
Ali Sardar Jafri Ghazal
Allama Iqbal Ghazal
Alok Dhanwa Kavita
amarkant poet stories
Ambika Datt Vyas
Ameer Minai Ghazal
ameer minai ghazals
Amir Khusrow Dohe- Kavita-geet-paheliya
Ana Qasmi Ghazal
Anamika
Anamika Suryakant Tripathi "Nirala" kavita
Anand Bakshi
Andher Nagri Chaupat Raja
Angika Bhakti Geet
Angika Bujoval Geet
Angika Fekda
Angika Koshi Geet
Angika Lokgatha
Angika Lori Geet- Lokgeet
Angika Manon Geet
Angika Ritu Geet
Angika Sohar Geet
Anjana Bhatt
Ankhiyan Hari Darshan Ki Pyasi
Ankita Jain
Anmol Vachan Sangrah Hindi
Anoop Jalota
Ansar Kambari Ghazal
Arjundas Kediya
Arun Kamal Kavita
ashaar
Ashok Anjum Ghazal
Ashok Anjum ghazals
Ashok Chakradhar
Ashtak
ashtakam
Asrar Ul Haq Majaz Ghazal
Asrarul Haq Majaz
Asrarul Haq Majaz ke kisse
atal bihari vajpayi
Ath Shri Krishnashtakam lyrics
Ath Shri Shiv Ashtakam lyrics
Atha Shri Ganeshashtakam lyrics
athaniyan kahani
Atima
Awadhi lokgeet
Ayodhya Singh Upadhyay Harioudh Kavita
Aziz Azad
Aziz Bano Darab Wafa
Aziz Lakhnavi
Aziz Warsi
Baal Ali
Baal Geet
Baal Mahabharat Katha
baal sahitya
baalgeet
baanke bihari ji ashtak
baas kahani
baba kavne nagariya
bachchon ke gaane
Bada Natkhat Hai Re
Badhawa Geet
Bagheli Lokgeet
Bahadur Shah Zafar Ghazal
Baiga Geet
Baiga Lokgeet
Bairisal
Bakhna
Banarasi Das ke Chhappay.
Banarasi Das ke Kavitt
Banarasi Das ke Pad
Banarasi Das ke Sawaiya
Bangla Geet
Bangla Lokgeet
Barahmasa Geet
Barahmasi Geet
Bari Aatik Geet
Barve Ramayan Ji
Bashar Nawaz Ghazal
Bashir Badra
Bashir Badra ke Kisse
Batgamni Geet
Beet Gaye Din lyrics
Bekal Utsahi
Bekal Utsahi Ghazals
Betal Pachchisi
Bhadawari lokgeet
Bhagavad Gita
Bhagavad Gita Chapter
Bhagavad Gita Hindi
Bhagwan Meri Naiya lyrics
Bhagwati Charan Verma
Bhagwwat Rasik
Bhaj Man Mere Ram Naam
bhajan
bhajan lyrics
bhajan lyrics in hindi
bhajan sangrah
bhajan-pad-mishrit
Bhakt Rupkala
Bhakt Surdas Ji
bhaktikaal kavi
bhakto ke dohe
Bhanubhakta Acharya
Bharat Bhushan Agrawal
Bharat Bhushan Agrawal kavita
Bharat Durdasha
Bharatendu Harishchandra
Bharatendu Harishchandra Ghazal
Bharatendu Harishchandra Kavita
Bheel Geet
Bheru Bhairav Geet
Bhil Lokgeet
Bhojpuri Geet
bhojpuri rakhi geet
Bhole Nath ke Bhajan
Bhupati Kavi ke Dohe
Bhupi Sherchan
Bihari
bimalda kahani
bindu je ke bhajan
bindu ji maharaj rachna
Bindu Ji Rachna
Biography
Birha Geet
Biyah se Diragaman Geet
Brij Narayan Chakbast
Budhesar Biyah Geet
Budhjan
Bulla Sahab
bulle shah
Bundeli Banna Geet
Bundeli Dadre Geet
Bundeli Faag Geet
Bundeli Gali Geet
Bundeli Sohar Geet
Bundeli Varsha Geet
Chacha Hit Vrindavandas
Chalisa Likhi hui
Chalisa Lyrics
chalisa lyrics hindi
chalisa sangrah
Chalo Re Sakhiyan lyrics
Chanakya
Chand Bardai's Doha
Chand Bardai's Pad
Chand Bardai's Raso Kavya
Chandrakant Devtale Kavita
Chandrakant Devtale poem
Chandrakanta Upanyas
Chaturbhuj Das ke Pad
Chaturbhujdas
Chaturthi Geet
Chaumasa Geet
Cheegat Geet
Chetavar Geet
Chhainya Chhainya
Chhamasa Geet
Chhatisgarh Lokgeet
Chheehal Panch Saheli Geet
Chhitswami ke Pad. छीतस्वामी के पद
Chhitswami Pad
Chhotelal Das Ji Ke Bhajan
Children Stories
Chitradhar
Chitswami ke pad
Chuhar Chori Pakaria Geet
couplet
Daag Dehalvi
Daag Dehalvi ke kisse
Dadu Dayal
Dadu Dayal Bhajan
dadu ke bhajan
Dahkan Geet
Damad Geet
Dariya Bihar Wale
das paise aur dadi
Data Ram Diye Hi Jata
daya kar daan
Dayabai
Dayaram
Deendayal Giri
deshbhakti kavita
Devadas
Devendra Kumar Bangali
Devi Geet
Devi Jagdamba Geet
Devi-Devataak Geet
Devkinandan Khatri Novel
Devsen
Dhanna Bhagat
Dharmvir Bharti
Dharmvir Bharti kavita
Dharmvir Bharti poetry
Dharnidas Bhajan Sangrah
Dhol Nagada
Dhruvdas ke Dohe
Dhruvdas ke Pad
Dhruvdas ke Savaiyya
dhuan kahani
Dinbandhu Deenanath
dingal kavi
Diva Ni Divete
Doha
doha of vidhyapati
Dohawali
Dohe
dohe gurujan ke
Dohe Of Bulleh Shah
Dohe Sant Guru Ravidas
Droupadi Swyamvar Katha
Dukhiyaon Ke Dukhh Door
Dukhiyaon Ke Dukhh Door Kare
Dularelal Bhargav
Dulha Ram Siya Dulhi Ri
Dushyant Kumar
Dushyant Kumar Kavita
ek hajar naam
Ek Kanth Vishpayi
Ekadashi Geet
Ekadashi Story Hindi
Ekadashi Vrat Katha
ekadsahi vrat katha
Faag Geet
faag languriya bhadawari
Faagu Geet
Fahmida Riaz Nazm
Fairy Tales India
famous poetry akbar allahabadi
Firak Gorakhpuri
Firaq Gorakhpuri Ghazal
Firaq Gorakhpuri Ke Kisse
folk lore
Folk Song Lyrics
folk song lyrics rajasthani
Folk Stories
Folk Tales
Fulwari Darshan Geet
funny poetry
Gadadar Bhatt ke Pad
Gadhwali Geet
gadhwali kavya
Gaiye Ganpati Jag Vandan lyrics
Ganpati Bappa Ki Jai Bolo
Ganpati Ganesh
garhwali kavya rachnaen
Garibdas
Gaurik Geet
Gavri Bai
Gawribai
Gazal
Geet
Geet Lyrics
geeta rabari top ten
Ghajal
Ghazal
Ghazal aur SHayari
Ghazal of amir minayi
ghazal of poet akbar allahabadi
ghazal writer
Ghazals
Ghazals of Akbar Hyderabadi
Ghazals of Akhilesh Tiwari
Ghazals of Azhar Inayati
Ghazals of Bashar Nawaz
Ghazals of Fahmida Riaz
Ghazals of Hasrat Mohani
Ghazals of Mohammad Rafi Sauda
Ghazals of Shaad Azimabadi
Ghazals of Shahryar Ghazal
Ghazals of Shakeel Azmi
Ghazals of Shakeel Badayuni Ghazal शकील बदायूनी की ग़ज़लें
Ghazals of Waseem Barelvi
Ghazl
Ghzal
Giridharan
gitawali
God Kavita Poem Poetry
Gond Lokgeet
Gopal Bhand
Gopal Das Neeraj
Gopal Sharan Singh
Gopal Singh Nepali
Gopi Geet Hindi
goswami tulsidas ji
Govind Swami ke Pad
Gramya
Gujarati Lokgeet
Gujrati Lokgeet
Gulzar
Gulzar Ghazal
Gulzar Ghazals
Gulzar introduction
gulzar ki kahaniyan
Gulzar Sangrah
Gunjan
Guru Aagya Mein Nish Din Rahiye
Guru Amardas
Guru Angad Dev
Guru Angad Dev Ji Salok
Guru Nanak
guru nanak dev
Guru Nanak Dev Ji
Guru Nanak Ke Sabad
Guru Tegh Bahadur
Gwalari Geet
Gyanendrapati Kavita
Habib Jalib
Habib Jalib Nazm
ham honge kaamyab
hamko man ki shakti
Hanuman Bahuk
har desh mein tu
Har Saans Mein Har Bol Mein lyrics
Hari Bhajan Bina Sukh Shanti Nahi
Hari Tum Haro Jan Ki Bheer
Haridas Ke Pad
Harihar Prasad
hariodh
Hariom Panwar
Hariram Vyas ke Pad
Harishankar Parsai Ke Vyangya
Harivyas Dev
Hariyanvi Lokgeet
hariyanvi village songs
haryanvi folk song
Hasya Vyang Sangrah
Hasya Vyangya Urdu ke
He Govind Rakho Sharan lyrics
he prabho aanand
He Re Kanhiya lyrics
He Rom Rom Mein Basne Wale Ram lyrics
He Rom Rom Mein lyrics
he shaarde ma
Hemchandra
Himachal Ke Lokgeet
hindi chalisa lyrics
hindi dohe
hindi font ghazal
hindi kahani
hindi kahani for kids
hindi kahani premchand
hindi kahaniya
hindi kavita
hindi kids children story
Hindi Lyrics
Hindi Nibandh
hindi poetry freedom
hindi poetry of nirmala putul
hindi prathna
Hindi quote
hindi satire
hindi stories
hindi story
hindi story by gulzar
Hindi story for kids
hindi vyangya
Hit Harivansh ke Pad
Humein Nand Nandan Mol Liyo
i Kavita
Important Days
incorrect words in hindi
Indeevar
Indraprasth Katha
Insha Allah Khan Insha Ghazals in Hindi
introduction
Isuri
itni shakti hamein
Jaamun ka Ped Story
Jaan Kavi
Jaant Geet
Jab Se Lagan Lagi Prabhu Teri
Jai Jai Giribar Raj Kisori
Jai Ram Ramaramanam Shamanam lyrics
Jai Shankar Prasad Hindi Stories
Jai Shankar Prasad Hindi Story
Jaishankar Prasad
Jalte Hue Van Ka Vasant
Jamal kavi
Jan Nisar Akhtar
Janaki Mangal
Janm Sanskarak Geet
japur ji sahib
Jasuram
Jaswant Singh
Jat Jatin Geet
Jaun Elia
Jaun Eliya
Jeevan Singh
Jhamdas
Jharna
Jharni Geet
Jhummari Geet
Jigar Moradabadi
Jigar Moradabadi Ghazal
Jigar Moradabadi Ke Kisse
jogira geet
John Eliyaa
Joindu
Joodiram
Josh Malihabadi
Josh Malihabadi ke Kisse
Judiram Bhajan
Kaafi Of Bulleh Shah
Kabeer
kabeer bhajan
kabir bhajan
Kabir Bhajan Sangrah Lyrics
Kabir ke Bhajan
Kabir Ke Dohe
kafiya
Kahani
kahaniyan
Kaifi Azmi
Kailash Gautam
kajli lokgeet
Kajli lokgeet khari boli
Kajri Geet
Kaka Hathrasi
Kala Aur Boodha Chand
Kamayani
Kanan-Kusum
Kanauji Lokgeet
Kanhiya Kanhiya Tujhe Aana Padega
Karikanha Biyah Geet
Karuna Bhari Pukar Sun
kashmiri lok katha
Kaushalya Rani Apne Lala Ko Dulrave
Kavi Daulat
Kavi Pradeep Lyrics
kaviraja bankidas
Kavit
Kavita
Kavita Sangrah
kavita sangrah
आवाज़ों के घेरे दुष्यन्त
kavitaa
Kavitt
kaviyon ke dohe
Kavya Natak
Kedarnath Agrawa
Kedarnath Singh
Keshavdas ke Savaiya
khadi boli wedding geet
Khadi Ke Phool
Khari Boli Lok Geet
Khelauna Geet
Khuman Bandijan
Khumar Barabankvi Ghazal
Kishan Saroj
kiski kahani
Kisse
Kobar Geet
Korku Geet
Korku Lokgeet
Kripanivas
Kriparam
Kriparam Khidiya sauratha
Krishn Bihari Noor
Krishna Bhajan Lyrics
Krishna Chander
krishna gitawali
Krishnadas ke Pad
kshatriya naai aur bhikhari ki kahani
Kuch bhi ban bas kayar mat ban
Kuchh Aur Nazmein
Kumauni Lokgeet
Kunkada Geet
Kunwar Mahendra Singh Bedi ke Kisse
Kunwar Narayan
Kusma Haran Geet
Kusumagraj
Kutban ke Kadvak
l Kavita
Laakh ka Ghar Katha
Laal Kavi ki Rachnaen
Laalju Priyaju Naamavali
Lachika Rani
Lagni Geet
Lalil Kishori Bhajan
Lalitkishori
Lalitmohini Dev
Lalnath
latife
Latife बशीर बद्र के क़िस्से
Latiife
Laxmi Prasad Devkota
Lehar
Lekhnath Paudyal
Llatiife
Lok katha
Lok-Katha Chhattisgarh
Lok-Katha Manipuri
Lok-Katha Uttarakhand
Lokgeet
Lokgeet Lyrics
Lokpriya krishna bhajan lyrics
Lyrics
Lyrics from movie
lyrics of kids song
lyrics of krishna bhajan popular
Ma Tara Ashirvad
maa shaarde
Madanashtak Rahim
Madhujwal
Madhurashtakam lyrics
magahi geet
magahi lokgeet
maghi geet
Mahadevi Verma
Mahakavi poet kalidas
mahakavya
Mahalakshmiashtakam
Mahapatra Narhari Bandijan
Mahuak Geet
Maithili Lokgeeet
Maithili lokgeet
Majaj Lakhnavi Ghazal
Makhan Chor
Makhanlal Chaturved
Malaar Geet
Malik Muhammad Jayasi
Malukdas
Malukdas Pad
malvi ganesh geet
malvi lokgeet
Malvi Lokgeet lyrics in Hindi
Man Tadpat Hari Darshan Ko Aaj lyrics
manavta ke mandir
MangalGaan
Manikdeh Salhes Darshan Geet
Manjhan ke Kadvak
mansarovar story collection
Manu Hariya
Marathi Lokgeet
Matiram
Mayawi Sarovar Katha
meer taqi meer ghazal
meer taqi meer ghazals
Meerabai Ke Bhajan Lyrics
Meghdoot Mahakavi Kalidasa
Meri Tan Heriye
milti hai zindagi mein mohabbat
mir taqi mir ghazal
Mira Bai Ke Pad
Mira ke Bhajan
MiraBai pad explanation
Mirza Ghalib
MIRZA GHALIB Ghazal
Mirza Ghalib Latiife
Misc Poetry
Misc. Poetry Gulzar
Mishrit Geet
Mitadas
Mohan
Momin Khan Momin
moral story for kid
Motiram Biyah Geet
Motivational Story
mrigavati
Mubarak ke Dohe
Muktak
Mukund Madhav Govind
Mulla Nasruddin
Muna Madan
Mundan Geet
Munj
munshi premchand
Munshi Premchand kahani
Munshi Premchand ke Upanyas
munshi premchand ki kahani
munshi premchand ki kahanni
Munshi Premchand Quote
Muztar Khairabadi Ghazal
na tha kuchh to KHuda tha
Nabhadas
Nachyo Bahut Gopal
Nagar-Shobha Rahim
Nagaridas
Nakta Geet
nanakdev ji
Nand Kishore lyrics
Nanddas ji ka Pad
Nanddas Ji ki Rachna
Nandoi Geet
Naqsh Layalpuri
narendra sharma
Narottamdas Ji Granth
Nasir Kazmi Ghazal
Nasir Kazmi Ghazal Ghazals नासिर काज़मी ग़ज़लें
navgeet
Nawaz Deobandi
Nawaz Deobandi Ghazal
Naye Subhashit
Nazeer Banarasi
Nazm
Nazmein
Nazms
Nazms Of Fahmida Riaz
Nepali Kavi
Nida Fazli
nimadi geet
Nimari geet
Nipat Niranjan
Nirgun Geet
Nirmala Putul Kavita निर्मला पुतुल की कविताएँ
Nirmala Putul poem
Noon Meem Rashid Ghazal
Novel
Obaidullah Aleem Ghazal
old Wedding Song
Paat Bhari Sahari
Pabani Geet
Pad
pad Vyakhya
Padawali Raidas
Padmakar
Padmavat
Padmavati
Pallav
Panchtantra Hindi Kahani
Pandav Dhritrashtra Katha
Panwari Lokgeet
Parba Pokhri Yagya Geet
Parichay
Parichhan Geet
Parmanand das
Parmanand das ke Pad
Parsat Pad Pavan
Parvati mangal
Parveen Shakir Ghazal
Parwati Mangal
Paryayvachi Shabd
patriotic poe
patriotic poem
patriotism hindi poem
Pavas Geet
Pawan Karan Kavita
Pawan Karan pem
Pawari Lok geet
Pawari Lokgeet
Phanishwar Nath Renu
Phooli Bai
Pirzada Qasim Ghazal Ghazals
poem
Poem for Kids
Poems
poet
poetry
poetry Pawan Karan
popular ghazals
Popular Poems of Manglesh Dabral
Prabal Prem Ke Paale
Prabhu Ko Bisar lyrics
Prabhu Tero Naam
prasidh bhajan
prayer in hindi
Premchand Stories
Premlata
Prithviraj Raso
Puchhta kyon shesh kitni raat
Puhkar bhaktikaal kavi
Puhkar ke Dohe
Pukhraj
Punjabi folk song
Punjabi Lokgeet
Qateel Shifai
Qita
Quote
quote in hindi
Quote of Acharya Ramchandra Shukla
Quote of Antonio Gramsci
Quote of Bhuvaneshvar
Quote of Chanakya
Quote of Dharmveer Bharti
Quote of Dhumil धूमिल के कोट्स उद्धरण
Quote of Doodhnath Singh
Quote of Elfriede Jelinek
Quote of Gabriel Garcia Marquez
Quote of Gajanan Madhav Muktibodh
Quote of Ganganath Jha
Quote of George Orwell
Quote of Gorakh Pandey
Quote of Gyanranjan
Quote of Harishankar Parsai
Quote of Hindi Poet Agyeya
Quote of Jaishankar Prasad
Quote of Jean Cocteau
Quote of Kedarnath Singh
Quote of Krishn Baldev Vaid
Quote of Kunwar Narayan
Quote of Mahatma Gandhi
Quote of Malyaj
Quote of Manglesh Dabral
Quote of Manohar Shyam Joshi
Quote of Mark Twain
Quote of Mohan Rakesh
Quote of Mridula Garg
Quote of Namvar Singh
Quote of Naveen Sagar
Quote of Nirmal Verma
Quote of Peter Handke
Quote of Phanishwarnath Renu
Quote of Premchand
Quote of Rabindranath Tagore
Quote of Raghuvir Sahay
Quote of Rajkamal Choudhary
Quote of Ranier Maria Rilke
Quote of Trilochan
Quote of Yun Fusse
quotes
Raag Halur Geet
Raas Geet
Raat Pashmine Ki
Radha Krishna Bhajan
Radha Raas Bihari
Raghubar Tumko Meri Laaj
Raghurajsingh
Rahim ki Rachnaen
Raidas
Raja Mehdi Ali Khan Lyrics
Rajasthani Geet
Rajasthani Lokgeet Lyrics
Rajasthani lyrics
Rajasthani song lyrics in hindi
Rajesh Joshi
Rajinder Manchanda Bani
Ram Bin Tan Ko
Ram Birajo Hriday Bhavan Mein
Ram Bolo Ram
Ram Do Nij Charno Mein Sthaan
Ram Kare So Hoy Re Manwa
ram ki shakti pooja suryakant tripathi nirala
Ram Prasad Bismil
Ram Ram Kahe Na Bole
Ram Sahay Das
Ram Sumir Ram Sumir lyrics
Ramagya Prashna
Ramanath Awasthi Geet
Ramashankar Yadav VIdrohi
Ramavtar Tyagi Kavita
Ramcharandas
Ramcharitmanas
Ramcharitmanas Tulsidas
Ramdarsh Mishra
Ramdarsh Mishra Kavita
Ramdev Ji ke Geet
Ramdhari Singh Dinkar
Ramdhari Singh Kavyateerth
Ramhi Ram Bas Ramhi
Ramkumar Verma
Ramrasrangmani
Rasik Ali
Raskhan Biography
Raskhan ke Dohe
Raskhan ke Savaiya
Raskhan Poems
Rasleen
Rasnidhi
Raso Kavya
Ratnawali
ravi par kahani
Ravidas ji ke Shabad
Ravindra Jain
Ravindra Jain Hindi Geet
Ray Deviprasad Poorn
Ritu aa Parvak Geet
Rom Rom Mein Rama Hua Hai lyrics
RONA SER MA
Roopsaras
Ropani Geet
Roti Geet
Rukmani Sammari Geet
Saanjh Geet
Sabad
Sagar Siddiqui
sahastra naam
sahastra namawali
Sahir Ludhianvi Ghazal
sahir ludhiyanvi
Sahjobai
Sain Bhagat
Sakhin Madhya Siya Sohati
Salhes Geet
salok
salok nanakdevji ke
Sama Chakeba Geet
Samdaun Geet
Sammari Geet
Sankata Mochana Hanumanashtaka
Sanskrit lok geet
Sanskrit Shlok
Sant Babalal
Sant Kavi Vrind
sant keshavdas
Sant Laldas ke Shabd aur Dohe
Sant Parshuram
Sant Peepa
Sant Pipa
Sant Ravidas
Sant Ravidas ke Pad
Sant Saligram
Sant Shivdayal Singh
Sant Shivnarayan
sant surdas bhajan
Sant Tukaram
Sant Tukaram ke Pad
Santhali Lokgeet
santo ke dohe
Saqi Faruqi
saravati prathna
Sarv Shaktimate Paramatmane
satire
Satyanarayan Kaviratn
Savaiya
Savaiyya
Saveya
Sawan Geet
Sawan lokgeet khari boli
school prayers
Senapati ke Kavitt
Shaad Azimabadi Ghazal
Shaan
Shabad
Shabad Of Bulleh Shah
Shabd
Shabd Raidas Ji
Shad Azimabadi Ghazal
Shaharyar Ghazal
Shahryar Ghazal
Shail Chaturvedi
Shail Chaturvedi Kavita
Shailendra
Shakuni Pravesh Katha
shalok
Shambhunath Singh
Sharan Mein Aaye Hain lyrics
Shariq Kaifi
Shaukat Thanvi
Shaukat Thanvi ke Kisse
Shayari
shayari of ameer minai
Sheikh Chilli
Sher
Sher Shayari on Various Topics
Shiv Ashtakam lyrics
Shiv Bhajan Lyrics
Shiv Sampati
Shivji Ka Byah lyrics
shlok
Shree Nandkumarashtakam lyrics
Shri Dinabandhvashtakam lyrics
Shri Ganesh Vandana
Shri Gaurishashtakam lyrics
Shri Govindashtakam lyrics
Shri Hanuman Chalisa
Shri Hari Sharanashtakam
Shri Hathi ki Rachnaen
Shri Hit Chaurasi
Shri Hit dhruvdas ji
Shri Kalikashtakam
Shri Kamalapatyashtakam
Shri Krishna Bal-Madhuri
Shri Krishna Gitavali
Shri Krishna Krupa Kataksh
Shri Krishna Saral
Shri Lingashtakam lyrics
Shri Narayanashtakam lyrics
Shri Radha Chalisa
Shri Radha krupakataksh
Shri Rama Ashtakam lyrics
Shri Ramachandra Ashtakam lyrics
Shri Ramaprema Ashtakam
Shri Rudrashtakam lyrics
Shri satleela
Shri Shiva Ramashtakastotram lyrics
Shri Surya Mandala Ashtakam
Shri Vishvanath Ashtakam lyrics
Shribhatt ke Pad
Shridhar Pathak
Shrikant Verma
Shringar-Soratha Rahim
Shubh Din Pratham Ganesh Manao
Shyam Teri Bansi Pukare Radha Naam lyrics
Shyambihari Shrivastava
Sinhasan Battisi
Sohar Geet
Somprabh Suri
Songs Lyrics radha krishna
stories in hindi
Story
story in hindi
Story panchtantra hindi
Stotra/Shloka
Subhadra Kumari Chauhan
Subramanyam Bharti Kavita
Sudama Charit
sudama chrit kavita
Sudama Panday Dhumil
Sudarshan Fakir Ghazals
Sudhakar Dwivedi
Sujan Raskhan Rachna
Sukh-Varan Prabhu
sukt sangrah
suktam
Sumiran Salhes Geet
Sumitranandan Pant
Sundardas
Sundardas ke Savaiyya
Sur Ki Gati Main lyrics
Sur Sukhsagar
Surdas
surdas bhajan
surdas bhajan lyrics
Surya Ka Swagat
Suryakant Tripathi Nirala
Suryamal Mishran
Swarna Kiran
Swarndhuli
taqseem kahani
Tenali ram ki kahaniyan
Tenali rama
Tenali Raman
Tirhut Geet
Tora Man Darpan Kahlaye lyrics
Triveni
Tu Pyar Ka Sagar Hai lyrics
tukhari barah maah
Tulsidas
tulsidas ji
tulsidas ji ramcharitmanas
Tum Meri Rakho Laaj Hari
Tum Utho Siya Singar Karo
tumhi ho mata pita
Tyagi ki kavita
Udasi Geet
Udayraj Jati
Uncategorized
unchi edi wali mam
Upanyas
Upnayan Geet
Urdu Shabdawali
Uttra
Vairagya Sandipani
Vaivahik Lokgeet Rajasthani
Var ke khayaba kaal Geet
Vasant Geet
Vidayi Geet
Vidhyapati ki rachnaen
Vidur Niti Hindi
Vidyapati ke dohe
Vidyapati ke geet
Vikram
Vikramorvasiyam Play Kalidasa
Vikrat ka Bhram Katha
vinay pachasa baanke bihari ji
Vinod Kumar Shukl Kavita
Vishnu Vaman Shirwadkar
Vivah Geet
vivah lokgeet khari boli
Vividh Geet
Viyogi Hari
Vrat Kathaen
vyangya
vyangya kavita
Wali Dakni Ghazal
Wali Dakni Ki Ghazal aur SHayari
ya kundendutusharhardhavala
Yaar Julahe
Yaari Sahab
Yagana Changezi
Yash Malviya Kavita
Yash Malviya poem
Yash Malviya poetry
Yashomati Maiya Se Bole Nandlala lyrics
Yog Geet
Yudhishtar Vedna Katha
Yugaant
Yuglaananysharan
Yugpath
Yugvani
Zafar Iqbal Ghazal
अ से ज्ञ तक विलोम शब्द हिंदी संग्रह
अकबर इलाहाबादी
अकबर इलाहाबादी के क़िस्से
अकबर इलाहाबादी ग़ज़ल
अकबर हैदराबादी
अकबर हैदराबादी की ग़ज़लें
अकबर-बीरबल
अंकिता जैन
अक्षय उपाध्याय की कविताएँ
अखरावट
अंखियाँ हरि दरसन की प्यासी
अखिलेश तिवारी
अख़्तर शीरानी ग़ज़ल
अख़्तर शीरानी नज्म
अख़्तर-उल-ईमान नज़्म
अगमसिँह गिरी
अंगिका ऋतु गीत
अंगिका कोशी गीत
अंगिका फेकड़ा गीत
अंगिका बुझौवल गीत
अंगिका भक्ति गीत
अंगिका मनौन गीत
अंगिका लोकगाथा
अंगिका लोकगीत
अंगिका लोरियाँ
अंगिका सोहर गीत
अच्युताष्टकम्
अंजना भट्ट
अज़हर इनायती की ग़ज़लें
अज़ीज़ आज़ाद
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
अज़ीज़ लखन
अज़ीज़ लखनवी ग़ज़लें
अज़ीज़ लखनवी शेर
अज़ीज़ वारसी
अज्ञातवास
अज्ञेय
अज्ञेय के उद्धरण
अटल बिहारी वाजपेयी
अतिमा
अंतोनियो ग्राम्शी के कोट्स
अथ श्री कृष्णाष्टकम्
अथ श्री गणेशाष्टकम्
अथ श्री शिवाष्टकम्
अदम गोंडवी
अदा ज़ाफ़री
अदीम हाशमी गजल
अदीम हाशमी ग़ज़लें
अंधेर नगरी चौपट्ट राजा
अनमोल वचन
अना क़ासमी की गजलें
अनामिका
अनूप जलोटा
अब कृपा करो श्री राम नाथ दुख टारो
अंबिकादत्त व्यास
अमीर खुसरो के दोहे- गीत -कविता -पहेलियाँ
अमीर मीनाई ग़ज़ल
अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध कविताएँ
अरुण कमल की कविताएँ
अर्जुनदास केडिया
अर्थ सहित Rahim ke Dohe
अलबेलीअलि के पद
अली सरदार जाफ़री ग़ज़ल
अल्लामा इक़बाल ग़ज़ल
अवधी गीत
अवधी जाँत गीत
अवधी देवी गीत
अवधी नकटा गीत
अवधी निर्गुण गीत
अवधी फाग गीत
अवधी बारामासी गीत
अवधी बाल-गीत
अवधी बिरहा गीत
अवधी रोटी गीत
अवधी रोपनी गीत
अवधी लोकगीत
अवधी विदाई गीत
अवधी विवाह गीत
अवधी सावन गीत
अवधी सोहर गीत
अशोक अंजुम ग़ज़लें
अशोक चक्रधर
अष्टक
अष्टकम
असरार-उल-हक़ मजाज़
असरार-उल-हक़ मजाज़ ग़ज़ल
अंसार कंबरी की हिंदी ग़ज़लें
अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल
अहमद फ़राज़ ग़ज़ल
अहमद मुश्ताक ग़ज़ल
आओ आओ यशोदा के लाल
आओ रामा भोग लगाओ श्यामा
आखरी कलाम
आचार्य रामचंद्र शुक्ल
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के कोट्स
आदिल मंसूरी ग़ज़ल
आनंद बख्शी
आराध्य श्रीराम
आलम शेख की कविता
आल्हा ऊदल गीत भोजपुरी
आवाज़ों के घेरे
इंद्रप्रस्थ
इंशा अल्ला खाँ 'इंशा' की ग़ज़लें
ईश्वर पर कविताएँ
ईसुरी की फाग
उत्तरा
उदयराज जती
उद्धरण
उबटन मगही
उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल
उर्दू शब्दावली
उर्दू-हिन्दी शब्दकोश
एक कंठ विषपायी
एक क्षत्रिय
एकादशी व्रत कथा
एल्फ्रीडे येलिनेक के कोट्स
ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर
ऐतबार साजिद ग़ज़ल
ऐसी भोले की रे चढ़ी है बरात
कजरी झूला उत्सव गीत
क़तील शिफ़ाई
कन्नौजी लोकगीत
कन्हैया कन्हैया तुझे आना पड़ेगा
कबीर के दोहे
कबीर के भजन
कबीर भजन
करुणा भरी पुकार सुन
कला और बूढ़ा चाँद
कवि आलोक धन्वा कविता
कवि चन्द्रकान्त देवताले कविता
कवि जमाल
कवि भूषण
कविता
कविता नेपाली
कविताएँ
कविताएं
कवित्त
कहानियाँ
कहानियां
कहानी
काका हाथरसी
कातक न्हाण के गीत
काफिया
काव्य
काव्य-नाटक
क़िता
किशन सरोज
कुंकड़ा (प्रभाती) गीत
कुछ और नज्में
कुछ भी बन बस कायर मत बन
कुंडलियाँ
कुतुबन के कड़वक
कुंदनलाल
कुमाँऊनी लोकगीत
कुंवर नारायण
कुँवर नारायण के कोट्स
कुँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर के क़िस्से
कुंवा पूजन गीत
कुसुमाग्रज
कुसुमाग्रज मराठी कविताएँ
कृपानिवास
कृपाराम
कृपाराम बारहठ खिड़िया का सोरठा
कृष्ण चंदर
कृष्ण बलदेव वैद के कोट्स
कृष्ण बिहारी नूर
कृष्ण भक्ति कवि
कृष्ण भजन लिरिक्स
कृष्ण लौकिक गीत गढ़वाली
कृष्णदास के पद
केदारनाथ अग्रवाल
केदारनाथ सिंह
केदारनाथ सिंह के कोट्स
केशवदास के सवैया
कैफ़ी आज़मी
कैलाश गौतम
कोट्स
कोरकू खांचा ऊमून गीत
कोरकू मिमलाव गीत
कोरकू लोकगीत
कोरकू विवाह गीत
कोरकू विविध गीत
कोरकू सिडोली गीत
कौशल्या रानी अपने लला को दुलरावे
खादी के फूल
खुमान बंदीजन
ख़ुमार बाराबंकवी
ख़ुमार बाराबंकवी की ग़ज़लें
खेती-बाड़ी के गीत
गंगा स्नान गीत भोजपुरी
गंगानाथ झा के कोट्स
गजल
ग़ज़ल
ग़ज़ल ghazal
ग़ज़ल Ghazal
गजलें
ग़ज़ले
ग़ज़लें
गजानन माधव मुक्तिबोध के कोट्स
गढ़वाली काव्य रचनाएँ
गढ़वाली प्रमुख काव्य रचनाएँ
गढ़वाली लोकगीत
गणपति गणेश
गणपति बप्पा की जय बोलो
गदाधर भट्ट के पद
गरीबदास
गवरी बाई
गाइए गणपति जग वंदन
गारी गीत
गिरिधारन
गीत
गीत गढ़वाली
गीतकार- इंदीवर
गुंजन
गुजराती लोकगीत
गुरु अमरदास
गुरु आज्ञा में निश दिन रहिये
गुरु तेग़ बहादुर
गुरु नानक
गुरु नानक के सबद
गुरु नानक देव जी की रचनाएँ
गुरू अंगद देव जी
गुलज़ार
गुलज़ार ग़ज़ल
गुलज़ार परिचय
गेब्रियल गार्सिया मार्ख़ेस के कोट्स
गोंड गीत
गोंड लोकगीत
गोपाल भाँड़
गोपाल सिंह नेपाली
गोपालदास नीरज
गोपालशरण सिंह
गोपी गीत
गोरख पांडेय के कोट्स
गोविंद स्वामी के पद
गोस्वामी तुलसीदास
ग्यारस (एकादशी) गीत
ग्राम्या
चक्की के गीत
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी Bheem aur Hanuman Ji Katha
चतुर्भुजदास
चतुर्भुजदास के पद
चंद्रकांता उपन्यास
चाचा हितवृंदावनदास
चाणक्य के कोट्स
चालीसा
चालीसा लिरिक्स
चालीसा संग्रह
चालीसा हिंदी
चालो रे सखियाँ
चीगट गीत
चौथ चन्दा गीत भोजपुरी
चौंफला गीत गढ़वाली
चौमासा बारामासा गीत गढ़वाली
छत्तीसगढ़ी गीत
छप्पय
छीहल की रचना
छैंया-छैंया
छोटेलाल दास भजन
जन्म के गीत
जन्म गीत
ज़फ़र इक़बाल की ग़ज़लें
जब से लगन लगी प्रभु तेरी
जय जय गिरिबरराज किसोरी
जय राम रमारमनं शमनं
जय शंकर प्रसाद हिंदी कहानियां
जयशंकर प्रसाद
जयशंकर प्रसाद के कोट्स
जयशंकर प्रसाद हिंदी कहानी
जलते हुए वन का वसन्त
जसवंत सिंह
जसुराम
जाँ निसार अख्तर
जागो बंसीवारे ललना
जान कवि
जानकी -मंगल
जामुन का पेड़
जिगर मुरादाबादी
जिगर मुरादाबादी के क़िस्से
जिगर मुरादाबादी ग़ज़लें
जीवन परिचय
जीवन सिंह
जैन कवि
जॉर्ज आरवेल के कोट्स
जोइंदु
जोश मलीहाबादी
जोश मलीहाबादी के क़िस्से
ज्ञानरंजन के कोट्स
ज्ञानेन्द्रपति
ज़्यां कॉक्त्यू के कोट्स
झामदास
डग्गा तिनताला गीत
तुम उठो सिया सिंगार करो
तुम मेरी राखो लाज हरि
तुलसीदास
तुलसीदास जी
तू प्यार का सागर है
तेनाली रमन
तेनाली रामा
तेनालीराम
तोरा मन दर्पण कहलाये
त्रिलोचन के कोट्स
त्रिवेणी
दयाबाई के
दयाराम
दरिया (बिहार वाले)
दाग़ देहलवी
दाग़ देहलवी के क़िस्से
दाता राम दिये ही जाता
दादरा गीत
दादू के भजन
दादू दयाल
दादू दयाल भजन
दामाद के गीत
दीनदयाल गिरि
दीनबन्धु दीनानाथ
दुखियों के दुख दूर करे
दुलारेलाल भार्गव
दुष्यंत कुमार
दुष्यन्त कुमार
दूधनाथ सिंह के कोट्स
दूलह राम सीय दुलही री
देवकीनन्दन खत्री उपन्यास
देवठणी के गीत
देवसेन
देवादास
देवी के गीत
देवी जगदम्बा गीत
देवी माँ के गीत
देवी-देवता गीत
देवीशंकर अवस्थी के कोट्स
देवेंद्र कुमार बंगाली
देशभक्ति कविता
देशभक्ति गीत भोजपुरी
देसी गीत
दोहा
दोहावली
दोहे
दौलत कवि
द्रौपदी स्वयंवर
धन्ना भगत
धरनीदास जी के भजन
धर्मवीर भारती कविता
धर्मवीर भारती के कोट्स
ध्रुवदास के दोहे
ध्रुवदास के पद
ध्रुवदास के सवैया
न था कुछ तो ख़ुदा था
नक़्श लायलपुरी
नज़ीर बनारसी
नज़्म
नज़्में
नणदोई के गीत
नंददास जी की रचनाएं
नंददास पद
नये सुभाषित
नरेन्द्र शर्मा
नरोत्तमदास
नरोत्तमदास कविता
नवमी गीत भोजपुरी
नवाज़ देवबंदी ग़ज़ल
नवीन सागर के कोट्स
नाई और भिखारी की कहानी
नागरीदास
नाच्यो बहुत गोपाल
नाभादास के छप्पय
नाभादास के पद
नामवर सिंह के कोट्स
नामावली
नामावली भगवान की
नारायण
नासिर काज़मी ग़ज़ल
निदा फाज़ली
निपट निरंजन
निमाड़ी गीत
निमाड़ी लोकगीत
निर्गुण गीत भोजपुरी
निर्मल वर्मा के कोट्स
नून मीम राशिद ग़ज़लें
नेपाली कविता
पंच सहेली गीत
पंचतंत्र की कहानी
पंजाबी लोकगीत
पतित पावन सुने. Hari Patit Pavan Sune
पद
पद अर्थ
पदावली संत रैदास
पद्माकर-रीतिकाल कवि
पद्मावत
पनघट के गीत
परछन गीत
परमानंद दास के पद
परवीन शाकिर की ग़ज़लें
परसत पद पावन
पराती गीत भोजपुरी
परिचय
पर्यायवाची शब्द
पर्व गीत
पल्लव
पवन करण की कविताएँ
पँवारी लोक गीत
पवारी लोकगीत
पँवारी लोकगीत
पांडवों का धृतराष्ट्र के प्रति व्यवहार
पाण्डव लौकिक गाथाएँ गढ़वाली
पात भरी सहरी
पार्वती-मंगल
पिंडदान गीत भोजपुरी
पितर नेवतौनी गीत भोजपुरी
पितु मातु सहायक स्वामी . Pitu Matu Sahayak Swami lyrics
पीटर हैंडके के कोट्स
पीरज़ादा क़ासीम ग़ज़ल
पुखराज
पुहकर कवि के कवित्त
पूछता क्यों शेष कितनी रात
पौराणिक कथाएं
प्रदीप
प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर
प्रभु को बिसार
प्रभु तेरो नाम
प्रार्थना
प्रार्थना संग्रह
प्रेमगीत
प्रेमचंद की कहानियाँ
प्रेमचंद के कोट्स
प्रेमलता
प्रेरक प्रसंग
फगुआ गीत भोजपुरी
फणीश्वर नाथ रेणु
फणीश्वरनाथ रेणु के कोट्स
फ़हमीदा रियाज़ की ग़ज़लें
फ़हमीदा रियाज़ की नज़्में
फ़हमीदा रियाज़ नज़्म
फागण के गीत
फ़िराक़ गोरखपुरी
फ़िराक़ गोरखपुरी के क़िस्से
फ़िराक़ गोरखपुरी ग़ज़ल
फिल्मी गीत
फूलीबाई
बखना
बघेली गीत
बघेली लोकगीत
बच्चों की कहानियाँ
बड़ा नटखट है रे
बधावा गीत
बनारसी दास के पद
बरवै रामायण हिंदी
बरूआ गीत
बशर नवाज़ की ग़ज़लें
बशर नवाज़ ग़ज़ल
बशीर बद्र
बहादुर शाह ज़फ़र ग़ज़लें
बांग्ला गीत
बाबाफाग दहका गीत
बारहमासा गीत भोजपुरी
बाल अली
बाल कविताएँ
बाल महाभारत
बाल-कविता
बियाह सँ द्विरागमन धरिक
गीत
बिहारी
बीत गये दिन
बुधजन
बुन्देली गारी गीत
बुन्देली दादरे गीत
बुन्देली बन्ना गीत
बुन्देली वर्षा गीत
बुन्देली सोहर गीत
बुल्ला साहब
बुल्ले शाह की काफियां
बुल्ले शाह के दोहे
बुल्ले शाह के शबद
बृज नारायण चकबस्त की ग़ज़लें
बेकल उत्साही की ग़ज़लें
बेटा -बेटी विवाह मगही
बेताल पच्चीसी
बैगा गीत
बैगा लोकगीत
बैरीसाल
भक्त रूपकला
भक्त सूरदास जी रचना
भक्तिकालीन रचनाकार
भगवत रसिक
भगवतीचरण वर्मा
भगवान मेरी नैया
भज मन मेरे राम नाम तू
भजन
भजन गीत
भजन लिरिक्स
भजन-संग्रह
भदावरी
भदावरी लोक गीत
भानुभक्त आचार्य
भारत भूषण अग्रवाल
भारतदुर्दशा
भारतेंदु हरिश्चंद्र
भारतेंदु हरिश्चंद्र की कविताएँ
भारतेंदु हरिश्चंद्र ग़ज़ल
भारतेंदु हरिश्चंद्र नाटक
भीम और हनुमान
भील जनजाति गीत
भील जन्म गीत
भील झूमरली गीत
भील फाग गीत
भील भजन गीत
भील मृत्यु गीत
भील लोकगीत
भील विवाह गीत
भील सावां गीत
भुवनेश्वर के कोट्स
भूपति के दोहे
भूपि शेरचन
भेरू (भैरव) के गीत
भोजपुरी लोकगीत
भोले नाथ के भजन लिरिक्स
मंगलेश डबराल की लोकप्रिय कविताएं
मगही उबटन लोकगीत
मगही गुरहत्थी गीत
मगही जनेऊ गीत
मगही जन्मोत्सव गीत
मगही बन्ना गीत
मगही मुण्डन गीत
मगही मृत्यु गीत
मगही मेहँदी गीत
मगही लोकगीत
मगही विवाह लोकगीत
मगही शिव विवाह राम विवाह गीत
मगही सोहर लोकगीत
मजाज़ लखनवी की ग़ज़लें
मंझन के कड़वक
मतिराम
मधुज्वाल
मधुराष्टकम्
मन तड़पत हरि दरसन को आज
मनवा मेरा कब से प्यासा
मनोहर श्याम जोशी के कोट्स
मन्नू हरिया
मराठी
मराठी कविता
मराठी लोकगीत
मलयज के कोट्स
मलिक मुहम्मद जायसी
मलूकदास
मलूकदास जी के पद
महत्त्वपूर्ण दिवस
महाकवि कालिदास
महाकाव्य
महात्मा गांधी के कोट्स
महात्मा गांधी के गीत
महादेवी वर्मा
महापात्र नरहरि बंदीजन
महालक्ष्म्यष्टकम्
माखन चोर नन्द किशोर
माखनलाल चतुर्वेदी
मांगल गीत गढ़वाली
मायावी सरोवर
मारवाड़ी लोकगीत ब्याह के
मार्क ट्वेन के कोट्स
मालवी गणेश गीत
मालवी लोकगीत
मिर्ज़ा ग़ालिब
मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़लें
मिर्ज़ा ग़ालिब के क़िस्से
मिर्ज़ा ग़ालिब ग़ज़ल
मिश्रित गीत
मीतादास
मीर तकी मीर की ग़ज़लें
मीरा के भजन
मीराबाई के पद
मीराबाई के भजन
मुकुन्द माधव गोविन्द
मुक्तक
मुंज
मुज़्तर ख़ैराबादी की ग़ज़लें
मुंडन संस्कार गीत
मुना मदन
मुबारक के दोहे सवैया कवित्त
मुल्ला नसरुद्दीन
मुंशी प्रेमचंद
मुंशी प्रेमचंद हिन्दी कहानियाँ
मृगावती
मृत्यु गीत
मृदुला गर्ग के कोट्स
मेघदूत खण्डकाव्य कालिदास
मैथिली
गीत
मैथिली आरती गीत
मैथिली उदासी गीत
मैथिली उपनयन गीत
मैथिली ऋतू आ पर्वक गीत
मैथिली कजरी गीत
मैथिली करिकन्हा बिआह
गीत
मैथिली कुसमा हरण
गीत
मैथिली कोबर गीत
मैथिली खेलौना गीत
मैथिली गीत
मैथिली गौरीक गीत
मैथिली ग्वालरि गीत
मैथिली चतुर्थी गीत
मैथिली चुहर चोरि पकरिया
गीत
मैथिली चैतावर गीत
मैथिली चौमासा गीत
मैथिली छौमासा गीत
मैथिली जट-जटिन गीत
मैथिली जन्म-संस्कारक गीत
मैथिली झरनी गीत
मैथिली झुम्मरि गीत
मैथिली डहकन गीत
मैथिली तिरहुत गीत
मैथिली देवता गीत
मैथिली परबा-पोखरि यज्ञ
गीत
मैथिली परिछन गीत
मैथिली पाबनि गीत
मैथिली पावस गीत
मैथिली फागु गीत
मैथिली फुलवाड़ि दरशन
गीत
मैथिली बटगबनी गीत
मैथिली बरिआतीक गीत
मैथिली बारहमासा गीत
मैथिली बिरहा गीत
मैथिली बुधेसर -बियाह
गीत
मैथिली मलार गीत
मैथिली महुअक गीत
मैथिली मानिकदह सलहेस दर्शन
गीत
मैथिली मिश्रित गीत
मैथिली मुंडन गीत
मैथिली मोतीराम-बियाह
गीत
मैथिली योग गीत
मैथिली रास गीत
मैथिली रुक्मिनि सम्मरि गीत
मैथिली लगनी गीत
मैथिली लोकगीत
मैथिली वर कें खयबा काल गीत
मैथिली वसन्त गीत
मैथिली विविध गीत
मैथिली समदाउन गीत
मैथिली सम्मरि गीत
मैथिली सलहेस गीत
मैथिली सांझ गीत
मैथिली सामा-चकेबा गीत
मैथिली सुमिरन एवं सलहेस द्विरागमन
गीत
मैथिली सोहर गीत
मोमिन ख़ाँ मोमिन
मोहन
मोहन राकेश के कोट्स
मोहम्मद रफ़ी सौदा की ग़ज़लें
यगाना चंगेज़ी
यश मालवीय की कविताएँ
यशोमती मैया से बोले नंदलाला
यार जुलाहे
यारी साहब
युगपथ
युगलान्यशरण
युगवाणी
युगांत
युधिष्ठिर की वेदना
यून फ़ुस्से के कोट्स
रक्षा बंधन गीत भोजपुरी
रघुबर तुमको मेरी लाज
रघुराजसिंह
रघुवीर सहाय के कोट्स
रत्नावली
रमानाथ अवस्थी के गीत
रमाशंकर यादव विद्रोही
रविदास जी
रविदास जी पद
रविन्द्र जैन
रवींद्रनाथ टैगोर के कोट्स
रसखान
रसखान की रचनाएँ
रसखान के दोहे
रसखान के सवैया अर्थ
रसखान परिचय
रसनिधि
रसलीन
रसिक अली
रसिक संप्रदाय
रहन-सहन के गीत
रहीम
रहीम की रचनाएँ
रहीम के दोहे
राग हलूर गीत
राजकमल चौधरी के कोट्स
राजस्थानी लोकगीत
राजस्थानी विवाह गीत
राजा मेंहदी अली खान
राजेन्द्र मनचंदा बानी
राजेश जोशी
रात पश्मीने की
राधा कृष्णा भजन
राधा रास बिहारी
राम करे सो होय रे मनवा
राम की शक्ति-पूजा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
राम गीत
राम दो निज चरणों में स्थान
राम प्रसाद बिस्मिल
राम बिनु तन को
राम बिराजो हृदय भवन में
राम बोलो राम
राम राम काहे ना बोले
राम सुमिर राम सुमिर
रामकुमार वर्मा
रामचरणदास
रामचरितमानस
रामचरितमानस तुलसीदास
रामदरश मिश्र
रामदेव जी के गीत
रामधारी सिंह काव्यतीर्थ
रामधारी सिंह दिनकर
रामरसरंगमणि
रामसहाय दास
रामहि राम बस रामहि राम
रामाज्ञा प्रश्न
रामावतार त्यागी की कविताएँ
राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’
रासो काव्य
रीतिकाल
रीतिकाल कवि
रीतिकाल के कवि सुंदरदास सवैया
रूपसरस
रेनर मारिया रिल्के के कोट्स
रैदास जी दोहे
रोम रोम में रमा हुआ है
लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा
लचिका रानी
ललित किशोरी भजन
ललितकिशोरी
ललितमोहिनी देव
लाख का घर
लाल कवि की रचनाएँ
लालनाथ
लिरिक्स
लिरिक्स चालीसा
लेखनाथ पौड्याल
लोक कथा
लोकगीत
लोरियाँ भोजपुरी
लौकिक गाथाएँ गढ़वाली
वली दक्कनी की ग़ज़ल
वसीम बरेलवी की ग़ज़लें
विक्रम
विक्रमोर्वशीयम् (नाटक)
विदाई गीत भोजपुरी
विदुर नीति हिंदी
विद्यापति के गीत
विद्यापति के दोहे
विद्यापति जीवन परिचय
विद्यापति ठाकुर की रचनाएं
विनय पचासा
विनोद कुमार शुक्ल की कविताएं
विभिन्न विषयों पर शेर शायरी
वियोगी हरि
विराट का भ्रम
विलोम शब्द
विवाह गीत
विविध कविता
विविध गीत गढ़वाली
विविध रचनाएँ
विविध हरियाणवी गीत
वीर रस
वृंद
वैराग्यसंदीपनी हिंदी
शकील आज़मी की ग़ज़लें
शकील बदायूनी की ग़ज़ल
शकुनि का प्रवेश
शब्द संत रविदास जी
शंभुनाथ सिंह
शरण में आये हैं
शहरयार की ग़ज़लें
शाद अज़ीमाबादी की ग़ज़लें
शादी-ब्याह के गीत
शान
शायरी
शारिक़ कैफ़ी
शिव सम्पति
शिवजी का ब्याह
शिवजी भजन हिंदी लिरिक्स
शिवाष्टकम्
शुभ दिन प्रथम गणेश मनाओ
शृंगारी कवि
शेखचिल्ली
शेर
शैल चतुर्वेदी
शैल चतुर्वेदी कविता
शैलेन्द्र
शौकत थानवी
शौकत थानवी के क़िस्से
श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम.
श्यामबिहारी श्रीवास्तव
श्री कमलापत्यष्टकम्
श्री कालिकाष्टकम्
श्री कृष्ण कृपा कटाक्ष
श्री गणेश वंदना
श्री गौरीशाष्टकम
श्री दीनबन्ध्वष्टकम्
श्री नारायणाष्टकम्
श्री राधा कृपा कटाक्ष
श्री राधा चालीसा
श्री लिङ्गाष्टकम्
श्री शिवरामाष्टकस्तोत्रम्
श्री हठी
श्री हनुमान चालीसा
श्री हरि शरणाष्टकम्
श्री हित चतुरासी जी
श्री हित चौरासी जी
श्रीकांत वर्मा
श्रीकृष्ण गीतावली
श्रीकृष्ण बाल-माधुरी
श्रीकृष्ण सरल
श्रीगोविन्दाष्टकम्
श्रीधर पाठक
श्रीनन्दकुमाराष्टकम्
श्रीभट्ट के पद
श्रीरामचन्द्राष्टकम्
श्रीरामप्रेमाष्टकम्
श्रीरामाष्टकम्
श्रीरुद्राष्टकम्
श्रीविश्वनाथाष्टकम्
श्रीसूर्यमण्डलाष्टकम्
श्रीहित मंगलगान
संकट मोचन हनुमानाष्टक
सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसे
संत और कवि वृन्द
संत गुरु रविदास
संत जूड़ीराम के भजन
संत तुकाराम
संत परशुरामदेव
संत पीपा
संत बाबालाल
संत रैदास
संत लालदास के सबद
संत शिवदयाल सिंह
संत शिवनारायण
संत सालिगराम
सत्यनारायण कविरत्न
संथाली लोकगीत
सबद
सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता
सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीताBhagavad Gita Chapter
सर्व शक्तिमते परमात्मने
सलहेस वंदी आ चोरमोट पकड़ब
सलहेस हाजत गीत
सवैया
सवैये
संस्कृत लोकगीत
सहजोबाई
सहस्त्र नामावली
साक़ी फ़ारुक़ी
साग़र सिद्दीक़ी
सांझी के गीत
सावन के गीत
साहिर लुधियानवी
साहिर लुधियानवी की ग़ज़लें
सिंहासन बत्तीसी
सीताराम सीताराम सीताराम कहिये Sitaram Kahiye
सुख-वरण प्रभु
सुजान रसखान
सुजान-रसखान
सुंदरदास
सुंदरदास के सवैया
सुदर्शन फ़ाकिर की ग़ज़लें
सुदामा चरित
सुदामा पांडेय धूमिल
सुधाकर द्विवेदी
सुब्रह्मण्य भारती कविता
सुभद्राकुमारी चौहान
सुमित्रानंदन पंत
सुर की गति मैं
सूक्त संग्रह
सूक्तम्
सूर सुखसागर
सूरदास
सूरदास के भजन
सूरदास जी
सूर्य का स्वागत
सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" कविता
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
सूर्यमल्ल मिश्रण
सेनापति के कवित्त
सैन भगत
सैनिक गीत
सोमप्रभ सूरि
सोहर गीत
सोहर गीत भोजपुरी
सोहर मगही
सोहाग गीत
स्तोत्र/श्लोक
स्वर्णकिरण
स्वर्णधूलि
स्वामी हरिदास के पद
हनुमान बाहुक
हबीब जालिब
हबीब जालिब की ग़ज़लें
हबीब जालिब की नज़्म
हमें नन्द नन्दन मोल लियो
हर सांस में हर बोल में
हरि
हरि तुम हरो जन की भीर
हरि भजन बिना सुख शान्ति नहीं
हरिओम पंवार
हरियाणवी लोकगीत
हरिव्यास देव
हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाएँ
हरिशंकर परसाई के कोट्स
हरिहर प्रसाद
हरीराम व्यास के पद
हसरत मोहानी की ग़ज़लें
हास्य कविता
हास्य कविता संग्रह
हिंडौले गीत
हित हरिवंश जी रचना
हितहरिवंश के पद
हिंदी कविता
हिंदी कहानी बच्चों की
हिंदी के अशुद्ध शब्द
हिंदी चालीसा
हिंदी भजन लिरिक्स
हिंदी लोकगीत
हिन्दी कविता
हिन्दी कविताएँ
हिन्दी निबंध
हिमाचली गीत
हिमाचली लोकगीत
हे गोविन्द राखो शरन
हे रे कन्हैया
हे रोम रोम में
हे रोम रोम में बसने वाले राम
हेमचंद्र
No comments:
Post a Comment