Wednesday, August 20, 2025

प्रेमाश्रम (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद Premashram (Novel) : Munshi Premchand

1.
सन्ध्या हो गई है। दिन भर के थके-माँदे बैल खेत से आ गये हैं। घरों से धुएँ के काले बादल उठने लगे। लखनपुर में आज परगने के हाकिम की परताल थी। गाँव के नेतागण दिनभर उनके घोड़े के पीछे-पीछे दौड़ते रहे थे। इस समय वह अलाव के पास बैठे हुए नारियल पी रहे हैं और हाकिमों के चरित्र पर अपना-अपना मत प्रकट कर रहे हैं। लखनपुर बनारस नगर से बाहर मील पर उत्तर की ओर एक बड़ा गाँव है। यहाँ अधिकांश कुर्मी और ठाकुरों की बस्ती है, दो-चार घर अन्य जातियों के भी हैं।
मनोहर ने कहा, भाई हाकिम तो अँगरेज अगर यह न होते तो इस देश के हाकिम हम लोगों को पीसकर पी जाते।
दुखरन भगत ने इस कथन का समर्थन किया – जैसा उनका अकबाल है, वैसा ही नारायण ने स्वभाव भी दिया है। न्याय करना यही जानते हैं, दूध का दूध और पानी का पानी, घूस-रिसवत से कुछ मतलब नहीं। आज छोटे साहब को देखो, मुँह-अंधेरे घोड़े पर सवार हो गए और दिन भर परताल की। तहसीलदार, पेसकार, कानूनगोय एक भी उनके साथ नहीं पहुँचता था।
सुक्खू कुर्मी ने कहा – यह लोग अंगरेजों की क्या बराबरी करेंगे ? बस खाली गाली देना और इजलास पर गरजना जानते हैं। घर से तो निकलते ही नहीं। जो कुछ चपरासी या पटवारी ने कह दिया वही मान गए। दिन भर पड़े-पड़े आलसी हो जाते हैं।
मनोहर – सुनते हैं अँगरेज लोग घी नहीं खाते।
सुक्खू-घी क्यों नहीं खाते ? बिना घी दूध के इतना बूता कहाँ से होगा ? वह मसक्कत करते हैं, इसी से उन्हें घी-दूध पच जाता है। हमारे दशी हाकिम खाते तो बहुत हैं पर खाट पर पड़े रहते हैं। इसी से उनका पेट बढ़ जाता है।
दुखरन भगत – तहसीलदार साहब तो ऐसे मालूम होते हैं जैसे कोल्हू। अभी पहले आए थे तो कैसे दुबले-पतले थे, लेकिन दो ही साल में उन्हें न जाने कहाँ की मोटाई लग गई।
सुक्खू – रिसवत का पैसा देह फुला देता है।
मनोहर – यह कहने की बात है। तहसीलदार एक पैसा भी नहीं लेते।
सुक्खू – बिना हराम की कौड़ी खाए देह फूल ही नहीं सकती। मनोहर ने हँसकर कहा-पटवारी की देह क्यों नहीं फूल जाती, चुचके आम बने हुए हैं।
सुक्खू – पटवारी सैकड़े-हजार की गठरी थोड़े ही उड़ाता है जब बहुत दाँव-पेंच किया तो दो-चार रुपए मिल गए। उसकी तनख्वाह तो कानूनगोय ले लेते हैं। इसी छीनझपट पर निर्वाह करता है, तो देह कहाँ से फूलेगी ? तकावी में देखा नहीं, तहसीलदार साहब ने हजारों पर हाथ फेर दिया।
दुखरन – कहते हैं कि विद्या से आदमी की बुद्धि ठीक हो जाती है, पर यहाँ उलटा ही देखने में आता है। यह हाकिम और अमले तो पढ़े-लिखे विद्वान होते हैं, लेकिन किसी को दया-धर्म का विचार नहीं होता।
सुक्खू – जब देश के अभाग आते हैं तो सभी बातें उलटी हो जाती हैं। जब बीमार के मरने के दिन आ जाते हैं तो औषधि भी औगुन करती है।
मनोहर – हमीं लोग तो रिसवत देकर उनकी आदत बिगाड़ देते हैं। हम न दें तो वह कैसे पाएँ ! बुरे तो हम हैं। लेने वाला मिलता हुआ धन थोड़े ही छोड़ देगा ? यहाँ तो आपस में ही एक दूसरे को खोए जाते हैं। तुम हमें लूटने को तैयार हम तुम्हें लूटने को तैयार। इसका और क्या फल होगा ?

दुखरन – अरे तो हम मूरख, गँवार, अपढ़ हैं, वह लोग तो विद्यावान हैं। उन्हें न सोचना चाहिए कि यह गरीब लोग हमारे ही भाईबन्द हैं। हमें भगवान ने विद्या दी है, तो इन पर निगाह रखें। इन विद्यावानों से तो हम मूरख ही अच्छे। अन्याय सह लेना अन्याय करने से तो अच्छा है।
सुक्खू – यह विद्या का दोष नहीं, देश का अभाग है।
मनोहर – न विद्या का दोष है, न देश का अभाग, यह हमारी फूट का फल है। सब अपना दोष है। विद्या से और कुछ नहीं होता तो दूसरों का धन ऐंठना तो आ जाता है। मूरख रहने से तो अपना धन गँवाना पड़ता है।
सुक्खू – हाँ, तुमने यह ठीक कहा कि विद्या से दूसरों का धन लेना आ जाता है। हमारे बड़े सरकार जब तक रहे दो साल की मालगुजारी बाकी पड़ जाती थी, तब भी डाँट-डपट कर छोड़ देते थे। छोटे सरकार जब से मालिक हुए हैं, देखते हो कैसा उपद्रव कर रहे हैं। रात-दिन जाफा, बेदखली, अखराज की धूम मची हुई है।

दुखरन – कारिन्दा साहब कल कहते थे कि अबकी इस गाँव की बारी है, देखो क्या होता है ?
मनोहर – होगा क्या, तुम हमारे खेत चढ़ोगे, हम तुम्हारे खेत पर चढ़ेंगे, छोटे सरकार की चाँदी होगी। सरकार की आँखें तो तब खुलतीं जब कोई किसी के खेत पर दाँव न लगाता। सब कौल कर लेते। लेकिन यह कहाँ होने वाला है। सबसे पहले सुक्खू महतो दौड़ेंगे।
सुक्खू – कौन कहे कि मनोहर न दौड़ेंगे।
मनोहर – मुझसे चाहे गंगाजली उठवा लो, मैं खेत पर न जाऊँगा कैसे, कुछ घर में पूँजी भी तो हो। अभी रब्बी में महीनों की देर है और घर अनाज का दाना नहीं है। गुड़ एक सौ रुपये से कुछ ऊपर ही हुआ है, लेकिन बैल बैठाऊँ हो गया है, डेढ़ सौ लगेंगे तब कहीं एक बैल आएगा।
दुखरन – क्या जाने क्या हो गया कि अब खेती में बरक्कत ही नहीं रही। पाँच बीघे रब्बी बोयी थी, लेकिन दस मन की भी आशा नहीं है और गुड़ का तो तुम जानते ही हो, जो हाल हुआ है। कोल्हाड़े में ही विसेसर साह ने तौल लिया। बाल बच्चों के लिए शीरा तक न बचा। देखें भगवान् कैसे पार लगाते हैं।
अभी यही बातें हो रही थीं कि गिरवर महाराज आते हुए दिखाई दिए। लम्बा डील था, भरी हुआ बदन, तनी हुई छाती, सिर पर एक पगड़ी, बदन पर एक चुस्त मिरजई। मोटा-सा लट्ठ कन्धे पर रखे हुए थे। उन्हें देखते ही सब लोग माँचों से उतरकर जमीन पर बैठ गए। यह महाशय जमींदार के चपरासी थे। जबान से सबके दोस्त, दिल से सब के दुश्मन थे। जमींदार के सामने जमींदार की-सी कहते थे, असामियों के सामने असमियों की-सी। इसलिए उनके पीठ पीछे लोग चाहे उनकी कितनी ही बुराइयाँ करें, मुँह पर कोई कुछ न कहता था।
सुक्खू ने पूछा – कहो महाराज किधर से ?
गिरधर ने इस ढंग से कहा, मानो जीवन से असंतुष्ट हैं – किधर से बतायें ज्ञान बाबू के मारे नाकों दम है। अब हुकुम हुआ है कि असमियों को घी के लिए रुपये दे दो। रुपये सेर का भाव कटेगा। दिन भर दौड़ते हो गया।
मनोहर – कितने का घी मिला ?
गिरधर – अभी तो खाली रुपया बाँट रहे हैं। बड़े सरकार की बरसी होने वाली है। उसी की तैयारी है। आज कोई 50 रुपये बाँटे हैं।
मनोहर – लेकिन बाजार-भाव तो दस छटाँक का है।
गिरधर – भाई हम तो हुक्म के गुलाम है। बाजार में छटाँक भर बिके, हमको तो सेर भर लेने का हुक्म है। इस गाँव में भी 50 रुपये देने हैं। बोलो सुक्खू महतो कितना लेते हो ?
सुक्खू ने सिर नीचा करके कहा, जितना चाहे दे दो, तुम्हारी जमीन में बसे हुए हैं, भाग के कहाँ जाएँगे ?

गिरधर – तुम बड़े असामी हो। भला दस रुपये तो लो और दुखरन भगत, तुम्हें कितना दें ?
दुखरन – हमें भी पाँच रुपये दे दो।
मनोहर – मेरे घर तो एक ही भैंस लगती है, उसका दूध बाल-बच्चों में उठ जाता है, घी होता ही नहीं। अगर गाँव में कोई कह दे कि मैंने एक पैसे का भी घी बेचा है तो 50 रुपये लेने पर तैयार हूँ।
गिरधर – अरे क्या 5 रुपये भी न लोगे ? भला भगत के बराबर तो हो जाओ।
मनोहर – भगत के घर में भैंस लगती है, घी बिकता है, वह जितना चाहें ले लें। मैं रुपये ले लूँ तो मुझे बाजार में दस छटाँक को मोल लेकर देना पड़ेगा।
गिरधर – जो चाहो करो, पर सरकार का हुक्म तो मानना ही पड़ेगा। लालगंज में 30 रुपये दे आया हूँ। वहाँ गाँव में एक भैंस भी नहीं है। लोग बाजार से ही लेकर देंगे। पड़ाव में 20 रुपये दिए हैं। वहाँ भी जानते हो किसी के भैंस नहीं है।
मनोहर – भैंस न होगी तो पास रुपये होंगे। यहाँ तो गाँठ में कौड़ी भी नहीं है।
गिरधर – जब जमींदार की जमीन जोतते हो तो उसके हुक्म के बाहर नहीं जा सकते।
मनोहर – जमीन कोई खैरात जोतते हैं। उसका लगान देते हैं। एक किस्त भी बाकी पड़ जाए तो नालिस होती है।
गिरधर – मनोहर, घी तो तुम दोगे दोड़ते हुए, पर चार बातें सुनकर। जमींदार के गाँव में रहकर उससे हेकड़ी नहीं चल सकती। अभी कारिन्दा साहब बुलाएँगे तो रुपये भी दोगे, हाथ-पैर भी पड़ोगे, मैं सीधे कहता हूँ तो तेवर बदलते हो।
मनोहर ने गरम होकर कहा-कारिन्दा कोई काटू है न जमींदार कोई हौवा है। यहाँ कोई दबेल नहीं है। जब कौड़ी-कौड़ी लगान चुकाते है तो धौंस क्यों सहें ?

गिरधर – सरकार को अभी जानते नहीं हो। बड़े सरकार का जमाना अब नहीं है। इनके चंगुल में एक बार आ जाओगे तो निकलते न बनेगा।
मनोहर ने क्रोधाग्नि और भी प्रचण्ड हुई। बोला, अच्छा जाओ, तोप पर उड़वा देना। गिरधर महाराज उठ खड़े हुए। सुक्खू और दुखरन ने अब मनोहर के साथ बैठना उचित न समझा। वह भी गिरधर के साथ चले गए। मनोहर ने इन दोनों आदमियों को तीव्र दृष्टि से देखा और नारियल पीने लगा।

2.
लखनपुर के जमींदारों का मकान काशी में औरंगाबाद के निकट था। मकान के दो खण्ड आमने-सामने बने हुए थे। एक जनाना मकान था, दूसरी मरदानी बैठक। दोनों खण्डों के बीच की जमीन बेल-बूटे से सजी हुई थी, दोनों ओर ऊँची दीवारें खींचीं हुई थीं; लेकिन दोनों ही खण्ड जगह-जगह टूट-फूट गये थे। कहीं कोई कड़ी टूट गई थी और उसे थूनियों के सहारे रोका गया था, कहीं दीवार फट गई थी और कहीं छत धँस पड़ी थी एक वृद्ध रोगी की तरह जो लाठी के सहारे चलता हो।

किसी समय यह परिवार नगर में बहुत प्रतिष्ठित था, किन्तु ऐश्वर्य के अभिमान और कुल-मर्यादा पालन ने उसे धीरे-धीरे इतना गिरा दिया कि अब मोहल्ले का बनिया पैसे-धेले की चीज भी उनके नाम पर उधार न देता था। लाला जटाशंकर मरते-मरते मर गए, पर जब घर से निकले तो पालकी पर। लड़के-लड़कियों के विवाह किये तो हौसले से। कोई उत्सव आता तो हृदय सरिता की भाँति उमड़ आता था, कोई मेहमान आ जाता तो उसे सर आँखों पर बैठाते, साधु-सत्कार और अतिथि-सेवा में उन्हें हार्दिक आनन्द होता था। इसी मर्यादा-रक्षा में जायदाद का बड़ा भाग बिक गया, कुछ रेहन हो गया और अब लखनपुर के सिवा चार और छोटे-छोटे गाँव रह गये थे जिनसे कोई चार हजार वार्षिक लाभ होता था।
लाला जटाशंकर के एक छोटे भाई थे। उनका नाम प्रभाशंकर था। यही सियाह और सफेद के मालिक थे। बड़े लाला साहब को अपनी भागवत और गीता से परमानुराग था। घर का प्रबंध छोटे भाई के हाथों में था। दोनों भाइयों में इतना प्रेम था कि उनके बीच में कभी कटु वाक्यों की नौबत न आई थी। स्त्रियों में तू-तू मैं-मैं होती थी, किन्तु भाइयों पर इसका असर न पड़ता था। प्रभाशंकर स्वयं कितना ही कष्ट उठाएँ अपने भाई से कभी भूलकर शिकायत न करते थे। जटाशंकर भी उनके किसी काम में हस्तक्षेप न करते थे।
लाला जटाशंकर का एक साल पूर्व देहान्त हो गया था। उनकी स्त्री उनके पहले ही मर चुकी थी। उनके दो पुत्र थे, प्रेमशंकर और ज्ञानशंकर। दोनों के विवाह हो चुके थे। प्रेमशंकर चार-पाँच वर्षों से लापता थे। उनकी पत्नी श्रद्धा घर में पड़ी उनके नाम को रोया करती थी। ज्ञानशंकर ने गतवर्ष बी.ए. की उपाधि प्राप्त की थी और इस हारमोनियम बजाने में मग्न रहते थे। उनके एक पुत्र था, मायाशंकर। लाला प्रभाशंकर की स्त्री जीवित थी। उनके तीन बेटे और दो बेटियाँ। बड़े बेटे दयाशंकर सब-इंस्पेक्टर थे। विवाह हो चुका था। बाकी दोनों लड़के अभी मदरसे में अँगरेजी पढ़ते थे। दोनों पुत्रियाँ भी कुँवारी थीं।

प्रेमशंकर ने बी.ए. की डिग्री लेने के बाद अमेरिका जाकर आगे पढ़ने की इच्छा की थी, पर जब अपने चाचा को इसका विरोध करते देखा तो एक दिन चुपके से भाग निकले। घर-वालों से पत्र-व्यवहार करना भी बंद कर दिया उनके पीछे ज्ञानशंकर ने बाप और चाचा से लड़ाई ठानी। उनकी फजूलखर्चियों की आलोचना किया करते। कहते, क्या आप हमारे लिए कुछ भी नहीं छोड़ जाएँगे ? क्या आपकी यह इच्छा है कि हम रोटियों को मोहताज हो जाएँ ? किन्तु इसका जवाब नहीं मिलता, भाई हम लोग तो जिस प्रकार अब तक निभाते आए हैं उसी प्रकार निभाएँगे। यदि तुम इससे उत्तम प्रबंध कर सकते हो तो करो, जरा हम भी देखें। ज्ञानशंकर उस समय कॉलेज में थे, यह चुनौती सुनकर चुप हो जाते थे। पर जब से वह डिग्री लेकर आए थे और इधर उनके पिता का देहान्त हो चुका था, घर के प्रबंध में संशोधन करने का यत्न शुरू किया था, जिसका फल यह हुआ था कि उस मेल-मिलाप में बहुत कुछ अन्तर पड़ चुका था, जो पिछले साठ वर्षों से चला आता था। न चाचा का प्रबंध भतीजे को पसन्द था, न भतीजे का चाचा को। आए दिन शाब्दिक संग्राम होते रहते। ज्ञानशंकर कहते, आपने सारी जायदाद चौपट कर दी। हम लोगों को कहीं का न रखा। सारा जीवन खाट पर पड़े-पड़े पूर्वजों की कमाई खाने में काट दिया। मर्यादा-रक्षा की तारीफ तो तब थी जब अपने बाहुबल से कुछ करते, या जायदाद को बचाकर करते। घर बेचकर तमाशा देखना और कौन-सा मुश्किल काम है। लाला प्रभाशंकर यह कटु वाक्य सुनकर अपने भाई को याद करते और उनका नाम लेकर रोने लगते। यह चोटें उनसे सही न जाती थीं।
लाला जटाशंकर की बरसी के लिए प्रभाशंकर ने दो हजार का अनुमान किया था। एक हजार ब्राह्मणों का भोज होने वाला था। नगर भर के समस्त प्रतिष्ठित पुरुषों का निमंत्रण देने का विचार था। इसके सिवा चाँदी के बर्तन, कालीन, पलंग, वस्त्र आदि महापात्र देने के लिए बन रहे थे। ज्ञानशंकर इसे धन का अपव्यय समझते थे। उनकी राय थी कि इस कार्य में दो रुपये से अधिक खर्च न किया जाए। जब घर की दशा ऐसी चिन्ताजनक है तो इतने रुपये खर्च करना सर्वथा अनुचित है; किन्तु प्रभाशंकर कहते थे, जब मैं मर जाऊँ तब तुम चाहे अपने बाप को एक-एक बूँद पानी के लिए तरसाना; पर जब तक मेरे दम में दम है, मैं उनकी आत्मा को दु:खी नहीं कर सकता। सारे नगर में उनकी उदारता की धूम थी। बड़े-बड़े उनके सामने सिर झुका लेते थे। ऐसे प्रतिभाशाली पुरुष की बरसी भी यथायोग्य होनी चाहिए। यही हमारी श्रद्धा और प्रेम का अन्तिम प्रमाण है।
ज्ञानशंकर के हृदय में भावी उन्नति की बड़ी-बड़ी अभिलाषाएँ थीं। वह अपने परिवार को फिर समृद्ध और सम्मान के शिखर पर ले जाना चाहते थे। घोड़े और फिटन की उन्हें बड़ी-बड़ी आकांक्षा थी। वह शान से फिटन पर बैठकर निकलना चाहते थे कि हठात् लोगों की आँखें उनकी तरफ उठ जाएँ और लोग कहें कि लाला जटाशंकर के बेटे हैं। वह अपने दीवान खाने को नाना प्रकार की सामग्रियों से सजाना चाहते थे। मकान को भी आवश्यकतानुसार बढ़ाना चाहते थे। वे घण्टों एकाग्र बैठे हुए इन्हीं विचारों में मग्न रहते थे। चैन से जीवन व्यतीत हो, यही उनका ध्येय था। वर्तमान दशा में मितव्ययिता के सिवा उन्हें कोई दूसरा उपाय न सूझता था। कोई छोटी-मोटी नौकरी करने में वह अपमान समझते थे; वकालत से उन्हें अरुचि थी और उच्चधिकारों का द्वार उनके लिए बन्द था। उनका घराना शहर में चाहे कितना ही सम्मानित हो पर देश-विधाताओं की दृष्टि में उसे वह गौरव प्राप्त न था जो उच्चाधिकार-सिद्धि का अनुष्ठान है। लाला जटाशंकर तो विरक्त ही थे और प्रभाशंकर केवल जिलाधीशों की कृपा-दृष्टि को अपने लिए काफी समझते थे। इसका फल जो कुछ हो सकता था वह उन्हें मिल चुका था। उनके बड़े बेटे दयाशंकर सब-इंसपेक्टर हो गए थे। ज्ञानशंकर कभी-कभी इस अकर्मण्यता के लिए अपने चाचा से उलझा करते थे – आपने अपना सारा जीवन नष्ट कर दिया। लाखों की जायदाद भोग-विलास में उड़ा दी। सदा आतिथ्य सत्कार और मर्यादा-रक्षा पर जान देते रहे। अगर इस उत्साह का एक अंश भी अधिकारी वर्ग के सेवा-सत्कार में समर्पण करते तो आज मैं डिप्टी कलेक्टर होता खानेवाले खा-खाकर चल दिए। अब उन्हें याद भी नहीं रहा कि आपने कभी उन्हें खिलाया या नहीं। खस्ता कचौड़ियाँ और सोने के पत्र लगे हुए पान के बीड़े खिलाने से परिवार की उन्नति नहीं होती, इसके और ही रास्ते हैं। बेचारे प्रभाशंकर यह तिरस्कार सुनकर व्यथित होते और कहते, बेटा, ऐसी-ऐसी बातें करके हमें न जलाओ। तुम फिटन और घोड़ा, कुर्सी और मेज, आईने और तस्वीरों पर जान देते हो। तुम चाहते हो कि हम अच्छे से अच्छा खाएँ, अच्छे से अच्छा पहनें, लेकिन खाने पहनने से दूसरों को क्या सुख होगा ?

तुम्हारे धन और सम्पत्ति से दूसरे क्या लाभ उठाएँगे ? हमने भोग-विलास में जीवन नहीं बिताया। वह कुल-मर्यादा की रक्षा थी। विलासिता यह है, जिसके पीछे तुम उन्मत्त हो। हमने जो कुछ किया नाम के लिए किया। घर में उपवास हो गया है, लेकिन जब कोई मेहमान आ गया तो उसे सिर और आँखों पर लेते थे तुमको बस अपना पेट भरने की, अपने शौक की, अपने विलास की धुन है। यह जायदाद बनाने के नहीं बिगाड़ने के लक्षण हैं। अन्तर इतना ही है कि हमने दूसरों के लिए बिगाड़ा तुम अपने लिए बिगाड़ोगे। मुसीबत यह थी कि स्त्री विद्यावती भी इन विचारों में अपने पति से सहमत न थी। उसके विचार बहुत-कुछ विचार लाला प्रभाशंकर से मिलते थे। उसे परमार्थ पर स्वार्थ से अधिक श्रद्धा थी। उसे बाबू ज्ञानशंकर को अपने चाचा से वाद-विवाद करते देखकर खेद होता था और अक्सर मिलने पर वह उन्हें समझाने की चेष्टा करती थी। पर ज्ञानशंकर उसे झिड़क दिया करता थे। वह इतने शिक्षित होकर भी स्त्री का आदर उससे अधिक न करते थे, जितना अपने पैर के जूतों का। अतएव उनका दाम्पत्य जीवन भी, जो चित्त की शान्ति का एक प्रधान साधन था, सुखकर न था।

3.
मनोहर अक्खड़पन की बातें तो कर बैठा; किन्तु जब क्रोध शान्त हुआ तो मालूम हुआ कि मुझसे बड़ी भूल हुई। गाँव वाले सब-के-सब मेरे दुश्मन हैं। वह इस समय चौपाल में बैठे मेरी निन्दा कर रहे होंगे। कारिंदा न जाने कौन-से उपद्रव मचाए। बेचारे दुर्जन को बात-की-बात में मटियामेट कर दिया, तो फिर मुझे बिगाड़ते क्या देर लगती है। मैं अपनी जबान से लाचार हूँ। कितना ही उसे बस में रखना चाहता हूँ, पर नहीं रख सकता। यही न होता कि जहाँ और सब लेना-देना है वहाँ दस रुपये और हो जाते, नक्कू तो न बनता। लेकिन इन विचारों ने एक क्षण में फिर पलटा खाया। मनुष्य जिस काम को हृदय से बुरा नहीं समझता, उसके कुपरिणाम का भय एक गौरवपूर्ण धैर्य की शरण लिया करता है। मनोहर अब इस विचार से अपने को शान्ति देने लगा, मैं बिगड़ जाऊँगा तो बला से, पर किसी की धौंस तो न सहूँगा, किसी के सामने सिर तो नीचा नहीं करता। जमींदार भी देख लें कि गाँव में सब-के-सब भाँड़ ही नहीं हैं। अगर कोई मामला खड़ा किया तो अदालत में हाकिम के सामने सारा भण्डा फोड़ दूँगा, जो कुछ होगा, देखा जाएगा। इसी उधेड़बुन में वह भोजन करने लगा। चौके में एक मिट्टी के तेल का चिराग जल रहा था; किन्तु छत में धुआँ इतना भरा हुआ था कि उसका प्रकाश मन्द पड़ गया था। उसकी स्त्री बिलासी ने एक पीतल की थाली में बथुए की भाजी और जौं की कई मोटी-मोटी रोटियाँ परस दीं। मनोहर इस भाँति रोटियाँ तोड़-तोड़ मुँह में रखता था, जैसे कोई दवा खा रहा हो। इतनी ही रुचि से वह घास भी खाता। बिलासी ने पूछा, क्या साग अच्छा नहीं ? गुड़ दूँ ?

मनोहर – नहीं, साग तो अच्छा है।
बिलासी – क्या भूख नहीं ?
मनोहर – भूख क्यों नहीं है, खा तो रहा हूँ।
बिलासी – खाते तो नहीं हो, जैसे औंघ रहे हो। किसी से कुछ कहा-सुनी तो नहीं हुई है ?
मनोहर – नहीं, कहा-सुनी किससे होती ?
इतने में एक युवक कोठरी में आकर खड़ा हो गया। उसका शरीर खूब गठीला हृष्ठ-पुष्ठ था, छाती चौड़ी और भरी हुई थी। आँखों से तेज झलक रहा था। उसके गले में सोने का यन्त्र था और दाहिने बाँह में चाँदी का एक अनन्त। यह मनोहर का पुत्र बलराज था।
बिलासी – कहाँ घूम रहे हो ? आओ, खा लो, थाली परसूँ।
बलराज ने धुएँ से आँखें मलते हुए कहा, काहे दादा, आज गिरधर महाराज तुमसे क्यों बिगड़ रहे थे ? लोग कहते हैं कि बहुत लाल-पीले हो रहे थे ?
मनोहर – कुछ नहीं; तुमने कौन कहता था ?
बलराज – सभी लोग तो कह रहे हैं। तुमसे घी माँगते थे; तुमने कहा, मेरे पास घी नहीं है, बस इसी पर तन गए।
मनोहर – अरे तो कोई झगड़ा थोड़े ही हुआ। गिरधर महाराज ने कहा तुम्हें घी देना पड़ेगा, हमने कह दिया, जब घी हो जाएगा तब देंगे, अभी तो नहीं है। इसमें भला झगड़ने की कौन सी बात थी ?
बलराज – झगड़ने की बात क्यों नहीं है। कोई हमसे क्यों घी माँगे ? किसी का दिया खाते हैं कि किसी के घर माँगने जाते हैं ? अपना तो एक पैसा नहीं छोड़ते, तो हम क्यों धौंस सहें ? न हुआ मैं, नहीं तो दिखा देता। क्या हमको भी दुर्जन समझ लिया है ?
मनोहर की छाती अभिमान से फूली जाती थी, पर इसके साथ ही यह चिन्ता भी थी कि कहीं यह कोई उजड्डपन न कर बैठे। बोला, चुपके से बैठकर खाना खा लो, बहुत बहकना अच्छा नहीं होता। कोई सुन लेगा तो वहाँ जाकर एक की चार जड़ आएगा। यहाँ कोई मित्र नहीं है।
बलराज – सुन लेगा तो क्या किसी से छिपा के कहते हैं। जिसे बहुत घमण्ड हो आकर देख ले । एक-एक का सिर तोड़ के रख दें। यही न होगा, कैद होकर चला आऊँगा। इससे कौन डरता है ? महात्मा गांधी भी तो कैद हो आए हैं।
बिलासी ने मनोहर की ओर तिरस्कार के भाव से देखकर कहा, तुम्हारी कैसी आदत है कि जब देखो एक-न-एक बखेड़ा मचाए ही रहते हो। जब सारा गाँव घी दे रहा है तब हम क्या गाँव से बाहर हैं ? जैसा बन पड़ोगा देंगे। इसमें कोई अपनी हेठी थोड़े ही हुई जाती है। हेठा तो नारायण ने ही बना दिया है। तो क्या अकड़ने से ऊँचे हो जाएँगे ? थोड़ा-सा हाँड़ी में है, दो-चार दिन में और बटोर लूँगी, जाकर तौल आना।
बलराज – क्यों दे आएँ ? किसी के दबैल हैं।
बिलासी – नहीं, तुम तो लाट गर्वनर हो। घर में भूनी भाँग नहीं, उस पर इतना घमण्ड ?
बलराज – हम दरिद्र सही, किसी से माँगने तो नहीं जाते ?
बिलासी – अरे जा बैठ, आया है बड़ा जोधा बनके। ऊँट जब तक पहाड़ पर नहीं चढ़ता तब तक समझता है कि मुझसे ऊँचा और कौन ? जमींदार से बैर कर गाँव में रहना सहज नहीं है। (मनोहर से) सुनते हो महापुरुष; कल कारिंदा के पास जाके कह सुन आओ।
मनोहर – मैं तो अब नहीं जाऊँगा।
बिलासी – क्यों ?
मनोहर – क्यों क्या, अपनी खुशी है। जाएँ क्या, अपने ऊपर तालियाँ लगवाएँ ?
बिलासी – अच्छा, तो मुझे जाने दोगे ?
मनोहर – तुम्हें भी नहीं जाने दूँगा। कारिन्दा हमारा कर ही क्या सकता है ? बहुत करेगा अपना सिकमी खेत छोड़ा लेगा। न दो हल चलेंगे, एक ही सही।
यद्यपि मनोहर बढ़-बढ़ कर बातें कर रहा था, पर वास्तव में उसका इन्कार अब परास्त तर्क के समान था। यदि बिना दूसरों की दृष्टि में अपमान उठाए बिगड़ा हुआ खेल बन जाए तो उसे कोई आपत्ति नहीं थी। हाँ, वह स्वयं क्षमा प्रार्थना करने में अपनी हेठी समझता था। एक बार तनकर फिर झुकना उसके लिए बड़ी लज्जा की बात थी। बलराज की उद्दण्डता उसे शान्त करने में हानि के भय से भी अधिक सफल हुई थी।

प्रात: काल बिलासी चौपाल जाने को तैयार हुई; पर न मनोहर साथ चलने को राजी होता था, न बलराज। अकेली जाने की उसकी हिम्मत न पड़ती थी। इतने में कादिर मियाँ ने घर में प्रवेश किया। बूढ़ा आदमी थे, ठिंगना डील, लंबी दाढ़ी, घुटने के ऊपर तक धोती, एक गाढे की मिरजई पहने हुए थे। गाँव के नाते वह मनोहर के बड़े भाई होते थे बिलासी ने उन्हें देखते ही थोड़ा-सा घूँघट निकाल लिया।
कादिर ने चिन्तापूर्ण भाव से कहा, अरे मनोहर, कल तुम्हें क्या सूझ गई ? जल्दी जाकर कारिन्दा साहब को मना लो, नहीं तो फिर कुछ करते-धरते न बनेगी। सुना है वह तुम्हारी शिकायत करने मालिकों के पास जा रहे हैं। सुक्खू भी साथ जाने को तैयार है। नहीं मालूम, दोनों में क्या साँठ-गाँठ हुई है।
बिलासी – भाई जी, यह बूढ़े हो गए; लेकिन इनका लड़कपन अभी नहीं गया। कितना समझाती हूँ, बस अपने ही मन की करते हैं। इन्हीं की देखा-देखी एक लड़का है वह भी हाथ से निकला जाता है। जिससे देखो उसी से उलझ पड़ता है। भला इनसे पूछा जाए कि सारे गाँव ने घी के रुपये लिये तो तुम्हें नाहीं करने में क्या पड़ी थी ?
कादिर – इनकी भूल है और क्या ? दस रुपये हमें भी लेने पड़े, क्या करते ? और यह कोई नयी बात थोड़ी ही है ? बड़े सरकार थे तब भी तो एक-न-एक बेगार लगी ही रहती थी।
मनोहर-भैया, तब की बातें जाने दो तब साल-दो-साल की देन बाकी पड़ जाती थी। मुदा मालिक कभी कुड़की बेदखली नहीं करते थे। जब कोई काम-काज पड़ता था, तब हमको नेवता मिलता था। लड़कियों के ब्याह के लिए उनके यहाँ से लकड़ी, चारा और 25 रु. बंधा हुआ था। यह सब जानते हो कि नहीं? जब वह अपने लड़कों की तरह पालते थे तो रैयत भी हँसी-खुशी उनकी बेगार करती थी। अब यह बातें तो गईं, बस एक-न-एक पच्चड़ लगा ही रहता है। तो जब उनकी ओर से यह कड़ाई है तो हम भी कोई मिट्टी के लोंदे थोड़े ही हैं?
कादिर-तब की बातें छोड़ो, अब जो सामने है उसे देखो । चलो, जल्दी करो, मैं इसीलिए तुम्हारे पास आया हूँ। मेरे बैल खेत में खड़े हैं।
मनोहर-दादा, मैं तो न जाऊँगा।
बिलासी-इनकी चूड़ियाँ मैली हो जायेंगी, चलो मैं चलती हूँ।

कादिर और बिलासी दोनों चौपाल चले। वहाँ इस वक्‍त बहुत से आदमी जमा थे। कुछ लोग लगान के रुपये दाखिल करने आए। कुछ घी के रुपये लेने के लिए और केवल तमाशा देखने और ठकुरसुहाती करने के लिए। कारिन्दे का नाप गुलाम गौस खौँ था। वह बृहदाकार मनुष्य थे, सावला रंग, लम्बी दाढ़ी, चेहरे से कठोरता झलकती थी। अपनी जवानी में वह पलटन में नौकर थे और हवलदार के दरजे तक पहुँचे थे। जब सीमा प्रान्त में कुछ छेड़छाड़ हुई तब बीमारी की छुट्टी लेकर घर भाग आए और यहीं से इस्तीफा पेश कर दिया। वह अब भी अपने सैनिक जीवन की कथाएँ मजे ले-ले कर कहते थे। इस समय वह तख्त पर बैठे हुए हुक्‍्का पी रहे थे। सुक्खू और दुखरन तख्त के नीचे बैठे हुए थे।
सुक्खू ने कहा, हम मजदूर ठहरे, हम घमण्ड करें तो हमारी भूल है। जमींदार की जमीन में बसते हैं, उसका दिया खाते हैं, उससे बिगड़ कहाँ जाएँगे-क्यों दुखरन?
दुखरन-हाँ, ठीक ही है।
सुक्खू-नारायण हमें चार पैसे दें, दस मन अनाज दें तो क्या हम अपने मालिकों से लड़ें, मारे घमण्ड के धरती पर पैर न रखें?
दुखरन-यही मद तो आदमी को खराब करता है। इसी मद ने रावण को मिटाया, इसी के कारण जरासंध और दुरयोधन का सर्वनाश हो गया। तो भला हमारी-तुम्हारी कौन बात है?
इतने में कादिर मियाँ चौपाल में आए। उनके पीछे-पीछे बिलासी भी आई। कादिर ने कहा, खाँ साहब, यह मनोहर की घरवाली आई है, जितने रुपये चाहें घी के लिए दे दें। बेचारी डर के मारे आती न थी।
गौस खाँ ने कटु स्वर से कहा, वह कहाँ है मनोहर, क्या उसे आते शरम आती थी?
बिलासी ने दीनता पूर्वक कहा, सरकार उनकी बातों का कुछ ख्याल न करें आपकी गुलामी करने को मैं तैयार हूँ?
कादिर-यूँ तो गऊ है, किन्तु आज न जाने उसके सिर कैसे भूत सवार हो गया। क्यों सुक्खू महतो, आज तक गाँव में किसी से लड़ाई हुई है?
कादिर-अब बैठा रो रहा है। कितना समझाया कि चल के खाँ साहब से कसूर माफ करा ले; लेकिन शरम से आता नहीं है।
गौस खाँ-शर्म नहीं, शरारत है। उसके सिर पर जो भूत चढ़ा हुआ है उसका उतार मेरे पास है। उसे गरूर हो गया।
कादिर-अरे खाँ साहब, बेचारा मजूर गरूर किस बात पर करेगा? मूरख उजड्ड आदमी है, बात करने का सहूर नहीं है।

गौस खाँ-तुम्हें वकालत करने की जरूरत नहीं। मैं अपना काम खूब जानता हूँ। इस तरह दबने लगा तब तो मुझसे कारिन्दागिरी हो चुकी। आज एक ने तेवर बदले हैं, कल उसके दूसरे भाई शेर हो जाएँगे। फिर जमींदारी को कौन पूछता है। अगर पलटन में किसी ने ऐसी शरारत की होती तो उसे गोली मार दी जाती। जमींदार से आँखें बदलना खाला जी का घर नहीं है।

यह कहकर गौस खाँ टाँगन पर सवार होने चले। बिलासी रोती हुई उनके सामने हाथ बाँधकर खड़ी हो गई और बोली, सरकार कहीं की न रहूँगी। जो डाँड़ चाहें लगा दीजिए, जो सजा चाहे दीजिए, मालिकों के कान में यह बात न डालिए। लेकिन खाँ साहब ने सुक्खू महतो को हत्थे पर चढ़ा लिया था। वह सूखी करुणा को अपनी कपट-चाल में बाधक बनाना नहीं चाहते थे। तुरन्त घोड़े पर सवार हो गए और सुक्खू को आगे-आगे चलने का हुक्म दिया। कादिर मियां ने धीरे से गिरधर महाराज के कान में कहा, क्या महाराज, बेचारे मनोहर का सत्यानाश करके ही दम लोगे?
गिरधर ने गौरवयुक्त भाव से कहा, जब तुम हमसे आँखें दिखलाओगे तो हम भी अपनी-सी करके रहेंगे। हमसे कोई एक अंगुल दबे तो हम उससे हाथ भर दबने को तैयार हैं। जो हमसे जौ भर तनेगा हम उससे गज भर तन जाएँगे।
कादिर- यह तो सुपद ही है, तुम हक से दबने लगोगे तो तुम्हें कौन पूछेगा? मुदा अब मनोहर के लिए कोई राह निकालो। उसका सुभाव तो जानते हो। गुस्सैल आदमी है। पहले बिगड़ जाता है, फिर बैठकर रोता है। बेचारा मिट्टी में मिल जाएगा।
गिरधर-भाई, अब तो तीर हमारे हाथ से निकल गया।
कादिर-मनोहर की हत्या तुम्हारे ऊपर ही पड़ेगी।
गिरधर-एक उपाय मेरी समझ में आता है। जाकर मनोहर से कह दो कि मालिक के पास जाकर हाथ-पैर पड़े। वहाँ मैं भी कुछ कह-सुन दूँगा। तुम लोगों के साथ नेकी करने का जी तो नहीं चाहता, काम पड़ने पर घिघियाते हो, काम निकल गया तो सीधे ताकते भी नहीं। लेकिन अपनी-अपनी करनी अपने साथ है। जाकर उसे भेज दो।
कादिर और बिलासी मनोहर के पास गए। वह शंका और चिन्ता की मूर्ति बना हुआ उसी रास्ते की ओर ताक रहा था। कादिर ने जाते ही यहाँ का समाचार कहा और गिरधर महाराज का आदेश भी सुना दिया। मनोहर क्षण भर सोचकर बोला, वहाँ मेरी और भी दुर्गति होगी। अब तो सिर पर पड़ी ही है। जो कुछ भी होगा देखा जाएगा।
कादिर-नहीं, तुम्हें जाना चाहिए। मैं भी चलूँगा।
मनोहर-मेरे पीछे तुम्हारी भी ले-दे होगी।
बिलासी ने कादिर की ओर अत्यन्त विनीत भाव से देखकर कहा, दादा जी, वह न जाएँगे, मैं ही तुम्हारे साथ चली चलूँगी।
कादिर-तुम क्‍या चलोगी, वहाँ बड़े आदमियों के सामने मुँह तो खुलना चाहिए।
बिलासी-न कुछ कहते बनेगा, रो तो लूँगी।
कादिर-यह न जाने देंगे?
बिलासी-जाने क्यों न देंगे, कुछ माँगती हूँ? इन्हें अपना बुरा-भला न सूझता हो, मुझे तो सूझता है।
कादिर-तो फिर देर न करनी चाहिए, नहीं तो वह लोग पहले से ही मालिकों का कान भर देंगे।

मनोहर ज्यों का त्यों मूरत की तरह बैठा रहा | बिलासी घर में गई, अपने गहने निकालकर पहने, चादर ओढ़ी और बाहर निकलकर खड़ी हो गई। कादिर मियाँ संकोच में पड़े हुए थे। उन्हें आशा थी कि अब भी मनोहर उठेगा; किन्तु जब वह अपनी जगह से जरा भी न हिला तब धीरे-धीरे आगे चले। बिलासी भी पीछे-पीछे चली। पर रह कर कातर नेत्रों से मनोहर की ओर ताकती जाती थी। जब वह गाँव के बाहर निकल गए, तो मनोहर कुछ सोचकर उठा और लपका हुआ कादिर मियाँ के समीप आकर बिलासी से बोला, जा घर बैठ, मैं जाता हूँ।

4.
तीसरा पहर था। ज्ञानशंकर दीवानखाने में बैठे हुए एक किताब पढ़ रहे थे कि कहार ने आकर कहा, बाबू साहब पूछते हैं, कै बजे हैं? ज्ञानशंकर ने चिढ़कर कहा, जा कह दे, आपको नीचे बुलाते हैं? क्‍या सारे दिन सोते रहेंगे?

इन महाशय का नाम बाबू ज्वालासिंह था। ज्ञानशंकर के सहपाठी थे और आज ही इस जिले में डिप्टी कलेक्टर होकर आए। दोपहर तक दोनों मित्रों में बातचीत होती रही। ज्वालासिंह रात भर के जागे थे, सो गए। ज्ञानशंकर को नींद नहीं आई। इस समय उनकी छाती पर साँप सा लोट रहा था। सब के सब बाजी लिये जाते हैं और मैं कहीं का न हुआ। कभी अपने ऊपर क्रोध आता, कभी अपने पिता और चाचा के ऊपर। पुराना सौहार्द द्वेष का रूप ग्रहण करता जाता था। यदि इस समय अकस्मात्‌ ज्वालासिंह के पद-च्युत होने का समाचार मिल जाता तो शायद ज्ञानशंकर के हृदय को शान्ति होती। वह इस क्षुद्र भाव को मन में न आने देना चाहते थे। अपने को समझते थे कि यह अपना-अपना भाग्य है। अपना मित्र कोई ऊँचा पद पाए तो हमें प्रसन्‍न होना चाहिए, किन्तु उनकी विकलता इन सद्‌ विचारों से न मिटती थी और बहुत यत्न करने पर भी परस्पर सम्भाषण में उनकी लघुता प्रकट हो जाती थी। ज्वालापिंह को विदित हो रहा था कि मेरी यह तरक्की इन्हें जला रही है, किन्तु यह सर्वथा ज्ञानशंकर की ईर्ष्या-वृत्ति का ही दोष न था। ज्वालासिंह के बात-व्यवहार में वह पहले की सी स्नेहमय सरलता न थी; वरन्‌ उसकी जगह एक अज्ञात सहृदयता, एक कृत्रिम वात्सल्य, एक गौरव-युक्त सधुता पाई जाती थी, जो ज्ञानशंकर के घाव पर नमक का काम कर रही थी। इसमें सन्देह नहीं कि ज्वालासिंह का यह दुःस्वभाव इच्छित न था, वह इतनी नीच प्रकृति के पुरुष न थे, पर अपनी सफलता ने उन्हें उन्मत्त कर दिया था। इधर ज्ञानशंकर इतने उदार न थे कि इससे मानव चरित्र के अध्ययन का आनन्द उठाते।

कहान के जाने के क्षण भर पीछे ज्वालासिंह उतर पड़े और बोले, यार बताओ क्या समय है? जरा साहब से मिलने जाना है। ज्ञानशंकर ने कहा, अजी मिल लेना ऐसी क्या जल्दी है?
ज्वालासिंह- नहीं भाई, एक बार मिलना जरूरी है, जरा मालूम तो हो जाए किस ढंग का आदमी है, खुश कैसे होता है?
ज्ञान-वह इस बात से खुश होता है कि आप दिन में तीन बार उसके द्वार पर नाक रगड़ें।
ज्वालासिंह ने हँसकर कहा, तो कुछ मुश्किल नहीं, मैं पाँच बार सिजदे किया करूँगा।
ज्ञान-और वह इस बात से खुश होता है कि आप कायदे-कानून को तिलांजलि दीजिए, केवल उसकी इच्छा को कानून समझिए।
ज्वालासिंह-ऐसा ही करूँगा।
ज्ञान-इनकम टैक्स बढ़ाना पड़ेगा। किसी अभियुक्त को भूल कर भी छोड़ा तो बहुत बुरी तरह खबर लेगा।
ज्वाला-भाई, तुम बना रहे हो, ऐसा क्या होगा।
ज्ञान-नहीं, विश्वास मानिए, वह ऐसा ही विचित्र जीव है।
ज्वाला-तब तो उसके साथ मेरा निबाह कठिन है।

ज्ञान-जरा भी नहीं। आज आप ऐसी बातें कर रहे हैं, कल को उसके इशारों पर नाचेंगे। इस घमण्ड में न रहिए कि आपको अधिकार प्राप्त हुआ है, वास्तव में आपने गुलामी लिखाई है। यहाँ आपको आत्मा की स्वाधीनता से हाथ धोना पड़ेगा, न्याय और सत्य का गला घोंटना पड़ेगा, यही आपकी उन्नति और सम्मान के साधन हैं। मैं तो ऐसे अधिकार पर लात मारता हूँ। यहाँ तो अल्लाह-ताला भी आसमान से उतर आएँ और अन्याय करने को कहें तो उनका हुक्म न मानूँ।

ज्वालासिंह समझ गए कि यह जले हुए दिल के फफोले हैं बोले, अभी ऐसी दूर की ले रहे हो, कल को नामजद हो जाओ, तो यह बातें भूल जाएँ।
ज्ञानशंकर-हाँ बहुत सम्भव है, क्योंकि मैं भी तो मनुष्य हूँ, लेकिन संयोग से मेरे इस परीक्षा में पड़ने की कोई सम्भावना नहीं है और हो भी तो मैं आत्मा की रक्षा करना सर्वोपरि समझूँगा।
ज्वालासिंह गर्म होकर बोले–आपको यह अनुभव करने का क्या अधिकार है कि और लोग अपनी आत्मा का आपसे कम आदर करते हैं? मेरा विचार तो यह है कि संसार में रहकर मनुष्य आत्मा की जितनी रक्षा कर सकता है, उससे अधिकार उसे वंचित नहीं कर सकता। अगर आप समझते हों कि वकालत या डॉक्टरी विशेष रूप से आत्म-रक्षा के अनुकूल हैं तो आपकी भूल है। मेरे चाचा साहब वकील हैं, बड़े भाई साहब डॉक्टरी करते हैं, पर वह लोग केवल धन कमाने की मशीने हैं, मैंने उन्हें कभी असद-सद के झगड़े में पड़ते हुए नहीं पाया?
ज्ञानशंकर–वह चाहें तो आत्मा की रक्षा कर सकते हैं।
ज्वालासिंह–बस, उतनी ही जितनी कि एक सरकारी नौकर कर सकता है। वकील को ही ले लीजिए, यदि विवेक की रक्षा करे तो रोटियाँ चाहे भले खाये, समृद्घिशाली नहीं हो सकता। अपने पेशे में उन्नति करने के लिए उसे अधिकारियों का कृपा-पात्र बनना परमावश्यक है और डॉक्टरों का तो जीवन ही रईसों की कृपा पर निर्भर है, गरीबों से उन्हें क्या मिलेगा? द्वार पर सैकड़ों गरीब रोगी खड़े रहते हैं, लेकिन जहाँ किसी रईस का आदमी पहुँचा, वह उनको छोड़कर फिटन पर सवार हो जाते हैं। इसे मैं आत्मा की स्वाधीनता नहीं कह सकता।
इतने में गौस खाँ, गिरधर महाराज और सुक्खू ने कमरे में प्रवेश किया। गौस तो सलाम करके फर्श पर बैठ गये, शेष दोनों आदमी खड़े रहे। लाला प्रभाशंकर बरामदे में बैठे हुए थे। पूछा, आदमियों को घी के रुपये बाँट दिए?
गौस खाँ–जी हाँ, हुजूर के इकबाल से सब रुपये तकसीम हो गये, मगर इलाके में चन्द आदमी ऐसे सरकश हो गये हैं कि खुदा की पनाह। अगर उनकी तंबीह न की गई तो एक दिन मेरी इज्जत में फर्क आ जायेगा और क्या अजब है जान से भी हाथ धोऊँ!
ज्ञानशंकर–(विस्मित होकर) देहात में भी यह हवा चली?
गौस खाँ ने रोती सूरत बनाकर कहा–हूजूर, कुछ न पूछिए, गिरधर महाराज भाग न खड़े हों तो इनके जान की खैरयित नहीं थी।
ज्ञान–उन आदमियों को पकड़ के पिटवाया क्यों नहीं?
गौस–तो थानेदार साहब के लिए थैली कहाँ से लाता?
ज्ञान–आप लोगों को तो सैकड़ों हथकण्डे मालूम हैं, किसी भी शिकंजे में कस लीजिए?
गौस–हुजूर, मौरूसी असामी हैं, यह सब ज़मींदार को कुछ नहीं समझते। उनमें एक का नाम मनोहर है। बीस बीघे जोतता है और कुल ५०) लगान देता है। आज उसी आसानी का किसी दूसरे असामी से बन्दोबस्त हो सकता तो १०० रुपये कहीं नहीं गये थे।
ज्ञानशंकर ने चचा की ओर देखकर पूछा, आपके अधिकांश असामी दखलदार क्यों कर हो गये?
प्रभाशंकर ने उदासीनता से कहा–जो कुछ किया इन्हीं कारिन्दों ने किया होगा, मुझे क्या खबर?
ज्ञानशंकर–(व्यंग्य से) तभी तो इलाका चौपट हो गया।
प्रभाशंकर ने झुँझलाकर कहा–अब तो भगवान् की दया से तुमने हाथ-पैर सँभाले, इलाके का प्रबन्ध क्यों नहीं करते?
ज्ञान–आपके मारे जब मेरी कुछ चले तब तो।
प्रभा–मुझसे कसम ले लो, जो तुम्हारे बीच कुछ बोलूँ, यह काम करते बहुत दिन हो गये, इसके लिए लोलुप नहीं हूँ।
ज्ञान–तो फिर मैं भी दिखा दूँगा कि सुप्रबन्ध से क्या हो सकता है?

इसी समय कादिर खाँ और मनोहर आकर द्वार पर खड़े हो गये। गौस खाँ ने कहा, हुजूर यह वही असामी है, जिसका अभी मैं जिक्र कर रहा था।
ज्ञानशंकर ने मनोहर की ओर क्रोध से देखकर कहा–क्यों रे, जिस पत्तल पर खाता है उसी में छेद करता है? १०० रुपये की जमीन ५० रुपये में जोतता है, उस पर जब थोड़ा–सा बल खाने का अवसर पड़ा तो जामे से बाहर हो गया?
मनोहर की जबान बन्द हो गई। रास्ते में जितनी बातें कादिर खाँ ने सिखाई थीं, वह सब भूल गया।
ज्ञानशंकर ने उसी स्वर में कहा–दुष्ट कहीं का! तू समझता होगा कि मैं दखलदार हूँ, ज़मींदार मेरा कर ही क्या सकता है? लेकिन मैं तुझे दिखा दूँगा कि ज़मींदार क्या कर सकता है! तेरा इतना हियाव है कि तू मेरे आदमियों पर हाथ उठाये?
मनोहर निर्बल क्रोध से काँप और सोच रहा था, मैंने घी के रुपये नहीं दिये, वह कोई पाप नहीं है। मुझे लेना चाहिए था, दबाव के भय से नहीं, केवल इसलिए कि बड़े सरकार हमारे ऊपर दया रखते थे। उसे लज्जा आयी कि मैंने ऐसे दयालू स्वामी की आत्मा के साथ कृतघ्नता की, किन्तु इसका दण्ड गाली और अपमान नहीं है। उसका अपमानाहत हृदय उत्तर देने के लिए व्यग्र होने लगा! किन्तु कादिर ने उसे बोलने का अवसर नहीं दिया। बोला, हुजूर, हम लोगों की मजाल ही क्या है कि सरकार के आदमियों के सामने सिर उठा सकें? हाँ, अपढ़ गँवार ठहरे बातचीत करने का सहूर नहीं है, उजड्डपन की बातें मुँह से निकल आती हैं। क्या हम नहीं जानते कि हुजूर चाहें तो आज हमारा कहीं ठिकाना न लगे! तब तो यही विनती है कि जो खता हुई, माफी दी जाये।
लाला प्रभाशंकर को मनोहर पर दया आ गई, सरल प्रकृति के मनुष्य थे। बोले–तुम लोग हमारे पुराने असामी हो, क्या नहीं जानते हो कि असामियों पर सख्ती करना हमारे यहाँ का दस्तूर नहीं है? ऐसा ही कोई काम आ पड़ता है तो तुमसे बेगार ली जाती है और तुम हमेशा उसे हँसी-खुशी देते रहे हो। अब भी उसी तरह निभाते चलो। नहीं तो भाई, अब जमाना नाजुक है, हमने तो भली-बुरी तरह अपना निभा दिया, मगर इस तरह लड़कों से न निभेगी। उनका खून गरम ठहरा, इसलिए सब सँभलकर रहो, चार बातें सह लिया करो, जाओ, फिर ऐसा काम न करना। घर से कुछ खाकर चले न होगे। दिन भी चढ़ आया, यहीं खा-पी कर विश्राम करो, दिन ढले चले जाना।
प्रभाशंकर ने अपने निर्द्वन्द्व स्वभाव के अनुसार इस मामले को टालना चाहा; किन्तु ज्ञानशंकर ने उनकी ओर तीव्र नेत्रों से देखकर कहा–आप मेरे बीच में क्यों बोलते हैं? इस नरमी ने तो इन आदमियों को शेर बना दिया है। अगर आप इस तरह तेरे कामों में हस्तक्षेप करते रहेंगे तो मैं इलाके का प्रबन्ध कर चुका। अभी आपने वचन दिया है कि इलाके से कोई सरोकार न रखूँगा। अब आपको बोलने का कोई अधिकार नहीं है।
प्रभाशंकर यह तिरस्कार न सह सके, रुष्ट होकर बोले–अधिकार क्यों नहीं है? क्या मैं मर गया हूँ?
ज्ञानशंकर–नहीं, आपको कोई अधिकार नहीं है। आपने सारा इलाका चौपट कर दिया, अब क्या चाहते हैं कि बचा-खुचा है, उसे धूल में मिला दें।
प्रभाशंकर के कलेजे में चोट लग गई। बोले–बेटा! ऐसी बातें करके क्यों दिल दुखाते हो? तुम्हारे पूज्य पिता मर गये, लेकिन कभी मेरी बात नहीं दुलखी। अब तुम मेरी जबान बन्द कर देना चाहते हो, किन्तु यह नहीं हो सकता कि अन्याय देखा करूँ और मुँह न खोलूँ। जब तक जीवित हूँ, तुम यह अधिकार मुझसे नहीं छीन सकते।
ज्वालासिंह ने दिलासा दिया–नहीं साहब, आप घर के मालिक हैं, यह आपकी गोद के पाले हुए लड़के हैं, इनकी अबोध बातों पर ध्यान न दीजिए। इसकी भूल है जो कहते हैं कि आपका कोई अधिकार नहीं है। आपको सब कुछ अधिकार है, आप घर के स्वामी हैं।

गौस खाँ ने कहा–हुजूर का फर्माना बहुत दुरुस्त है। आप खानदान के सरपस्त और मुरब्बी हैं। आपके मन्सब से किसे इनकार हो सकता है?
ज्ञानशंकर समझ गये कि ज्वालासिंह ने मुझसे बदला ले लिया। उन्हें यह खेद हुआ कि ऐसी अविनय मैंने क्यों की! खेद केवल यह था कि ज्वालासिंह यहाँ बैठे थे और उनके सामने वह सज्जनता नहीं प्रकट करना चाहते थे। बोले–अधिकार से मेरा यह आशय नहीं था जो आपने समझा। मैं केवल यह कहना चाहता था कि जब आपने इलाके का प्रबन्ध मेरे सुपुर्द कर दिया है तो मुझी को करने दीजिए। यह शब्द अनायास मेरे मुँह से निकल गया। मैं इसके लिए बहुत लज्जित हूँ। भाई ज्वालासिंह, मैं चचा साहब का जितना अदब करता हूँ उतना अपने पिता का भी नहीं किया। मैं स्वयं गरीब आदमियों पर सख्ती करने का विरोधी हूँ। इस विषय में आप मेरे विचारों से भली-भाँति परिचित हैं। किन्तु इसका यह आशय नहीं है कि हम दीन-पालन की धुन में इलाके से ही हाथ धो बैठें? पुराने जमाने की बात और थी। तब जीवन संग्राम इतना भयंकर न था हमारी आवश्यकताएँ परिमित थीं, सामाजिक अवस्था इतनी उन्नत न थी और सबसे बड़ी बात तो यह है कि भूमि का मूल्य इतना चढ़ा हुआ न था। मेरे कई गाँव जो दो-दो हजार पर बिक गये हैं, उनके दाम आज बीस-बीस हजार लगे हुए हैं। उन दिनों असामी मुश्किल से मिलते थे, अब एक टुकड़े कि लिए सौ-सौ आदमी मुँह फैलाए हुए हैं। यह कैसे हो सकता है कि इस आर्थिक दशा का असर ज़मींदार पर न पड़े?
लाला प्रभाशंकर को अपने अप्रिय शब्दों का बहुत दुःख हुआ, जिस भाई को वे देवतुल्य समझते थे, उसी के पुत्र से द्वेष करने पर उन्हें बड़ी ग्लानि हुई। बोले–भैया, इन बातों को तुम जितना समझोगे, मैं बूढ़ा आदमी उतना क्या समझूँगा? तुम घर के मालिक हो। मैंने भूल की कि बीच में कूद पड़ा। मेरे लिए एक टुकड़ा रोटी के सिवा और किसी चीज की आवश्यकता नहीं है। तुम जैसे चाहो वैसे घर को सँभालो।
थोड़ी देर सब लोग चुपचाप बैठे रहे। अन्त में गौस खाँ ने पूछा–हुजूर, मनोहर के बारे में क्या हुक्म होता है?
ज्ञानशंकर–इजाफा लगान का दावा कीजिए?
कादिर–सरकार, बड़ा गरीब आदमी है, मर जायेगा?
ज्ञानशंकर–अगर इसकी जोत में कुछ सिकमी जमीन हो तो निकाल लीजिए?
कादिर–सरकार, बेचारा बिना मारे मर जायेगा।
ज्ञानशंकर–उसकी परवाह नहीं, असामियों की कमी नहीं है।
कादिर–सरकार जरा…
ज्ञानशंकर–बस कह दिया कि जबान मत खोलो।
मनोहर अब तक चुपचाप खड़ा था। प्रभाशंकर की बात सुनकर उसे आशा हुई थी कि यहाँ आना निष्फल नहीं हुआ। उनकी विनयशीलता ने वशीभूत कर लिया था ज्ञानशंकर के कटु व्यवहार के सामने प्रभाशंकर की नम्रता उसे देवोचित प्रतीत होती थी। उसके हृदय में उत्कण्ठा हो रही थी कि अपना सर्वस्व लाकर इनके सामने रख दूँ और कह दूँ कि यह मेरी ओर से बड़े सरकार की भेंट है। लेकिन ज्ञानशंकर के अन्तिम शब्दों ने इन भावनाओं को पद-दलित कर दिया। विशेषतः कादिर मियाँ का अपमान उसे असह्य हो गया। तेवर बदल कर बोला–दादा, इस दरबार से अब दया-धर्म उठ गया। चलो, भगवान की जो इच्छा होगी, वह होगा। जिसने मुँह चीरा वह खाने को भी देगा। भीख नहीं तो परदेश तो कहीं नहीं गया है?
यह कहकर उसने कादिर का हाथ पकड़ा और उसे जबरदस्ती खींचता दीवानखाने से बाहर निकल गया। ज्ञानशंकर को इस समय इतना क्रोध आ रहा था कि यदि कानून का भय न होता तो वह उसे जीता चुनवा देते। अगर इसका कुछ अंश मनोहर को डाँटने-फटकारने में निकल जाता तो कदाचित् उनकी ज्वाला कुछ शान्त हो जाती, किन्तु अब हृदय में खौलने के सिवा उनके निकलने का कोई रास्ता न था। उनकी दशा उस बालक की-सी हो रही थी, जिसका हमजोली उसे दाँत काटकर भाग गया हो। इस ज्ञान से उन्हें शान्ति न होती थी कि मैं इस मनुष्य के भाग का विधाता हूँ आज इसे पैरों तले कुचल सकता हूँ। क्रोध को दुर्वचन से विशेष रुचि होती है।
ज्वालासिंह मौनी बने बैठे थे। उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि ज्ञानशंकर में इतनी दयाहीन स्वार्थपरता कहाँ से आ गई? अभी क्षण-भर पहले यह महाशय न्याय और लोक-सेवा का कैसा महत्वपूर्ण वर्णन कर रहे थे। इतनी ही देर में यह कायापलट। विचार और व्यवहार में इतना अन्तर? मनोहर चला गया तो ज्ञानशंकर से बोले–इजाफा लगान का दावा कीजिएगा तो क्या उसकी ओर से उज्रदारी न होगी? आप केवल एक असामी पर दावा नहीं कर सकते।
ज्ञानशंकर–हाँ, यह आप ठीक कहते हैं। खाँ साहब, आप उन असामियों की एक सूची तैयार कीजिए, जिन पर कायदे के अनुसार इजाफा हो सकता है। क्या हरज है, लगे हाथ सारे गाँव पर दावा हो जाये?
ज्वालासिंह ने मनोहर की रक्षा के लिए यह शंका की थी। उसका यह विपरीत फल देखकर उन्हें फिर कुछ कहने का साहस न हुआ। उठकर ऊपर चले गये।

5.

एक महीना बीत गया, गौस खाँ ने असामियों की सूची न तैयार की और न ज्ञानशंकर ने ही फिर ताकीद की । गौस खाँ के स्वहित और स्वामिहित में विरोध हो रहा था और ज्ञानशंकर सोच रहे थे कि जब इजाफे से सारे परिवार का लाभ होगा तो मुझको क्या पड़ी है कि बैठे-बिठाए सिर-दर्द मोल लूँ। सैकड़ों गरीबों का गला तो मैं दबाऊँ और चैन सारा घर करे। वह इस सारे अन्याय का लाभ अकेले ही उठाना चाहते थे, और लोग भी शरीक हों, यह उन्हें स्वीकार नहीं था। अब उन्हें रात-दिन यही दुश्चिन्ता रहती थी कि किसी तरह चचा साहब से अलग हो जाऊँ। यह विचार सर्वथा उनके स्वार्थानुकूल था। उनके ऊपर केवल तीन प्राणियों के भरण-पोषण का भार था-आप, स्त्री और भावज। लड़का अभी दूध पीता था। इलाके की आमदनी का बड़ा भाग प्रभाशंकर के काम आता था। जिनके तीन पुत्र थे, दो पुत्रियाँ एक बहू, एक पोता और और स्त्री-पुरुष आप। ज्ञानशंकर अपने पिता के परिवार-पालन पर झुँझलाया करते। आज से तीन साल पहले वह अलग हो गए होते तो आज हमारी दशा ऐसी खराब न होती । चचा के सिर जो पड़ती उसे झेलते, खाते चाहे उपवास करते, हमसे तो कोई मतलब न रहता बल्कि उस दशा में हम उनकी कुछ सहायता करते तो वह इसे ऋण समझते, नहीं तो आज झाड़-लीप कर हाथ काला करने के सिवा और क्‍या मिला? प्रभाशंकर दुनिया देखे हुए थे। भतीजे का यह भाव देखकर दबते थे, अनुचित बातें सुनकर भी अनुसुनी कर जाते। दयाशंकर उनकी कुछ सहायता, करने के बदले उलटे उन्हीं के सामने हाथ फैलाते रहते थे, इसलिए दब कर रहने में ही उनका कल्याण था।

ज्ञानशंकर दम्भ और द्वेष के आवेग में बहने लगे। एक नौकर चचा का काम करता तो दूसरे को खामखाह अपने किसी न किसी काम में उलझा रखते। इसी फेर में पड़े रहते कि चचा के आठ प्राणियों पर जितना व्यय होता है उतना मेरे तीन प्राणियों पर हो। भोजन करने जाते तो बहुत-सा खाना जूठा करके छोड़ देते। इतने पर भी सन्‍तोष न हुआ तो दो कुत्ते पाले। उन्हें साथ बैठाकर खिलाते। यहाँ तक कि प्रभाशंकर डॉक्टर के यहाँ से कोई दवा लाते तो आप उतने ही मूल्य की औषधि अवश्य लाते, चाहे उसे फेंक ही क्‍यों न दें! इतने अन्याय पर भी चित्त को शान्ति न होती थी। चाहते थे कि महिलाओं में भी बमचख मचे। विद्या की शालीनता उन्हें नागवर मालूम होती, उसे समझाते कि तुम्हें अपने भले-बुरे की जरा भी परवा नहीं। मरदों को इतना अवकाश कहाँ कि जरा-जरा-सी बात पर ध्यान रखें। यह स्त्रियों का खास काम है, यहाँ तक कि इसी कारण उन्हें घर में आग लगाने का दोष लगाया जाता है, लेकिन तुम्हें किसी बात की सुधि ही नहीं रहती। आँखों से देखती हो कि घी घड़ा लुढ़का जाता है, पर जबान नहीं हिलती। विद्यावती यह शिक्षा पाकर भी उसे ग्रहण न करती थी।

इसी बीच में एक ऐसी घटना हो गई, जिसने इस विरोधाग्नि को और भी भड़का दिया। दयाशंकर यों तो पहले से ही अपने थाने में अन्धेर मचाए हुए थे। लेकिन जब से ज्वालासिंह उनके इलाके के मजिस्ट्रेट हो गए थे तब से तो वह पूरे बादशाह बन बैठे थे। उन्हें यह मालूम ही था कि डिप्टी साहब ज्ञानशंकर के मित्र हैं। इतना सहारा मेलजोल पैदा करने के लिए काफी था। कभी उनके पास चिड़िया भेजते; कभी मछलियाँ, कभी दूध-घी। स्वयं उनसे मिलने जाते तो मित्रवत्‌ व्यवहार करते। इधर सम्मान बढ़ा तो भय कम हुआ, इलाके को लूटने लगे। ज्वालासिंह के पास शिकायतें पहुँचीं, लेकिन वह लिहाज के मारे न तो दयाशंकर से और न उनके घरवालों से ही इनकी चर्चा कर सके। लोगों ने जब देखा कि डिप्टी साहब भी हमारी फरियाद नहीं सुनते तो हार मानकर चुप हो बैठे। दयाशंकर और भी शेर हुए। पहले दाँव-घात देखकर हाथ चलाते थे, अब निःशंक हो गए। यहाँ तक कि प्याला लबालब हो गया। इलाके में एक भारी डाका पड़ा। वह उसकी तहकीकात करने गए। एक जमींदार पर सन्देह हुआ तुरन्त उसके घर की तलाशी लेनी शुरू की, चोरी का कुछ माल बरामद हो गया। फिर क्‍या था, उसी दम उसे हिरासत में ले लिया। जमींदार ने कुछ दे-दिला कर बला टाली। पर अभिमानी मनुष्य था, यह अपमान न सहा गया। उसने दूसरे दिन ज्वालासिंह के इजलास में दारोगा साहब पर मुकदमा दायर कर दिया। इलाके में आग सुलग रही थी, हवा पाते ही भड़क उठी। चारों तरफ से झूठे-सच्चे इस्तगासे होने लगे। अन्त में ज्यालासिंह को विवश होकर इन मामलों की छानबीन करनी पड़ी, सारा रहस्य खुल गया। उन्होंने पुलिस के अधिकारियों को रिपोर्ट की। दयाशंकर मुअत्तल हो गए, उन पर रिसवत लेने और झूठे मुकदमे बनाने के अभियोग चलने लगे। पाँसा पलट गया; उन्होंने जमींदार को हिरासत में लिया था। अब खुद हिरासत में आ गए। लाला प्रभाशंकर उद्योग से जमानत मंजूर हो गई, लेकिन अभियोग इतने सप्रमाण थे कि दयाशंकर के बचने की बहुत कम आशा थी। वह स्वयं निराश थे। सिट्टी-पट्टी भूल गई, मानो किसी ने बुद्धि हर ली हो। जो जबान थाने की दीवारों को कम्पित कर दिया करती थी, वह अब हिलती भी न थी। वह बुद्धि जो हवा में किले बनाती रहती, अब इस गुत्थी को भी न सुलझा सकती थी। कोई कुछ पूछता तो शून्य भाव से दीवार की ओर ताकने लगते। उन्हें खेद न था, लज्जा न थी, केवल विस्मय था कि मैं इस दलदल में कैसे फँस गया? वह मौन दशा में बैठे सोचा करते, मुझसे यह भूल हो गई, अमुक बात बिगड़ गई, नहीं तो कदापि नहीं फँसता। विपत्ति में भी जिस हृदय में सदज्ञान न उत्पन्न हो वह सूखा वृक्ष है, जो पानी पाकर पनपता नहीं बल्कि सड़ जाता है। ज्ञानशंकर इस दुरवस्था में अपने सम्बन्धियों की सहायता करना अपना धर्म समझते थे; किन्तु इस विषय में उन्हें किसी से कुछ कहते हुए संकोच ही नहीं होता, वरन्‌ जब कोई दयाशंकर के व्यवहार की आलोचना करने लगता, तब वह उसका प्रतिवाद करने के बदले उससे सहमत हो जाते थे।

लाला प्रभाशंकर ने बेटे को बरी कराने के लिए कोई बात उठा नहीं रखी। वह रात-दिन इसी चिन्ता में डूबे रहते थे। पुत्र-प्रेम तो था ही पर कदाचित्‌ उससे भी अधिक लोकनिन्दा की लाज थी। जो घराना सारे शहर में सम्मानित हो उसका यह पतन हृदय-विदारक था। जब वह चारों तरफ से दौड़-धूप कर निराश हो गए तब एक दिन ज्ञानशंकर से बोले, आज जरा ज्वालासिंह के पास चले जाते; तुम्हारे मित्र हैं, शायद कुछ रियायत करें।

ज्ञानशंकर ने विस्मित भाव से कहा, मेरा इस वक्‍त-उनके पास जाना सर्वधा अनुचित है। ज्ञानशंकर-मैं जानता हूँ और इसीलिए अब तक तुमसे जिक्र नहीं किया लेकिन अब इसके बिना काम नहीं चलता दिखाई देता। डिप्टी साहब अपने इजलास से बरी कर दें फिर आगे हम देख लेंगे। वह चाहें तो सबूतों को निर्बल बना सकते हैं।
ज्ञान-पर आप इसकी कैसे आशा रखते हैं कि मेरे कहने से वह अपने ईमान का खून करने पर तैयार हो जाएँगे।
प्रभाशंकर ने आग्रह पूर्वक कहा, मित्रों के कहने सुनने का बड़ा असर होता है।

बूढ़ों की बातें बहुधा वर्तमान सभ्य प्रथा के प्रतिकूल होती हैं। युवकगण इन बातों पर अधीर हो उठते हैं। उन्हें बूढ़ों का यह अज्ञान-अक्षम्य-सा जान पड़ता है ज्ञानशंकर चिढ़कर बोले, जब आपकी समझ में बात ही नहीं आती तो मैं क्‍या करूँ मैं अपने को दूसरों की निगाह में गिराना नहीं चाहता।
प्रभाशंकर ने पूछा, क्या अपने भाई की सिफारिश करने से अपमान होता है?
ज्ञानशंकर ने कटु भाव से कहा, सिफारिश चाहे किसी काम के लिए हो, नीची बात है, विशेष करके ऐसे मामले में।
प्रभाशंकर बोले, इसका अर्थ तो यह है कि मुसीबत में भाई से मदद की आशा न रखनी चाहिए।
“मुसीबत उन कठिनाइयों का नाम है जो देवी और अनिवार्य कारणों से उत्पन्न हों, जान-बूझ कर आग में कूदना मुसीबत नहीं है।
“लेकिन जो जान-बूझ कर आग में कूदे, क्या उसकी प्राण-रक्षा न करनी चाहिए?’

इतने में बड़ी बहू दरवाजे पर आकर खड़ी हो गई और बोली, चलकर लल्लू (दयाशंकर) को जरा समझा क्‍यों नहीं देते? रात को भी खाना नहीं ख़ाया और इस वक्‍त अभी तक हाथ-मुँह नहीं धोया। प्रभाशंकर खिन्‍न होकर बोले, कहाँ तक समझाऊँ? समझाते-समझाते तो हार गया। बेटा! मेरे चित्त की इस समय जो दशा है, वह बयान नहीं कर सकता। तुमने जो बातें कहीं हैं वह बहुत माकूल हैं, लेकिन मुझ पर इतनी दया करो, आज डिप्टी साहब के पास जरा चले आओ। मेरा मन कहता है, कि तुम्हारे जाने से कुछ-न-कुछ उपकार अवश्य होगा।

ज्ञानशंकर बगलें झाँक रहे थे कि बड़ी बहू बोल उठी, यह जा चुके। लल्लू कहते थे कि ज्ञान झूठ भी जाकर कुछ कह दें तो सारा काम बन जाए, लेकिन इन्हें क्या परवाह है, चाहे कोई चूल्हे भाड़ में जाए। फँसाना होता तो चाहे दौड़-धूप करते भी, बचाने कैसे जाएँ, हेठी न हो जाएगी।
प्रभाशंकर ने तिरस्कार के भाव से कहा, क्या बेबात की बात कहती हो? अन्दर जाकर बैठती क्‍यों नहीं?
बड़ी बहू ने कुटिल नेत्रों से ज्ञानशंकर को देखते हुए कहा, मैं तो बलाग बात कहती हूँ, किसी को भला लगे या बुरा। जो बात इनके मन में है वह मेरी आँखों के सामने है।
ज्ञानशंकर मर्माहत होकर बोले, चाचा साहब! आप सुनते हैं इनकी बातें? यह मुझे इतना नीच समझती हैं।

बड़ी बहू ने मुँह बनाकर कहा, यह क्या सुनेंगे, कान भी हों? सारी उम्र गुलामी करते कटी, अब भी वही आदत पड़ी हुई है। तुम्हारा हाल मैं जानती हूँ।

प्रभाशंकर ने व्यथित होकर कहा, ईश्वर के लिए चुप रहो। बड़ी बहू त्योरियाँ चढ़ा कर बोली, चुप क्‍यों रहूँ, किसी का डर है? यहाँ तो जान पर बनी हुई है और यह अपने घमण्ड में भूले हुए हैं। ऐसे आदमी का तो मुँह देखना पाप है।

प्रभाशंकर ने भतीजे की ओर दीनता से देखकर कहा, बेटा, यह इस समय आपे में नहीं हैं। इनकी बातों का बुरा मत मानना। लेकिन ज्ञानशंकर ने ये बातें न सुनीं, चाची के कठोर वाक्य उनके हृदय को मथ रहे थे। बोले, तो मैं आप लोग के साथ रहकर कौन-सा स्वर्ग का सुख भोग रही हूँ।
बड़ी बहू-जो अभिलाषा मन में हो वह निकाल डालो। जब अपनापन ही नहीं, तो एक घर में रहने से थोड़े ही एक हो जाएँगे!
ज्ञान-आप लोगों की यही इच्छा है तो यही सही, मुझे निकाल दीजिए।

बड़ी बहू-हमारी इच्छा है? आज महीनों से तुम्हारा रंग देख रही हूँ। ईश्वर ने आँखें दी हैं, धूप में बाल नहीं सफेद किए हैं। हम लोग तुम्हारी आँख में काँटे की तरह खटकते हैं। तुम समझते हो यह लोग हमारा सर्वस्व खाए जाते हैं। जब तुम्हारे मन में इतना कमीनापन आ गया तो फिर-

प्रभाशंकर ने ठण्डी साँस लेकर कहा, या ईश्वर, मुझे मौत क्‍यों नहीं आ जाती बड़ी बहू ने पति को कुपित नेत्रों से देखकर कहा, तुम्हें, यह बहुत प्यारे हैं, तो जाकर इनकी जूतियाँ सीधी करो। जो आदमी मुसीबत में साथ न दे, वह दुश्मन है, उससे दूर रहना ही अच्छा है।
ज्ञान-तो यह धमकी किसे देती हो? कल के बदले आज ही हिस्सा बाँट कर लो!
बड़ी बहू-क्या तुम समझते हो कि हम तुम्हारा दिया खाती हैं?
बड़ी बहू-नहीं, तुम्हें यही घमण्ड है।
ज्ञान-अगर यही घमण्ड है तो क्या अन्याय है। जितना आपका खर्च है उतना मेरा कभी नहीं है।

बड़ी बहू ने पति की ओर देखकर व्यंग्य भाव से कहा-कुछ सुन रहे हो सपूत की बातें! बोलते क्यों नहीं? क्या मुँह में दही जमा हुआ है। बाप हजारों रुपये साल साधू-भिखारियों को खिला दिया करते थे। मरते दम तक पालकी के बारह कहार दरवाजे से नहीं टले। इन्हें आज हमारी रोटियाँ अख़र रही हैं। लाला हमारा बस मानो कि आज रईसों की तरह चैन कर रहे हो, नहीं तो मुँह में मक्खियाँ आती-जातीं ।

प्रभाशंकर यह बातें न सुन सके। उठकर बाहर चले गए। बड़ी बहू मोर्चे पर अकेले ठहर न सकीं, घर में चली गईं। लेकिन ज्ञानशंकर वहीं बैठे रहे । उनके हृदय में एक दाह-सी हो रही थी। इतनी निष्ठुरता! इतनी कृतघ्नता! मैं कमीना हूँ, मैं दुश्मन हूँ, मेरी सूरत देखना पाप है। जिन्दगी-भर हमको नोचा-खसोटा, आज यह बातें! यह घमण्ड! देखता हूँ यह घमंड कब तक रहता है? इसे तोड़ न दिया तो कहना! ये लोग सोचते होंगे, मालिक तो हम हैं, कुञ्जियाँ तो हमारे पास हैं, इसे जो देंगे, वह ले लेगा। एक-एक चीज का आधा करा लूँगा। बुढ़िया के पास जरूर रुपये हैं। पिता जी ने सब कुछ इन्हीं लोगों पर छोड़ दिया था। इसने काट-कपट कर दस-बीस हजार जमा कर लिया है। बस, उसी का घमण्ड है, और कोई बात नहीं। द्वेष में दूसरों को धनी समझने की विशेष चेष्टा होती है।

ज्ञानशंकर इन कुकल्पनाओं से भरे हुए बाहर आए तो चाचा को दीवानखाने में मुंशी ईजादहुसैन से बातें करते पाया । यह मुंशी ज्वालासिंह के इजलास के अहलमद थे-बड़े बातूनी, बड़े चलते-पुर्जे, वह कह रहे थे आप घबराएँ नहीं, खुदा ने चाहा तो बाबू दयाशंकर बेदाग बरी हो जाएँगे। मैंने महरी की मारफत उनकी बीवी को ऐसा चंग पर चढ़ाया है कि वह दारोगा जी को विला बरी कराए डिप्टी साहब का दामन न छोड़ेंगी। सौ-दो सौ रुपये खर्च हो जाएँगे, मगर क्या मुजायका, आबरू तो बच जाएगी। अकस्मात्‌ ज्ञानशंकर को वहाँ देखकर वह कुछ झेंप गए।

प्रभाशंकर बोले, रुपये जितने दरकार हों ले जाएँ, आपकी कोशिश से बात बन गई तो हमेशा आपका शुक्रगुजार रहूँगा।

ईजाद हुसैन ने ज्ञानशंकर को देखते हुए कहा, बाबू ज्वालासिंह दोस्ती का कुछ हक तो जरूर ही अदा करेंगे। जबान से चाहे कितने ही बेनियाज बनें लेकिन दिल में वह आपका बहुत लेहाज करते हैं। मैं भी इस पर खूब रंग चढ़ाता हूँ। कल आपका जिक्र करते हुए मैंने कहा, वह तो दो-तीन दिन से दाना-पानी तर्क किए हुए हैं। यह सुनकर कुछ गौर करने लगे, बाद अजाँ उठकर अन्दर चले गए।

प्रभाशंकर ने मुंशी को श्रद्धापूर्ण नेत्रों से देखा, पर ज्ञानशंकर ने तुच्छ दृष्टि से देखा. और ऊपर चले गए। विद्यावती उनकी राह देख रही थी, बोली, आज देर क्‍यों कर रहे हो? भोजन तो कभी से तैयार है।

ज्ञानशंकर ने उदासीनता से कहा, क्‍या खाऊँ, कुछ मिले भी? मालिक और मालकिन दोनों ने आज से मेरा निबटारा कर दिया। उन्हें मेरी सूरत देखने से पाप लगता है। ऐसों के साथ रहने से तो मर जाना अच्छा है।
विद्यावती ने सशंक होकर पूछा, क्या बात हुई?

ज्ञानशंकर ने इस प्रश्न का उत्तर विस्तार के साथ दिया। उन्हें आशा थी कि इन बातों से विद्या की शान्तिप्रियता को आघात पहुँचेगा, किन्तु उन्हें कितनी निराशा हुई। जब उसने सारी कथा सुनने के बाद कहा, तुम्हें ज्वालासिंह के यहाँ चले जाना चाहिए था। चाचा जी की बात रह जाती। ऐसे ही अवसरों पर तो अपने-पराए की पहचान होती है। तुम्हारी ओर से आना-कानी देखकर उन लोगों को क्रोध आ गया होगा। क्रोध में आदमी अपने मन की बात नहीं कहता। वह केवल दूसरों का दिल दुखाना चाहता है।

ज्ञानशंकर खिन्‍न होकर बोले, तुम्हारी बातें सुनकर जी चाहता है कि अपना और तुम्हारा दोनों का सिर फोड़ लूँ। उन लोगों के कटु वाक्यों को फूल-पान समझ लिया, मुझी को उपदेश देने लगी। मुझे तो यह लज्जा आ रही है कि इस गुरगे ईजाद हुसैन ने मेरी तरफ से जाने क्या रद्दे जमाये होंगे और तुम मुझे सिफारिश करने की शिक्षा देती हो। मैं ज्वालासिंह को जता देना चाहता हूँ कि इस विषय में सर्वथा स्वतन्त्र हूँ। गरजमन्द बनकर उनकी दृष्टि में नीचा बनना नहीं चहता।
विद्या ने विस्मित होकर पूछा, क्या उनसे यह कहने जाओगे?
ज्ञानशंकर-आवश्य जाऊँगा। दूसरे की आबरू के लिए अपनी प्रतिष्ठा क्‍यों खोऊँ?
विद्या-भला वह अपने मन में क्‍या कहेंगे? क्या इससे तुम्हारा द्वेष न प्रकट होगा?
ज्ञानशंकर-तुम मुझे जितना मूर्ख समझती हो, उतना नहीं हूँ। मुझे मालूम है कौन बात किस ढंग से करनी चाहिए।

विद्या चिन्तित नेत्रों से भूमि की ओर देखने लगी। उसे पति की संकीर्णता पर खेद हो रहा था, लेकिन कुछ और कहते डरती थी कि कहीं उसकी दुष्कामना और भी दृढ़ न हो जाए। इतने में दयाशंकर की स्त्री भोजन करने के लिए बुलाने आई। उधर श्रद्धा ने जाकर बड़ी बहू को मनाना शुरू किया। विद्या ने लाला प्रभाशंकर को मनाने के लिए तेजशंकर को भेजा, पर इनमें कोई भी भोजन करने न उठा। प्रभाशंकर को यह ग्लानि हो रही थी कि मेरी स्त्री ने ज्ञानशंकर को अप्रिय बातें सुनाईं। बड़ी बहू को शोक था कि मेरे पुत्र का कोई हितैषी नहीं और ज्ञानशंकर को यह जलन थी कि यह लोग मेरा खाकर मुझी को आँखें दिखाते हैं। क्षुधाग्नि के साथ क्रोधाग्नि भी भड़क जाती थी।

विवाद में हम बहुधा अत्यन्त नीतिपरायण बन जाते हैं, पर वास्तव में इससे हमारा अभिप्राय यही होता है, कि विपक्षी की जबान बन्द कर दें। इन चन्द घण्टों में ही ज्ञानशंकर की नीतिपरायणता ईर्षाग्नि में परिवर्तित हो चुकी थी। जिस प्राणी के हित के लिए ज्वालासिंह से कुछ कहना उन्हें असंगत जान पड़ता था, उसी के अहित के लिए वह वहाँ जाने को तैयार हो गए। उन्होंने इस प्रसंग में सारी बातें मन में निश्चित कर ली थीं, इस प्रश्न को ऐसी कुशलता से उठाना चाहते थे कि नीयत का परदा न खुलने पाए।

दूसरे दिन प्रातः काल ज्यों ही नौ बजे ज्ञानशंकर ने पैरगाड़ी सँभाली और घर से निकले। द्वार पर लाला प्रभाशंकर अपने दोनों पुत्रों के साथ टहल रहे थे। ज्ञानशंकर ने मन में कहा, बुड्ढा साठ वर्ष का हो गया है, पर अभी तक वही जवानी की ऐंठ है। कैसा अकड़कर चलता है! अब देखता हूँ, मिश्री और मक्खन कहाँ मिलता है? लौंडे मेरी ओर कैसे घूर रहे हैं। मानो निगल जायेंगे।

वर्षा का आगमन हो चुका था, घटा उमड़ी हुई थी। मानो समुद्र आकाश पर चढ़ गया हो। सड़कों पर इतना कीचड़ था कि ज्ञानशंकर की पैरगाड़ी मुश्किल से निकल सकी, छीटों से कपड़े खराब हो गये। उन्हें म्युनिसिपैलिटी के सदस्यों पर क्रोध आ रहा था कि सब-के-सब स्वार्थी खुशामदी और उचक्के हैं। चुनाव के समय भिखारियों की तरह द्वार-द्वार घूमते-फिरते हैं, लेकिन मेम्बर होते ही राजा बन बैठते हैं। उस कठिन तपस्या का फल यह निर्वाण पद प्राप्त हो जाता है। यह बड़ी भूल है कि मेम्बरों को एक निर्दिष्ट काल के लिए रखा जाता है। वोटरों को अधिकार होना चाहिए कि जब किसी सदस्य को जी चुराते-देखें तो उसे पदच्युत कर दें। यह मिथ्या है कि उस दशा में कोई कर्तव्यपरायण मनुष्य मेम्बरी के लिए खड़ा न होगा। जिन्हें राष्ट्रीय उन्नति की धुन है, वह प्रत्येक अवस्था में जाति-सेवा के लिए तैयार रहेंगे। मेरे विचार में जो लोग सच्चे अनुराग से काम करना चाहते हैं वह इस बन्धन से और भी खुश होंगे। इससे उन्हें अपनी अकर्मण्यता से बचने का एक साधन मिल जायेगा। और यदि हमें जाति-सेवा का अनुराग नहीं तो म्युनिसिपल हाल में बैठने की तृष्णा क्यों हो। क्या इससे इज्जत होती है? सिपाही बन कर कोई लड़ने से जी चुराये, यह उसकी कीर्ति नहीं, अपमान है।

ज्ञानशंकर इन्हीं विचारों में मग्न थे कि ज्वालासिंह का बंगला आ गया। वह घोड़े पर हवा खाने जा रहे थे। साईस घोड़ा कसे खड़ा था। ज्ञानशंकर को देखते ही बड़े प्रेम से मिले और इधर-उधर की बातें करने लगे। उन्हें भ्रम हुआ कि यह महाशय अपने भाई की सिफारिश करने आये होंगे। इसलिए उन्हें इस तरह बातों में लगाना चाहते थे कि उस मुकदमे की चर्चा ही न आने पाये। उन्हें दयाशंकर के विरुद्ध कोई सबल प्रमाण न मिला था। यह वह जानते थे कि दयाशंकर का जीवन उज्ज्वल नहीं है, परन्तु यह अभियोग सिद्ध न होता था। उनको बरी करने का निश्चय कर चुके थे। ऐसी दशा में वह किसी को यह विचार करने का अवसर नहीं देना चाहते थे कि मैंने अनुचित पक्षपात किया है। ज्ञानशंकर के आने से जनता के सन्देह की पुष्टि हो सकती थी। जनता को ऐसे समाचार बड़ी आसानी से मिल जाते हैं। अरदली और चपरासी अपना गौरव बढ़ाने के लिए ऐसी खबरें बड़ी तत्परता से फैलाते हैं। बोले– कहिए, आपके असामी सीधे हो गये।

ज्ञानशंकर– जी नहीं, उन्हें काबू में करना इतना सहज नहीं है। चाचा साहब ने उन्हें सिर चढ़ा दिया है। मैं इधर ऐसे झमेले में पड़ा रहा कि उस विषय में कुछ करने का अवकाश ही न मिला।

ज्वालासिंह डरे भूमिका तो नहीं है। तुरन्त पहलू बदलकर बोले– भाई साहब, मैंने यह नौकरी क्या कर ली। एक जंजाल सिर ले लिया। प्रातः काल से सन्ध्या तक सिर उठाने की फुरसत नहीं मिलती। बहुधा दस-ग्यारह बजे रात तक काम करना पड़ता है। और इतना ही होता तो भुगत भी लेता, इसके साथ-साथ यह चिन्ता भी लगी रहती है कि ऊपरवाले खुश रहें। आप जानते ही हैं, अबकी वर्षा बहुत हुई है, मेरे इलाके के सैकड़ों गाँवों में बाढ़ आ गयी। खेतों का तो कहना ही क्या, किसानों की झोंपड़ियाँ तक बह गईं। ज़मींदारों ने आधी मालगुजारी की छूट प्रार्थन की है और यह सर्वथा न्यायानुकूल है। किन्तु हाकिमों की यह इच्छा मालूम होती है कि इन दरखास्तों को दाखिल-दफ्तर कर दिया जाये। यद्यपि वह प्रत्यक्ष ऐसा करते नहीं, पर हानियों की जाँच में इतनी बाधाएँ डालते हैं कि जाँच व्यर्थ हो जाती हैं। अब यदि मैं जानकर अनजान बनूँ और स्वछन्दता से जाँच करूँ तो अवश्य ही मुझ पर फटकार पड़ेगी। लोग सन्देह की दृष्टि से देखने लगेंगे। यहाँ की हवा ही कुछ ऐसी बिगड़ी हुई है कि मनुष्य इस अन्याय से किसी भाँति बच नहीं सकता। अपने अन्य सहवर्गियों की दशा देखकर बस यही इच्छा होती है कि इस्तीफा देकर घर की राह लूँ, मनुष्य कितना स्वार्थ-प्रिय और कितना चापलूस बन सकता है, इसका यहाँ से उत्तम उदाहरण और कहीं न मिल सकेगा। यदि साहब बहादुर जरा-सा इशारा कर दें कि आमदनी के टैक्स की जाँच अच्छी तरह की जाये तो विश्वास मानिए हमारे मित्रगण दो ही दिन में टैक्स को बढ़ाकर दुगुना-तिगुना कर देंगे। यदि इशारा हो जाये कि अबकी तकाबी जरा हाथ रोक कर दी जाये तो समझ लीजिए कि वह बन्द हो जायेगी। इन महानुभावों की बातें सुन कर ऐसी घृणा होती है कि इनका मुँह न देखँ। न कोई वैज्ञानिक निरूपण, न कोई राजनीतिक या आर्थिक बात, न कोई साहित्य की चर्चा। बस मैंने यह किया, साहब ने यह कहा, तो मैंने उत्तर दिया। आपसे यथार्थ कहता हूँ, कोई छँटा हुआ शोहदा भी अपनी कपट-लीलाओं की डींग यों न मारेगा। खेद तो यह है कि इस रोग से पुराने विचार के बुड्ढे ही ग्रसित नहीं, हमारा नवशिक्षित वर्ग उनसे कहीं अधिक रोग से जर्जरित दिखाई पड़ता है। मार्ले, मिल और स्पेन्सर सभी इस स्वार्थ सिद्धान्त के सामने दब जाते हैं। अजी, यहाँ ऐसे-ऐसे भद्र पुरुष पड़े हुए हैं जो खानसामों और अरदलियों की पूजा किया करते हैं, केवल इसलिए कि वह साहब से उनकी प्रशंसा किया करें। जिसे अधिकार मिल गया वह समझने लगता है, अब मैं हाकिम हूँ अब जनता से देशबन्धुओं से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। अँग्रेज अधिकारियों के सम्मुख जायेंगे तो नम्रता, विनय और शील के पुतले बन जायेंगे, मानों ईश्वर के दरबार में खड़े हैं, पर जब दौरे पर निकलेंगे तो प्रजा और ज़मींदारों पर ऐसा रोब जमाएँगे मानो उनके भाग्य के विधाता हैं।

ज्वालासिंह ने स्थिति को खूब बढ़ाकर दर्शाया, क्योंकि इस विषय में वह ज्ञानशंकर के विचारों से परिचित थे। उनका अभिप्राय केवल यह था कि इस समय दयाशंकर के अभियोग की चर्चा न आने पाये।

ज्ञानशंकर ने प्रसन्न होकर कहा– मैंने तो आपसे पहले ही दिन कहा था, किन्तु आपको विश्वास न आता था। अभी तो आपको केवल अपने सहवर्गियों की कपट नीति का अनुभव हुआ है। कुछ दिन और रहिए तो अपने अधीनस्थ कर्मचारियों की चालें देखकर तो आप दंग रह जायेंगे। यह सब आपको कठपुतली बनाकर नचायेंगे। बदनामी से बचने का इसके सिवा और उपाय नहीं है कि उन्हें मुँह न लगाया जाये। आपका अहलमद ईजाद हुसेन एक ही घाघ है, उससे होशियार रहिएगा। वह तरह-तरह से आपको अपने पंजे में लाने की कोशिश करेगा। आज ही उसके मुँह से ऐसी बातें सुनी हैं जिनसे विदित होता है कि वह आपको धोखा दे रहा है। उसने आप से कदाचित् मेरी ओर से दयाशंकर की सिफारिश की है। यद्यपि मुझे दयाशंकर से उतनी ही सहानुभूति है जितनी भाई की भाई के साथ हो सकती है तथापि मैं ऐसा धृष्ट नहीं हूँ कि मित्रता से अनुचित लाभ उठाकर न्याय का बाधक बनूँ। मैं कुमार्ग का पक्ष कदापि न ग्रहण करूँगा; चाहे मेरे पुत्र के ही सम्बन्ध में क्या न हो। मैं मनुष्यत्व को भ्रातृ प्रेम से उच्चतम समझता हूँ। मैं उन आदमियों में हूँ कि यदि ऐसी दशा में आपको सहृदयता की ओर झुका हुआ देखूँ तो आपको उससे बाज रखूँ।

ज्वालासिंह मनोविज्ञान के ज्ञाता थे। समझ गये कि यह महाशय इस समय अपने चाचा से बिगड़े हुए हैं। यह नीतिपरायणता उसी का बुखार है। द्वेष और वैमनस्य कहाँ तक छिपाया जा सकता है, इसका अनुभव हो गया। उनकी दृष्टि में ज्ञानशंकर की जो प्रतिष्ठा थी वह लुप्त हो गयी। भाई का अपने भाई की सिफारिश करना सर्वथा स्वाभाविक और मानव-चरित्रानुकूल है। इसे वह बहुत बुरा नहीं समझते थे, किन्तु भाई का अहित करने के लिए नैतिक सिद्धान्तों का आश्रय लेना वह एक अमानुषिक व्यापार समझते थे। ऐसे दुष्प्रकृति मनुष्यों को जो आठों पहर न्याय और सत्य की हाँक लगाते फिरते हों मर्माहत करने का यह अच्छा अवसर मिला! बोले– आपको भ्रम हुआ है। ईजाद हुसेन ने मुझसे इस विषय में कोई बातचीत नहीं की और न इसकी जरूरत ही थी; क्योंकि मैं अपने फैसले में दयाशंकर को पहले ही निरपराध लिख चुका हूँ। और सबको यह भली-भाँति मालूम है कि मैं किसी की नहीं सुनता। मैंने पक्षपातरहित होकर यह धारणा की है और मुझे आशा है कि आप यह सुनकर प्रसन्न होंगे।

ज्ञानशंकर का मुख पीला पड़ गया, मानो किसी ने उनके घर में आग लगाने का समाचार कह दिया हो। हृदय में तीर– सा चुभ गया। अवाक् रह गये।

ज्वालासिंह– गवाह कमजोर थे। मुकदमा बिलकुल बनावटी था।

ज्ञानशंकर– यह सुनकर असीम आनन्द हुआ। आपको हजारों धन्यवाद। चाचा साहब तो सुनकर खुशी से बावले हो जायेंगे।

ज्वालासिंह इस दबी हुई चुटकी से पीड़ित होकर बोले– यह कानून की बात है। यह मैंने कोई अनुग्रह नहीं किया।

ज्ञानशंकर– आप चाहे कुछ कहें, पर मैं तो इसे अनुग्रह ही समझूँगा। मित्रता कानून की सीमाओं को अज्ञात रूप से विस्तृत कर देती है, इसके सिवा आप लोगों को भी तो पुलिस का दबाव मानना पड़ता है। उनके द्रोही बनने से आप लोगों के मार्ग में कितनी बाधाएँ पड़ती हैं, इसे भी तो विचारना पड़ता है।

ज्वालासिंह इस व्यंग्य से और भी तिलमिला उठे। गर्व से बोले– यहाँ जो कुछ करते हैं न्याय के बल पर करते हैं। पुलिस क्या, ईश्वर के दबाव भी नहीं मान सकते। आपकी इन बातों में कुछ वैमनस्य की गन्ध आती है। मुझे सन्देह होता है कि दयाशंकर का मुक्त होना आपको अच्छा नहीं लगा।

ज्ञानशंकर ने उत्तेजित होकर कहा– यदि आपको ऐसा सन्देह है तो यह कहने के लिए मुझे क्षमा कीजिए कि इतने दिनों तक साथ रहने पर भी आप मुझसे सर्वथा अपरिचित हैं। मेरी प्रकृति कितनी ही दुर्बल हो, पर अभी इस अधोगति को नहीं पहुँची है कि अपने भाई की ओर हाथ उठावे। मगर यह कहने में भी मुझे संकोच नहीं है कि भ्रातृ-स्नेह की अपेक्षा मेरी दृष्टि में राष्ट्र-हित का महत्त्व कहीं अधिक है और जब इन दोनों में विरोध होगा तो मैं राष्ट्र-हित की ओर झुकूँगा। यदि आप इसे वैमनस्य या ईर्ष्या समझें तो यह आपकी सज्जनता है। मेरी नीति-शिक्षा ने मुझे यही सिखाया है और यथासाध्य उसका पालन करना मैं आपना कर्त्तव्य समझता हूँ। जब एक व्यक्तिविशेष से जनता का अपकार होता हो तो हमारा धर्म है कि उस व्यक्ति का तिरस्कार करें और उसे सीधे मार्ग पर लायें, चाहे वह कितना ही आत्मीय हो। संसार के इतिहास में ऐसे उदाहरण अप्राप्य नहीं हैं, जहाँ राष्ट्रीय कर्त्तव्य ने कुल हित पर विजय पायी है, ऐसी दशा में जब आप मुझ पर दुराग्रह का दोषारोपण करते हैं तो मैं इसके सिवा और क्या कह सकता हूँ कि आपकी नीति-शिक्षा और ईथिक्स ने आपको कुछ भी लाभ नहीं पहुँचाया।

यह कहकर ज्ञानशंकर बाहर निकल आये। जिस मनोरथ से वह इतने सवेरे यहाँ आये थे उसके यों विफल हो जाने से उनका चित्त बहुत खिन्न हो रहा था! हाँ, यह सन्तोष अवश्य था कि मैंने इन महाशय के दाँत खट्टे कर दिये, अब यह फिर मुझसे ऐसी बातें करने का साहस न कर सकेंगे। ज्वालासिंह ने भी उन्हें रोकने की चेष्टा नहीं की। वह सोच रहे थे कि इस मनुष्य में बुद्धि-बल और दुर्जनता का कैसा विलक्षण समावेश हो गया है। चातुरी कपट के साथ मिलकर दो आतशी शराब बन जाती है। इस फटकार से कुछ तो आँखें खुली होंगी। समझ गये होंगे कि कूटनीति के परखने वाले संसार में लोप नहीं हो गये।

ज्ञानशंकर यहाँ से चले तो उनकी दशा उस जुआरी की-सी थी जो जुए में हार गया हो और सोचता हो कि ऐसी कौन-सी वस्तु दाँव पर लगाऊँ कि मेरी जीत हो जाये। उनका चित्त उद्विग्न हो रहा था। ज्वालासिंह को यद्यपि उन्होंने तुर्की-बतुर्की जवाब दिया था फिर भी उन्हें प्रतीत होता था कि मैं कोई गहरी चोट न कर सका। अब ऐसी कितनी ही बातें याद आ रही थीं। जिनसे ज्वालासिंह के हृदय पर आघात किया जा सकता था। और कुछ नहीं तो रिश्वत का ही दोष लगा देता खैर, फिर कभी देखा जायेगा। अब उन्हें राष्ट्र-प्रेम और मनुष्यत्व का वह उच्चादर्शक भी हास्यास्पद-सा जान पड़ता था, जिसके आधार पर उन्होंने ज्वालासिंह को लज्जित करना चाहा था। वह ज्यों-ज्यों इस सारी स्थिति का निरूपण करते थे, उन्हें ज्वालासिंह का व्यवहार सर्वथा। असंगत जान पड़ता था। मान लिया कि उन पर मेरी ईर्ष्या का रहस्य खुल गया तो सहृदयता और शालीनता इसमें थी कि वह मुझसे सहानुभूति प्रकट करते, मेरे आँसू पोंछते। ईर्ष्या भी मानव स्वभाव का एक अंग ही है, चाहे वह कितना ही अवहेलनीय क्यों न हो। यदि कोई मनुष्य इसके लिए मेरा अपमान करे तो इसका कारण उसकी आत्मिक पवित्रता नहीं वरन् मिथ्याभिमान है। ज्वालासिंह कोई ऋषि नहीं, देवता नहीं, और न यह सम्भव है कि ईर्ष्या-वेग से कभी उनका हृदय प्रवाहित न हुआ हो। उनकी यह गर्वपूर्ण नीतिज्ञता और धर्मपरायणता स्वयं इस ईर्ष्या का फल है, जो उनके हृदय में अपनी मानसिक लघुता के ज्ञान से प्रज्वलित हुई है।

यह सोचते हुए वह घर पहुँचे तो अपने दोनों छोटे चचेरे भाइयों को अपने कमरे में किताबें उलटते-पुलटते देखा। यद्यपि यह कोई असाधारण बात न थी, पर ज्ञानशंकर इस समय मानसिक अशान्ति से पीड़ित हो रहे थे। जल गये और दोनों लड़कों को डाँटकर भगा दिया। इन लोगों ने अवश्य मुझे छेड़ने के लिए इन शैतानों को यहाँ भेज दिया। नीचे इतना बड़ा दीवानखाना है, दो कमरे हैं, क्या उनके लिए इतना काफी नहीं कि मेरे पास एक छोटे-से कमरे को भी नहीं देख सकते। क्या इस पर भी दाँत है? मुझे घर से निकालने की ठानी है क्या? इस मामले को अभी न साफ कर लेना चाहिए। यह कदापि नहीं हो सकता कि मुझे लोग दबाते जाएँ और मैं चूँ न करूँ। मन में यह निश्चय करके उन्होंने तत्क्षण अपने चाचा के नाम यह पत्र लिखा–

मान्यवर, यह बात मेरे लिए असह्य है कि आपके सुपुत्र मेरी अनुपस्थिति में मेरे कमरे में आकर ऊधम मचायें और मेरी वस्तुओं का सर्वनाश करें। मैं चाहता हूँ कि आज घर का बँटवारा हो जाये और लड़कों को ताकीद कर दी जाये कि वह भूलकर भी मेरे मकान में पदक्षेप न करे, अन्यथा मैं उनकी ताड़ना करूँ, तो आपको या चाची को मुझसे शिकायत करने का कोई अधिकार न रहेगा। इसका ध्यान रखियेगा कि मुझे जो भाग मिले वह गार्हस्थ्य आवश्यकताओं के अनुकूल हो, और सबसे बड़ी बात यह है कि वह पृथक हो, जिसमें मैं उसको अपना सकूँ और आते-जाते उठते-बैठते, आग्नेय नेत्रों और व्यंग्य सरों का लक्ष्य न बनूँ।

यह पत्र कहार को देकर वह उत्तर का इन्तजार करने लगे। सोच रहे थे कि देखें, बुड्ढा अबकी क्या चाल चलता है? एक क्षण में कहार ने उसका जवाब लाकर उनके हाथों में रख दिया–

‘बेटा, मेरे लड़के तुम्हारे लड़के हैं। उन्हें दण्ड देने का तुमको पूरा अधिकार है, इसकी शिकायत मुझे न कभी हुई है न होगी। बल्कि तुम्हारा मुझ पर अनुग्रह होगा, यदि कभी-कभी इनकी खबर लेते रहो। रहा घर का बँटवारा, उसे मैं तुम्हारे ऊपर छोड़ता हूँ। घर तुम्हारा है, मैं भी तुम्हारा हूँ, जो टुकड़ा चाहो मुझे दे दो, मुझे कोई आपत्ति न होगी। हाँ, यह ध्यान रखना कि मैं बाहर बैठने का आदी हूँ, इसलिए दीवानखाने के बरामदे में मेरे लिए एक चौकी की जगह दे देना। बस, यही मेरी हार्दिक अभिलाषा थी कि मेरे जीवनकाल में यह विच्छेद न होता, पर तुम्हारी यदि यही इच्छा है और तुम इसी में प्रसन्न हो तो मैं क्या कर सकता हूँ।’

ज्ञानशंकर ने पुर्जे को जेब में रख लिया और मुस्कराये। बुड्ढा कैसा घाघ है। इन्हीं नम्रताओं से उसने पिताजी को उल्लू बना लिया था। मुझसे भी वही चाल चल रहा है, पर मैं ऐसा गौखा नहीं हूँ। समझे होंगे कि जरा दब जाऊँ तो वह आप ही दब जायेगा! यहाँ ऐसी विषम शालीनता का पाठ नहीं पढा है। विवश होकर दबना तो समझ में आता है, पर किसी के खातिर से दबना, केवल समय के हाथों की कठपुतली बनना, यह निरी भावुकता है!

ज्ञानशंकर बैठकर सोचने लगे, कैसे इस समस्या की पूर्ति करूँ, केवल यह एक कमरा नीचे के दीवानखाने और उसके बगल के दोनों कमरों की समता नहीं कर सकता। ऊपर के दो कमरों पर दयाशंकर का अधिकार है। पर ऊपर तीनों कमरे मेरे, नीचे के तीनों कमरे उनके। यहाँ तो बड़ी सुगमता से विभाग हो गया; किंतु जनाने घर में यह पार्थक्य इतना सुलभ नहीं। पद की कम-से-कम दो दीवारें खींचनी पड़ेगी। पूर्व की ओर निकास के लिए एक द्वार खोलना पड़ेगा, और इसमें झंझट है। म्युनिसिपैलिटी महीनों का असलेट लगा देगी। क्या हर्ज है, यदि मैं दीवानखाने के नीचे-ऊपर के दोनों भागों पर सन्तोष कर लूँ? जनाना मकान इससे बड़ा अवश्य है, पर न जाने कब का बना हुआ है। थोड़े ही दिनों में उसे फिर बनवाना पड़ेगा। दीवारें अभी से गिरने लगी हैं। नित्य मरम्मत होती ही रहती है। छत भी टपकती है। बस, मेरे लिए दीवानखाना ही अच्छा है। चाचा साहब का इसमें गुजर नहीं हो सकता, उन्हें विवश होकर जनाना मकान लेना पड़ेगा। यह बात मुझे खूब सूझी, अपना अर्थ भी सिद्ध हो जायेगा। और उदारता का श्रेय भी हाथ रहेगा।

मन में यह निश्चय करके वह स्त्रियों से परामर्श करने के लिए अन्दर गये । वह सभ्यता के अनुसार स्त्रियों की सम्मति अवश्य लेते थे, पर ‘वीटो’ का अधिकार अपने हाथ में रखते और प्रत्येक अवसर पर उसका उपयोग करने के कारण वह अबाध्य सम्मति का गला घोंट देते थे। वह अन्दर गये तो उन्हें बड़ा करुणाजनक दृश्य दिखाई दिया। दयाशंकर कचहरी जा रहे थे और बड़ी बहू आँखों में आँसू भरे उसको विदा कर रही थीं। दोनों बहनें उनके पैरों से लिपटकर रो रही थीं। उनकी पत्नी अपने कमरे के द्वार पर घूँघट निकाले उदास खड़ी थी। संकोचवश पति के पास न आ सकती थी। श्रद्धा भी खड़ी रो रही थी। आज अभियोग का फैसला सुनाया जाने वाला था। मालूम नहीं क्या होगा। घर लौटकर आना बदा है या फिर घर का मुंह देखना नसीब न होगा। दयाशंकर अत्यन्त कातर दीख पड़ते थे। ज्ञानशंकर को देखते ही उनके नेत्र सजल हो गये, निकट आकर बोले– भैया, आज मेरा हृदय शंका से काँप रहा है। ऐसा जान पड़ता है, आप लोगों के दर्शन न होंगे। मेरे अपराधों को क्षमा कीजिएगा, कौन जाने फिर भेंट हो या न हो, दया का क्या आसरा? यह घर अब आपके सुपर्द है।

ज्ञानशंकर उनकी यह बातें सुनकर पिघल गये। अपने हृदय की संकीर्णता क्षुद्रता पर ग्लानि उत्पन्न हुई। तस्कीन देते हुए बोले– ऐसी बातें मुँह से न निकलो, तुम्हारा बाल भी बाँका न होगा। ज्वालासिंह कितने ही निर्दयी बनें, पर मेरे एहसानों को नहीं भूल सकते। और सच्ची बात तो यह है कि मैं अभी तुम्हारे ही सम्बन्ध में बातें करके उनके पास से आ रहा हूँ, तुम अवश्य ही बरी हो जाओगे। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में मुझे इसका विश्वास दिलाया है। चलता तो मैं भी तुम्हारे साथ, किन्तु मेरे जाने से काम बिगड़ जायेगा।

दयाशंकर ने अविश्वासपूर्ण कृतज्ञता के भाव से उनकी ओर देखकर कहा, हाकिमों की बात का क्या भरोसा?

ज्ञानशंकर– ज्वालासिंह उन हाकिमों में नहीं हैं।

दयाशंकर– यह न कहिए, बड़ा बेमुरौवत आदमी है।

ज्ञानशंकर ने उनके हृदयस्थ अविश्वास को तोड़कर कहा, यही हृदय की निर्बलता हमारे अपराधों का ईश्वरीय दंड है, नहीं तो तुम्हें इतना अविश्वास न होता।

दयाशंकर लज्जित होकर वहाँ से चले गये। ज्ञानशंकर ने भी उनसे और कुछ न कहा– उन्होंने हारी हुई बाजी को जीतना चाहा था, पर सफल न हुए। वह इस बात पर मन में झुँझलाए कि यह लोग मुझे उच्च भावों के योग्य नहीं समझते। मैं इनकी दृष्टि में विषैला सर्प हूँ। जब मुझ पर अविश्वास है तो फिर जो कुछ करना है वह खुल्लम-खुल्ला क्यों न करूँ? आत्मीयता का स्वाँग भरना व्यर्थ है। इन भावों से यह लोग अब हत्थे चढ़ने वाले नहीं। सद्भावों का अंकुर जो एक क्षण के लिए उनके हृदय में विकसित हुआ था, इन दुष्कामनाओं से झुलस गया। वह विद्या के पास गये तो उसने पूछा– आज सबेरे कहाँ गये थे?

ज्ञानशंकर– जरा ज्वालासिंह से मिलने गया था।

विद्या– तुम्हारी ये बातें मुझे अच्छी नहीं लगतीं।

ज्ञान– कौन-सी बातें?

विद्या– यही, अपने घर के लोगों की हाकिमों से शिकायत करना। भाइयों में खटपट सभी जगह होती है, मगर कोई इस तरह भाई की जड़ नहीं काटता।

ज्ञानशंकर ने होंठ चबाकर कहा– तुमने मुझे इतना कमीना, इतना कपटी समझ लिया है?

विद्या दृढ़ता से बोली– अच्छा मेरी कसम खाओ कि तुम इसलिए ज्वालासिंह के पास नहीं गए थे।

ज्ञानशंकर ने कठोर स्वर में कहा– मैं तुम्हारे सामने अपनी सफाई देना आवश्यक नहीं समझता।

यह कहकर ज्ञानशंकर चारपाई पर बैठ गये । विद्या ने पते की बात कही थी और इसने उन्हें मर्माहत कर दिया था। उन्हें इस समय विदित हुआ कि सारे घर के लोग, यहाँ तक कि मेरी स्त्री भी मुझे कितना नीच समझती है।

विद्या ने फिर कहा– अरे तो यहाँ कोई दूसरा थोड़े ही बैठा हुआ है, जो सुन लेगा।

ज्ञानशंकर– चुप भी रहो, तुम्हारी ऐसी बातों से बदन में आग लग जाती है। मालूम नहीं, तुम्हें कब बात करने की तमीज आयेगी। क्या हुआ, भोजन न मिलेगा क्या? दोपहर तो होने को आयी।

विद्या– आज तो भोजन बना ही नहीं। तुम्हीं ने घर बाँटने के लिए चाचा जी को चिट्ठी लिखी थी। तब से वह बैठे हुए रो रहे हैं।

ज्ञानशंकर– उनका रोने का जी चाहता है तो रोयें! हम लोगों को भूखों मारेंगे क्या?

विद्या ने पति को तिरस्कार की दृष्टि से देखकर कहा– घर में जब ऐसा रार मचा हो तो खाने-पीने की इच्छा किसे होती है? चचा जी को इस दशा में देखकर किसके घट के नीचे अन्न जायेगा। एक तो लड़के पर विपत्ति, दूसरे घर में यह द्वेष। जब से तुम्हारी चिट्ठी पाई है, सिर नहीं उठाया! तुम्हें अलग होने की यह धुन क्यों समायी है?

ज्ञानशंकर– इसीलिए कि जो थोड़ी– बहुत जायदाद बच रही है वह भी इस भाड़ में न जल जाये। पहले घर में छः हजार सालाना की जायदाद थी, अब मुश्किल से दो हजार की रह गयी। इन लोगों ने सब खा-पीकर बराबर कर दिया।

विद्या– तो यह लोग कोई पराये तो नहीं हैं।

ज्ञानशंकर– तुम जब ऐसी बड़ी-बड़ी बातें करने लगती हो तो मालूम होता है, धन्नासेठ की बेटी हो। तुम्हारे बाप के पास तो लाखों की सम्पत्ति है, क्यों नहीं उसमें थोड़ी-सी हमें दे देते, वह तो कभी बात नहीं पूछते और तुम्हारे पैरों तले गंगा बहती है।

विद्या– पुरुषार्थी लोग दूसरों की सम्पत्ति पर मुँह नहीं फैलाते। अपने बाहु-बल का भरोसा रखते हैं।

ज्ञानशंकर– लजाती तो नहीं हो, ऊपर से बढ़-बढ़ कर बातें करती हो। यह क्यों नहीं कहती कि घर की जायदाद प्राणों से भी प्रिय होती है और उसकी रक्षा प्राणों से भी अधिक की जाती है? नहीं तो ढाई लाख सालाना जिसके घर में आता हो, उसके लिए बेटी– दामाद पर दो-चार हजार खर्च कर देना कौन-सी बड़ी बात है? लाला साहब तो पैसे को यों दाँतों से पकड़ते हैं और तुम इतनी उदार बनती हो माने जायदाद का कुछ मूल्य ही नहीं।

इतने में श्रद्धा आ गयी और ज्ञानशंकर घर के बँटवारे के विषय में उससे बातें करने लगे।

6

लाला प्रभाशंकर का क्रोध ज्यों ही शान्त हुआ वह अपने कटु वाक्यों पर बहुत लज्जित हुए। बड़ी बहू की तीखी बातें ज्यों-ज्यों उन्हें याद आती थीं ग्लानि और बढ़ती जाती थी। जिस भाई के प्रेम और अनुराग से उनका हृदय परिपूर्ण था। जिसके मृत्यु-शोक का घाव अभी भरने न पाया था, जिसका स्मरण आते ही आँखों से अश्रुधारा बहने लगती थी उसके प्राणाधार पुत्र के साथ उन्हें अपना यह बर्ताव बड़ी कृतघ्नता का मालूम होता था। रात को उन्होंने कुछ न खाया। सिर पीड़ा का बहाना करके लेट रहे थे। कमरे में धुँधला प्रकाश था। उन्हें ऐसा जान पड़ा, मानो लाला जटाशंकर द्वार पर खड़े उनकी ओर तिरस्कार की दृष्टि से देख रहे हैं। वह घबड़ाकर उठ बैठे, साँस वेग से चलने लगी। बड़ी प्रबल इच्छा हुई कि इसी दम चलकर ज्ञानशंकर से क्षमा माँगू किन्तु रात ज्यादा हो गई थी, बेचारे एक ठण्डी साँस लेकर फिर लेट रहे। हाँ! जिस भाई ने जिन्दगी भर में मेरी ओर कड़ी निगाह से भी नहीं देखा उसकी आत्मा को मेरे कारण ऐसा विषाद हो! मैं कितना अत्याचारी, कितना संकीर्ण– हृदय, कितना कुटिल प्रकृति हूँ।

प्रातःकाल उन्होंने बड़ी बहू से पूछा– राज ज्ञानू ने कुछ खाया था या नहीं?

बड़ी बहू– रात चूल्हा ही नहीं जला, किसी ने भी नहीं खाया!

प्रभाशंकर– तुम लोग खाओ या न खाओ, लेकिन उसे क्यों भूखा मारती हो, भला ज्ञानू अपने मन में क्या कहता होगा? मुझे कितना नीच समझ रहा होगा!

बड़ी बहू– नहीं तो अब तक मानो वह तुम्हें देवता समझता था। तुम्हारी आँखों पर पर्दा पड़ा होगा, लेकिन मैं इस छोकरे का रुख साल भर से देख रही हूँ। अचरज यही है कि वह अब तक कैसे चुप रहा? आखिर वह क्या समझकर अलग हो रहा है! यही न कि हम लोग पराये हैं! उसे इसकी लेशमात्र भी परवा नहीं कि इन लोगों का निर्वाह कैसे होगा? उसे तो बस रुपये की हाय-हाय पड़ी है, चाहे चचा, भाई, भतीजे जीयें या मरें। ऐसे आदमी का मुँह देखना पाप है।

प्रभाशंकर– फिर वही बात मुँह से निकालती हो। अगर वह अपना आधा हिस्सा माँगता है तो क्या बुरा करता है? यही तो संसार की प्रथा हो रही है।

बड़ी बहू– तुम्हारी तो बुद्धि मारी गई है। कहाँ तक कोई समझाये, जैसे कुछ सूझता ही नहीं। हमारे लड़के की जान पर बनी हुई है। घर विध्वंस हुआ जाता है। दाना-पानी हराम हो रहा है। वहाँ आधी रात तक हारमोनियम बजता है । मैं तो उसे काला नाग समझती हूँ, जिसके विष का उतार नहीं। यदि कोई हमारे गले पर छुरा भी चला दे तो उसकी आँखों में आँसू न आवे। तुम यहाँ बैठे पछता रहे हो और वह टोले-महल्ले में घूम-घूम तुम्हें बदनाम कर रहा है? सब तुम्हीं को बुरा कह रहे हैं।

प्रभाशंकर– यह सब तुम्हारी मिथ्या कल्पना है, उसका हदय इतना क्षुद्र नहीं है।

बड़ी बहू– तुम इस तरह बैठे स्वर्ग-सपना देखते रहोगे और वह एक दिन सब सम्बन्धियों को बटोरकर बाँट-बखरे की बात छेड़ देगा, फिर कुछ करते– धरते न बनेगा। राय कमलानन्द से भी पत्र-व्यवहार कर रहा है। मेरी बात मानो, अपने सम्बन्धियों को भी सचेत कर दो। पहले से सजग रहना अच्छा है।

प्रभाशंकर ने गौरवोन्मत्त होकर कहा– यह हमसे मरते दम तक न होगा। मैं ऐसा निर्लज्ज नहीं हूँ कि अपने घर की फूट का ढिंढोरा पीटता फिरूँ? ज्ञानशंकर मुझसे चाहे जो भाव रखे, किन्तु मैं उसे अपना ही समझता हूँ। हम दोनों भाई एक दूसरे के लिए प्राण देते रहे। आज भैया के पीछे मैं इतना बेशर्म हो जाऊँ कि दूसरों से पंचायत कराता फिरूँ? मुझे ज्ञानशंकर से ऐसे द्वेष की आशा नहीं, लेकिन यदि उसके हाथों मेरा अहित भी हो जाये तो मुझे लेशमात्र भी दुःख न होगा। अगर भैया पर हमारा बोझ न होता तो उनका जीवन बड़े सुख से व्यतीत हो सकता था। उन्हीं का लड़का है। यदि उसके सुख और सन्तोष के लिए हमें थोड़ा-सा कष्ट भी हो तो बुरा न मानना चाहिए, हमारे सिर उसके ऋण से दबे हुए हैं। मैं छोटी-छोटी बातों के लिए उससे रार मचाना अनुचित समझता हूँ।

बड़ी बहू ने इसका प्रतिवाद न किया, उठकर वहाँ से चली गई। प्रभाशंकर उन्हें और भी लज्जित करना चाहते थे। कुछ देर तक वहीं बैठे रहे कि आ आये तो दिल का बुखार निकालूँ, लेकिन जब देर हुई तो उकताकर बाहर चले गये। वह पहले कितनी बार बड़ी बहू से ज्ञानशंकर की शिकायत कर चुके थे। उसके फैशन और ठाट के लिए वह कभी खुशी से रुपये न देते थे, किन्तु जब वह बड़ी बहू या अपने घर के किसी अन्य व्यक्ति को ज्ञानशंकर से विरोध करते देखते, तो उनकी न्याय वृत्ति प्रज्वलित हो जाती थी और वह उमंग में आकर सज्जनता और उदारता की ऐसी डींग मारने लगते थे। जिसको व्यवहार में लाने का कदाचित् उन्हें कभी साहस न होगा।

बाहर आकर वह आँगन में टहलने लगे और तेजशंकर को यह देखने को भेजा कि ज्ञानशंकर क्या कर रहे हैं। वह उनसे क्षमा माँगना चाहते थे, किन्तु जब उन्हें पैरगाड़ी पर सवार कहीं जाते देखा, तो कुछ न कह सके। ज्ञानशंकर के तेवर कुछ बदले हुए थे। आँखों में क्रोध झलक रहा था। प्रभाशंकर ने सोचा, इतने सबेरे यह कहाँ जा रहे हैं, अवश्य कुछ दाल में काला है। उन्होंने अपनी चिड़िया के पिंजरे उतार लिये और दाने चुगाने लगे। पहाड़ी मैना के हरिभजन का आनन्द उठाने में वह अपने को भूल जाया करते थे। इसके बाद स्नान करके रामायण का पाठ करने लगे। इतने में दस बजे गये और कहान ने ज्ञानशंकर का पत्र लाकर उनके सामने रख दिया। उन्होंने तुरन्त पत्र को उठा लिया और पढ़ने लगे। उनकी ईशवन्दना में व्यवाहारिक कामों से कोई बाधा न पड़ती थी। इस पत्र को पढ़कर उनके शरीर में ज्वाला-सी लग गई। उसका एक-एक शब्द चिनगारी के समान हृदय पर लगता था। ज्ञानशंकर प्रकृति के विषय में जो आलोचना की थी वह सर्वथा सत्य थी। यह दुस्साहस! यह पत्र उसकी कलम से कैसे निकला! उसने मेरी गर्दन पर तलवार भी चला दी होती तो भी मैं इतना द्वेष न कर सकता। इतना योग्य और चतुर होने पर भी उसका हृदय इतना संकीर्ण है। विद्या का फल तो यह होना चाहिए कि मनुष्य में धैर्य और सन्तोष का विकास हो, ममत्व का दमन हो, हृदय उदार हो न कि स्वार्थपरता, क्षुद्रता और शीलहीनता का भूत सिर चढ़ जाये। लड़कों ने शरारत की थी, डाँट देते, झगड़ा मिटता। क्यों जरा-सी बात को बतंगड़ बनाया। अब स्पष्ट विदित हो रहा है कि साथ निर्वाह न होगा। मैं कहाँ तक दबा करूँगा, मैं कहाँ तक सिर झुकाऊँगा? खैर उनकी जैसी इच्छा हो करें। मैं अपनी ओर से ऐसी कोई बात न करूँगा जिससे मेरी पीठ में धूल लगे। मकान बाँटने को कहते हैं। इससे बड़ा अनर्थ और क्या होगा? घर का पर्दा खुल जायेगा, सम्बन्धियों में घर-घर चर्चा होगी? हा दुर्भाग्य! घर में दो चूल्हे जलेंगे! जो बात कभी न हुई थी, वह अब होगी! मेरे और मेरे प्रिय भाई के पुत्र के बीच पड़ोसी का नाता रह जायेगा। वह जो जीवन-पर्यन्त साथ रहे, साथ खेले, साथ हँसे, अब अलग हो जायेंगे। किन्तु इसके सिवा और उपाय ही क्या है! लिख दूँ कि तुम जैसे चाहो घर को बाँट लो? क्यों कहूँ कि मैं यह मकान लूँगा, यह कोठा लूँगा। जब अलग ही होते हैं तो जहाँ तक हो सके आपस में मनमुटाव न होने दें। यह सोच लाला प्रभाशंकर ने ज्ञानशंकर के पत्र का उत्तर लिख दिया। उन्हें अब भी आशा थी कि मेरे उत्तर की नम्रता का ज्ञानशंकर पर अवश्य कुछ-न-कुछ असर होगा। क्या आश्चर्य है कि अलग होने का विचार उसके दिल से अलग हो जाये! यह विचार कर उन्होंने पत्र का उत्तर लिख दिया और जवाब का इन्तजार करने लगे।

ग्यारह बजे तक कोई जवाब न आया, दयाशंकर कचहरी जाने लगे। बड़ी बहू आ कर बोली– लल्लू के साथ तुम भी चले जाओ। आज तजबीज सुनायी जायेगी। जाने कैसी पड़े कैसी न पड़े। प्रभाशंकर ने अपने जीवन में कभी कचहरी के अन्दर कदम न रखा था। दोनों भाइयों की प्रतिज्ञा थी कि चाहे कुछ भी क्यों न हो, कचहरी का मुँह न देखेंगे। यद्यपि इस प्रतिज्ञा के कारण उन्हें कितनी ही बार हानियाँ उठानी पड़ी थीं, कितनी ही बार बल खाना पड़ा था, विरोधियों के सामने झुकना पड़ा था, तथापि उन्होंने अब तक प्रतिज्ञा का पालन किया था। बड़ी बहू की बात सुनकर प्रभाशंकर बड़े असमंजस में पड़े रहे। न तो जाते ही बनता था, न इन्कार करते ही बनता था। बगलें झाँकने लगे। दयाशंकर ने उन्हें द्विविधा में देखकर कुछ उदासीन भाव से कहा– आपका जी न चाहता हो न चलिए, मुझ पर जो कुछ पड़ेगी देख लूँगा।

बड़ी बहू– नहीं, चले जायेंगे, हरज क्या है?

दयाशंकर– जब कभी कचहरी न गये तो अब कैसे जा सकते हैं। प्रतिज्ञा न टूट जायेगी?

बड़ी बहू– भला, ऐसी प्रतिज्ञ बहुत देखी हैं। लाऊँ कपड़े?

दयाशंकर– नहीं, मैं अकेले ही चला आऊँगा, आपके चलने की जरूरत नहीं। यह कहकर दयाशंकर मन में बड़ी बहू पर झुँझला रहे थे कि इसने मेरे कचहरी जाने का प्रश्न क्यों उठाया। मैं वहाँ जाकर क्या बना लेता, हाकिम की कलम को पकड़ नहीं लेता न उससे कुछ विनय– प्रार्थना ही कर सकता था। और फिर जब कभी न गया तो अब क्यों जाऊँ? जिसने काँटे बोये हैं वह उनके फल खायेगा। इस फिक्र में कहाँ तक जान दूँ?

वह इसी खिन्नावस्था में बैठे थे कि ज्ञानशंकर का दूसरा पत्र पहुँचा। उन्होंने संपूर्ण दीवानखाना लेने का निश्चय किया था। प्रभाशंकर ने सोचा मेरी नम्रता उसके क्रोध को शान्त कर देगी। उस आशा के प्रतिकूल जब वह प्रस्ताव सामने आया तो उनका चित्त अस्थिर हो गया। पत्र के निश्चयात्मक शब्दों ने उन्हें संज्ञाहीन कर दिया। बौखला गये । क्रोध की जगह उनके हृदय में एक विवशता का संचार हुआ। क्रोध प्रत्याघात की सामर्थ्य का द्योतक है। उनमें यह शक्ति निर्जीव हो गयी थी। उस प्रस्ताव की भयंकर मूर्ति ने संग्राम की कल्पना तक मिटा दी। उस बालक की-सी दशा हो गयी जो हाथी को सामने देखकर मारे भय के रोने लगे, उसे भागने तक की सुध न रहे। उनका समस्त जीवन भ्रातृ-प्रेम की सुखद छाया में व्यतीत हुआ था। वैमनस्य और विरोध की यह ज्वाला-सम धूप असह्य हो गई? एक दिन प्रार्थी की भाँति ज्ञानशंकर के पास गये और करुण स्वर में बोले– ज्ञानू ईश्वर के लिए इतनी बेमुरौवती न करो। मेरी वृद्धावस्था पर दया करो। मेरी आत्मा पर ऐसा निर्दय आघात मत करो। तुम सारा मकान ले लो, मेरे बाल-बच्चों के लिए जहाँ चाहो थोड़ा-सा स्थान दे दो, मैं उसी में अपना निर्वाह कर लूँगा। मेरे जीवन भर इसी प्रकार चलने दो। जब मर जाऊँ तो जो इच्छा हो करना। एक थाली में न खाओ; एक घर में तो रहो, इतना सम्बन्ध तो बनाए रखो। मुझे दीवानखाने की जरूरत नहीं है। भला सोचो तो तुम दीवानखाने में जाकर रहोगे तो बिरादरी के लोग क्या कहेंगे? नगरवाले क्या कहेंगे? सब कुछ हो गया है, पर अभी तक तुम्हारी कुल-मर्यादा बनी हुई है। हम दोनों भाई नगर में राम-लखन की जोड़ी कहलाते थे। हमारे प्रेम और एकता की सारे नगर में उपमा दी जाती थी। किसी को यह कहने का अवसर मत दो कि एक भाई की आँखें बन्द होते ही आपस में ऐसी अनबन हो गयी कि अब एक घर में रह भी नहीं सकते। मेरी यह प्रार्थना स्वीकार करो।

ज्ञानशंकर पर इन विनयपूर्ण शब्दों का कुछ भी असर न हुआ। उनके विचार में यह विकृत भावकुता थी, जो मानसिक दुर्बलता का चिह्न है। हाँ, उस पर कृत्रिमता का सन्देह नहीं हो सकता था। उन्हें विश्वास हो गया कि चाचा साहेब को इस समय हार्दिक वेदना हो रही है। वृद्धजनों का हृदय कुछ कोमल हुआ करता है। इन्होंने जन्म भर कुल-प्रतिष्ठा तथा मान-मर्यादा के देवता की उपासना की है। इस समय अपकीर्ति का भय चित्त को अस्थिर कर रहा है। बोले– मुझे आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, पर यह तो विचार कीजिए कि इस पुराने घर में दो परिवारों का निर्वाह हो भी कैसे सकता है? रसोई का मकान केवल एक ही है। ऊपर सोने के लिए तीन कमरे हैं। आँगन कहने को तो है; किन्तु वायु का प्रवेश केवल एक में ही होता है। स्नान-गृह भी एक है। इन कष्टों को नित्य नहीं झेला जा सकता। हमारी आयु इतनी दीर्घ नहीं है कि उसका एक भाग कष्टों को ही भेंट किया जाये। आपकी कोमल आत्मा को इस परिवर्तन से दुःख अवश्य होगा और मुझे आपसे पूर्ण सहानुभूति है, किन्तु भावुकता के फेर में पड़कर अपने शारीरिक सुख और शान्ति का बलिदान करना मुझे पसन्द नहीं। यदि आप भी इस विषय पर निष्पक्ष होकर विचार करेंगे तो मुझसे सहमत हो जायेंगे।

प्रभाशंकर– मुझे तो इस बदनामी सामने यह असुविधाएँ कुछ भी नहीं मालूम होती। जैसे अब तक काम चलता आ रहा है, उसी भाँति अब भी चल सकता है।

ज्ञानशंकर– आपके और मेरे जीवन-सिद्धान्तों में बड़ा अन्तर है। आप भावों की आराधना करते हैं, मैं विचार का उपासक हूँ। आप निंदा के भय से प्रत्येक आपत्ति के सामने सिर झुकायेंगे, मैं अपनी विचार स्वतन्त्रता के सामने लोकमत की लेश-मात्र भी परवाह नहीं करता! जीवन आनंद से व्यतीत हो, यह हमारा अभीष्ट है। यदि संसार स्वार्थपरता कहकर इसकी हँसी उड़ाए निन्दा करे तो मैं उसकी सम्मति को पैरों तले कुचल डालूँगा। आपकी शिष्टता का आधार ही आत्माघात है। आपके घर में चाहे उपवास होता हो, किन्तु कोई मेहमान आ जाये तो आप ऋण लेकर सत्कार करेंगे। मैं ऐसे मेहमान को दूर से ही प्रणाम करूँगा। आपके यहाँ जाड़े में मेहमान लोग प्रायः बिना ओढ़ना-बिछौना लिये ही चले आते हैं। आप स्वयं जाड़ा खाते हैं, पर मेहमान के ओढ़ने-बिछौने का प्रबन्ध अवश्य करते हैं! मेरे लिए यह अवस्था दुस्सह है। किसी मनुष्य को चाहे वह हमारा निजी सम्बन्धी ही क्यों न हो, यह अधिकार नहीं है कि वह इस प्रकार मुझे असमंजस में डाले। मैं स्वयं किसी से यह आशा नहीं रखता। मैं तो इसे भी सर्वथा अनुचित समझता हूँ कि कोई असमय और बिना पूर्व सूचना के मेरे घर आये, चाहे वह मेरा भाई ही क्यों न हो। आपके यहाँ नित्य दो-चार निठल्ले नातेदार पड़े खाट तोड़ा किये, आपकी जायदाद मटियामेट हो गयी, पर आपने कभी इशारे से भी उनकी अवहेलना नहीं की। मैं ऐसी घासपात को कदापि न जमने दूँगा, जिससे जीवन के पौधे का ह्रास हो। लेकिन वह प्रथा अब काल-विरुद्ध हो गयी। यह जीवन-संग्राम का युग है और यदि हमको संसार में जीवित रहना है तो हमें विवश होकर नवीन और पुरुषोचित सिद्धान्तों के अनुकूल बनना पड़ेगा।

ज्ञानशंकर ने नई सभ्यता की जिन विशेषताओं का उल्लेख किया, उनका स्वयं व्यवहार न कर सकते थे। केवल उनमें मानसिक भक्ति रखते थे। प्राचीन प्रथा को मिटाना उनकी सामर्थ्य से परे था। निन्दा और परिहास से सिद्धान्त में चाहे न डरते हों पर प्रत्यक्ष उसकी अवज्ञा न कर सकते थे। आतिथ्य-सत्कार और कुटुम्ब-पालन को मन में चाहे अपव्यय समझते हों, पर उनके मित्रों तथा सम्बन्धियों को कभी उनकी शिकायत नहीं हुई। किन्तु साधारणतः उनका सम्भाषण विवाद का रूप धारण कर लिया करता था, इसलिए वह आवेश में ऐसे सिद्धान्तों का समर्थन करने लगते थे, जिनका अनुकरण करने का उन्हें कभी साहस न होता। लाला प्रभाशंकर समझ गये कि इसके सामने मेरी कुछ न चलेगी। इसके मन में जो बात-ठन गयी है उसे पूरा करके छोड़ेगा। जिसे कुल-मर्यादा की परवाह नहीं, उससे उदारता की आशा रखना व्यर्थ है। दुखित भाव से बोले– बेटा, मैं पुराने जमाने का आदमी हूँ, तुम्हारी इन नयी-नयी बातों को नहीं समझता। हम तो अपनी मान-मर्यादा को प्राणों से भी प्रिय समझते थे। यदि घर में एक-दूसरे का सिर काट लेते तो भी अलग होने का नाम नहीं लेते। लेकिन फिर भी कहूँगा कि अभी दो-चार दिन रुक जाओ। जहाँ इतने दिनों तकलीफ उठाई है, दो-चार दिन और उठा लो। आज लल्लू के मुकदमे का फैसला सुनाया जायेगा। हम लोगों के हाथ-पैर फूले हुए हैं, दाना-पानी हराम हो रहा है, जरा यह आग ठण्डी हो जाने दो।

ज्ञानशंकर में आत्मश्लाघा की मात्रा अधिक थी। उन्हें स्वभावतः तुच्छता से घृणा थी। पर यही ममत्व अपना गौरव और सम्मान बढ़ाने के लिए उन्हें कभी-कभी धूर्तता की प्रेरणा किया करता था; विशेषतः जब उसके प्रकट होने की कोई सम्भावना न होती थी। सहानुभूतिपूर्ण भाव से बोले– इस विषय में आप निश्चित रहें, दयाशंकर केवल मुक्त ही नहीं, बरी हो जायेंगे। उधर से गवाह जैसे बिगड़े हैं। वह आपको मालूम ही है, तिस पर भी सबको शंका थी कि ज्वालासिंह जरूर दबाव में आ जायेंगे। ऐसी दशा में मुझे कैसे चैन आ सकता था। मैं आज प्रातःकाल उनके पास गया और परमात्मा ने मेरी लाज रख ली। यह कोई कहने की बात नहीं है, पर मैंने अपने सामने फैसला लिखवा कर पढ़ लिया, तब उनका पिण्ड छोड़ा। पहले तो महाशय देर तक बगले झाँकते रहे, टाल-मटोल करते रहे, पर मैंने ऐसा फटकारा कि अन्त में लज्जित होकर उन्हें फैसला लिखना ही पड़ा। मैंने कहा महाशय, आपने मेरी ही बदौलत बी.ए. की डिगरी पाई है, इसे मत भूलिए। यदि आप मेरा इतना भी लिहाज न करेंगे तो मैं समझूँगा कि एहसान संसार से उठ गया।

प्रभाशंकर ने ज्ञान बाबू को श्रद्धा-पूर्ण नेत्रों से देखा। उन्हें ऐसा जान पड़ा कि भैया साक्षात सामने खड़े हैं। और मेरे सिर पर रक्षा का हाथ रखे हुए हैं। अगर अवस्था बाधक न होती तो वह ज्ञानशंकर के पैरों पर गिर पड़ते और उसे आँसू की बूँदों से तर कर देते। उन्हें लज्जा आयी कि मैंने ऐसे कर्त्तव्यपरायण, ऐसे न्यायशील, ऐसे दयालु, ऐसे देवतुल्य पुरुष का तिरस्कार किया! यह मेरी उद्दंड़ता थी कि मैंने उससे दयाशंकर की सिफारिश करने का आग्रह किया। यह सर्वथा अनुचित था आजकल के सुशिक्षित युवक-गण अपना कर्तव्य स्वयं समझते हैं और अपनी इच्छानुकूल उसका पालन करते हैं, यही कारण है कि उन्हें किसी की प्रेरणा अप्रिय लगती है। बोले– बेटा यह समाचार सुनकर मुझे कितना हर्ष हो रहा है, वह प्रकट नहीं कर सकता। तुमने मुझे प्राण-दान दिया है और कुल-मर्यादा रख ली। मेरा रोम-रोम तुम्हारा अनुगृहीत है! मुझे अब विश्वास हो गया है कि भैया देवलोक में बैठे हुए भी मेरी रक्षा कर रहे हैं। मुझे अत्यन्त खेद है कि मैंने तुम्हें कटु शब्द कहे, परमात्मा मुझे इसका, दण्ड दे, मेरे अपराध क्षमा करो। बुड्ढे आदमी चिड़चिड़े हुआ करते हैं, उनकी बातों का बुरा न मानना चाहिए। मैंने अब तक तुम्हारा अन्तर स्वरूप न देखा था, तुम्हारे उच्चादर्शों से अनभिज्ञ था। मुझे यह स्वीकार करते हुए खेद होता है कि मैं तुम्हें अपना अशुभचिन्तक समझने लगा था। मुझे तुम्हारी सज्जनता, तुम्हारा भ्रातृ-स्नेह और तुम्हारी उदारता का अनुभव हुआ। मुझे इस मतिभ्रम का सदैव पछतावा रहेगा।

यह कहते-कहते लाला प्रभाशंकर का गला भर आया। हृदय पर जमा हुआ बर्फ पिघल गया, आँखों से जल-बिन्दु गिरने लगे। किन्तु ज्ञानशंकर के मुख से सान्त्वना का एक एक शब्द भी न निकला। वह इस कपटाभिनय का रंग भी गहरा न कर सके। प्रभाशंकर की सरलता, श्रद्धालुता और निर्मलता के आकाश में उन्हें अपनी स्वार्थन्धता, कपटशीलता और मलिनता अत्यन्त कालिमापूर्ण और ग्लानिमय दिखाई देने लगी। वह स्वयं अपनी ही दृष्टि में गिर गये, इस कपट-काण्ड का आनन्द न उठा सके। शिक्षित आत्मा इतनी दुर्बल नहीं हो सकती, इस विशुद्ध वात्सल्य ध्वनि ने उनकी सोई हुई आत्मा को एक क्षण के लिए जगा दिया। उसने आँखें खोलीं देखा कि मन मुझे काँटों में घसीटे लिये चला जाता है। वह अड़ गयी, धरती पर पैर जमा दिये और निश्चय कर लिया कि इससे आगे न बढ़ेंगे।

सहसा सैयद ईजाद हुसेन मुस्कुराते हुए दीवानखाने में आये। प्रभाशंकर ने उनकी ओर आशा भरे नेत्रों से देखकर पूछा, कहिए कुशल तो है?

ईजाद– सब खुदा का फ़जलोकरम है। लाइए, मुँह मीठा कराइए। खुदा गवाह है कि सुबह से अब तक पानी का एक कतरा भी हलक के नीचे गया हो। बारे खुदा ने आबरू रख ली, बाजी अपनी रही, बेदाग छुड़ा लाये, आँच तक न लगी। हक यह है कि जितनी उम्मीद न थी उससे कुछ ज्यादा ही कामयाबी हुई मुझे ज्वालासिंह से ऐसी उम्मीद न थी।

प्रभाशंकर– ज्ञानू, यह तुम्हारी सद्प्रेरणा का फल है। ईश्वर तुम्हें चिरंजीव करे।

ईजाद– बेशक, बेशक, इस कामयाबी का सेहरा आप के ही सिर है। मैंने भी जो कुछ किया है आपकी बदौलत किया है। आपका आज सुबह को उनके पास जाना काम कर गया। कल मैंने इन्हीं हाथों से तजवीज लिखी थी। वह सरासर हमारे खिलाफ थी। आज जो तजवीज उन्होंने सुनायी, वह कोई और ही चीज है, यह सब आपकी मुलाकात का नतीजा है। आपने उनसे जो बातें की और जिस तरीके से उन्हें रास्ते पर लाये उसकी हर्फ-बहर्फ इत्तला मुझे मिल चुकी है। अगर आपने इतनी साफागोई से काम न किया होता तो वह हजरत पंजे में आनेवाले न थे।

प्रभाशंकर– बेटा, आज भैया होते तो तुम्हारा सह सदुद्योग देखकर उनकी गज भर की छाती हो जाती। तुमने उनका सिर ऊँचा कर दिया।

ज्ञानशंकर देख रहे थे कि ईजाद हुसेन चचा साहब के साथ कैसे दाँव खेल रहा है और मेरा मुँह बन्द करने के लिए कैसी कपट- नीति से काम ले रहा है। मगर कुछ बोल न सकते थे। चोर-चोर मौसेर भाई हो जाते हैं। उन्हें अपने ऊपर क्रोध आ रहा था कि मैं ऐसे दुर्बल प्रकृति के मनुष्य को उसके कुटिल स्वार्थ-साधन में योग देने पर बाध्य हो रहा हूँ। मैंने कीचड़ में पैर रखा और प्रतिक्षण नीचे की ओर फिसलता चला जाता हूँ।



प्रेमाश्रम : अध्याय (7-15)

7.

जब तक इलाके का प्रबन्धन लाला प्रभाशंकर के हाथों में था, वह गौस खाँ को अत्याचार से रोकते रहते थे। अब ज्ञानशंकर मालिक और मुख्तार थे। उनकी स्वार्थप्रियता ने खाँ साहब को अपनी अभिलाषाएँ पूर्ण करने का अवसर प्रदान कर दिया था। वर्षान्तर पर उन्होंने बड़ी निर्दयता से लगान वसूल किया। एक कौड़ी भी बाकी न छोड़ी । जिसने रुपये न दिये या न दे सका, उस पर नालिश की, कुर्की करायी और एक का डेढ़ वसूल किया। शिकमी असामियों को समूल उखाड़ दिया और उनकी भूमि पर लगान बढ़ाकर दूसरे आदमियों को सौंप दिया। मौरूसी और दखलीकार असामियों पर भी कर-वृद्धि के उपाय सोचने लगे। वह जानते थे कि कर-वृद्धि भूमि की उत्पादक-शक्ति पर निर्भर है और इस शक्ति को घटाने-बढ़ाने के लिए केवल थोड़ी-सी वाकचतुरता की आवश्यकता होती है। सारे इलाके में हाहाकार मच गया। कर-वृद्धि के पिशाच को शान्त करने के लिए लोग नाना प्रकार के अनुष्ठान करने लगे। प्रभात से सन्ध्या तक खाँ साहब का दरबार लगा रहता! वह स्वयं मसनद लगाकर विराजमान होते। मुन्शी मौजीलाल पटवारी उनके दाहिनी ओर बैठते और सुक्खू चौधरी बायीं ओर। यह महानुभाव गाँव के मुखिया, सबसे बड़े किसान और सामर्थी पुरुष थे। असामियों पर उनका बहुत दबाव था, इसलिए नीतिकुशल खाँ साहब ने उन्हें अपनी मन्त्री बना लिया था। यह त्रिमूर्ति समस्त इलाके के भाग्य विधायक थी।

खाँ साहब पहले अपने अवकाश का समय भोग-विलास में व्यतीत करते थे। अब यह समय कुरान का पाठ करने में व्यतीत होता था। जहाँ कोई फकीर यहा भिक्षुक द्वार पर खड़ा भी न होने पाता था, वहाँ अब अभ्यागतों को उदारपूर्ण सत्कार किया जाता था। कभी-कभी वस्त्रदान भी होता। लोकि सिद्धि ने परलोक बनाने की सदिच्छा उत्पन्न कर दी थी!

अब खाँ साहब को विदित हुआ कि इस इलाके को विद्रोही समझने में मेरी भूल थी। ऐसा विरला ही कोई असामी था जिसने उसकी चौखट पर मस्तक न नवाया हो। गाँव में दस-बारह घर ठाकुरों के थे। उनमें लगान बड़ी कठिनाई से वसूल होता था। किन्तु इजाफा लगाने की खबर पाते ही वह भी दब गये। डपटसिंह उनके नेता थे। वह दिन में दस-पाँच बार खाँ साहब को सलाम करने आया करते थे। दुखरन भगत शिवजी को जल चढ़ाने जाते समय पहले चौपाल का दर्शन करना अपना परम कर्त्तव्य समझते थे। बस, अब समस्त इलाके में कोई विद्रोही था तो मनोहर था और कोई बन्धु था तो कादिर। वह खेत से लौटता तो कादिर के घर जा बैठता और अपने दिनों को रोता। इन दोनों मनुष्यों को साथ बैठे देखकर सुक्खू चौधरी की छाती पर साँप लोटने लगता था। वह यह जानना चाहते थे कि इन दोनों में क्या बातें हुआ करती हैं। अवश्य मेरी ही बुराई करते होंगे। उन्हें देखते ही दोनों चुप हो जाते थे, इससे चौधरी के सन्देह की और भी पुष्टि हो जाती थी। खाँ साहब ने कादिर का नाम शैतान रख छोड़ा था और मनोहर को काला नाग कहा करते थे। काले नाग का तो उन्हें बहुत भय नहीं था, क्योंकि एक चोट से उसका काम तमाम कर सकते थे, मगर शैतान से डरते थे। क्योंकि उस पर चोट करना दुष्कर था। उस जवार में कादिर का बड़ा मान था। वह बड़ा नीतिकुशल, उदार और दयालु था। इसके अतिरिक्त उसे जड़ी-बूटियों का अच्छा ज्ञान था। यहाँ हकीम वैद्य, डॉक्टर जो कुछ था वही था। रोग-निदान में भी उसे पूर्ण अभ्यास था। इससे जनता की उसमें विशेष श्रद्धा थी। एक बार लाला जटाशंकर कठिन नेत्र-रोग से पीड़ित थे। बहुत प्रयत्न किये, पर कुछ लाभ न हुआ, कादिर की जड़ी-बूटियों ने एक ही सप्ताह में इस असाध्य रोग का निवारण कर दिया। खाँ साहब को भी एक बार कादिर के ही नुस्खे ने प्लेग से बचा लिया था। खाँ साहब इस उपकार से तो नहीं, पर कादिर की सर्वप्रियता से सशंक रहते थे। वह सदैव इसी उधेड़बुन में रहते थे कि इस शैतान को कैसे पंजे में लाऊँ।

किन्तु कादिर निश्चिंत और निश्शंक अपने काम में लगा रहता था। उसे एक क्षण के लिए भी यह भय न होता था कि गाँव के ज़मींदार और कारिन्दा मेरे शत्रु हो रहे हैं और उनकी शत्रुता मेरा सर्वनाश कर सकती है। यदि इस समय भी दैवयोग से खाँ साहब बीमार पड़ जाते, तो वह उनका इशारा पाते ही तुरन्त उनके उपचार और सेवा-शुश्रूषा में दत्तचित्त हो जाता। उसके हृदय में राग और द्वेष के लिए स्थान न था और न इस बात की परवाह थी कि मेरे विषय में कैसे-कैसे मिथ्यालाप हो रहे हैं! वह गाँव में विद्रोहाग्नि भड़का सकता था; खाँ साहब उनके सिपाहियों की खबर ले सकता था। गाँव में ऐसे उद्दंड नवयुवक थे, जो इस अनिष्ट के लिए आतुर थे, किन्तु कादिर उन्हें सँभाले रहता था। दीन-रक्षा उसका लक्ष्य था, किन्तु क्रोध और द्वेष को उभाड़कर नहीं, वरन् सद्व्यहार तथा सत्प्रेरणा से।

मनोहर की दशा इसके प्रतिकूल थी। जिस दिन से वह ज्ञानशंकर की कठोर बातें सुनकर लौटा था, उसी दिन से विकृत भावनाएँ उसके हृदय और मस्तिष्क में गूँजती रहती थीं। एक दीन मर्माहत पक्षी था, जो घावों से तड़प रहा था! वह अपशब्द उसे एक क्षण भी नहीं भूलते थे। वह ईंट का जवाब पत्थर से देना चाहता था। वह जानता था कि सबलों से बैर बढ़ाने में मेरा सर्वनाश होगा, किन्तु इस समय उसकी अवस्था उस मनुष्य की सी हो रही थी, जिसके झोंपड़े में आग लगी हो और वह उसके बुझाने में असमर्थ होकर शेष भागों में भी आग लगा दे कि किसी प्रकार विपत्ति का अंत हो। रोगी अपने रोग को असाध्य देखता है, तो पथ्यापथ्य की बेड़ियों को तोड़कर मृत्यु की और दौड़ता है। मनोहर चौपाल के सामने से निकलता तो अकड़कर चलने लगता। अपनी चारपाई पर बैठे हुए कभी खाँ साहब या गिरधर महाराज को आते देखता, तो उठकर सलाम करने के बदले पैर फैलाकर लेट जाता। सावन में उसके पेड़ों के आम पके, उसने सब आम तोड़कर घर में रख लिये, ज़मींदार का चिरकाल से बँधा हुआ चतुर्थांश न दिया, और जब गिरधर महाराज माँगने आये तो उन्हें दुत्कार दिया। वह सिद्ध करना चाहता था कि मुझे तुम्हारी धमकियों की जरा भी परवाह नहीं है, कभी-कभी नौ-दस बजे रात तक उसके द्वार पर गाना होता, जिसका अभिप्राय केवल खाँ साहब और सुक्खू चौधरी को जलाना था। बलराज को अब वह स्वेच्छाचार प्राप्त हो गया, जिसके लिए पहले उसे झिड़कियाँ खानी पड़ती थीं। उनके रंगीले सहचरों का यहाँ खूब आदर-सत्कार होता, भंग छनती, लकड़ी के खेल होते, लावनी और ख्याल की तानें उड़ती डफली बजती। मनोहर जवानी के जोश के साथ इन जमघटों में सम्मिलित होता। ये ही दोनों पक्षों के विचार- विनिमय के माध्यम से। खाँ साहब की एक-एक बात की सूचना यहाँ हो जाती थी। यहाँ का एक-एक शब्द वहाँ पहुँच जाता था। यह गुप्त चालें आग पर तेल छिड़कती रहती थीं। खाँ साहब ने एक दिन कहा, आजकल तो उधर गुलछर्रे उड़ रहे हैं, बेदखली का सम्मन पहुँचेगा तो होश ठिकाने हो जायेगा। मनोहर ने उत्तर दिया– बेदखली की धमकी दूसरे को दें, यहाँ हमारे खेत के मेडों पर कोई आया तो उसके बाल-बच्चे उसके नाम को रोयेंगे।

एक दिन सन्ध्या समय, मनोहर द्वार पर बैठा हुआ बैलों के लिए कड़वी छाँट रहा था और बलराज अपनी लाठी में तेल लगाता था कि ठाकुर डपटसिंह आकर माचे पर बैठ गये और बोले, सुनते हैं डिप्टी ज्वालासिंह हमारे बाबू साहब के पुराने दोस्त हैं! छोटे सरकार के लड़के थानेदार थे, उनका मुकदमा उन्हीं के इलजाम में था। वह आज बरी हो गये।

मनोहर– रिश्वत तो साबित हो गई थी न?

डपटसिंह– हाँ, साबित हो गई थी। किसी को उनके बरी होने की आशा न थी। पर बाबू ज्ञानशंकर ने ऐसी सिफारिस पहुँचायी कि डिप्टी साहब को मुकदमा खारिज करना पड़ा।

मनोहर– हमारे परगने का हाकिम भी तो वही डिप्टी है।

डपट– हाँ, इसी की तो चिन्ता है। इजाफा लगान का मामला उसी के इलजाम में जायेगा और ज्ञान बाबू अपना पूरा जोर लगायेंगे?

मनोहर– तब क्या करना होगा?

डपट– कुछ समझ में नहीं आता।

मनोहर– ऐसा कोई कानून नहीं बन जाता कि बेसी का मामला इन हाकिमों के इजलास में न पेश हुआ करे। हाकिम लोग आप भी तो ज़मींदार होते हैं, इसलिए वह जमींदारों का पक्ष करते हैं। सुनते हैं, लाट साहब के यहाँ कोई पंचायत होती है। यह बातें उस पंचायत में कोई नहीं कहता?

डपट– वहाँ भी तो सब ज़मींदार होते हैं, काश्तकारों की फरयाद कौन करेगा?

मनोहर– हमने तो ठान लिया है कि एक कौड़ी भी बेसी न देंगे।

बलराज ने लाठी कन्धे पर रखकर कहा, कौन इजाफ़ा करेगा, सिर तोड़ के रख दूँगा।

मनोहर– तू क्यों बीच में बोलता है? तुझसे तो हम नहीं पूछते। यह तो न होगा कि साँझ हो गयी है, लाओ भैंस दुह लूँ, बैल की नाद में पानी डाल दूँ। बे बात की बात बकता है। (ठाकुर से) यह लौंडा घर का रत्ती भर काम नहीं करता। बस खाने भर का घर से नाता है, मटरगसत किया करता है।

डपट– मुझसे क्या कहते हो मेरे यहाँ तो तीन-तीन मूसलचन्द हैं।

मनोहर– मैं तो एक कौड़ी बेसी न दूँगा, और न खेत ही छोड़ूँगा। खेतों के साथ जान भी जायेगी और दो-चार को साथ लेकर जायेगी।

बलराज– किसी ने हमारे खेतों की ओर आँख भी उठायी तो कुशल नहीं।

मनोहर– फिर बीच में बोला?

बलराज– क्यों न बोलूँ, तुम तो दो-चार दिन के मेहमान हो, जो कुछ पड़ेगी। वह तो हमारे ही सिर पड़ेगी। ज़मींदार कोई बादशाह नहीं है कि चाहे जितनी जबरदस्ती करे और वह मुँह न खोलें। इस जमाने में तो बादशाहों का भी इतना अख्तियार नहीं, ज़मींदार किस गिनती में हैं! कचहरी दरबार में कहीं सुनायी नहीं है तो (लाठी दिखलाकर) यह तो कहीं नहीं गयी है।

डपट– कहीं खाँ साहब यह बातें सुन लें तो गजब हो जाय।

बलराज– तुम खाँ साहब से डरो, यहाँ उनके दबैल नहीं हैं। खेत में चाहे कुछ उपज हो या न हो, बेसी होती चली जाय, ऐसा क्या अन्धेर है? ‘सरकार के घर कुछ तो न्याय होगा, किस बात पर बेसी मंजूर करेगी।

डपट– अनाज का भाव नहीं चढ़ गया है?

बलराज– भाव चढ़ गया है तो मजदूरों की मजदूरी भी चढ़ गयी है, बैलों का दाम भी तो चढ़ गया है, लोहे-लक्कड़ का दाम भी तो चढ़ गया है, यह किसके घर से आयेगा?

इतने में तो कादिर मियाँ घास का गट्ठर सिर पर रखे हुए आकर खड़े हो गये। बलराज की बातें सुनीं तो मुस्कुराकर बोले– भाँग का दाम भी तो चढ़ गया है। चरस भी महँगी हो गई है, कत्था-सुपारी भी तो दूने दामों बिकती है, इसे क्यों छोड़ जाते हो?

मनोहर– हाँ, कदारि दादा, तुमने हमारे मन की कही।

बलराज– तो क्या अपनी जवानी में तुम लोगों ने बूटी-भाँग न पी होगी? या सदा इसी तरह एक जून चबेना और दूसरी जून रोटी-साग खाकर दिन काटे हैं? और फिर तुम ज़मींदार के गुलाम बने रहो तो उस जमाने में और कर ही क्या सकते थे? न अपने खेत में काम करते, किसी दूसरे के खेत में मजदूरी करते। अब तो शहरों में मजूरों की माँग है, रुपया रोज खाने को मिलता है, रहने को पक्का घर अलग। अब हम जमींदारों की धौंस क्यों सहें, क्या भर पेट खाने को तरसें?

कादिर– क्यों मनोहर, क्या खाने को नहीं देते?

बलराज– यह भी कोई खाना है कि एक आदमी खाय और घर के सब आदमी उपास करें? गाँव में सुक्खू चौधरी को छोड़कर और किसी के घर दोनों बेला चूल्हा जलता है? किसी को एक जून चबेना मिलता है, कोई चुटकी भर सत्तू फाँककर रह जाता है। दूसरी बेला भी पेट भर रोटी नहीं मिलती।

कादिर– भाई, बलराज बात तो सच्ची कहता है। इस खेती में कुछ रह नहीं गया, मजदूरी भी नहीं पड़ती। अब मेरे ही घर देखो, कुल छोटे-बड़े मिलाकर दस आदमी हैं, पाँच-पाँच रुपये भी कमाते तो सौ रुपये साल भर के होते। खा-पी कर पचास रुपये बचे ही रहते। लेकिन इस खेती में रात-दिन लगे रहते हैं, फिर भी किसी को भर पेट दाना नहीं मिलता।

डपट– बस, एक मरजाद रह गयी है, दूसरों की मजूरी करते नहीं बनती, इसी बहाने से किसी तरह निबाह हो जाता है। नहीं तो बलराज की उमिर में हम लोग खेत के डाँढ़ पर न जाते थे। न जाने क्या हुआ कि जमीन की बरक्कत ही उठ गयी। जहाँ बीघा पीछे बीस-बीस मन होते थे, वहाँ चार-पाँच मन से आगे नहीं जाता।

मनोहर– सरकार को यह हाल मालूम होता तो जरूर कास्तकारों पर निगाह करती।

कादिर– मालूम क्यों नहीं है? रत्ती-रत्ती का पता लगा लेती है।

डपट– (हँसकर) बलराज से कहो, सरकार के दरबार में हम लोगों की ओर से फरियाद कर आये।

बलराज– तुम लोग तो ऐसी हँसी उड़ाते हो, मानो कास्तकार कुछ होता ही नहीं। वह ज़मींदार की बेगार ही भरने के लिए बनाया गया है; लेकिन मेरे पास जो पत्र आता है, उसमें लिखा है कि रूस देश में कास्तकारों का राज है, वह जो चाहते हैं करते हैं। उसी के पास कोई और देश बलगारी है। वहाँ अभी हाल की बात है, कास्तकारों ने राजा को गद्दी से उतार दिया है और अब किसानों और मजूरों की पंचायत राज करती है।

कादिर– (कुतूहल से) तो चलो ठाकुर! उसी देश में चलें वहाँ मालगुजारी न देनी पड़ेगी।

डपट– वहाँ के कास्तकार बड़े चतुर और बुद्धिमान होंगे तभी राज सँभालते होंगे!

कादिर– मुझे तो विश्वास नहीं आता।

मनोहर– हमारे पत्र में झूठी बातें नहीं होती।

बलराज– पत्रवाले झूठी बातें लिखें तो सजा पा जायें ।

मनोहर– जब उस देश के किसान राजा का बन्दोबस्त कर लेते हैं, तो क्या हम लोग लाट साहब से अपना रोना भी न रो सकेंगे?

कादिर– तहसीलदार साहब के सामने तो मुँह खुलता नहीं, लाट साहब से कौन फरियाद करेगा?

बलराज– तुम्हारा मुँह न खुले, मेरी तो लाट साहब से बातचीत हो, तो सारी कथा कह सुनाऊँ।

कादिर– अच्छा, अबकी हाकिम लोग दौरे पर आयेगे, तो हम तुम्हीं को उनके सामने खड़ा कर देंगे।

यह कहकर कादिर खाँ घर की ओर चले। बलराज ने भी लाठी कन्धे पर रखी और उनके पीछे चला। जब दोनों कुछ दूर निकल गये तब बलराज ने कहा– दादा, कहो तो खाँ साहब की (घूँसे का इशारा करके) कर दी जाय।

कादिर ने चौंककर उसकी ओर देखा– क्या गाँव भर को बँधवाने पर लगे हो? भूलकर भी ऐसा काम न करना।

बलराज– सब मामला लैस है, तुम्हारे हुकुम की देर है।

कादिर– (कान पकड़कर) न! मैं तुम्हें आग में कूदने की सलाह न दूँगा। जब अल्लाह को मंजूर होगा तब वह आप ही यहाँ से चले जायेंगे।

बलराज– अच्छा तो बीच में न पड़ोगे न?

कादिर– तो क्या तुम लोग सचमुच मार-पीट पर उतारू हो क्या? हमारी बात न मानोगे तो मैं जाकर थाने में इत्तला कर दूँगा। यह मुझसे नहीं हो सकता कि तुम लोग गाँव में आग लगाओ और मैं देखता रहूँ।

बलराज– तो तुम्हारी सलाह है नित यह अन्याय सहते जायें!

कादिर– जब अल्लाह को मन्जूर होगा तो आप-ही-हाप सब उपाय हो जायेगा।

8.

जिस भाँति सूर्यास्त के पीछे विशेष प्रकार के जीवधारी; जो न पशु हैं न पक्षी, जीविका की खोज में निकल पड़ते हैं, अपनी लंबी श्रेणियों से आकाश मंडल को आच्छादित कर लेते हैं, उसी भाँति कार्तिक का आरम्भ होते ही एक अन्य प्रकार के जन्तु देहातों में निकल पड़ते हैं और अपने खेमों तथा छोलदारियों से समस्त ग्राम-मण्डल को उज्जवल कर देते हैं। वर्षा के आदि में राजसिक कीट और पतंग का उद्भव होता है, उसके अन्त में तामसिक कीट और पतंग का। उनका उत्थान होते ही देहातों में भूकम्प-सा आ जाता है और लोग भय से प्राण छिपाने लगते हैं।

इसमें सन्देह नहीं कि अधिकारियों के यह दौरे सदिच्छाओं से प्रेरित होकर होते हैं। उनका अभिप्राय है जनता की वास्तविक दशा का ज्ञान प्राप्त करना, न्यायप्रार्थी के द्वार तक पहुँचना, प्रजा के दुःखों को सुनना, उनकी आवश्यकताओं को देखना, उनके कष्टों का अनुमान करना, उनके विचारों से परिचित होना। यदि यह अर्थ सिद्ध होते तो यह दौरे बसन्तकाल से भी अधिक प्राण-पोषक होते, लोग वीणा, पखावज से, ढोल-मजीरे से उनका अभिवादन करते किन्तु जिस भाँति प्रकाश की रश्मियाँ पानी में वक्रगामी हो जाती हैं, उसी भाँति सदिच्छाएँ भी बहुधा मानवीय दुर्बलताओं के सम्पर्क से विषम हो जाया करती हैं। सत्य और न्याय पैरों के नीचे आ जाता है, लोभ और स्वार्थ की विजय हो जाती है! अधिकारी वर्ग और उनके कर्मचारी विरहिणी की भाँति इस सुख काल के दिन गिना करते हैं। शहरों में तो उनकी दाल नहीं गलती, या गलती है तो बहुत कम! वहाँ प्रत्येक वस्तु के लिए उन्हें जेब में हाथ डालना पड़ता है, किन्तु देहातों में जेब की जगह उनका हाथ अपने सोंटे पर होते या किसी दीन किसान की गर्दन पर! जिस घी, दूध, शाक-भाजी, मांस-मछली आदि के लिए शहर में तरसते थे, जिनका स्वप्न में भी दर्शन नहीं होता था, उन पदार्थों की यहाँ केवल जिह्वा और बाहु के बल से रेल-पेल हो जाती है। जितना खा सकते हैं, खाते हैं, बार-बार खाते हैं, और जो नहीं खा सकते, वह घर भेजते हैं। घी से भरे हुए कनस्तर, दूध से भरे हुए मटके, उपले और लकड़ी घास और चारे से लदी हुई गाड़ियाँ शहरों में आने लगती हैं। घरवाले हर्ष से फूले नहीं समाते, अपने भाग्य को सराहते हैं, क्योंकि अब दुःख के दिन गये और सुख के दिन आये। उनकी तरी वर्षा के पीछे आती है, वह खुश्की में तरी का आनन्द उठाते हैं। देहातवालों के लिए वह बड़े संकट के दिन होते हैं, उनकी शामत आ जाती है, मार खाते हैं, बेगार में पकड़े जाते है; दासत्व के दारुण निर्दय आघातों से आत्मा का भी ह्रास हो जाता है।

अगहन का महीना था, साँझ हो गयी थी। कादिर खाँ के द्वार पर अलाव लगी हुयी थी। कई आदमी उसके इर्द-गिर्द बैठे हुए बातें कर रहे थे। कादिर ने बाजार के तम्बाकू की निन्दा की, दुखरन भगत ने उनका अनुमोदन किया। इसके बाद डपटसिंह पर्थर और बेलन के कोल्हुओं के गुण-दोष की विवेचना करने लगे, अन्त में लोहे ने पत्थर पर विजय पायी।

दुखरन बोले– आजकल रात को मटर में सियार और हरिन बड़ा उपद्रव मचाते हैं। जाड़े के मारे उठा नहीं जाता।

कादिर– अब की ठण्डी पड़ेगी। दिन को पछुआ चलता है। मेरे पास तो कोई कम्बल भी नहीं, वही एक दोहर लपेटे रहता हूँ। पुवाल न हो गया होता तो रात को अकड़ जाता।

डपट– यहाँ किसके पास कम्बल है। उसी एक पुराने धुस्से की भुगुत है। लकड़ी भी इतनी नहीं मिलती कि रात भर तापें।

मनोहर– अब की बेटी के ब्याह में इमली का पेड़ कटवाया था। क्या सब जल गयी?

डपट– नहीं बची तो बहुत थी, पर कल डिप्टी ज्वालासिंह के लश्कर में चली गयी। खाँ साहब से कितना कहा कि इसे मत ले जाइए, पर उनकी बला सुनती है। चपरासियों को ढेर दिखा दिया। बात की बात में सारी लकड़ी उठ गयी?

मनोहर– तुमने चपरासियों से कुछ कहा नहीं?

डपट– क्या कहता, दस-पाँच मन लकड़ी के पीछे अपनी जान साँसत में डालता! गालियाँ खाता, लश्कर में पकड़ा जाता, मार पड़ती ऊपर से, तब तुम भी पास न फटकते। दोनों लड़के और झपट तो गरम हो पड़े थे, लेकिन मैंने उन्हें डाँट दिया। जबरदस्त का ठेंगा सिर पर।

कादिर– हाकिमों का दौर क्या है, हमारी मौत है! बकरीद में कुर्बानी के लिए जो बकरा पाल रखा था, वह कल लश्कर में पकड़ा गया। रब्बी बूचड़ पाँच रुपये नगद देता था, मगर मैंने न दिया था। इस बखत सात से कम का माल न था।

मनोहर– यह लोग बड़ा अन्धेर मचाते हैं। आते हैं इंतजाम करने, इन्साफ करने; लेकिन हमारे गले पर छुरी चलाते हैं। इससे कहीं अच्छी तो यही था कि दौरे बन्द हो जाते। यही न होता कि मुकदमे वालों को सदर जाना पड़ता, इस साँसत से तो जान बचती।

कादिर– इसमें हाकिमों का कसूर नहीं। यह सब उनके लश्करवालों की धाँधली है। वही सब हाकिमों को भी बदनाम कर देते हैं।

मनोहर– कैसी बातें कहते हो दादा? यह सब मिलीभगत है। हाकिम का इशारा न होता तो मजाल है कि कोई लश्करी परायी चीज पर हाथ डाल सके। सब कुछ हाकिमों की मर्जी से होता है और उनकी मर्जी क्यों न होगी? सेंत का माल किसको बुरा लगता है?

डपट– ठीक बात है। जिसकी जितनी आमद होती है वह उतना ही और मुँह फैलाता है।

दुखरन– परमात्मा यह अन्धेर देखते हैं, और कोई जतन नहीं करते। देखें बिसेसर साह को अबकी कितनी घटी आती है।

डपट– परसाल तो पूरे तीन सौ की चपत पड़ी थी। वही अबकी समझो, अगर जिन्स ही तक रहे तो इतना घाटा न पड़े, मगर यहाँ तो इलायची, कत्था, सुपारी, मेवा और मिश्री सभी कुछ चाहिए और सब टके सेर। लोग खाने के इतने शौकीन बनते हैं, पर यह नहीं होता कि वे सब चीजें अपने साथ रखें।

मनोहर– शहर में खरे दाम लगते हैं, यहाँ जी में आया दिया न दिया।

कादिर– कल लश्कर का एक चपरासी बिसेसर के यहाँ साबूदाना माँग रहा था। बिसेसर हाथ जोड़ता था, पैरों पड़ता था कि मेरे यहाँ नहीं है, लेकिन चपरासी एक न सुनता था, कहता था जहाँ से चाहो मुझे लाकर दो। गालियाँ देता था, डण्डा दिखाता था। बारे बलराज पहुँच गया। जब वह कड़ा पड़ा तो चपरासी मियाँ नरम पड़े, और भुनभुनाते चले गये ।

दुखरन– बिसेसर की एक मरम्मत हो जाती तो अच्छा होता। गाँव भर का गला मरोड़ता है, यह उसकी सजा है।

डपट– और हम-तुम किसका गला मरोड़ते हैं?

मनोहर ने चिन्तित भाव से कहा– बलराज अब सराकीर आदमियों के मुँह आने लगा। कितना समझा के हार गया मानता नहीं।

कादिर– यह उमिर ही ऐसी होती है।

यही बातें हो रही थीं कि एक बटोही आकर अलाव के पास खड़ा हो गया। उसके पीछे-पीछे एक बुढ़िया लाठी टेकती हुई आयी और अलाव से दूर सिर झुकाकर बैठ गयी।

कादिर ने पूछा– कहो भाई, कहाँ घर है?

घर तो देवरी पार, अपनी बुढ़िया माता को लिये अस्पताल जाता था। मगर वह जो सड़क के किनारे बगीचे में डिप्टी साहब का लश्कर उतरा है, वहाँ पहुँचा तो चपरासी ने गाड़ी रोक ली और हमारे कपड़े-लत्ते फेंक-फाँक कर लकड़ी लादने लगे, कितनी अरज-बिनती की, बुढ़िया बीमार है, रातभर का चला हूँ, आज अस्पताल नहीं पहुँचा तो कल न जाने इसका क्या हाल हो! मगर कौन सुनता है? मैं रोता ही रहा, वहाँ गाड़ी लद गयी! तब मुझसे कहने लगे, गाड़ी हाँक। क्या करूँ अब गाड़ी हाँक सदर जा रहा हूँ। बैल और गाड़ी उनके भरोसे छोड़कर आया हूँ जब लकड़ी पहुँचा के लौटूँगा तब अस्पताल जाऊँगा। तुम लोगों को हो सके तो बुढ़िया के लिए खटिया दे दो और कहीं पड़ रहने का ठिकाना बता दो। इतना पुण्य करो, मैं बड़ी विपत्तियों में हूँ।

दुखरन– यह बड़ा अन्धेर है। यह लोग आदमी काहे के, पूरे राक्षस हैं, जिन्हें दयाधरम का विचार नहीं।

डपट– दिन-भर के थके-माँदे बैल हैं, न जाने कहाँ गाड़ी ले जानी पड़ेगी और न जाने जब लौटोगे। तब तक बुढ़िया अकेली पड़ी रहेगी। जाने कैसी पड़े कैसी न पड़े! हम लोग कितने भी हों, हैं तो पराये ही, घर के आदमी की और बात है।

मनोहर– मेरा तो ऐसा ही जी चाहता है कि इस दम डिप्टी साहब के सामने जाऊँ और ऐसी खरी-खरी सुनाऊँ कि वह भी याद करें। बड़े हाकिम की पोंछ बने हैं। इन्साफ तो क्या करेंगे, उल्टे और गरीबों को पीसते हैं। खटिया की तो कोई बात नहीं है और न जगह की ही कमी है, लेकिन यह रहेंगी कैसे?

बटोही– कैसे बताऊँ? जो भाग्य में लिखा है। वही होगा।

मनोहर– यहाँ से कोई तुम्हारी गाड़ी हाँक ले जाय तो कोई हरज है?

बटोही– ऐसा हो जाय तो क्या पूछना। है कोई आदमी?

मनोहर– आदमी बहुत हैं, कोई न कोई चला जायेगा।

कादिर– तुम्हारा हलवाहा तो खाली है, उसे भेज दो।

मनोहर– हलवाहे से बैल सधे न सधे, मैं ही चला जाऊँगा।

कादिर– तुम्हारे ऊपर मुझे विश्वास नहीं आता। कहीं झगड़ा कर बैठो तो और बन जाय। दुखरन भगत, तुम चले जाओ तो अच्छा हो।

दुखरन ने नाक सिकोड़कर कहा– मुझे तो जानते ही, रात को कहीं नहीं जाता। भजन-भाव की यही बेला है।

कादिर– चला तो मैं जाता, लेकिन मेरा मन कहता है कि बूढ़ी को अच्छा करने का जस मुझी को मिलेगा। कौन जाने अल्लाह को यही मंजूर हो। मैं उन्हें अपने घर लिये जाता हूँ। जो कुछ बन पड़ेगा करूँगा। गाड़ी हसनू से हकवाये देता हूँ। बैलों को चारा-पानी देना है, बलराज को थोड़ी देर के लिए भेज देना।

कादिर के बरौठे में वृद्धा की चारपाई पड़ गयी। कादिर का लड़का हसनू गाड़ी हाँकने के लिए पड़ाव की तरफ चला। इतने में सुक्खू चौधरी और गौस खाँ दो चपरासियों के साथ आते दिखाई दिये। दूसरी ओर से बलराज भी आकर खड़ा हो गया।

गौस खाँ ने कहा– सब लोग यहाँ बैठे गलचौड़ कर रहे हो, कुछ लश्कर की भी खबर है? देखो, यही चपरासी लोग दूध के लिए आये हैं, उसका बन्दोबस्त करो।

कादिर– कितना दूध चाहिए?

एक चपरासी– कम-से-कम दस सेर।

कादिर– दस-सेर! इतना दूध तो चाहे गाँव भर में न निकले। दो ही चार आदमियों के पास भैंसे हैं और वह दुधार नहीं हैं। मेरे यहाँ तो दोनों जून में सेर भर से ज्यादा नहीं होता।

चपरासी– भैंसे हमारे सामने लाओ, दूध तो हमारा चपरासी निकालता है। हम पत्थर से दूध निकाल लें। चोरों के पेट तक की बात निकाल लेते हैं, भैंसे तो फिर भी भैंसे हैं। इस चपरास में वह जादू है, कि चाहे तो जंगल में मंगल कर दे। लाओ, भैंसें यहाँ खड़ी करो।

गौस खाँ– इतने तूल-कलाम की क्या जरूरत है? दूध का इन्तजाम हो जायेगा। दो सेर सुक्खू देने को कहते हैं। कादिर के यहाँ दो सेर मिल ही जायेगा, दुखरन भगत दो सेर देंगे; मनोहर और डपटसिंह भी दो-दो सेर दे देंगे। बस हो गया।

कादिर– मैं दो-चार सेर का बीमा नहीं लेता। यह दोनों भैंसें खड़ी हैं। जितना दूध दे दें उतना ले लिया जाय।

दुखरन– मेरी तो दोनों भैंसे गाभिन हैं। बहुत देंगी तो आधा सेर। पुवाल तो खाने को पाती हैं और वह भी आधा पेट। कहीं चराई हैं नहीं, दूध कहाँ से हो?

डपट सिंह– सुक्खू चौधरी जितना देते हैं, उसका आधा मुझसे ले लीजिए। हैसियत के हिसाब से न लीजिएगा।

गौस खाँ– तुम लोगों की यह निहायक बेहूदी आदत है कि हर बात में लाग-डाँट करने लगते हो। शराफत और नरमी से आधा भी न दोगे, लेकिन सख्ती से पूरा लिये हाजिर हो जाओगे। मैंने तुमसे दो सेर कह दिया है; इतना तुम्हें देना होगा।

डपट– इस तरह आप मालिक हैं, भैंसें खेल ले जाइए, लेकिन दो सेर दूध मेरे यहाँ न होगा।

गौस खाँ– मनोहर तुम्हारी भैंसें दुधार हैं?

मनोहर ने अभी जवाब न दिया था कि बलराज बोल उठा– मेरी भैंसें बहुत दुधार हैं, मन भर दूध देती हैं, लेकिन बेगार के नाम से छटाँक भर भी न देंगी।

मनोहर– तू चुपचाप क्यों नहीं रहता? तुमसे कौन पूछता है? हमसे जितना हो सकेगा देंगे, तुमसे मतलब?

चपरासी ने बलराज की ओर अपमान-जनक क्रोध से देखकर कहा– महतो, अभी हम लोगों के पंजे में नहीं पड़े हो। एक बार पड़ जाओगे तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जायेगा। मुँह से बातें न निकलेंगी।

दूसरा चपरासी– मालूम होता है, सिर पर गरमी चढ़ गयी है तभी इतना ऐंठ रहा है। इसे लश्कर ले चलो तो गरमी उतर जाय।

बलराज ने मर्माहत होकर कहा– मियाँ, हमारी गरमी पाँच-पाँच रुपल्ली के चपरासियों के मान की नहीं है, जाओ, अपने साहब बहादुर के जूते सीधे करो, जो तुम्हारा काम है; हमारी गरमी के फेर में न पड़ो; नहीं तो हाथ लग जायेंगे। उस जन्म के पापों का दण्ड भोग रहे हो, लेकिन अब भी तुम्हारी आँखें नहीं खुलतीं?

बलराज ने यह शब्द ऐसी सगर्व गम्भीरता से कहे कि दोनों चपरासी खिसिया– से गये । इस घोर अपमान का प्रतिकार करना कठिन था। यह मानो वाद को वाणी की परिधि से निकालकर कर्म के क्षेत्र में लाने की ललकार थी। व्यंगाघात शाब्दिक कलह की चरम सीमा है। उसका प्रतिकार मुँह से नहीं हाथ से होता है। लेकिन बलराज की चौड़ी छाती और पुष्ट भुजदण्ड देखकर चपरासियों को हाथापाई करने का साहस न हो सका। गौस खाँ से बोला, खाँ साहब, आप इस लौंडे को देखते हैं, कैसा बढ़ा जाता है? इसे समझा दीजिए, हमारे मुँह न लगे। ऐसा न हो शामत आ जाय और छह महीने तक चक्की पीसनी पड़े। हम आप लोगों का मुलाजिमा करते हैं, नहीं तो इस हेकड़ी का मजा चखा देते।

गौस खाँ– सुनते हो मनोहर, अपने बेटे की बात? भला सोचो तो डिप्टी साहब के कानों में यह बात पड़ जाय तो तुम्हारा क्या हाल हो? कहीं एक पत्ती का साया भी न मिलेगा।

मनोहर ने दीनता से खाँ साहब की ओर देखकर कहा– मैं तो इसे सब तरह से समझा-बुझा कर हार गया। न जाने क्या हाल करने पर तुला है? (बलराज से) अरे, तू यहाँ से जायेगा कि नहीं?

बलराज– क्यों जाऊँ, मुझे किसी का डर नहीं है। यह लोग डिप्टी साहब से मेरी शिकायत करने की धमकी देते हैं। मैं आप ही उनके पास जाता हूँ। इन लोगों को उन्होंने कभी ऐसा नादिरशाही हुक्म न दिया होगा कि जाकर गाँव में आग लगा दो। और मान लें कि वह ऐसा कड़ा हुक्म दे भी दें, तो इन लोगों को तो पैसे के लोभ और चपरास के मद ने ऐसा अन्धा बना दिया है कि कुछ सूझता ही नहीं। आज उस बेचारी बुढ़िया का क्या हाल होगा, मरेगी कि जियेगी; नौकरी तो की है पांच रुपये की, काम है बस्ते ढोना, मेज साफ करना, साहब के पीछे-पीछे खिदमतगारों की तरह चलना और बनते हैं रईस!

मनोहर– तू चुप होगा कि नहीं?

एक चपरासी– नहीं, इसे खूब गालियाँ दे लेने दो, जिसमें इसके दिल की हवस निकल जाय। इसका मजा कल मिलेगा। खाँ साहब, आपने सुना है, आपको गवाही देनी पड़ेगी। आपका इतना मुलाजिमा बहुत किया। होगा, दूध का कुछ इन्तजाम करते हैं कि हम लोग जायें?

गौस खाँ– नहीं जी, दूध लो, और दस सेर से सेर भर ज़्यादा। यही लोग झख मारेंगे और देंगे। क्या बताएँ आज इस छोकड़े की बदौलत हमको तुम लोगों के सामने इतना शर्मिन्दा होना पड़ा। इस गाँव की कुछ हवा ही बिगड़ी हुई है। मैं खूब समझता हूँ। यह लोग जो भीगी बिल्ली बने बैठे हुए हैं, इन्हीं के शह देने से लौंडे को इतनी जुर्रत हुई है; नहीं तो इसकी मजाल थी कि यों टर्राता। बछड़ा खूँटे के ही बल कूदता है। खैर, अगर मेरा नाम गौस खाँ है तो एक-एक से समझूँगा।

इस तिरस्कार का आशातीत प्रभाव हुआ। सब दहल उठे। वह अभिनय-शीलता, जो पहले सबके चेहरे से झलक रही थी, लुप्त हो गयी। मनोहर तो ऐसा सिटपिटा गया, मानो सैकड़ों जूते पड़े हों। इस खटाई ने सबके नशे उतार दिये।

कादिर खाँ बोल– मनोहर, जाओ, जितना दूध है सब यहाँ भेज दो।

गौस खाँ– हमको मनोहर के दूध की जरूरत नहीं है।

बलराज– यहाँ देता ही कौन है?

मनोहर खिसिया गया। उठा खड़ा हुआ और बोला– अच्छा ले अब तू ही बोल, जो तेरे जी में आये कर, मैं जाता हूँ। अपना घर-द्वार सँभाल मेरा निबाह तेरे साथ न होगा। चाहे घर को रख, चाहे आग लगा दे।

यह कहकर वह सशंक क्रोध से भरा वहाँ से चल दिया। बलराज भी धीरे-धीरे अपने अखाड़े की ओर चला। वहाँ इस समय सन्नाटा था। मुगदर की जोड़ी रखी हुई थी। एक पत्थर की नाल जमीन पर पड़ी हुई थी, और लेजिम आम की डाल से लटक रहा था। बलराज ने कपड़े उतारे और लँगोट कसकर अखाड़े में उतरा लेकिन आज व्यायाम में उसका मन न लगा। चपरासियों की बात एक फोड़े का भाँति उसके हृदय में टीस रही थी। यद्यपि उसने चपरासियों को निर्भय होकर उत्तर दिया था, लेकिन इसे इसमें तनिक भी सन्देह न था कि गाँव के अन्य पुरुषों को, यहाँ तक कि मेरे पिता को भी, मेरी बातें उद्दंड प्रतीत हुईं। सब-के-सब कैसा सन्नाटा खींचे बैठे रहे। मालूम होता था कि किसी के मुंह में जीभ ही नहीं है, तभी तो यह दुर्गति हो रही है! अगर कुछ दम हो तो आज इतने पीसे-कुचले क्यों जाते? और तो और, दादा ने भी मुझी को डांटा। न जाने इनके मन में इतना डर क्यों समा गया है? पहले तो ये इतने कायर न थे। कदाचित् अब मेरी चिन्ता इन्हें सताने लगी। लेकिन मुझे अवसर मिला तो स्पष्ट कह दूँगा कि तुम मेरी ओर से निश्चिंत रहो। मुझे परमात्मा ने हाथ-पैर दिए हैं। मिहनत कर सकता हूँ और दो को खिलाकर खा सकता हूँ। तुम्हें अगर अपने खेत इतने प्यारे हैं कि उनके पीछे तुम अत्याचार और अपमान सहने पर तैयार हो तो शौक से सहो, लेकिन मैं ऐसे खेतों पर लात मारता हूँ। अपने पसीने की रोटी खाऊँगा और अकड़कर चलूँगा। अगर कोई आँख दिखायेगा तो उसकी आँख निकाल लूँगा। यह बुड्ढा गौस खाँ कैसी लाल-पीली आँख कर रहा था, मालूम होता है इनकी मृत्यु मेरे ही हाथों लिखी हुई है। मुझ पर दो चोट कर चुके हैं। अब देखता हूँ कौन हाथ निकालते हैं। इनका क्रोध मुझी पर उतरेगा। कोई चिन्ता नहीं, देखा जायेगा। दोनों चपरासी मन में फूले ही न समाये होंगे की सारा गाँव कैसा रोब में आ गया, पानी भरने को तैयार है। गाँव वालों ने भी लल्लो-चप्पो की होगी, कोई परवाह नहीं। चपरासी मेरा कर ही क्या सकते हैं? लेकिन मुझे कल प्रातःकाल डिप्टी साहब के पास जाकर उनसे सब हाल कह देना चाहिए। विद्वान-पुरुष हैं। दीन जनों पर उन्हें अवश्य दया आयेगी। अगर वह गाड़ियों के पकड़ने की मनाही कर दें तो क्या पूछना? उन्हें यह अत्याचार कभी पसन्द न आता होगा। यह चपरासी लोग उनसे छिपाकर यों जबरदस्ती करते हैं। लेकिन कहीं उन्होंने मुझे अपने इजलास से खड़े-खड़े निकलवा दिया तो? बड़े आदमियों को घमण्ड बहुत होता है। कोई हरज नहीं, मैं सड़क पर खड़ा हो जाऊँगा और देखूँगा कि कैसे कोई मुसाफिरों की गाड़ी पकड़ता है! या तो दो-चार का सिर तोड़ के रख दूँगा या आप वहीं मर जाऊँगा। अब बिना गरम पड़े काम नहीं चल सकता। वह दादा बुलाने आ रहे हैं।

बलराज अपने बाप के पीछे-पीछे घर पहुँचा। रास्ते में कोई बात-चीत नहीं हुई। बिलासी बलराज को देखकर बोली– कहाँ जाके बैठ रहे? तुम्हारे दादा कब से खोज रहे हैं। चलो रोटी तैयार है।

बलराज– अखाड़े की ओर चला गया था।

बिलासी– तुम अखाड़े मत जाया करो।

बलराज– क्यों?

बिलासी– क्यों क्या, देखते नहीं हो, सबकी आँखों में चुभते हो? जिन्हें तुम अपना हितू समझते हो, वह सब के सब तुम्हारी जान के घातक हैं। तुम्हें आग में ढकेल कर आप तमाशा देखेंगे। आज ही तुम्हें सरकारी आदमियों से भिड़ाकर कैसा दबक गये?

बलराज ने इस उपदेश का कुछ उत्तर न दिया। चौके पर जा बैठा। उसके एक ओर मनोहर था और दूसरी ओर जरा हटकर उसका हलवाहा रंगी चमार बैठा हुआ था। बिलासी ने जौ की मोटी-मोटी रोटियाँ, बथुआ का शाक और अरहर की दाल तीनों थालियों में परस दीं। तब एक फूल के कटोरे में दूध लाकर बलराज के सामने रख दिया।

बलराज– क्या और दूध नहीं है?

बिलासी– दूध कहाँ है, बेगार में नहीं चला गया?

बलराज– अच्छा, यह कटोरा रंगी के सामने रख दो।

बलराज– तुम खा लो, रंगी एक दिन दूध न खाएगा तो दुबला न हो जायेगा।

बलराज बेगार का हाल सुनकर क्रोध से आग हो रहा था। कटोरे को उठाकर आँगन की ओर जोर से फेंक दिया। वह तुलसी के चबूतरे से टकराकर टूट गया। बिलासी ने दौड़ कर कटोरा उठा लिया और पछताते हुऐ बोली– तुम्हें क्या हो गया है? राम, राम, ऐसा सुन्दर कटोर चूर कर दिया। कहीं सनक तो नहीं गये हो?

बलराज– हाँ, सनक ही गया हूँ।

बिलासी– किस बात पर कटोरे को पटक दिया?

बलराज– इसीलिए कि जो हमसे अधिक काम करता है उसे हमसे अधिक खाना चाहिए। हमने तुमसे बार-बार कह दिया है कि रसोई में जो कुछ थोड़ा-बहुत हो, वह सबके सामने आना चाहिए। अच्छा खाँय तो सब खाँय बुरा खाँय तो सब खाँय लेकिन तुम्हें न जाने क्यों यह बात भूल जाती है? अब याद रहेगी। रंगी कोई बेगार का आदमी नहीं है, घर का आदमी है। वह मुँह से चाहे न कहे, पर मन में अवश्य कहता होगा कि छाती फाड़कर काम मैं करूँ और मूछों पर ताव देकर खाँय यह लोग। ऐसे दूध-घी खाने पर लानत है।

रंगी ने कहा– भैया, नित तो दूध खाता हूँ, एक दिन न सही। तुम हक-नाहक इतने खफा हो गये।

इसके बाद तीनों आदमी चुपचाप खाने लगे। खा-पीकर बलराज और रंगी ऊख की रखवाली करने मण्डिया की तरफ चले। वहाँ बलराज ने चरस निकाली और दोनों ने खूब दम लगाये। जब दोनों ऊख के बिछावन पर कंबल ओढ़कर लेटे तो रंगी बोला– काहे भैया आज तुमसे लश्कर के चपरासियों से कुछ कहा सुनी हो गयी थी क्या?

बलराज– हाँ, हुज्जत हो गयी। दादा ने मने न किया होता तो दोनों को मारता।

रंगी– तभी दोनों बुरा-भला कहते चले जाते थे। मैं उधर से क्यारी में पानी खोलकर आता था। मुझे देखकर दोनों चुप हो गये। मैंने इतना सुना; अगर यह लौंडा कल सड़क पर गाड़ियाँ पकड़ने में कुछ तकरार करे तो बस चोरी का इलजाम लगाकर गिरफ्तार कर लो। एक पचास बेंत पड़ जायें तो इसकी शेखी उतर जाय।’

बलराज– अच्छा, यह सब यहाँ तक मेरे पीछे पड़े हुए हैं। तुमने अच्छा किया कि मुझे चेता दिया, मैं कल सवेरे ही डिप्टी साहेब के पास जाऊँगा।

रंगी– क्या करने जाओगे भैया। सुनते हैं। अच्छा आदमी नहीं है। बड़ी कड़ी सजा देता है। किसी को छोड़ना तो जानता ही नहीं। तुम्हें क्या करना है? जिसकी गाड़ियाँ पकड़ी जायेंगी वह आप निबट लेगा।

बलराज– वाह,लोगों में इतना ही बूता होता तो किसी की गाड़ी पकड़ी ही क्यों जाती? सीधे का मुंह कुत्ता चाटता है। यह चपरासी भी तो आदमी ही है!

रंगी– तो तुम काहे को दूसरे के बीच में पड़ते हो? तुम्हारे दादा आज उदास थे और अम्माँ रोती रहीं।

बलराज– क्या जाने, क्यों रंगी, जब से दुनिया का थोड़ा-बहुत हाल जानने लगा हूँ, मुझसे अन्याय नहीं देखा जाता। जब किसी जबरे को किसी गरीब का गला दबाते देखता हूँ तो मेरे बदन में आग-सी लग जाती है। यही जी चाहता है कि चाहे अपनी जान रहे या जाय, इस जबरे का सिर नीचा कर दूँ। सिर पर एक भूत-सा सवार हो जाता है। जानता हूँ कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, पर मन काबू से बाहर हो जाता है।

इसी तरह की बातें करते दोनों सो गये। प्रातः काल बलराज घर गया, कसरत की, दूध पिया और ढीला कुर्ता पहन, पगड़ी बाँध डिप्टी साहब के पड़ाव की ओर चला। मनोहर जब तक उससे रूठे बैठे थे, अब जब्त न कर सके। पूछा, कहाँ जाते हो?

बलराज– जाता हूँ डिप्टी साहब के पास।

मनोहर– क्यों सिर पर भूत सवार है? अपना काम क्यों नहीं देखते।

बलराज– देखूँगा कि पढ़े-लिखे लोगों का मिजाज कैसा होता है?

मनोहर– धक्के खाओगे, और कुछ नहीं!

मनोहर– धक्के तो चपरासियों के खाते हैं, इसकी क्या चिन्ता? कुत्ते की जात पहचानी जायेगी।

मनोहर ने उसी ओर निराशापूर्ण स्नेह की दृष्टि से देखा और कन्धे पर कुदाल रख कर हार की ओर चल दिया। बलराज को मालूम हो गया कि अब यह मुझे छोड़ा हुआ साँड़ समझ रहे हैं, पर वह अपनी धुन में मस्त था। मनोहर का यह विचार कि इस समय समझाने का उतना असर न होगा, जितना विरक्ति-भाव का, निष्फल हो गया। वह ज्योंही घर से निकला, बलराज ने भी लट्ठ कन्धे पर रखा और कैम्प की ओर चला। किसी हाकिम के सम्मुख जाने का यह पहला ही अवसर था। मन में अनेक विचार आते थे। मालूम नहीं, मिलें या न मिलें, कहीं मेरी बातें सुनकर बिगड़ न जायें, मुझे देखते ही सामने से निकलवा न दें, चपरासियों ने मेरी शिकायत अवश्य की होगी। क्रोध में भरे बैठे होंगे। बाबू ज्ञानशंकर से इनकी दोस्ती भी तो है। उन्होंने भी हम लोगों की ओर से उनके कान खूब भरे होंगे। मेरी सूरत देखते ही जल जायेंगे। उँह, जो कुछ हो, एक नया अनुभव तो हो जायेगा। यही पढ़े-लिखे लोग तो हैं जो सभाओं में और लाट साहब के दरबार में हम लोगों की भलाई की रट लगाया करते हैं, हमारे नेता बनते हैं। देखूँगा कि यह लोग अपनी बातों के कितने धनी हैं।

बलराज कैम्प में पहुँचा तो देखा कि जगह-जगह लकड़ी के अलाव जल रहे हैं, कहीं पानी गरम हो रहा है, कहीं चाय बन रही है। एक कूबड़ बकरे का मांस काट रहा है दूसरी ओर बिसेसर साह बैठे जिन्स तौल रहे हैं। चारों ओर घड़े हाँडियाँ टूटी पड़ी थीं। एक वृक्ष की छाँह में कितने ही आदमी सिकुड़े बैठे थे, जिनके मुकदमों की आज पेशी होने वाली थी, बलराज पेड़ों की आड़ में होता हुआ ज्वाला सिंह के खेमे के पास जा पहुँचा। उसे यह धड़का लगा हुआ था कि कहीं उन दोनों चपरासियों की निगाह मुझ पर न पड़ जाय। वह खड़ा सोचने लगा कि डिप्टी साहब के सामने कैसे जाऊँ? उस पर इस समय एक रोब छाया हुआ था। खेमे के सामने जाते हुए पैर काँपते थे। अचानक उसे गौस खाँ और सुक्खू चौधरी एक पेड़ के नीचे आग तापते दिखाई पड़े। अब वह खेमे के पीछे खड़ा न रह सका। उनके सामने धक्के खाना या डाँट सुनना मर जाने से भी बुरा था। वह जी कड़ा करके खेमे के सामने चला गया और ज्वालासिंह को सलाम करके चुपचाप खड़ा हो गया।

बाबू ज्वालासिंह एक न्यायशील और दयालु मनुष्य थे, किन्तु इन दो-तीन महीनों के दौरे में उन्हें अनुभव हो गया था कि बिना कड़ाई के मैं सफलता के साथ कर्त्तव्य का पालन नहीं कर सकता। सौजन्य और शालीनता निज के कामों से चाहे कितनी ही सराहनीय हो, लेकिन शासन-कार्य में यह सद्गुण अवगुण बन जाते हैं। लोग उनसे अनुचित लाभ उठाने लगते हैं, उन्हें अपनी स्वार्थ-सिद्धि का साधन बना लेते हैं। अतएव न्याय और शील में परस्पर विरोध हो जाता है। रसद और बेगार के विषय में भी अधीनस्थ कर्मचारियों की चापलूसियाँ उनकी न्याय-नीति पर विजय पा गयी थीं, और वह अज्ञात-भाव से स्वेच्छाचारी अधिकारियों के वर्तमान साँचे में ढल गये थे। उन्हें अपने विवेक पर पहले से ही गर्व था, अब इसने आत्मश्लाघा का रूप धारण किया था। वह जो कुछ कहते या करते थे उसके विरुद्ध एक शब्द भी न सुनना चाहते थे। इससे उनकी राय पर कोई असर न पड़ता था। वह निस्पृह मनुष्य थे और न्याय-मार्ग से जौ भर भी न टलते थे। उन्हें स्वाभाविक रूप से यह विचार होता था, किसी को मुझसे शिकायत नहीं होनी चाहिए। अपने औचित्य-पालन का विश्वास और अपनी गौरवशाली प्रकृति उन्हें प्रार्थियों के प्रति अनुदार बना देती थी। बलराज को सामने देखकर बोले, कौन हो? यहाँ क्यों खड़े हो?

बलराज ने झुक कर सलाम किया। उसकी उद्दण्डता लुप्त हो गयी थी। डरता हुआ बोला– हुजूर, से कुछ बोलना चाहता हूँ। ताबेदार का घर इसी लखनपुर में है।

ज्वालासिंह– क्या कहना है?

बलराज– कुछ नहीं, इतना ही पूछना चाहता हूँ कि सरकार को आज कितनी गाड़ियों की जरूरत होगी?

ज्वालासिंह– क्या तुम गाड़ियों के चौधरी हो?

बलराज– जी नहीं, चपरासी लोग सड़क पर जाकर मुसाफिरों की गाड़ियों को रोकते हैं और उन्हें दिक करते हैं। मैं चाहता हूँ कि सरकार को जितनी गाड़ियाँ दरकार हों, उतनी आस-पास के गाँवों से खोज लाऊँ। उनका सरकार से जो किराया मिलता हो वह दे दिया जाय तो मुसाफिरों को रोकना न पड़े।

ज्वालासिंह ने अपना सामान लादने के लिए ऊँट रख लिए थे, किन्तु यह जानते थे कि मातहतों और चपरासियों को अपना असबाब लादने के लिए गाड़ियों की जरूरत होती है। उन्हें इसका खर्चा सरकार से नहीं मिलता। अतएव वे लोग गाड़ियाँ न रोकें, तो उनका काम ही न चले। यह व्यवहार चाहे प्रजा को कष्ट पहुँचाए, पर क्षम्य है।

उनके विचार में यह कोई ऐसी ज्यादती न थी। सम्भव था कि यही प्रस्ताव किसी सम्मानित पुरुष ने किया होता, तो वह उस पर विचार करते, लेकिन एक अक्खड़ गँवार, मूर्ख देहाती को उनसे यह शिकायत करने का साहस हो, वह उन्हें न्याय का पाठ पढाने का दावा करे, यह उनके आत्मभिमान के लिए असह्य था। चिढ़कर बोले– जाकर रिश्तेदार से पूछो।

बलराज– हुजूर ही उन्हें बुलाकर पूछ लें। मुझे वह न बतायेंगे।

ज्वालासिंह-मुझे इस सिर-दर्द की फुर्सत नहीं है।

बलराज के तेवर पर बल पड़ गये। शिक्षित समुदाय की नीति-परायणता और सज्जनता पर उसकी जो श्रद्धा थी, वह क्षण-मात्र में भंग हो गयी। इन सद्भावों की जगह उसे अधिकार और स्वेच्छाचार का अहंकार अकड़ता दीख पड़ा। अहंकार के सामने सिर झुकाना उसने न सीखा था। उसने निश्चय किया कि जो मनुष्य इतना अभिमानी हो और मुझे इतना नीच समझे, वह आदर के योग्य नहीं है। इनमें और गौस खाँ या मामूली चपरासियों में अन्तर ही क्या रहा? ज्ञान और विवेक की ज्योति कहाँ गयी? निःशंक होकर बोला– सरकार इसे सिर-दर्द समझते हैं। और यहाँ हम लोगों की जान पर बनी हुई है। हुजूर धर्म के आसन पर बैठे हैं, और चपरासी लोग परजा को लूटते फिरते हैं। मुझे आपसे यह विनती करने का हौसला हुआ, तो इसलिए कि मैं समझता था, आप दीनों की रक्षा करेंगे। अब मालूम हो गया कि हम अभागों का सहायक परमात्मा के सिवा और कोई नहीं।

यह कहकर वह बिना सलाम किये ही वहाँ से चल दिया। उसे एक नशा-सा हो गया था। बातें अवज्ञापूर्ण थीं, पर उनमें स्वाभिमान और सदिच्छा कूट-कूट कर भरी हुई थी। ज्वालासिंह में अभी तक सहृदयता का सम्पूर्णतः पतन न हुआ था। क्रोध की जगह उनके मन में सद्भावना का विकास हुआ। अब तक इनके यहाँ स्वार्थी और खुशामदी आदमियों का ही जमघट रहता था। ऐसे एक भी स्पष्टावादी मनुष्य से उनका सम्पर्क न हुआ था। जिस प्रकार मीठे पदार्थ खाने से ऊबकर हमारा मन कड़वी वस्तुओं की ओर लपकता है, उसी भाँति ज्वालासिंह को ये कड़वी बातें प्रिय लगीं। उन्होंने उनके हृदय-नेत्रों के सामने से पदाभिमान का पर्दा हटा दिया। जी में तो आया कि इस युवक को बुलाकर उससे खूब बातें करूँ, किन्तु अपनी स्थिति का विचार करके रुक गये। बहुत देर तक बैठे हुए इन बातों पर विचार करते रहे। अन्तिम शब्दों ने उसकी आत्मा को एक ठोंका दिया था और वह जाग्रत हो गयी थी। मन में अपने कर्त्तव्य का निश्चय कर लेने के बाद उन्होंने अहलमट साहब को बुलाया। सैयद ईजाद हुसेन ने बलराज को जाते देख लिया था। कल का सारा वृत्तान्त उन्हें मालूम ही था। ताड़ गये कि लौंडा डिप्टी साहब के पास फरियाद लेकर आया होगा। पहले तो शंका हुई, कहीं डिप्टी साहब बातों में न आ गये हों। लेकिन जब उसकी बातों से ज्ञात हुआ कि डिप्टी साहब ने उल्टे और फटकार सुनाई तो धैर्य हुआ। बलराज को डाँटने लगे। वह अपने अफसरों के इशारे के गुलाम थे और उन्हीं की इच्छानुसार अपने कर्त्तव्य का निर्माण किया करते थे।

बलराज इस समय ऐसा हताश हो रहा था कि पहले थोड़ी देर तक वह चुपचाप खड़ा ईजाद हुसेन की कठोर बातें सुनता रहा। अन्त में गंभीर भाव से बोला– आप क्या चाहते हैं कि हम लोगों पर अन्याय भी हो और हम फरियाद भी न करें?”

ईजाद हुसेन-फरियाद का मजा तो चख लिया। अब चालान होता है तो देखें कहाँ जाते हो। सरकारी आदमियों से मुहाजिम होना कोई खाला जी का घर नहीं है। डिप्टी साहब को तुम लोगों की सरकशी का रत्ती-रत्ती हाल मालूम है। बाबू ज्ञानशंकर ने सारा कच्चा चिट्ठा उनसे बयान कर दिया है। वह तो मौके की तलाश में थे। आज शाम तक सारा गाँव बँधा जाता है। गौस खाँ को सीधा पा लिया है, इसी से शेर हो गये। अब सारी कसर निकल जाती है। इतने बेंत पड़ेगे कि धज्जियाँ उड़ जायेंगी।

बलराज– ऐसा कोई अँधेर है कि हाकिम लोग बेकसूर किसी को सजा दे दें।

ईजाद हुसेन– हाँ हाँ, ऐसा ही अँधेर है। सरकारी आदमियों को हमेशा बेगार मिली है और हमेशा मिलेगी। तुम गाड़िया न दोगे तो वह क्या अपने सिर पर असबाब लादेंगे? हमें जिन-जिन चीजों की जरूरत होगी, तुम्हीं से न जायेंगी। हँसकर दो रोकर दो। समझ गये…।

इतने में एक चपरासी ने कहा– चलिए आपको सरकार याद करते हैं। आज़ाद हुसेन पान खाए हुये थे। तुरन्त कुल्ली की, पगड़ी बाँधी और ज्वालासिंह के सामने जाकर सलाम किया।

ज्वालासिंह ने कहा– मीर साहब, चपरासियों को ताकीद कर दीजिए कि अब से कैम्प के लिए बेगार में गाड़ियाँ न पकड़ा करें। आप लोग अपना सामान मेरे ऊँटों पर रखा कीजिए। इससे आप लोगों को चाहे थोड़ी-सी तकलीफ हो, लेकिन यह मुनासिब नहीं मालूम होता कि अपनी आसाइश के लिए दूसरों पर जब्र किया जाय।

ईजाद हुसेन– हुजूर बजा फरमाते हैं। आज से गाड़ियाँ पकड़ने की सख्त मुमानियत कर दी जायेगी। बेशक यह सरासर जुल्म है।

ज्वालासिंह– चपरासियों से कह दीजिए कि मेरे इजलास के खेमे में रात को सो रहा करें। बेगार में पुआल लेने की जरूरत नहीं। गरीब किसान यहीं पुआल काट-काट कर जानवरों की खिलाते हैं, इसलिए उन्हें इसका देना नागवार गुजरता है।

ईजाद हुसेन-हुजूर का फरमाना बजा है। हुक्काम को ऐसा ही गरीब परवार होना चाहिए। लोग ज़मींदारों की सख्तियों से यों ही परेशान रहते हैं। उस पर हुक्काम की बेगार तो और भी सितम हो जाती है।

ज्वालासिंह के हृदय में ज्ञानशंकर के ताने अभी तक खटक रहे थे। यदि थोड़े से कष्ट से उन पर छीटें उड़ाने को सामग्री हाथ आ जाय तो क्या पूछना! ज्वाला सिंह इस द्वेष के आवेग को न रोक सके। एक बार गाँव में जाकर उनकी दशा आँखों से देखने का निश्चय किया।

आठ बज चुके थे, किन्तु अभी तक चारों ओर कुहरा छाया हुआ था, लखनपुर के किसान आज छुट्टी-सी मना रहे थे। जगह-जगह अलाव के पास बैठे हुए लोग कल की घटना की आलोचना कर रहे थे। बलराज की धृष्टता पर टिप्पणियाँ हो रही थीं। इतने में ज्वालासिंह चपरासियों और कर्मचारियों के साथ गाँव में आ पहुँचे। गौस खाँ और उनके दोनों चपरासी पीछे-पीछे चले आते थे। उन्हें देखते ही स्त्रियाँ अपने अधमँजे बर्तन छोड़-छोड़ कर घरों में घुसीं। बाल-वृद्धा भी इधर-उधर दबक गये। कोई द्वार पर कूड़ा उठाने लगा, कोई रास्ते में पड़ी हुई खाट उठाने लगा। ज्वालासिंह गाँव भ्रमण करते हुए सुक्खू चौधरी के कोल्हाड़े में आकर खड़े हो गये। सुक्खू चारपाई लेने दौड़े। गौस खाँ ने एक आदमी को कुरसी लाने के लिए चौपाल दौड़ाया। लोगों ने चारो ओर से आ-आकर ज्वालासिंह को घेर लिया। अमंगल के भय से सबके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं।

ज्वालासिंह– तुम्हारी खेती इस साल कैसी है?

सुक्खू चौधरी को नेतृत्व का पद प्राप्त था। ऐसे अवसरों पर वही अग्रसर हुआ करते थे। पर वह अभी तक घर में से चारपाई निकाल रहे थे, जो वृहदाकार होने के कारण द्वार से निकल न सकती थी। इसलिए कादिर खाँ को प्रतिनिधि का आसन ग्रहण करना पड़ा। उन्होंने विनीत भाव से उत्तर दिया– हुजूर अभी तक अच्छी है, आगे अल्लाह मालिक है।

ज्वालासिंह– यहाँ मुझे आबपाशी के कुएँ बहुत कम नजर आते हैं, क्या ज़मींदार की तरफ से इसका इन्तज़ाम नहीं है?

कादिर– हमारे ज़मींदार तो हजूर हम लोगों को बड़ी परवस्ती करते हैं, अल्लाह उन्हें सलामत रखें। हम लोग आप ही आलस के मारे फिकर नहीं करते।

ज्वालासिंह– मुंशी गौस खाँ तुम लोगों की सरकशी की बहुत शिकायत करते हैं। बाबू ज्ञानशंकर भी तुम लोगों से खुश नहीं हैं, यह क्या बात है? तुम लोग वक्त पर लगान नहीं देते और जब तकाजा किया जाता है, तो फिसाद और असादा हो जाते हो। तुम्हें मालूम है कि ज़मींदार चाहे तो तुमसे एक के दो वसूल कर सकता है।

गजाधर अहीर ने दबी जबान से कहा, तो कौन कहे कि छोड़ देते हैं।

ज्वालासिंह– क्या कहते हो? सामने आकर कहो।

कादिर– कुछ नहीं हुजूर, यही कहता हैं कि हमारी मजाल है जो आपके मालिक के सामने सिर उठायें। हम तो उनके ताबेदार हैं, उनका दिया खाते हैं, उनकी जमीन में बसते हैं, भला उनसे सरकशी करके अल्लाह को क्या मुँह दिखायेंगे? रही बकाया, जो हुजूर जहाँ तक होता है साल तमाम तक कौड़ी-कौड़ी चुका देते हैं हाँ, जब कोई काबू नहीं चलता तो कभी थोड़ी बहुत बाकी रह भी जाती है।

ज्वालासिंह ने इसी प्रकार से और भी कई प्रश्न किये, किन्तु उनका अभीष्ट पूरा न हो सका। किसी की जबीन से गौस खाँ या बाबू ज्ञानशंकर के विरुद्ध एक भी शब्द न निकला। अन्त में हार मानकर वह पड़ाव को चल दिये।

9.

अपनी पारिवारिक सदिच्छा का ऐसा उत्तम प्रमाण देने के बाद ज्ञानशंकर को बँटवारे के विषय में अब कोई असुविधा न रही, लाला प्रभाशंकर ने उन्हीं की इच्छानुसार करने का निश्चय कर लिया। दीवानखाना उनके लिए खाली कर दिया। लखनपुर मोसल्लम उनके हिस्से में दे दिया और घर की अन्य सामग्रियाँ भी उन्हीं की मर्जी के मुताबिक बाँट दीं। बड़ी बहू की ओर से विरोध की शंका थी, लेकिन इस एहसान ने उनकी जबान ही नहीं बन्द कर दी, वरन् उनके मनोमालिन्य को भी मिटा दिया। प्रभाशंकर अब बड़ी बहू से नौकरों से, मित्रों से, संबंधियों से ज्ञानशंकर की प्रशंसा किया करते और प्रायः अपनी आत्मीयता को किसी-न किसी उपहार के स्वरूप में प्रकट करते। एक दुशाला, एक चाँदी का थाल, कई सुन्दर चित्र, एक बहुत अच्छा ऊँनी कालीन और ऐसी ही विविध वस्तुएँ उन्हें भेंट कीं। उन्हें स्वादिष्ट पदार्थों से बड़ी रुचि थी। नित्य नाना प्रकार के मुरब्बे चटनियाँ, अचार बनाया करते थे। इस कला में प्रवीण थे। आप भी शौक से खाते थे और दूसरों को खिलाकर आनन्दित होते थे। ज्ञानशंकर के लिए नित्य कोई-न-कोई स्वादिष्ट पदार्थ बनाकर भेजते। यहाँ तक कि ज्ञानशंकर इन सद्भावों से तंग आ गये। उनकी आत्मा अभी तक उनकी कपट-नीति पर उनको लज्जित किया करती थी। यह खातिरदारियाँ उन्हें अपनी कुटिलता की याद दिलाती थीं। और इससे उनका चित्त दुखी होता था। अपने चाचा की सरल हृदयता और सज्जनता के सामने अपनी धूर्तता और मलीनता अत्यन्त घृणित दीख पड़ती थी।

लखनपुर ज्ञानशंकर की चिरभिलाषाओं का स्वर्ग था। घर की सारी सम्पत्ति में ऐसा उपजाऊ, ऐसा समृद्धिपूर्ण और कोई गाँव नहीं था जो शहर से मिला हुआ, पक्की सड़क के किनारे और जलवायु भी उत्तम। यहाँ कई हलों की सीर थी, एक कच्चा पर सुन्दर मकान भी था और सबसे बड़ी बात यह है कि यहाँ इजाफा लगान की बड़ी गुन्जाइश थी। थोड़े उद्योग से उनका नफा दूना हो सकता था। दो-चार कच्चे कुएँ खुदवाकर इजाफे की कानूनी शर्त पूरी की जा सकती थी। बँटवारे को एक सप्ताह भी न हुआ था कि ज्ञानशंकर ने गौस खाँ को बुलवाया, जमाबन्दी की जाँच की, इजाफा बेदखली की परत तैयार की और असामियों पर मुकदमा दायर करने का हुक्म दे दिया। अब तक सीर बिलकुल न होती थी। इसका प्रबन्ध किया। वह चाहते थे कि अपने हल, बैल, हलवाहे रखे जायें और विधिपूर्वक खेती की जाये। किन्तु खाँ साहब ने कहा, इतने आडम्बर की जरूरत नहीं, बेगार में बड़ी सुगमता से सीर हो सकती है। सीर के लिए बेगार ज़मींदार का हक है, उसे क्यों छोड़िए?

लेकिन सुव्यवस्था रूपी मधुर गान में एक कटु स्वर भी था, जिससे उसका लालित्य भंग हो जाता था। यह विद्यावती का असहयोग था। उसे अपने पति की स्वार्थपरता एक आँख न भाती थी। कभी-कभी मतिभेद विवाद और कलह का भी रूप धारण कर लेता था।

फागुन का महीना था। लाला प्रभाशंकर धूमधाम से होली मनाया करते थे। अपने घरवालों के लिए, नये कपड़े लाये, तो ज्ञानशंकर के परिवार के लिए भी लेते आये थे। लगभग पचास वर्षों से वह घर भर के लिए नये वस्त्र लाने के आदी हो गये थे। अब अलग हो जाने पर भी उस प्रथा को निभाते रहना चाहते थे। ऐसे आनन्द के अवसर पर द्वेष-भाव को जाग्रत रखना उनके लिए अत्यन्त दुःखकर था। विद्या ने यह कपड़े तो रख लिये, पर इसके बदले में प्रभाशंकर के लड़कों लड़कियों, और बहू के लिए एक-एक जोड़ी धोती की व्यवस्था की। ज्ञानशंकर ने यह प्रस्ताव सुना तो चिढ़कर बोले– यदि यही करना है तो उनके कपड़े लौटा क्यों नहीं देतीं?

विद्या– भला कपड़े लौटा दोगे तो वह अपने मन में क्या कहेंगे? वह बेचारे तो तुमसे मिलने को दौड़ते हैं और तुम भागे-भागे फिरते हो। तुम्हें रुपये का ही ख्याल है न? तुम कुछ मत देना; मैं अपने पास से दूँगी।

ज्ञान– जब तुम धन्ना सेठों की तरह बातें करने लगती हो तो बदन में आग सी लग जाती है! उन्होंने कपड़े भेजे तो कोई एहसान नहीं किया। दूकानों का साल भर का किराया पेशगी लेकर हड़प चुके हैं। यह चाल इसलिए चल रहे हैं कि मैं मुँह भी न खोल सकूँ और उनका बड़प्पन भी बना रहे। अपनी गाँठ से करते तो मालूम होता।

विद्या– तुम दूसरों की कीर्ति को कभी-कभी ऐसा मिटाने लगते हो कि मुझे तुम्हारी अनुदारता पर दुःख होता है। उन्होंने अपना समझकर उपहार दिया, तुम्हें इसमें उनकी चाल सूझ गयी।

ज्ञान– मुझे भी घर में बैठे सुख-भोग की सामग्रियाँ मिलती तो मैं तुमसे अधिक उदार बन जाता। तुम्हें क्या मालूम है कि मैं आजकल कितनी मुश्किल से गृहस्थी का प्रबन्ध कर रहा हूँ? लखनपुर से जो थोड़ा बहुत मिला उसी में गुजर हो रहा है। किफायत से न चलता तो अब तक सैकड़ों का कर्ज हो गया होता। केवल अदालत के लिए सैकड़ों रुपये की जरूरत है। बेदखली और इजाफे के कागज-पत्र तैयार हैं, पर मुकदमे दायर करने के लिए हाथ में कुछ भी नहीं। उधर गाँव वाले भी बिगड़े हुए हैं, ज्वालासिंह ने अब के दौरे में उन्हें ऐसा सिर चढ़ा दिया कि मुझे कुछ समझते ही नहीं। मैं तो इन चिन्ताओं में मरा जाता हूँ और तुम्हें एक खुराफात सूझा करती है।

विद्या– मैं तुमसे रुपये तो नहीं माँगती!

ज्ञान– मैं अपने और तुम्हारे रुपयों में कोई भेद नहीं समझता। हाँ, जब राव साहब तुम्हारे नाम कोई जायदाद लिख देंगे तो समझने लगूँगा।

विद्या– मैं तुम्हारा एक पैसा नहीं चाहती।

ज्ञान– माना, लेकिन वहाँ से भी तुम रोकड़ नहीं लाती हो। साल में सौ-पचास रुपये मिल जाते होंगे, इतने पर ही तुम्हारे पैर जमीन पर नहीं पड़ते। छिछले ताल की तरह उबलने लगती हो।

विद्या– तो क्या चाहते हो कि वह तुम्हें अपना घर उठाकर दे दें?

ज्ञान– वह बेचारे आप तो अघा लें, मुझे क्या देंगे? मैं तो ऐसे आदमी को पशु से गया गुजरा समझता हूं जो आप तो लाखों उड़ाए और अपने निकटतम संबंधियों की बात भी न पूछे। वह तो अगर मर भी जायें तो मेरी आँखों में आँसू न आये।

विद्या– तुम्हारी आत्मा संकुचित है, यह मुझे आज मालूम हुआ।

ज्ञान– ईश्वर का धन्यवाद दो कि मुझसे विवाह हो गया, नहीं तो कोई बात भी न पूछता। लाला बरसों तक दही-दही हाँकते रहे, पर कोई सेंत भी न पूछता था।

विद्यावती इस मर्माघात को न सह सकी, क्रोध के मारे उसका चेहरा तमतमा उठा।

वह झमककर वहाँ से चली जाने को उठी कि इतने में महरी ने एक तार का लिफाफा लाकर ज्ञानशंकर के हाथ में रख दिया। लिखा था–

‘‘पुत्र का स्वर्गवास हो गया, जल्द आओ।’’

ज्ञानशंकर ने तार का कागज जमीन पर फेंक दिया और लम्बी साँस खींच कर बोले, हाँ! शोक! परमात्मा, यह तुमने क्या किया!

विद्या ठिठक गयी।

ज्ञानशंकर ने विद्या से कहा– विद्या हम लोगों पर वज्र गिर पड़ा हमारा…

विद्या ने कातर नेत्रों से देखकर कहा– मेरे घर पर तो कुशल है।

ज्ञानशंकर– हाय प्रिये, किस मुँह से कहूँ कि सब कुशल है! वह घर उजड़ गया उस घर का दीपक बुझ गया! बाबू रामानन्द अब इस संसार में नहीं हैं। हा, ईश्वर!!

विद्या के मुँह से सहसा एक चीख निकल गयी। विह्वल होकर भूमि पर गिर पड़ी और छाती पीट-पीट कर विलाप करने लगी। श्रद्धा दौड़ी महरियाँ जमा हो गयीं। बड़ी बहू ने रोना सुना तो अपनी बहू और पुत्रियों के साथ आ पहुँची। कमरे में स्त्रियों की भीड़ लग गयी। मायाशंकर माता को रोते देखकर चिल्लाने लगा। सभी स्त्रियों के मुख पर शोक की आभा थी और नेत्रों में करुणा का जल। कोई ईश्वर को कोसती थी, कोई समय की निन्दा करती थी। अकाल मृत्यु कदाचित् हमारी दृष्टि में ईश्वर का सबसे बड़ा अन्याय है। यह विपत्ति हमारी श्रद्धा और भक्ति का नाश कर देती है, हमें ईश्वर-द्रोही बना देती है। हमें उनकी सहन पड़ गयी है। लेकिन हमारी अन्याय पीड़ित आँखें भी यह दारुण दृश्य सहन नहीं कर सकतीं। अकाल मृत्यु हमारे हृदय-पट पर सबसे कठोर दैवी आघात है। यह हमारे न्याय-ज्ञान पर सबसे भयंकर बलात्कार है।

पर हा स्वार्थ संग्राम! यह निर्दय वज्र-प्रहार ज्ञानशंकर को सुखद पुष्प वर्षा के तुल्य जान पड़ा। उन्हें क्षणिक शोक अवश्य हुआ, किन्तु तुरन्त ही हृदय में नयी-नयी आकाँक्षाएँ तरंगें मारने लगीं। अब तक उनका जीवन लक्ष्यहीन था। अब उसमें एक महान् लक्ष्य का विकास हुआ। विपुल सम्पत्ति का मार्ग निश्चित हो गया। ऊसर भूमि में हरियाली लहरें मारने लगीं। राय कमलानन्द के अब और कोई पुत्र न था। दो पुत्रियों में एक विधवा और निःसंतान थी। विद्या को ही ईश्वर ने संतान दी थी और मायाशंकर अब राय साहब का वारिस था। कोई आश्चर्य नहीं कि ज्ञानशंकर को यह शोकमय व्यापार अपने सौभाग्य की ईश्वर कृत व्यवस्था जान पड़ती थी। वह मायाशंकर को गोद में ले कर नीचे दीवानखाने में चले आये और विरासत के संबंध में स्मृतिकारों की व्यवस्था का अवलोकन करने लगे। वह अपनी आशाओं की पुष्टि और शंकाओं का समाधान करना चाहते थे। कुछ दिनों तक कानून पढ़ा था, कानूनी किताबों का उनके पास अच्छा संग्रह था। पहले, मनु-स्मृति खोली, सन्तोष न हुआ। मिताक्षरा का विधान देखा, शंका और भी बड़ी याज्ञवल्क्य ने भी विषय का कुछ सन्तोषप्रद स्पष्टीकरण न किया। किसी वकील की सम्मत्ति आवश्यक जान पड़ी। वह इतने उतावले हो रहे थे कि तत्काल कपड़े पहन कर चलने को तैयार हो गये। कहार से कहा, माया को ले जा, बाजार की सैर करा ला। कमरे से बाहर निकले ही थे कि याद आया, तार का जवाब नहीं दिया। फिर कमरे में गये, संवेदना का तार लिखा, इतने में लाला प्रभाशंकर और दयाशंकर आ पहुँचे, ज्ञानशंकर को इस समय उनका आना जहर-सा लगा। प्रभाशंकर बोले– मैंने तो अभी सुना। सन्नाटे में आ गया। बेचारे रायसाहब को बुढ़ापे यह बुरा धक्का लगा। घर ही वीरान हो गया।

ज्ञानशंकर– ईश्वर की लीला विचित्र है!

प्रभाशंकर– अभी उम्र ही क्या थी! बिलकुल लड़का था। तुम्हारे विवाह में देखा था, चेहरे से तेज बरसता था। ऐसा प्रतापी लड़का मैंने नहीं देखा।

ज्ञानशंकर– इसी से तो ईश्वर के न्याय-विधान पर से विश्वास उठ जाता है।

दयाशंकर– आपकी बड़ी साली के तो कोई लड़का नहीं है न?

ज्ञानशंकर ने विरक्त भाव से कहा– नहीं।

दयाशंकर– तब तो चाहे माया ही वारिस हो।

ज्ञानशंकर ने उनका तिरस्कार करते हुए कहा– कैसी बात करते हो? यहाँ कौन सी बात, वहाँ कौन सी बात! ऐसी बातों का यह समय नहीं है।

दयाशंकर लज्जित हो गये । ज्ञानशंकर को अब यह विलम्ब असह्य होने लगा। पैरगाड़ी उठाई और दोनों आदमियों को बरामदे में ही छोड़कर डॉक्टर इरफानअली के बँगले की ओर चल दिये, जो नामी बैरिस्टर थे।

बैरिस्टर साहब का बँगला खूब सजा हुआ था। शाम हो गयी थी, वह हवा खाने जा रहे थे। मोटर तैयार थी, लेकिन मुवक्किलों से जान न छूटती थी, वह इस समय अपने आफिस में आराम कुर्सी पर लेटे हुए सिगार पी रहे थे और अपने छोटे टेरियर को गोद में लिये उसके सिर में थपकियाँ देते जाते थे। मुवक्किल लोग दूसरे कमरे में बैठे थे। वह बारी-बारी से डॉक्टर साहब के पास आकर अपना वृत्तांत कहते जाते थे। ज्ञानशंकर को बैठे-बैठे आठ बजे गये। तब जाकर उनकी बारी आयी। उन्होंने ऑफिस में जाकर अपना मामला सुनाना शुरू किया। क्लर्क ने उनकी सब बातें नोट कर लीं। इसकी फीस ५ रुपये हुई। डॉक्टर साहब की सम्मति के लिए दूसरे दिन बुलाया। उसकी फीस ५०० रुपये थी। यदि उस सम्मति पर कुछ शंकाएँ हों तो उसके समाधान के लिए प्रति घण्टा २०० रुपये देने पड़ेगे। ज्ञानशंकर को मालूम न था कि डॉक्टर साहब के समय का मूल्य इतना अधिक है। मन में पछताये कि नाहक इस झमेले में फँसा। क्लर्क की फीस तो उसी दम दे दी और घर से रुपये लाने का बहाना करके वहाँ से निकल आये, लेकिन रास्ते में सोचने लगे, इनकी राय जरूर पक्की होती होगी, तभी तो उसका इतना मूल्य है। नहीं तो इतने आदमी उन्हें घेरे क्यों रहते। कदाचित इसीलिए कल बुलाया है। खूब छान-परताल करके तब राय देंगे। अटकल-पच्चू बातें कहनी होतीं तो अभी न कह देते। अँग्रेजी नीति में यही तो गुण है कि दाम चौकस लेते हैं, पर माल खरा देते हैं। सैकड़ों नजींरे देखनी पड़ेगी, हिन्दू शस्त्रों का मन्थन करना पड़ेगा, तब जाके तत्व हाथ आयेगा, रुपये का कोई प्रबन्ध करना चाहिए। उसका मुँह देखने से काम न चलेगा। एक बात निश्चित रूप से मालूम तो हो जायेगी। यह नहीं कि मैं तो धोखे में निश्चित बैठा रहूँ और वहाँ दाल न गले, सारी आशाएँ नष्ट हो जायें। मगर यह व्यवसाय है उत्तम। आदमी चाहे तो सोने की दीवार खड़ी कर दे। मुझे शामत सवार हुई कि उसे छोड़ बैठा, नहीं तो आज क्या मेरी आमदनी दो हजार मासिक से कम होती? जब निरे काठ के उल्लू तक हजारों पर हाथ साफ करते हैं तो क्या मेरी न चलती? इस जमींदारी का बुरा हो। इसने मुझे कहीं का न रखा!

वह घर पहुँचे तो नौ बजे चुके थे। विद्या अपने कमरे में अकेले उदास पड़ी थी महरियाँ काम-धन्धे में लगी हुई थीं और पड़ोसिनें बिदा हो गयी थीं। ज्ञानशंकर ने विद्या का सिर उठाकर अपनी गोद में रख लिया और गद्गद स्वर से बोले– मुँह देखना भी न बदा था।

विद्या ने रोते हुए कहा– उनकी सूरत एक क्षण के लिए भी आँखों ले नहीं उतरती। ऐसा जान पड़ता है, वह मेरे सामने खड़े मुस्करा रहे हैं।

ज्ञान– मेरा तो अब सांसारिक वस्तुओं पर भरोसा ही नहीं रहा। यही जी चाहता कि सब कुछ छोड़छाड़ के कहीं चल दूँ।

विद्या– कल शाम की गाड़ी से चलो। कुछ रुपये लेते चलने होंगे। मैं उनके षोड़शे में कुछ दान करना चाहती हूँ।

ज्ञान– हाँ, हाँ, जरूर। अब उनकी आत्मा को सन्तुष्ट करने का हमारे पास वही तो एक साधन रह गया है।

विद्या– उन्हें घोड़े की सवारी का बहुत शौक था। मैं एक घोड़ा उनके नाम पर देना चाहती हूँ।

ज्ञान– बहुत अच्छी बात है। दो-ढाई सौ में घोड़ा मिल जायेगा।

विद्यावती ने डरते-डरते यह प्रस्ताव किया था। ज्ञानशंकर ने उसे सहर्ष स्वीकार करके उसे मुग्ध कर दिया।

ज्ञानशंकर इस अपव्यय को इस समय काटना अनुचित समझते थे यह अवसर ही ऐसा था। अब वह विद्या का निरादर तथा अवहेलना न कर सकते थे।

10.

राय कमलानन्द बहादूर लखनऊ के एक बड़े रईस और तालुकेदार थे। वार्षिक आय एक लाख के लगभग थी। अमीनाबाद में उनका विशाल भवन था। शहर में उनकी और भी कई कोठियाँ थीं, पर वह अधिकांश नैनीताल या मसूरी में रहा करते थे। यद्यपि उनकी पत्नी का देहान्त उनकी युवावस्था में हो गया, पर उन्होंने दूसरा विवाह न किया था। मित्रों और हितसाधकों ने बहुत घेरा पर वह पुनर्विवाह के बन्धन में न पड़े। विवाह उद्देश्य सन्तान है और जब ईश्वर ने उन्हें एक पुत्र और दो पुत्रियां प्रदान कर दीं तो फिर विवाह करने की क्या जरूरत? उन्होंने अपनी बड़ी लड़की गायत्री का विवाह गोरखपुर के एक बड़े रईस से किया। उत्सव में लाखों रुपये खर्च कर दिये। पर जब विवाह के दो ही साल पीछे गायत्री विधवा हो गई। उसके पति को किसी घर के ही प्राणी ने लोभवश विष दे दिया– तो राय साहब ने विद्या को किसी साधारण कुटुम्ब में ब्याहने का निश्चय किया, जहाँ जीवन इतना कंटकमय न हो। यही कारण था कि ज्ञानशंकर को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। स्वर्गीय बाबू रामानन्द अभी तक कुँवारे ही थे। उनकी अवस्था बीस वर्ष से अधिक हो गई थी, पर राय साहब उनका विवाह करने को कभी उत्सुक न हुए थे। वह उनके मानसिक तथा शारीरिक विकास में कोई कृतिम बाधा न डालना चाहते थे। पर शोक! रामानन्द घुड़दौड़ में सम्मिलित होने के लिए पूना गये हुए थे। वहाँ घोड़े पर से गिर पड़े, मर्मस्थानों पर कड़ी चोट आ गई। लखनऊ पहुँचने के दो दिन बाद उनका प्राणान्त हो गया। राय साहब की सारी सद-कल्पनाएँ विनष्ट हो गयी, आशाओं का दीपक बुझ गया।

किन्तु राय साहब उन प्राणियों में न थे, जो शोक-सन्ताप के ग्रास बन जाते हैं। इसे विराग कहिए चाहे प्रेम-शिथिलता, या चित्त की स्थिरता। दो ही चार दिनों में उनका पुत्र-शोक जीवन की अविश्रान्त कर्म-धारा में विलीन हो गया।

राय साहब बड़े रसिक पुरुष थे। घुड़दौड़ और शिकार, सरोद और सितार से उन्हें समान प्रेम था। साहित्य और राजनीति के भी ज्ञाता थे। अवस्था साठ वर्ष के लगभग थी, पर इन विषयों में उनका उत्साह लेशमात्र भी क्षीण न हुआ। अस्तबल में दस-बारह चुने हुए घोड़े थे, विविध प्रकार की कई बग्गियाँ, दो मोटरकार, दो हाथी। दर्जनों कुत्तें पाल रखे थे। इनके अतिरिक्त बाज, शिकरे आदि शिकारी चिड़ियों की एक हवाई सेना भी थी। उनके दीवानखाने में अस्त्र-शस्त्र की श्रृंखला देखकर जान पड़ता था, मानो शास्त्रालय है। घुड़दौड़ में वह अच्छे-अच्छे शहसवारों से पाला मारते थे। शिकार में उनके निशाने अचूक पड़ते थे। पोलो के मैदान में उनकी चपलता और हाथों की सफाई देख कर आश्चर्य होता था। श्रव्य कलाओं में भी वह इससे कम प्रवीण न थे। शाम को जब वह सितार लेकर बैठते तो उनकी सिद्धि पर अच्छे-अच्छे उस्ताद भी चकित हो जाते थे। उनके स्वर में अलौकिक माधुर्य था। वे संगीत के सूक्ष्म तत्त्वों के वेत्ता थे। उनके ध्रुपद की अलाप सुनकर बड़े-बड़े कलावन्त भी सिर धुनने लगते थे। काव्यकला में भी उनकी कुशलता और मार्मिकता कवियों को लज्जित कर देती थी, उनकी रचनाएँ अच्छे-अच्छे कवियों से टक्कर लेती थी। संस्कृत, फारसी, हिन्दी उर्दू, अँग्रेजी सभी भाषाओं के वे पण्डित थे। स्मरणशक्ति विलक्षण थी। कविजनों के सहस्रों शेर, दोहे, कवित्त, पद्य कठस्थ थे और बातचीत में वह उनका बड़ी सुरुचि से उपयोग करते थे। इसीलिए उनकी बातें सुनने में लोगों को आनन्द मिलता था। इधर दस-बारह वर्षों से राजनीति में भी प्रविष्ट हो गये थे। कौंसिल भवन में उनका स्थान प्रथम श्रेणी में था। उनकी राय सदैव निर्भीक होती थी। वह अवसर या समय के भक्त न थे। राष्ट्र या शासन के दास न बनकर सर्वदा अपनी-शक्ति से काम लेते थे। इसी कारण कौंसिल में उनकी बड़ी शान थी। यद्यपि यह बहुत कम बोलते थे, और राजनीति भवन से बाहर उनकी आवाज कभी न सुनाई देती थी, किन्तु जब बोलते थे तो अच्छा ही बोलते थे। ज्ञानशंकर को उनके बुद्धि-चमत्कार और ज्ञान विस्तार पर अचम्भा होता था। यदि आँखों देखी बात न होती तो किसी एक व्यक्ति में इतने गुणों की चर्चा सुनकर उन्हें विश्वास न होता। इस सत्संग से उनकी आँखें खुल गयीं। उन्हें अपनी योग्यता और चतुरता पर बड़ा गर्व था। इन सिद्धियों ने उसे चूर-चूर कर दिया। पहले दो सप्ताह तक तो उन पर श्रद्धा का एक नशा छाया रहा। राय साहब जो कुछ कहते वह सब उन्हें प्रामाणिक जान पड़ता था। पग-पग पर, बात-बात में उन्हें अपनी त्रुटियाँ दिखाई देतीं और लज्जित होना पड़ता। यहाँ तक कि साहित्य और दर्शन में भी, जो उनके मुख्य विषय थे, राय साहब के विचारों पर मनन करने के लिए उन्हें बहुत कुछ सामग्री मिल जाती थी। सबसे बड़े कुतूहल की बात तो यह थी कि ऐसे दारूण शोक को बोझ के नीचे राय साहब क्योंकर सीधे रह सकते थे। उनके विलास उपवन पर इस दुस्सह झोंके का जरा भी अवसर न दिखाई देता था।

किन्तु शनैःशनैः ज्ञानंशकर को राय साहब की इस बहुज्ञता से अश्रद्धा होने लगी। आठों पहर अपनी हीनता का अनुभव असह्य था। उनके विचार में अब राय साहब का इन अमोद-प्रमोद विषयों में लिप्त रहना शोभा नहीं देता था। यावज्जीवन विलासिता में लीन रहने के बाद अब उन्हें विरक्त हो जाना चाहिए था। इस आमोद-लिप्सा की भी कोई सीमा है? इसे सजीविता नहीं कह सकते, यह निश्चलता नहीं, इसे धैर्य कहना ही उपयुक्त है। धैर्य कभी सजीवता और वासना का रूप नहीं धारण करता। वह हृदय पर विरक्ति, उदसीनता और मलीनता का रंग फेर देता है। वह केवल हृदयदाह है, जिससे आँसू तक सूख जाता है। वह शोक भी अन्तिम अवस्था है। कोई योगी, सिद्ध, महात्मा भी जवान बेटे का दाग दिल पर रखते हुए इतना अविचलित नहीं रह सकता। यह नग्न इंद्रियोपासना है अहंकार ने महात्मा का दमन कर दिया, ममत्व ने हृदय के कोमल भावों का सर्वनाश कर दिया है। ज्ञानशंकर को अब रायसाहब की एक-एक बात में क्षुद्र विलासिता की झलक दिखाई देती। वह उनके प्रत्येक व्यवहार को तीव्र समालोचना की दृष्टि से देखते।

परन्तु एक महीना गुजर जाने पर भी ज्ञानशंकर ने कभी बनारस जाने की इच्छा नहीं प्रकट की। यद्यपि विद्यावती का उनके साथ जाने पर राजी न होना उनके यहाँ पड़े रहने का अच्छा बहाना था, पर वास्तव में इसका एक दूसरा ही कारण था, जिसे अन्तःकरण में भी व्यक्त करने का उन्हें साहस न होता था। गायत्री के कोमल भाव और मृदुल रसमई बातों का उनके चित्त पर आकर्षण होने लगा था। उसका विकसित लावण्यमय सौंदर्य अज्ञात रूप से उनके हृदय को खींचता जाता था, और वह पतंग की भाँति, परिणाम से बेखबर इस दीपक की ओर बढ़ते चले जाते थे। उन्हें गायत्री प्रेमाकांक्षा और प्रेमानुरोध की मूर्ति दिखाई देती थी, और यह भ्रम उनकी लालसा को और भी उत्तेजित करता रहता था। घर में किसी बड़ी-बूढ़ी स्त्री के न होने के कारण उनका आदर-सत्कार गायत्री ही करती थी और ऐसे स्नेह और अनुराग के साथ कि ज्ञानशंकर को इसमें प्रेमादेश का रसमय आनन्द मिलता था। सुखद कल्पनाएँ मनोहर रूप धारण करके उनकी दृष्टि के सामने नृत्य करने लगती थीं। उन्हें अपना जीवन कभी इतना सुखमय न मालूम हुआ था। हृदय सागर में कभी ऐसी प्रबल तरंगे न उठी थीं। उनका मन केवल प्रेमवासनाओं का आनन्द न उठाता था। वह गायत्री की अतुल सम्पति का भी सुख-भोग करता था। उनकी भावी उन्नति का भवन निर्माण हो चुका था, यदि वह इस उद्यान से सुसज्जित हो जाये तो उसकी शोभा कितनी अपूर्व होगी! उसका दृश्य कितना विस्तृत, कितना मनोहर होगा।

ज्ञानशंकर की दृष्टि में आत्म-संयम का महत्त्व बहुत कम था। उनका विचार था कि संयम और नियम मानव-चरित्र के स्वाभाविक विकास के बाधक हैं वही पौधा सघन वृक्ष हो सकता है जो समीर और लू, वर्षा और पाले में समान रूप से खड़ा रहे। उसकी वृद्धि के लिए अग्निमय प्रचण्ड वायु उतनी ही आवश्यक है, जितनी शीतल मंद समीर; शुष्कता उतनी ही प्राणपोषक है, जितनी आर्द्रता। चरित्रोन्नति के लिए भी विविध प्रकार की परिस्थितियाँ अनिवार्य हैं। दरिद्रता को काला नाग क्यों समझें। चरित्र-संगठन के लिए यह सम्पति से कहीं महत्त्वपूर्ण है। यह मनुष्य में दृढ़ता और संकल्प, दया और सहानुभूति के भाव उदय करती है। प्रत्येक अनुभव चरित्र के किसी न किसी अंग की पुष्टि करता है, यह प्राकृतिक नियम है। इसमें कृत्रिम बाधाओं के डालने से चरित्र विषम हो जाता है। यहाँ तक कि क्रोध और ईर्ष्या, असत्य और कपट में भी बहुमूल्य शिक्षा के अंकुर छिपे रहते हैं। जब तक सितार का प्रत्येक तार चोट न खाये, सुरीली ध्वनि नहीं निकल सकती। मनोवृत्तियों को रोकना ईश्वरीय नियमों में हस्तक्षेप करना है इच्छाओं का दमन करना आत्म-हत्या के समान है। इससे चरित्र संकुचित हो जाता है। बन्धनों के दिन अब नहीं रहे; यह अबाध, उदार, विराट उन्नति का समय है। त्याग और बहिष्कार उस समय के लिए उपयुक्त था, जब लोग संसार को असार, स्वप्नवत् समझते थे। यह सांसारिक उन्नति का काल है, धर्माधर्म का विचार संकीर्णता का द्योतक है। सांसारिक उन्नति हमारा अभीष्ट है। प्रत्येक साधन जो अभीष्ट सिद्धि में हमारा सहायक हो ग्राह्य है। इन विचारों ने ज्ञानशंकर को विवेक-शून्य बना दिया था। हाँ वर्तमान अवस्था का यह प्रभाव था कि निंदा और उपहास से डरते थे, हालाँकि यह भी उनके विचार में मानसिक दुर्बलता थी।

गायत्री उन स्त्रियों में न थी जिसके लिए पुरुषों का हृदय एक खुला हुआ पृष्ठ होता है। उसका पति एक दुराचारी मनुष्य था, पर गायत्री को कभी उस पर सन्देह नहीं हुआ, उसके मनोभावों की तह तक कभी नहीं पहुँची और यद्यपि उसे मरे हुए तीन साल बीत चुके थे, पर वह अभी तक आध्यात्मिक श्रद्धा से उसकी स्मृति की आराधना किया करती थी। उसका निष्फल हृदय वासनायुक्त प्रेम के रहस्यों से अनभिज्ञ था। किन्तु इसके साथ ही सगर्वता उसके स्वभाव का प्रधान अंग थी। वह अपने को उससे कहीं ज्यादा विवेकशील और मर्मज्ञ समझती थी, जितनी वह वास्तव में थी। उसके मनोवेग और विचार जल के नीचे बैठनेवाले रोड़े नहीं, सतह पर तैरने वाले बुलबुले थे। ज्ञानशंकर एक रूपवान, सौम्य, मृदुमुख मनुष्य थे। गायत्री सरल भाव से इन गुणों पर मुग्ध थी। वह उनसे मुस्कराकर कहती, तुम्हारी बातों में जादू है, तुम्हारी बातों से कभी मन तृप्त नहीं होता। ज्ञानशंकर के सम्मुख विद्या से कहती, ऐसा पति पाकर भी तू अपने भाग्य को नहीं सराहती? यद्यपि ज्ञानशंकर उससे दो-चार ही मास छोटे थे, पर उसकी छोटी बहन के पति थे, इसलिए वह उन्हें छोटे भाई के तुल्य समझती थी। वह उनके लिए अच्छे-अच्छे भोज्य पदार्थ आप बनाती, दिन में कई बार जलपान करने के लिए घर में बुलाती थी। उसे धार्मिक और वैज्ञानिक विषयों से विशेष रुचि थी। ज्ञानशंकर से इसी विषय की बातें करने और सुनने में उसे हार्दिक आनन्द प्राप्त होता था। वह साली के नाते से प्रथानुसार उनसे दिल्लगी भी करती उन पर भावमय चोटें करती और हँसती थी। मुँह लटकाकर उदास बैठना उसकी आदत न थी। वह हँस मुख, विनयशील, सरल-हृदय, विनोद-प्रिया रमणी थी, जिसके हृदय में लीला और क्रीड़ा के लिए कहीं जगह न थी।

किन्तु उसका यह सरल-सीधा व्यवहार ज्ञानशंकर की मलिन दृष्टि में परिवर्तित हो जाता था। उज्जवलता में वैचित्र्य और समता में विषमता दीख पड़ती थी। उन्हें गायत्री संकेत द्वारा कहती हुई मालूम होती, ‘आओ, इस उजड़े हुए हृदय को आबाद करो। आओ, इस अन्धकारमय कुटीर को आलोकित करो।’ इस प्रेमाह्वान का अनादर करना उनके लिए असाध्य था। परन्तु स्वयं उनके हृदय ने गायत्री को यह निमन्त्रण नहीं दिया, कभी अपना प्रेम उस पर अर्पण नहीं किया– उन्हें बहुधा क्लब में देर हो जाती, ताश की बाजी अधूरी न छोड़ सकते थे, कभी सैर-सपाटे में विलम्ब हो जाता, किन्तु वह स्वयं विकल न होते, यही सोचते कि गायत्री विकल हो रही होगी। अग्नि गायत्री के हृदय में जलती थी, उन्हें केवल उसमें हाथ सेंकना था। उन्हें इस प्रयास में वही उल्लास होता था, जो किसी शिकारी को शिकार में, किसी खिलाड़ी को बाजी की जीत में होता है। वह प्रेम न था, वशीकरण की इच्छा थी। इस इच्छा और प्रेम में बड़ा भेद है, इच्छा अपनी ओर खींचती है, प्रेम स्वयं खिंच जाता है। इच्छा में ममत्व है, प्रेम में आत्मसर्पण। ज्ञानशंकर के हृदयस्थल में यही वशीकरण-चेष्टा किलोलें कर रही थी।

गायत्री भोली सही, अज्ञान सही, पर शनैःशनैः उसे ज्ञानशंकर से लगाव होता जाता था। यदि कोई भूलकर भी विष खा ले, तो उसका असर क्या कुछ कम होगा। ज्ञानशंकर को बाहर से आने में देर होती, तो उसे बेचैनी होने लगती, किसी काम में जी नहीं लगता, वह अटारी पर चढ़कर उनकी बाट जोहती। वह पहले विद्यावती के सामने हँस-हँस कर उनसे बातें करती थी, कभी उनसे अकेले भेंट हो जाती तो उसे कोई बात ही न सूझती थी। अब वह अवस्था न थी। उसकी बात अब एकान्त की खोज में रहती। विद्या की उपस्थिति उन दोनों को मौन बता देती थी। अब वह केवल वैज्ञानिक तथा धार्मिक तथा धार्मिक चर्चाओं पर आबद्ध न होते। बहुधा स्त्री-पुरुष के पारस्परिक सम्बन्ध की मीमांसा किया करते और कभी-कभी ऐसे मार्मिक प्रसंगों का सामना करना पड़ता कि गायत्री लज्जा से सिर झुका लेती।

एक दिन सन्ध्या समय गायत्री बगीचे में आरामकुर्सी पर लेटी हुई एक पत्र पढ़ रही थी, जो अभी डाक से आया था। यद्यपि लू का चलना बन्द हो गया था, पर गर्मी के मारे बुरा हाल था। प्रत्येक वस्तु से ज्वाला-सी निकल रही थी। वह पत्र को उठाती थी और फिर गर्मी से विकल होकर रख देती थी। अन्त में उसने एक परिचारिका को पंखा झलने के लिए बुलाया और अब पत्र को पढ़ने लगी। उसके मुख्तारआम ने लिखा था, सरकार यहाँ जल्द आयें। यहाँ कई ऐसे मामले आ पड़े हैं जो आपकी अनुमति के बिना तै नहीं हो सकते। हरिहरपुर के इलाके में बिल्कुल वर्षा नहीं हुई, यह आपको ज्ञात ही है। अब वहाँ के असामियों से लगान वसूल करना अत्यन्त कठिन हो रहा है। वह सोलहों आने छूट की प्रार्थना करते हैं। मैंने जिलाधीश से इस विषय में अनुरोध किया, पर उसका कुछ फल न हुआ। वह अवश्य छूट कर देंगे। यदि आप आकर स्वयं जिलाधीश से मिलें तो शायद सफलता हो। यदि श्रीमान राय साहब यहाँ पधारने का कष्ट उठायें तो निश्चय ही उनका प्रभाव कठिन को सुगम कर दे। असामियों के इस आन्दोलन से हलचल मची हुई है। शंका है कि छूट न हुई तो उत्पात होने लगेगा। इसलिए आपका जिलाधीश साक्षात करना परमावश्यक है।

गायत्री सोचने लगी, यहीं ज़मींदारी क्या है, जी का जंजाल है। महीने में आध महीने के लिए भी कहीं जाऊँ तो हाय-हाय-सी होने लगती है। असामियों में यह धुन न जाने कैसे समा गयी, कि जहाँ देखो वहीं उपद्रव करने पर तैयार दिखाई देते हैं। सरकार को इन पर कड़ा हाथ रखना चाहिए। जरा भी शह मिली और यह काबू से बाहर हुए। अगर इस इलाके में असामियों की छूट हो गयी तो मेरा २०-२५ हजार का नुकसान हो जायेगा। इसी तरह और इलाके में भी उपद्रव के डर से छूट हो जाये तो मैं तो कहीं की न रहूँ कुछ वसूल न होगा तो मेरा खर्च कैसे चलेगा? माना कि मुझे उस इलाके की मालगुजारी न देनी पड़ती, पर और भी तो कितने ही रुपये पृथक-पृथक नामों से देने पड़ते हैं, वह तो देने ही पड़ेंगे। वह किसके घर से आवेंगे? छूट भी हो जाय, मगर लूँगी असामियों से ही।

पर मेरा जी वहाँ कैसे लगेगा। यह बातें वहाँ कहाँ सुनने को मिलेंगी, अकेले पड़े-पड़े जी उकताया करेगा। जब तक ज्ञानशंकर यहाँ रहेंगे तब तक तो मैं गोरखपुर जाती नहीं। हाँ, जब वह चले जायेंगे तो मजबूरी है। नुकसान ही न होगा? बला से। जीवन के दिन आनन्द से तो कट रहे हैं, धर्म और ज्ञान की चर्चा सुनने में आती है। कल बाबू साहब मुझसे चिढ़ गये होंगे, लेकिन मेरा मन तो अब भी स्वीकार नहीं करता कि विवाह केवल एक शारीरिक सम्बन्ध और सामाजिक व्यवस्था है। वह स्वयं कहते हैं कि मानव शरीर का कई सालों सम्पूर्णतः रूपान्तर हो जाता है। शायद आठ वर्ष कहते थे। यदि विवाह केवल दैहिक सम्बन्ध हो तो इस नियमित समय के बाद उसका अस्तित्व ही नहीं रहता। इसका तो यह आशय है कि आठ वर्षों के बाद पति और पत्नी इस धर्म-बन्धन से मुक्त हो जाते हैं, एक का दूसरे पर कोई अधिकार नहीं रहता। आज फिर यही प्रश्न उठाऊँगी। लो, आप ही आ गये ।

बोली– कहिए कहीं जाने को तैयार हैं क्या?

ज्ञान– आज यहाँ थियेट्रिकल कम्पनी का तमाशा होने वाला है। आपसे पूछने आया हूँ कि आपके लिए भी जगह रिजर्व कराता आऊँ? आज बड़ी भीड़ होगी।

गायत्री– विद्या से पूछा, वह जायेगी?

ज्ञान– वह तो कहती है कि माया को साथ लेकर जाने में तकलीफ होगी। मैंने भी आग्रह नहीं किया।

गायत्री– तो अकेले जाने पर मुझे भी कुछ आनन्द न आयेगा।

ज्ञान– आप न जाएँगी तो मैं भी न जाऊँगा।

गायत्री– तब तो मैं कदापि न जाऊँगी। आपकी बातों में मुझे थिएटर से अधिक आनन्द मिलता है। आइए, बैठिए। कल की बात अधूरी रह गयी थी। आप कहते थे, स्त्रियों में आकर्षण-शक्ति पुरुषों से अधिक होती है पर आपने इसका कोई कारण नहीं बताया था।

ज्ञान– इसका कारण तो स्पष्ट ही है। स्त्रियों का जीवन-क्षेत्र परिमित होता है और पुरुषों का विस्तृत। इसीलिए स्त्रियों की सारी शक्तियाँ केन्द्रस्थ हो जाती हैं और पुरुषों की विच्छिन्न।

गायत्री– लेकिन ऐसा होता तो पुरुषों को स्त्रियों के अधीन रहना चाहिए था। वह उन पर शासन क्योंकर करते?

ज्ञान– तो क्या आप समझती हैं कि मर्द स्त्रियों पर शासन करते हैं? ऐसी बात तो नहीं है। वास्तव में मर्द ही स्त्रियों के अधीन होते हैं। स्त्रियाँ उनके जीवन की विधाता होती हैं। देह पर उनका शासन चाहे न हो, हृदय पर उन्हीं का साम्राज्य होता है।

गायत्री– तो फिर मर्द इतने निष्ठुर क्यों हो जाते हैं?

ज्ञान– मर्दों पर निष्ठुरता का दोष लगाना न्याय-विरुद्ध है। वह उस समय तक सिर नहीं उठा सकते, जब तक या तो स्त्री स्वयं उन्हें मुक्त न कर दे, अथवा किसी दूसरी स्त्री की प्रबल विद्युत शक्ति उन पर प्रभाव न डाले।

गायत्री– (हँसकर) अपने तो सारा दोष स्त्रियों के सिर रख दिया।

ज्ञानशंकर ने भावुकता से उत्तर दिया– अन्याय तो वह करती हैं, फरियाद कौन सुनेगा? इतने में विद्यावती मायाशंकर को गोद में लिये आकर खड़ी हो गयी। माया चार वर्ष का हो चुका था, पर अभी तक कोई बच्चा न होने के कारण वह शैशवावस्था के आनन्द को भोगता था।

गायत्री ने पूछा– क्यों विद्या, आज थिएटर देखने चलती हो?

विद्या– कोई अनुरोध करेगा तो चली चलूँगी, नहीं तो मेरा जी नहीं चाहता।

ज्ञान– तुम्हारी इच्छा हो तो चलो, मैं अनुरोध नहीं करता।

विद्या– तो फिर मैं भी नहीं जाती।

गायत्री– मैं अनुरोध करती हूँ, तुम्हें चलना पड़ेगा। बाबू जी, आप जगहें रिजर्व करा लीजिए।

नौ बजे रात को तीनों फिटन पर बैठकर थिएटर को चले। माया भी साथ था। फिटन कुछ दूर आयी तो वह पानी-पानी चिल्लाने लगा। ज्ञानशंकर ने विद्या से कहा– लड़के को लेकर चली थीं, तो पानी की एक सुराही क्यों नहीं रख ली?

विद्या– क्या जानती थी कि घर से निकलते ही इसे प्यास लग जायेगी।

ज्ञान– पानदान रखना तो न भूल गयीं?

विद्या– इसी से तो मैं कहती थी कि मैं न चलूँगी।

गायत्री– थिएटर के हाते में बर्फ-पानी सब कुछ मिल जायेगा।

माया यह सुनकर और अधीर हो गया। रो-रोकर दुनिया सिर पर उठा ली। ज्ञानशंकर ने उसे बढ़ावा दिया। वह और भी गला फाड़-फाड़कर बिलबिलाने लगा।

ज्ञान– जब अभी से यह हाल है, तो दो बजे रात तक न जाने क्या होगा?

गायत्री– कौन जागता रहेगा? जाते ही जाते तो सो जायेगा।

ज्ञान– गोद में आराम से तो सो सकेगा नहीं, रह-रहकर चौंकेगा और रोयेगा। सारी सभा घबड़ा जायेगी। लोग कहेंगे, यह पुछल्ला अच्छा लेते आये।

विद्या– कोचवान से कह क्यों नहीं देते कि गाड़ी लौटा दें, मैं न जाऊँगी।

ज्ञान– यह सब बातें पहले ही सोच लेनी चाहिए थीं न? गाड़ी यहाँ से लौटेगी तो आते-आते दस बज जायेंगें। आधा तमाशा ही गायब हो जायेगा। वहाँ पहुँच जायें तो जी चाहे मजे से तमाशा देखना माया को इसी गाड़ी में पड़े रहने देना या उचित समझना तो लौट आना।

गायत्री– वहाँ तक जाकर के लौटना अच्छा नहीं लगता।

ज्ञान– मैंने तो सब कुछ इन्हीं की इच्छा पर छोड़ दिया।

गायत्री– क्या वहाँ कोई आराम कुर्सी न मिल जायेगी?

विद्या– यह सब झंझट करने की जरूरत ही क्या है? मैं लौट आऊँगी। मैं तमाशा देखने को उत्सुक न थी, तुम्हारी खातिर से चली आयी थी।

थिएटर का पण्डाल आ गया। खूब जमाव था। ज्ञानशंकर उतर पड़े। गायत्री ने विद्या से उतरने, को कहा, पर वह आग्रह करने पर भी न उठी। कोचवान को पानी लाने को भेजा। इतने में ज्ञानशंकर लपके हुए आये, और बोले– भाभी, जल्दी कीजिए, घण्टी हो गयी। तमाशा आरम्भ होने वाला है। जब तक यह माया को पानी पिलाती है, आप चल कर बैठ जाइए नहीं तो शायद जगह ही न मिले।

यह कहकर वह गायत्री को लिये हुए पण्डाल में घुस गये। पहले दरजे के मरदाने और जनाने भागों के बीच में केवल एक चिक का परदा था। चिक के बाहर ज्ञानशंकर बैठे और चिक के पास ही भीतर गायत्री को बैठाया। वहीं दोनों जगहें उन्होंने रिजर्व (स्वरक्षित) करा रखी थीं।

गायत्री जल्दी से गाड़ी से उतरकर ज्ञानशंकर के साथ चली आयी थी। विद्या अभी आयेगी, यह उसे निश्चय था। लेकिन जब उसे बैठे कई मिनट हो गये, विद्या न दिखाई दी और अन्त में ज्ञानशंकर ने आकर कहा, वह चली गयी, तो उसे बड़ा क्षोभ हुआ। समझ गयी कि वह रूठकर चली गयी। अपने मन में मुझे ओछी, निष्ठुर समझ रही होगी। मुझे भी उसी के साथ लौट जाना चाहिए था। उसके साथ तमाशा देखने में हर्ज नहीं था। लोग यह अनुमान करते हैं कि मैं उसकी खातिर से आयी हूँ, किन्तु उसके लौट जाने पर मेरा यहाँ रहना सर्वथा अनुचित है। घर की लौंडिया और महरियाँ तक हँसेंगी और हँसना यथार्थ है, दादा जी न जाने मन में क्या सोचेंगे मेरे लिए अब तीर्थ-यात्रा, गंगा-स्नान पूजा-पाठ, दान और व्रत है। यह विहार-विलास सोहागिन के लिए है। मुझे अवश्य लौट जाना चाहिए। लेकिन बाबूजी से इतनी जल्द लौटने को कहूँगी तो वह मुझ पर अवश्य झुँझलायेंगे कि नाहक इसके साथ आया। बुरी फँसी। कुछ देर यहाँ बैठे बिना अब किसी तरह छुटकारा न मिलेगा।

यह निश्चय करके वह बैठी। लेकिन जब अपने आगे-पीछे दृष्टि पड़ी तो उसे वहाँ एक पल भी बैठना दुस्तर जान पड़ा। समस्त जनाना भाग वेश्याओं से भरा हुआ था। एक-से-एक सुन्दर, एक-से-एक रंगीन। चारों ओर से खस और मेंहँदी की लपटें आ रही थीं। उनका आभरण और श्रृंगार, उनका ठाट-बाट, उनके हाव-भाव, उनकी मन्द-मुस्कान, सब गायत्री को घृणोत्पादक प्रतीत होते थे। उसे भी अपने रूप-लावण्य पर घमंड था, पर इस सौन्दर्य-सरोवर में वह एक जल-कण के समान विलीन हो गयी थी। अपनी तुच्छता का ज्ञान उसे और भी व्यक्त करने लगा। यह कुलटाएँ कितनी ढीठ, कितनी निर्लज्ज हैं। इसकी शिकायत नहीं कि इन्होंने क्यों ऐसे पापमय, ऐसे नारकीय पथ पर पग रखा। यह अपने पूर्व कर्मों का फल है। दुरवस्था जो न कराये थोड़ा; लेकिन वह अभिमान क्यों? ये इठलाती किस बिरते पर हैं? इनके रोम-रोम से दीनता और लज्जा टपकनी चाहिए थी। पर यह ऐसी प्रसन्न हैं मानो संसार में इनसे सुखी और कोई है ही नहीं। पाप एक करुणाजनक वस्तु है, मानवीय विवशता का द्योतक है। उसे देखकर दया आती है, लेकिन पाप के साथ निर्लज्जता और मदान्धता एक पैशाचिक लीला है, दया और धर्म की सीमा से बाहर।

गायत्री अब पल भर भी न ठहर सकी। ज्ञानशंकर से बोली– मैं बाहर जाती हूँ, यहाँ नहीं बैठा जाता, मुझे घर पहुँचा दीजिए।

उसे संशय था कि ज्ञानशंकर वहाँ ठहरने के लिए आग्रह करेंगे। चलेंगे भी तो क्रुद्ध होकर। पर यह बात न थी। ज्ञानशंकर सहर्ष उठ खड़े हुए। बाहर आकर एक बग्धी किराये पर की और घर चले।

गायत्री ने इतनी जल्द थिएटर से लौट आने के लिए क्षमा माँगी। फिर वेश्याओं की बेशरमी की चर्चा की, पर ज्ञानशंकर ने कुछ उत्तर न दिया। उन्होंने आज मन में एक विषम कल्पना की थी और इस समय उसे कार्य रूप में लाने के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्तियों को इस प्रकार एकाग्र कर रहे थे, मानो किसी नदी में कूद रहे हों। उनका हृदयाकाश मनोविकार की काली घटाओं से आच्छादित हो रहा था, जो इधर महीनों से जमा हो रही थीं। वह ऐसे ही अवसर की ताक में थे। उन्होंने अपना कार्यक्रम स्थिर कर लिया। लक्षणों से उन्हें गायत्री के सहयोग का भी निश्चय होता जाता था। उसका थिएटर देखने पर राजी हो जाना, विद्या के साथ घर न लौटना, उनके साथ अकेले बग्घी में बैठना इसके प्रत्यक्ष प्रमाण थे। कदाचित् उन्हें अवसर देने के ही लिए वह इतनी जल्द लौटी थीं, क्योंकि घर की फिटन पर लौटने से काम के विघ्न पड़ने का भय था। ऐसी अनुकूल दशा में आगा-पीछा करना उनके विचार में वह कापुरुषता थी, जो अभीष्ट सिद्धि की घातक है। उन्होंने किताबों में पढ़ा था कि पुरुषोचित उद्दंडता वशीकरण का सिद्धमन्त्र है। तत्क्षण उनकी विकृत-चेष्टा प्रज्वलित हो गयी, आँखों से ज्वाला निकलने लगी, रक्त खौलने लगा, साँस वेग से चलने लगी। उन्होंने अपने घुटने से गायत्री की जाँघ में एक ठोंका दिया। गायत्री ने तुरन्त पैर समेट लिए, उसे कुचेष्टा की लेश-मात्र भी शंका न हुई। किन्तु एक क्षण के बाद ज्ञानशंकर ने अपने जलते हुए हाथ से उसकी कलाई पकड़कर धीरे से दबा दी। गायत्री ने चौंककर हाथ खींच लिया, मानो किसी विषधऱ ने काट खाया हो, और भयभीत नेत्रों से ज्ञानशंकर को देखा। सड़क पर बिजली की लालटेनें जल रही थीं। उनके प्रकाश में ज्ञानशंकर के चेहरे पर एक संतप्त उग्रता, एक प्रदीप्त दुस्साहस दिखाई दिया। उसका चित्त अस्थिर हो गया, आँखों में अन्धेरा छा गया। सारी देह पसीने से तर हो गयी। उसने कातर नेत्रों से बाहर की ओर झाँका। समझ न पड़ा कि कहाँ हूँ, कब घर पहुँचूँगी। निर्बल क्रोध की एक लहर नसों में दौड़ गयी और आँखों से बह निकली। उसे फिर ज्ञानशंकर की ओर ताकने का साहस न हुआ। उनसे कुछ कह न सकी। उसका क्रोध भी शान्त हो गया। वह संज्ञाशून्य हो गयी, सारे मनोवेग शिथिल पड़ गये। केवल आत्मवेदना का ज्ञान आरे के समान हृदय को चीर रहा था। उसकी वह वस्तु लुट गयी जो जान से भी अधिक प्रिय थी, जो उसने मन की रक्षक, उसके आत्म-गौरव की पोषक धैर्य का आधार और उसके जीवन का अवलम्ब थी। उसका जी डूबा जाता था। सहसा उसे जान पड़ा कि अब मैं किसी को मुँह दिखाने के योग्य नहीं रही। अब तक उसका ध्यान अपने अपमान के इस बाह्य स्वरूप की ओर नहीं गया था। अब उसे ज्ञात हुआ कि यह केवल मेरा आत्मिक पतन ही नहीं है, उसने मेरी आत्मा को कलुषित नहीं किया, वरन् मेरी बाह्य प्रतिष्ठा का भी सर्वनाश कर दिया। इस अवगति ने उसके डूबते हुए हृदय को थाम लिया। गोली खाकर दम तोड़ता हुआ पक्षी भी छुरी को देखकर तड़प जाता है।

गायत्री जरा सँभल गयी, उसने ज्ञानशंकर की ओर सजल आँखों से देखा। कहना चाहती थी, जो कुछ तुमने किया उसका बदला तुम्हें परमात्मा देंगे। लेकिन यदि सौजन्यता का अल्पांश भी रह गया है तो मेरी लाज रखना, सतीत्व का नाश तो हो गया पर लोक सम्मान की रक्षा करना, किन्तु शब्द न निकले, अश्रु-प्रवाह में विलीन हो गये।

ज्ञानशंकर को भी मालूम हो गया कि मैंने धोखा खाया। मेरी उद्विग्नता ने सारा काम चौपट कर दिया अभी तक उन्हें अपनी अधोगति पर लज्जा न आयी थी पर गायत्री की सिसकियाँ सुनीं तो हृदय पर चोट-सी लगी। अन्तरात्मा जाग्रत हो गयी, शर्म से गर्दन झुक गयी। कुवासना लुप्त हो गयी। अपने पाप की अधमता का ज्ञान हुआ। ग्लानि और अनुपात के भी शब्द मुँह तक आये, पर व्यक्त न हो सके। गायत्री की ओर देखने का भी हौसला न पड़ा। अपनी मलिनता और दुष्टता अपनी ही दृष्टि में ही मालूम होने लगी। हा! मैं कैसा दुरात्मा हूँ। मेरे विवेक, ज्ञान और सद्विचार ने आत्महिंसा के सामने सिर झुका दिया। मेरी उच्चशिक्षा और उच्चादर्श का यही परिणाम होना था! अपने नैतिक पतन के ज्ञान ने आत्म-वेदना का संचार कर दिया। उनकी आँखों से आँसू की धारा प्रवाहित हो गयी।

दोनों प्राणी खिड़कियों से सिर निकाले रोते रहे, यहाँ तक कि गाड़ी घर पर पहुँच गयी।

11.

आँधी का पहला वेग जब शान्त हो जाता है, तब वायु के प्रचण्ड झोंके, बिजली की चमक और कड़क बन्द हो जाती है और मूसलाधार वर्षा होने लगती है। गायत्री के चित्त की शान्ति भी द्रवीभूत हो गई थी। हृदय में रुधिर की जगह आँसुओं का संचार हो रहा था।

आधी रात बीत गयी, पर उसके आँसू न थमें। उसका आत्मगौरव आज नष्ट हो गया। पति-वियोग के बाद उसकी सुदृढ़ स्मृति ही गायत्री के जीवन-सुख की नींव थी। वही साधु-कल्पना उसकी उपास्य थी। वह इस हृदय-कोष को, जहाँ यह अमूल्य रत्न संचित था, कुटिल आकांक्षाओं की दृष्टि से बचाती रहती थी। इसमें सन्देह नहीं कि वह वस्त्राभूषणों से प्रेम रखती थी, उत्तम भोजन करती थी और सदैव प्रसन्नचित्त रहती थी, किन्तु इसका कारण उसकी विलासप्रियता नहीं, वरन् अपने सतीत्व का अभिमान था। उसे संयम और आचार का स्वांग भरने से घृणा थी। वह थिएटर भी देखती थी आनन्दोत्सवों में भी शरीक होती थी। आभरण, सुरुचि और मनोरंजन की सामग्रियों का त्याग करने की वह आवश्यकता न समझती थी, क्योंकि उसे अपनी चित्तस्थिति पर विश्वास था। वह एकाग्र होकर अपने इलाके का प्रबन्ध करती थी।

जब उसके आँसू थमे तो वह इस दुर्घटना के कारण और उत्पति पर विचार करने लगी और शनैः-शनैः उसे विदित होने लगा कि इस विषय में मैं सर्वथा निरपराध नहीं हूँ। ज्ञानशंकर कदापि यह दुस्साहस न कर सकते, यदि उन्हें मेरी दुर्बलता पर विश्वास न होता। उन्हें यह विश्वास क्योंकर हुआ? मैं इन दिनों उनसे बहुत स्नेह करने लगी थी। यह अनुचित था। कदाचित् इसी सम्पर्क ने उनके मन में यह भ्रम अंकुरित किया। तब उसे वह बातें याद आतीं जो उन संगतों में हुआ करती थीं। उनका झुकाव उन्हीं विषयों की ओर होता था, जिन्हें एकान्त और संकोच की जरूरत है। उस समय वह बातें सर्वथा दोष रहित जान पड़ती थीं, पर अब उनके विचार से ही गायत्री को लज्जा आती थी। उसे अब ज्ञात हुआ कि मैं अज्ञात दशा में धीरे-धीरे ढाल की ओर चली जाती थी और अगर गहरी खाई सहसा न आ पड़ती, तो मुझे अपने पतन का अनुभव ही न होता। उसे आज मालूम हुआ कि मेरा पति-प्रेम-बन्धन जर्जर हो गया, नहीं तो मैं इन वार्ताओं के आकर्षण से सुरक्षित रहती। वह अधीर होकर उठी और अपने पति के सम्मुख जाकर खड़ी हो गयी। इस चित्र को वह सदैव अपने कमरे में लटकाये रहती थी उसने ग्लानिमय नेत्रों से चित्र को देखा और तब काँपते हुए हाथों से उतार कर छाती से लगाये देर तक खड़ी रोती रही। इस आत्मिक आलिंगन से उसे एक विचित्र सन्तोष प्राप्त हुआ। ऐसा मालूम हुआ कोई तड़पते हुए हृदय पर मरहम रख रहा है और कितने कोमल हाथों से। वह उस चित्र को अलग न कर सकी, उसे छाती से लगाये हुए बिछावन पर लेट गयी। उसका हृदय इस समय पति-प्रेम से आलोकित हो रहा था। वह एक समाधि की अवस्था में थी। उसे ऐसा प्रतीत होता था कि यद्यपि पतिदेव यहाँ अदृश्य हैं, तथापि उनकी आत्मा अवश्य यहाँ भ्रमण कर रही है। शनैःशनैः उसकी कल्पना सचित्र हो गयी। वह भूल गयी कि मेरे स्वामी को मरे तीन वर्ष व्यतीत हो गये। वह अकुला कर उठ बैठी। उसे ऐसा जान पड़ा कि उनके वक्ष से रक्त स्रावित हो रहा है और कह रहे हैं, यह तुम्हारी कुटिलता का घाव है। तुम्हारी पवित्रता और सत्यता मेरे लिए रक्षास्त्र थी। वह ढाल आज टूट गयी और बेवफाई की कटार हृदय में चुभ गयी। मुझे तुम्हारे सतीत्व पर अभिमान था। वह अभिमान आज चूर-चूर हो गया। शोक! मेरी हत्या उन्हीं हाथों से हुई जो कभी मेरे गले में पड़े थे। आज तुमसे नाता टूटता है, भूल जाओ कि मैं कभी तुम्हारा पति था।’ गायत्री स्वप्न दशा में उसी कल्पित व्यक्ति के सम्मुख हाथ फैलाये हुए विनय कर रही थी। शंका से उसके हाथ-पाँव फूल गये और वह चीख मार भूमि पर गिर पड़ी।

वह कई मिनट तक बेसुध पड़ी रही। जब होश आया तो देखा कि विद्या लौंडियाँ, महरियाँ सब जमा हैं और डॉक्टर को बुलाने के लिए आदमी दौड़ाया जा रहा है।

उसे आँखें खोलते देखकर विद्या ‘झपटकर उसके गले से लिपट गयी और बोली– बहन तुम्हें क्या हो गया था? और तो कभी ऐसा न हुआ था!

गायत्री– कुछ नहीं, एक बुरा स्वप्न देख रही थी। लाओ, थोड़ा-सा पानी पीऊँगी, गला सूख रहा है।

विद्या– थिएटर में कोई भयानक दृश्य देखा होगा।

गायत्री– नहीं, मैं भी तुम्हारे आने के थोड़ी ही देर पीछे चली आयी थी। जी नहीं लगा। अभी थोड़ी ही रात गयी है क्या? बाबूजी ध्रुपद अलाप रहे हैं।

विद्या– बारह तो कब के बज चुके, पर उन्हें किसी के मरने-जीने की क्या चिन्ता? उन्हें तो अपने राग-रंग से मतलब है। महरी ने जाकर तुम्हारा हाल कहा तो एक आदमी को डॉक्टर के यहाँ दौड़ा दिया और फिर गाने लगे।

गायत्री– यह तो उनकी पुरानी आदत है, कोई नई बात थोड़े ही है। रम्मन बाबू का यहाँ बुरा हाल हो रहा था और वह डिनर में गये हुए थे। जब दूसरे दिन मैंने बातों-बातों में इसकी चर्चा की तो बोले– मैं वचन दे चुका था और जाना मेरा कर्त्तव्य था। मैं अपने व्यक्तिगत विषयों को सार्वजनिक जीवन से बिलकुल पृथक रखना चाहता हूँ।

विद्या– उस साल जब अकाल पड़ा और प्लेग भी फैला, तब हम लोग इलाके पर गये। तुम गोरखपुर थीं। उन दिनों बाबू जी की निर्दयता से मेरे रोयें खड़े हो जाते थे। असामियों पर गुस्सा उतारते। सौ-सौ मनुष्यों को एक पाँति में खड़ा करके हण्टर से मारने लगते। बेचारे तड़प-तड़प कर रह जाते, पर उन्हें तनिक भी दया न आती थी। इसी मारपीट ने उन्हें निर्दय बना दिया है। जीवन-मरण तो परमात्मा के हाथ है, लेकिन मैं इतना अवश्य कहूँगी कि भैया की अकाल मृत्यु इन्हीं दिनों की हाय का फल है।

गायत्री– तुम बाबू जी पर अन्याय करती हो। उनका कोई कसूर नहीं। आखिर रुपये कैसे वसूल होते! निर्दयता अच्छी बात नहीं, किन्तु जब इसके बिना काम ही न चले तो क्या किया जाय? तुम्हारे जीजा कैसे सज्जन थे, द्वार पर से किसी भिक्षुक को निराश न लौटने देते। सत्कार्यों में हजारों रुपये खर्च कर डालते थे। कोई ऐसा दिन न जाता कि सौ-पचास साधुओं को भोजन न कराते हों। हजारों रुपये तो चन्दे दे डालते थे। लेकिन उन्हें भी असामियों पर सख्ती करनी पड़ती थी। मैंने स्वयं उन्हें असामियों की मुश्कें कसके पिटवाते देखा है। जब कोई और उपाय न सूझता तो उनके घरों में आग लगवा देते थे और अब मुझे भी वही करना पड़ता है। उस समय मैं समझती थी कि वह व्यर्थ इतना जुल्म करते हैं। उन्हें समझाया करती थी, पर जब अपने माथे पड़ गयी तो अनुभव हुआ कि यह नीच बिना मार खाये रुपये नहीं देते। घर में रुपये रखे रहते हैं, पर जब तक दो चार लात-घूँसे न खा लें, या गालियाँ न सुन लें, देने का नाम नहीं लेते। यह उनकी आदत है।

विद्या– मैं यह न मानूँगी। किसी को मार खाने की आदत नहीं हुआ करती।

गायत्री– लेकिन किसी को मारने की भी आदत नहीं होती। यह सम्बन्ध ही ऐसा है कि एक ओर तो प्रजा में भय, अविश्वास और आत्महीनता के भावों को पुष्ट करता है और दूसरी ओर जमींदारों को अभिमानी, निर्दय और निरंकुश बना देता है।

विद्या ने इसका कुछ जवाब न दिया। दोनों बहनें एक ही पलंग पर लेटीं। गायत्री के मन में कई बार इच्छा हुई कि आज की घटना को विद्या से बयान कर दूँ। उनके हृदय पर एक बोझ-सा रखा था। इसे वह हल्का करना चाहती थी। ज्ञानशंकर को विद्या की दृष्टि में गिराना भी अभीष्ट था। यद्यपि उसका स्वयं अपमान होता था, लेकिन ज्ञानशंकर को लज्जित और निदिंत करने के लिए वह इतना मूल्य देने पर तैयार थी, किन्तु बात मुँह तक आकर लौट गयी। थोड़ी देर तक दोनों चुपचाप पड़ी रहीं। विद्या की आँखें तो नींद से झपकी जाती थीं और गायत्री को कोई बात न सूझती थी। अकस्मात् उसे एक विचार सूझ पड़ा। उसने विद्या को हिलाकर कहा– क्या सोने लगीं? मेरा जी चाहता है कि कल-परसों तक यहाँ से चली जाऊँ।

विद्या ने कहा– इतनी जल्द! भला जब तक मैं रहूँ तब तक तो रहो।

गायत्री– नहीं, अब यहाँ जी नहीं लगता। वहाँ काम-काज भी तो देखना है।

विद्या– लेकिन अभी तक तो तुमने बाबू जी से इसकी चर्चा भी नहीं की।

गायत्री– उनसे क्या कहना है? जाऊँ चाहे रहूँ, दोनों एक ही है।

विद्या– तो फिर मैं भी न रहूँगी, साथ ही चली जाऊँगी।

गायत्री– तुम कहाँ जाओगी? अब यही तुम्हारा घर है। तुम्ही यहाँ की रानी हो। ज्ञानबाबू से कहो, इलाके का प्रबन्ध करें। दोनों प्राणी यहीं सूखपूर्वक रहो।

विद्या– समझा तो मैंने भी यही था, लेकिन विधाता की इच्छा कुछ और ही जान पड़ती है। कई दिन से बराबर देख रही हूँ कि पण्डित परमानन्द नित्य आते हैं। चिन्ताराम भी आते जाते हैं। ये लोग कोई न कोई षड़यन्त्र रच रहे हैं। तुम्हारे चले जाने से इन्हें और भी अवसर मिल जायेगा।

गायत्री– तो क्या बाबू जी को फिर विवाह करने की सूझी है क्या?

विद्या– मुझे तो ऐसा ही मालूम होता है।

गायत्री– अगर यह विचार उनके मन में आया है तो वह किसी के रोके न रुकेंगे। मेरा लिहाज वे करते हैं, पर इस विषय में वह शायद ही मेरी राय लें। उन्हें मालूम है कि उन्हें क्या राय दूँगी।

विद्या– तुम रहतीं तो उन्हें कुछ न कुछ संकोच अवश्य होता।

गायत्री– मुझे इसकी आशा नहीं वहाँ रहूँगी तो कम-से-कम वहाँ देख-रेख तो करती रहूँगी, तीन महीने हो गये, लोगों ने न जाने क्या-क्या उपद्रव खड़े किए होंगे। एक दर्जन नातेदार द्वार पर डटे पड़े रहते हैं। एक-महाशय नाते में मेरे मामू होते हैं, वे सुबह से शाम तक मछलियों का शिकार किया करते हैं। दूसरे महाशय मेरे फूफी के सपुत्र हैं, वह मेरे ससुर के समय से ही वहाँ रहते हैं। उनका काम मुहल्ले भर की स्त्रियों को घूरना और उनसे दिल्लगी करना है। एक तीसरे महाशय मेरी ननद के छोटे देवर हैं, रिश्वत के बाजार के दलाल हैं। इस काम से जो समय बचता है वह भंग पीने-पिलाने में लगाते हैं। इन लोगों में बड़ा भी गुण यह है कि सन्तोषी हैं। आनन्द से भोजन-वस्त्र मिलता जाय इसके सिवा उन्हें कोई चिन्ता नहीं। हाँ, जमींदारी का घमण्ड सबको है, सभी असामियों पर रोब जमाना चाहते हैं, उनका गला दबाने के लिए सब तत्पर रहते हैं। बेचारे किसानों को जो अपने परिश्रम की रोटियाँ खाते हैं, इन निठल्लों का अत्याचार केवल इसलिए सहना पड़ता है कि वह मेरे दूर के नातेदार हैं। मुफ्तखोरी ने उन्हें इतना आत्मशून्य बना दिया है कि चाहे जितनी रुखाई से पेश आओ टलने का नाम न लेंगे। अधिक नहीं तो दस परिवार ऐसे होंगे जो मेरी मृत्यु का स्वप्न देखने में जीवन के दिन काट रहे हैं। उनका बस चले तो मुझे विष दे दें। किसी के यहाँ से कोई सौगात आये, मैं उसे हाथ तक नहीं लगाती। उनका काम बस यही है कि बैठे-बैठे उत्पात किया करें, मेरे काम में विघ्न डाला करें। कोई असामियों को फोड़ता है, कोई मेरे नौकर को तोड़ता है, कोई मुझे बदनाम करने पर तुला हुआ है। तुम्हें सुनकर हँसी आयेगी, कई महाशय विरासत की आशा में डेवढ़े-दूने सूद पर ऋण लेकर पेट पालते हैं। कुछ नहीं बन पड़ता तो उपवास करते हैं, किन्तु विरासत का अभिमान जीविका की कोई आयोजना नहीं करने देता। इन लोगों ने मेरी अनुपस्थिति में न जाने क्या-क्या गुल खिलाये होंगे। अभी मुझे जाने दो। बाबू जी भी जल्द ही पहाड़ पर चले जायेंगे। यदि ऐसी ही कोई जरूरत आ पड़े तो मुझे पत्र लिखना, चली जाऊँगी।

दो दिन गायत्री ने किस प्रकार काटे। ज्ञानशंकर से फिर बात-चीत की नौबत नहीं आयी। तीसरे दिन विदा हुई। राय साहब स्टेशन तक पहुँचाने आये। ज्ञानशंकर भी साथ थे। गायत्री गाड़ी में बैठी। राय साहब खिड़की पर झुके हुए आम और खरबूजे, लीचियाँ और अंगूर ले-लेकर गाड़ी में भरते जाते थे। गायत्री बार-बार कहती थी कि इतने फल क्या होंगे, कौन-सी बड़ी यात्रा है, किन्तु राय साहब एक न सुनते थे। यह भी रियासत की एक आन थी। ज्ञानशंकर एक बेंच पर उदास बैठे हुए थे। गायत्री को उन पर दया आ गयी। वियोग के समय हम सहृदय हो जाते हैं। चलते चलाते हम किसी पर अपना ऋण छोड़ जायँ, किन्तु ऋण लेकर जाना नहीं चाहते। जब गाड़ी ने सीटी दी, तो ज्ञानशंकर चौंककर बेंच पर से उठे और गायत्री के सम्मुख आकर उसे लज्जित और प्रार्थी नेत्रों से देखा। उनमें आँसू भरे हुए थे। पश्चात्ताप की सजीव मूर्ति थी। गायत्री भी खिड़की पर आयी, कुछ कहना चाहती थी, पर गाड़ी चलने लगी।

ज्ञानशंकर की विनय-मूर्ति रास्ते भर उसकी आँखों के सामने फिरती रही।

12.

गायत्री के जाने के बाद ज्ञानशंकर को भी वहाँ रहना दूभर हो गया। सौभाग्य उन्हें हवा के घोड़े पर बैठाये ऋद्धि और सिद्धि के स्वर्ग में लिए जाता था, किन्तु एक ही ठोकर में वह चमकते हुए नक्षत्र अदृश्य हो गये; वह प्राण-पोषक शीतल वायु, वह विस्तृत नभमण्डल और सुखद कामनाएँ लुप्त हो गयी; और वह उसी अन्धकार में निराश और विडम्बित पड़े हुए थे। उन्हें लक्षणों से विदित होता जाता था। वह राय साहब विवाह करने पर तुले हुए हैं और उनका दुर्बल क्रोध दिनोंदिन अदम्य होता जाता था। वह राय साहब की इन्द्रिय-लिप्सा पर क्षुद्रता पर झल्ला-झल्लाकर रह जाते थे। कभी-कभी अपने को समझाते कि मुझे बुरा मानने का कोई अधिकार नहीं, राय साहब अपनी जायदाद के मालिक हैं। उन्हें विवाह करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है, वह अभी हृष्ट-पुष्ट हैं, उम्र भी ज्यादा नहीं। उन्हें ऐसी क्या पड़ी है कि मेरे लिए इतना त्याग करें। मेरे लिए यह कितनी लज्जा की बात है कि अपने स्वार्थ के लिए उनका बुरा चेतूँ, उनके कुल के अन्त होने की अमंगल-कामना करूँ। यह मेरी घोर नीचता है। लेकिन विचारों को इस उद्देश्य से हटाने का प्रयत्न एक प्रतिक्रिया का रूप धारण कर लेता था, जो अपने बहाव में धैर्य और सन्तोष के बाँध को तोड़ डालता था। तब उनका हृदय उस शुभ मुहूर्त के लिए विकल हो जाता था, जब यह अतुल सम्पत्ति अपने हाथों में आ जायेगी। जब वह यहाँ मेहमान के अस्थायी रूप से नहीं। स्वामी के स्थायी रूप से निवास करेंगे। वह नित्य इसी कल्पित सुख के भोगने में मग्न रहते थे। प्रायः रात-रात भर जागते रह जाते और आनन्द के स्वप्न देखा करते। उन्नति और सुधार के कितने ही प्रस्ताव उनके मस्तिष्क में चक्कर लगाया करते। सैर करने में उनको अब कुछ आनन्द न मिलता, अधिकार अपने कमरे में ही पड़े रहते। यहाँ तक कि आशा और भय कि अवस्था उनके लिए असह्य हो गयी। इस दुविधा में पड़े जेठ का महीना भी बीत गया और आषाढ़ आ पहुँचा।

राय साहब को अबकी पुत्र-शोक के कारण पहाड़ पर जाने में विलम्ब हो गया था। पहला छींटा पड़ते ही उन्होंने सफर की तैयारी शुरू कर दी। ज्ञानशंकर से अब जब्त न हो सका। सोचा, कौन जाने यह नैनीताल में ही किसी नये विचारों की लेडी से विवाह कर लें। यहाँ कानोंकान किसी को खबर भी न हो, अतएव उन्होंने इस शंका का अन्त करने का निश्चय कर लिया।

सन्ध्या हो गई थी। वह मन को दृढ़ किये हुए राय साहब के कमरे में गये, किन्तु देखा तो वहाँ एक और महाशय विद्यमान थे। वह किसी कम्पनी का प्रतिनिधि था। और राय साहब से उसके हिस्से लेने का अनुरोध कर रहा था। किन्तु राय साहब की बातों से ज्ञात होता था कि वह हिस्से लेने को तैयार नहीं हैं। अंत में एजेंट ने पूछा– आखिर आपको इतनी शंका क्यों है? क्या आपका विचार है कि कम्पनी की जड़ मजबूत नहीं है?

राय साहब– जिस काम में सेठ जगतराम और मिस्टर मनचूरजी शरीक हों उसके विषय में यह संदेह नहीं हो सकता।

एजेण्ट– तो क्या आप समझते हैं कि कम्पनी का संचालन उत्तम रीति न होगा?

राय साहब– कदापि नहीं?

एजेण्ट– तो फिर आपको उसका साझीदार बनने में क्या आपत्ति है? मैं आपकी सेवा में कम-से-कम पाँच सौ हिस्सों की आशा लेकर आया था। जब आप ऐसे विचारशील सज्जन व्यापारिक उद्योग से पृथक रहेंगे तो इस अभागे देश की उन्नति सदैव एक मनोहर स्वप्न ही रहेगी।

राय साहब– मैं ऐसी व्यापारिक संस्थाओं को देशोद्धार की कुंजी नहीं समझता।

ऐजेण्ट– (आश्चर्य से) क्यों?

राय साहब– इसलिए कि सेठ जगतराम और मिस्टर मनचूरजी का विभव देश का विभव नहीं है। आपकी यह कम्पनी धनवानों को और भी धनवान बनायेगी, पर जनता को इससे बहुत लाभ पहुँचने की संभावना नही। निस्संदेह आप कई हजार कुलियों को काम में लगा देंगे, पर यह मजदूर अधिकांश किसान ही होंगे और मैं किसानों को कुली बनाने का कट्टर विरोधी हूँ। मैं नहीं चाहता कि वे लोभ के वश अपने बाल-बच्चों को छोड़कर कम्पनी की छावनियों में जाकर रहें और अपना आचरण भ्रष्ट करें। अपने गांव में उनकी एक विशेष स्थिति होती है। उनसे आत्म-प्रतिष्ठा का भाव जाग्रत रहता है। बिरादरी का भय उन्हें कुमार्ग से बचाता है। कम्पनी की शरण में जाकर वह अपने घर के स्वामी नहीं, दूसरे के गुलाम हो जाते हैं, और बिरादरी के बन्धनों से मुक्त होकर नाना प्रकार की बुराइयाँ करने लगते हैं। कम से कम मैं अपने किसानों को इस परीक्षा में नहीं डालना चाहता।

एजेण्ट-क्षमा कीजिएगा, आपने एक ही पक्ष का चित्र खींचा है। कृपा करके दूसरे पक्ष का भी अवलोकन कीजिए। हम कुलियों को जैसे वस्त्र, जैसे, भोजन, जैसे घर देते हैं, वैसे गाँव में रह कर उन्हें कभी नसीब नहीं हो सकते। हम उनको दवा दारू का, उनकी सन्तानों की शिक्षा का, उन्हें बुढ़ापे में सहारा देने का उचित प्रबन्ध करते हैं। यहाँ तक कि हम उनके मनोरंजन और व्यायाम की भी व्यवस्था कर देते हैं। वह चाहे तो टेनिस और फुटबाल खेल सकते हैं, चाहे तो पार्कों में सैर कर सकते हैं। सप्ताह में एक दिन गाने-बजाने के लिए समय से कुछ पहले ही छुट्टी दे दी जाती है। जहाँ तक मैं समझता हूँ कि पार्कों में रहने के बाद कोई कुली फिर खेती करने की परवाह न करेगा।

राय साहब– नहीं, मैं इसे कदापि स्वीकार नहीं कर सकता। किसान कुली बनकर अभी अपने भाग्य-विधाता को धन्यवाद नहीं दे सकता, उसी प्रकार जैसे कोई आदमी व्यापार का स्वतन्त्र सुख भोगने के बाद नौकरी की पराधीनता को पसन्द नहीं कर सकता। सम्भव है कि अपनी दीनता उसे कुली बने रहने पर मजबूर करे, पर मुझे विश्वास है कि वह इस दासता से मुक्त होने का अवसर पाते ही तुरन्त अपने घर की राह लेगा और फिर उसी टूटे-फूटे झोंपड़े में अपने बाल-बच्चों के साथ रहकर सन्तोष के साथ कालक्षेप करेगा। आपको इसमें सन्देह हो तो आप कृषक-कुलियों से एकान्त में पूछकर अपना समाधान कर सकते हैं। मैं अपने अनुभव के आधार पर यह बात कहता हूँ कि आप लोग इस विषय में योरोपवालों का अनुकरण करके हमारे जातीय जीवन के सद्गुणों का सर्वनाश कर रहे हैं। योरोप में इंडस्ट्रियालिज्म (औद्योगिकता) की जो उन्नति हुई विशेष कारण थे वहाँ के किसानों की दशा उस समय गुलामों से भी गई-गुजरी थी, वह ज़मींदार के बन्दी होते थे। इस कठिन कारावास के देखते हुए धनपतियों की कैद गनीमत थी। हमारे किसानों की आर्थिक दशा चाहे कितनी ही बुरी क्यों न हो, पर वह किसी के गुलाम नहीं हैं। अगर कोई उन पर अत्याचार करे तो वह अदालतों में उससे मुक्त हो सकते हैं। नीति की दृष्टि में किसान और ज़मींदार दोनों बराबर हैं।

एजेण्ट– मैं श्रीमान् से विवाद करने की इच्छा तो नहीं रखता, पर मैं स्वयं छोटा-मोटा किसान हूँ और मुझे किसानों की दशा का यथार्थ ज्ञान है। आप योरोप के किसानों को गुलाम कहते हैं लेकिन यहाँ के किसानों की दशा उससे अच्छी नहीं है। नैतिक बन्धनों के होते हुए भी ज़मींदार कृषकों पर नाना प्रकार के अत्याचार करते हैं और कृषकों की जीविका का और कोई द्वार हो तो वह इन आपत्तियों को भी कभी न झेल सकें।

राय साहब– जब नैतिक व्यवस्थाएँ विद्यमान हैं तो विदित है कि उनका उपयोग करने के लिए किसानों को केवल उचित शिक्षा की जरूरत है, और शिक्षा का प्रचार दिनों दिन-बढ़ रहा है। मैं मानता हूँ कि ज़मींदार के हाथों किसानों की बड़ी दुर्दशा होती है। मैं स्वयं इस विषय में सर्वथा निर्दोष नहीं हूँ, बेगार लेता हूँ डाँड़-बाँध भी लेता हूँ, बेदखली या इजाफा का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देता असामियों पर अपना रोब जमाने के लिए अधिकारियों की खुशामद भी करता हूँ, साम, दाम, दण्ड, भेद सभी से काम लेता हूँ पर इसका कारण क्या है? वही पुरानी प्रथा, किसानों की मूर्खता और नैतिक अज्ञान। शिक्षा का यथेष्ट प्रचार होते ही जमींदारों के हाथ से यह सब मौके निकल जायेंगे। मनुष्य स्वार्थी जीव है और यह असम्भव है कि जब तक उसे धींगा-धीगी के मौके मिलते रहे, वह उनसे लाभ न उठाये। आपका यह कथन सत्य है, किसानों को यह बिडम्बनाएँ इसलिए सहनी पड़ती हैं कि उनके लिए जीविका के और सभी द्वार बन्द हैं। निश्चय ही उनके लिए जीवन-निर्वाह के अन्य साधनों का अवतरण होना चाहिए, नहीं तो उनका पारस्परिक द्वेष और संघर्ष उन्हें हमेशा जमींदारों का गुलाम बनाये रखेगा, चाहे कानून उनकी कितनी रक्षा और सहायता क्यों न करे। किन्तु यह साधन ऐसे होने चाहिए जो उनके आचार-व्यवहार को भ्रष्ट न करें। उन्हें घर से निर्वासित करके दुर्व्यसनों के जाल में न फँसाएँ, उनके आत्मभिमान का सर्वनाश न करें! और यह उसी दशा में हो सकता है जब घरेलू शिल्प का प्रचार किया जाये और वह अपने गाँव में कुल और बिरादरी की तीव्र दृष्टि के सम्मुख अपना-अपना काम करते रहें।

एजेण्ट– आपका अभिप्राय काटेज इण्डस्ट्री (गृहउद्योग या कुटीर शिल्प) से है। समाचार-पत्रों में कहीं-कहीं इनकी चर्चा भी हो रही है, किन्तु इनका सबसे बड़ा पक्षपाती भी यह दावा नहीं कर सकता कि इसके द्वारा आप विदेशी वस्तुओं का सफलता के साथ अवरोध कर सकते हैं।

राय साहब– इसके लिए हमें विदेशी वस्तुओं पर कर लगाना पड़ेगा। यूरोप-वाले दूसरे देशे से कच्चा माल ले जातें हैं, जहाज का किराया देते हैं। उन्हें मजदूरों को कड़ी मजूरी देनी पड़ती है, उस पर हिस्सेदारों को नफा खूब चाहिए। हमारा घरेलू शिल्प इन समस्त बाधाओं से मुक्त रहेगा और कोई कारण नहीं कि उचित संगठन के साथ वह विदेशीय व्यापार पर विजय न पा सके। वास्तव में हमने कभी इस प्रश्न पर ध्यान ही नहीं दिया। पूंजीवाले लोग इस समस्या पर विचार करते हुए डरते हैं। वे जानते हैं कि घरेलू शिल्प हमारे प्रभुत्व का अन्त कर देगा, इसीलिए वह इसका विरोध करते रहते हैं।

ज्ञाननशंकर ने इस विवाद में भाग न लिया। राय साहब की युक्तियाँ अर्थशास्त्र के सिद्धान्त के प्रतिकूल थीं, पर इस समय उन्हें उनका खण्डन करने का अवकाश न था। जब ऐजेण्ट ने अपनी दाल गलते न देखी तो विदा हो गये । राय साहब ज्ञानशंकर को उत्सुक देखकर समझ गये कि यह कुछ कहना चाहते हैं, पर संकोचवश चुप हैं। बोले, आप कुछ कहना चाहते हैं तो कहिए, मुझे फुर्सत है।

ज्ञानशंकर की जबान न खुल सकी। उन्हें अब ज्ञात हो रहा था कि मैं जो कथन कहने आया हूँ, वह सर्वथा असंगत है, सज्जनता के बिलकुल विरुद्ध। राय साहब को कितना दुःख होगा और वह मुझे मन में कितना लोभी और क्षुद्र समझेंगे। बोले, कुछ नहीं, मैं केवल यह पूछने आया था कि आप नैनीताल जाने का कब तक विचार करते हैं?

राय साहब– आप मुझसे उड़ रहे हैं। आपकी आँखें कह रही हैं कि आपके मन में कोई और बात है, साफ कहिए। मैं आपस में बिलकुल सचाई चाहता हूँ।

ज्ञानशंकर बड़े असमंजस में पड़े। अन्त में सकुचाते हुए बोले– यही तो मेरी भी इच्छा है, पर वह बात ऐसी भद्दी है कि आपसे कहते हुए लज्जा आती है।

राय साहब– मैं समझ गया। आपके कहने की जरूरत नहीं। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि जिन गप्पों को सुनकर आपको यह शंका हुई है कि बिलकुल निस्सार है। मैं स्पष्टवादी अवश्य हूँ, पर अपने मुँह देखे हितैषियों की अवज्ञा करना मेरी सामर्थ्य से बाहर है। पर जैसा आपसे कह चुका हूँ वह किम्वदन्तियाँ सर्वथा असार हैं। यह तो आप जानते हैं कि मैं पिण्डे-पानी का कायल नहीं और न यही समझता हूँ कि मेरी सन्तान के बिना संसार सूना हो जायेगा। रहा इन्द्रिय-सुखभोग उसके लिए मेरे पास इतने साधन हैं कि मैं पैरों में लोहे की बेड़ियाँ डाले बिना ही उसका आनन्द उठा सकता हूँ। और फिर मैं कभी काम-वासना का गुलाम नहीं रहा, नहीं तो इस अवस्था में आप मुझे इतना हष्ट-पुष्ट न देखते। मुझे लोग कितना ही विलासी समझे, पर वास्तव में मैंने युवावस्था से ही संयम का पालन किया है। मैं समझता हूँ कि इन बातें से आपकी शंका निवृत्त हो गयी होगी। लेकिन बुरा न मानिएगा उड़ती खबरों को सुनकर इतना व्यस्त हो जाना मेरी दृष्टि में आपका सम्मान नहीं बढ़ाता। मान लीजिए, मैंने विवाह करने का निश्चय ही कर लिया हो तो यह आवश्यक नहीं कि उससे सन्तान भी हो और हो भी तो पुत्र ही, और पुत्र भी हो तो जीवित रहे। फिर मायाशंकर अभी अबोध बालक है। विधाता ने उसके भाग्य में क्या लिख दिया है, उसे हम या आप नहीं जानते। यह भी मान लीजिए कि वह वयस्क होकर मेरा उत्तराधिकारी भी हो जाय तो यह आवश्यक नहीं कि वह इतना कर्तव्यपरायण और सच्चरित्र हो जितना आप चाहते हैं। यदि वह समझदार होता और उसके मन में यह शंकाएँ पैदा होतीं तो मैं क्षम्य समझता, लेकिन आप जैसे बुद्धिमान मनुष्य का एक निर्मूल और कल्पित सम्भावना के पीछे अपना दाना-पानी हराम कर लेना बड़े खेद की बात है।

इस कथन के पहले भाग से, ज्ञानशंकर को संतोष न हुआ था, अन्तिम भाग को सुनकर निराशा हुई। समझ गये कि यह चर्चा इन्हें अच्छी नहीं लगती और यद्यपि युक्तियों से यह मुझे शान्त करना चाहते हैं, पर वास्तव में इन्होंने विवाह करने का निश्चय कर लिया है। इतना ही नहीं, इन्हें यहाँ मेरा रहना अखर रहा है। मुझे यह अपना आश्रित न समझते तो मुझे कदापि इस तरह आड़े हाथों न लेते। उनका गौरवशील हृदय प्रत्युत्तर देने के लिए विकल हो उठा, पर उन्होंने जब्त किया। इस कड़वी दवा को पान कर लेना ही उचित समझा। मन में कहा, आप मेरे साथ दोरंगी चाल चल रहे हैं। मैं साबित कर दूँगा कि कम-से-कम इस व्यवहार में मैं आपसे हेठा नहीं हूँ।

उन्होंने कुछ जवाब न दिया। राय साहब को भी इन बातों के कहने का खेद हुआ। ज्ञानशंकर का मन रखने के लिए इधर-उधर की बातें करने लगे। नैनीताल का भी जिक्र आ गया। उन्होंने अपने साथ चलने को कहा। ज्ञानशंकर राजी हो गये । इसमें दो लाभ थे। एक तो वह राय साहब को नजरबन्द कर सकेंगे दूसरे, वह उच्चाधिकारियों पर अपनी योग्यता का सिक्का बिठा सकेंगे। सम्भव है, राय साहब की सिफारिश उन्हें किसी ऊँचे पद पर पहुँचा दे। यात्रा की तैयारियाँ करने लगे।

13.

यद्यपि गाँव वालों ने गौस खाँ पर जरा भी आँच न आने दी थी, लेकिन ज्वालासिंह का उनके बर्ताव के विषय में पूछ-ताछ करना उनके शान्ति-हरण के लिए काफी था। चपरासी, नाजिर मुंशी सभी चकित हो रहे थे कि इस अक्खड़ लौंडे ने डिप्टी साहब पर न जाने क्या जादू कर दिया कि उनकी काया ही पलट गयी। ईधन, पुआल, हाँडी, बर्तन, दूध, दही, मांस-मछली साग-भाजी सभी चीजें बेगार में लेने को मना करते हैं। तब तो हमारा गुजारा हो चुका। ऐसा भत्ता ही कौन बहुत मिलता है। यह लौंडा एक ही पाजी निकला। एक तो हमें फटकारें सुनायीं, उस पर यह और रद्दा जमा गया। चलकर डिप्टी साहब से कह देना चाहिए। आज यह दुर्दशा हुई है, दूसरे गाँव में इससे भी बुरा हाल होगा। हम लोग पानी को तरस जायेंगे। अतएव ज्योंही ज्वालासिंह लौटकर आये सब-के-सब उनके सामने जाकर खड़े हो गये। ईजाद हुसेन को फिर उनका मुख-पात्र बनना पड़ा।

ज्वालासिंह ने रुष्ट भाव से देख कर पूछा– कहिए आप लोग कैसे चले? कुछ कहना चाहते हैं? मीर साहब आपने इन लोगों को मेरा हुक्म सुना दिया है न?

ईजाद हुसेन– जी हाँ, यही हुक्म सुनकर तो यह लोग घबराये हुए आपकी खिदमत में हाजिर हुए हैं। कल इस गाँव में एक सख्त वारदात हो गयी। गाँव के लोग चपरासियों से लड़ने पर आमादा हो गये। ये लोग जान बचाकर चले न आये होते तो फौजदारी हो जाती। इन लोगों ने इसकी इत्तला करके हुजूर के आराम में खलल डालना मुनासिब नहीं समझा, लेकिन आज की मुमानियत सुनकर इनके होश उड़ गये हैं। पहले ही बेगार आसानी से न मिलती थी, अब बानी-मबानी वही नौजवान था जो सुबह हुजूर की खिदमत में हाजिर हुआ था। उसकी कुछ तस्बीह होनी निहायत जरूरी है।

ज्वालासिंह– उसकी बातों से तो मालूम होता था कि चपरासियों ने ही उसके साथ सख्ती की थी।

एक चपरासी– वह तो कहेगा ही, लेकिन खुदा गवाह है, हम लोग भाग न आये होते तो जान की खैर न थी। ऐसी ज़िल्लत आज तक कभी न हुई थी। हम लोग चार-चार पैसे के मुलाजिम हैं, पर हाकिमों के इकबाल से बड़ों-बड़ों की कोई हकीकत नहीं समझते।

गौस खाँ-हुजूर, वह लौंडा इन्तहा दर्जे का शरीर है। उसके मारे हम लोगों का गाँव में रहना दुश्वार हो गया है। रोज एक-न-एक तूफान खड़ा किये रहता है।

दूसरा चपरासी– हुजूर लोगों की गुलामी में उम्र कटी, लेकिन कभी ऐसी दुर्गति न हुई थी।

ईजाद हुसेन– हुजूर की रिआया-परवरी में कोई शक नहीं। हुक्काम को रहम-दिल होना ही चाहिए; लेकिन हक तो यह है कि बेगार बन्द हो जाय तो इन टके के आदमियों का किसी तरह गुजर ही न हो।

ज्वालासिंह– नहीं, मैं इन्हें तकलीफ नहीं देना चाहता। मेरी मंशा सिर्फ यह है कि रिआया पर बेजा सख्ती न हो। मैंने इन लोगों को जो हुक्म दिया है, उसमें उनकी जरूरतों का काफी लिहाज रखा है। मैं यह समझता कि सदर में यह लोग जिन चीजों के बगैर गुजर कर सकते हैं उनकी देहात में आकर क्यों जरूरत पड़ती है।

चपरासी– हुजूर, हम लोगों को जैसे चाहें रखे, आपके गुलाम हैं पर इसमें हुजूर की बेरोबी होती है।

गौस खाँ-जी हाँ, यह देहाती लोग उसे हाकिम ही नहीं समझते जो इनके साथ नरमी से पेश आये। हुजूर को हिन्दुस्तानी समझकर ही यह लोग ऐसी दिलेरी करते हैं। अँग्रेजी हुक्काम आते हैं तो कोई चूँ भी नहीं करता। अभी दो हफ्ते होते हैं, पादरी साहब तशरीफ लाये थे और हफ्ते भर रहे, लेकिन सारा गाँव हाथ बाँधे खड़ा रहता था।

ईजाद हुसेन– आप बिल्कुल दुरुस्त फरमाते हैं। हिन्दुस्तानी हुक्काम को यह लोग हाकिम ही नहीं, समझते, जब तक वह इनके साथ सख्ती न करें।

ज्वालासिंह ने अपनी मर्यादा बढ़ाने के लिए ही अँग्रेजी रहन-सहन ग्रहण किया था। वह अपने को किसी अँग्रेज से कम न समझते थे। रेलगाड़ी में अंग्रेजों के ही साथ बैठते थे। लोग अपनी बोलचाल में उन्हें साहब ही कहा करते थे। हिन्दुस्तानी समझना उन्हें गाली देना था। गौस खाँ और ईजाद हुसेन की बातें निशाने पर बैठ गयीं। अकड़कर बोले, अच्छा यह बात है तो मैं भी दिखा देता हूँ कि मैं किसी अँग्रेज से कम नहीं हूँ यह लोग भी समझेगे कि किसी हिन्दुस्तानी हाकिम से काम पड़ा था। अब तक तो मैं यही समझता था कि सारी खता हमीं लोगों की है। अब मालूम हुआ कि यह देहातियों की शरारत है। अहलमद साहब, आप हल्के के सब-इन्स्पेक्टर को रूबकार लिखिए कि वह फौरन इस मामले की तहकीकात करके अपनी रिपोर्ट पेश करें।

चपरासी– ज्यादा नहीं तो हुजूर इन लोगों से मुचलका तो जरूर ले ही लिया जाय।

गौस खाँ– इस लौंडे की गोशमाली जरूरी है।

ज्वालासिंह– जब तक रिपोर्ट न आ जाय मैं कुछ नहीं करना चाहता।

परिणाम यह हुआ कि सन्ध्या समय बाबू दयाशंकर जी फिर बहाल होकर इसी हलके में नियुक्त हुए थे लखनपुर आ पहुँचे। कई कान्स्टेबल भी साथ थे। इन लोगों ने चौपाल में आसन जमाये। गाँव के सब आदमी जमा किये गये। मगर बलराज का पता न था। वह और रंगी दोनो नील गायों को भगाने गये थे दारोगा जी ने बिगड़कर मनोहर से कहा, तेरा बेटा कहाँ है? सारे फिसाद की जड़ तो वही है, तूने कहीं भगा तो नहीं दिया? उसे जल्द हाजिर कर, नहीं तो वारण्ट जारी कर दूँगा।

मनोहर ने अभी उत्तर नहीं दिया था कि किसी ने कहा, वह बलराज आ गया। सबकी आँखें उसकी ओर उठीं। दो कान्स्टेबलों ने लपककर उसे पकड़ लिया और दूसरे दो कान्स्टेबलों ने उसकी मुश्कें कसनी चाही। बलराज ने दीन-भाव से मनोहर की ओर देखा। उसकी आँखों में भयंकर संकल्प तिलमिला रहा था।

वह कह रही थीं कि यह अपमान मुझसे नहीं सहा जा सकता। मैं अब जान पर खेलता हूँ। आप क्या कहते हैं? मनोहर ने बेटे की यह दशा देखी तो रक्त खौल उठा। बावला हो गया। कुछ न सूझा कि मैं क्या कर रहा हूँ। बाज की तरह टूटकर बलराज के पास पहुँचा और दोनों कान्स्टेबलों को धक्का देकर बोला– छोड़ दो, नहीं तो अच्छा न होगा।

इतना कहते-कहते उसकी जबान बन्द हो गयी और आँखों से आँसू निकल पड़े। सूक्खू चौधरी मन में फूले न समाते थे। उन्हें वह दिन निकट दिखाई दे रहा था, जब मनोहर के दसों बीघे खेत पर उनके हल चलेंगे। दुखरन भगत काँप रहे थे कि मालूम नहीं क्या आफत आयेगी। डपटसिंह सोच रहे थे कि भगवान् करे मार-पीट हो जाये तो इन लोगों की खूब कुन्दी की जाय और बिसेसर साह थर-थर काँप रहे थे। केवल कादिर खाँ को मनोहर से सच्ची सहानुभूति थी। मनोहर की उद्दण्डता से उसके हृदय पर एक चोट-सी लगी। सोचा, मार-पीट हो गयी तो फिर कुछ बनाये न बनेगी। तुरन्त जाकर दयाशंकर के कानों में कहा– हुजूर हमारे मालिक हैं। हम लोग आप की ही रिआया हैं। सिपाहियों को मने कर दें, नहीं तो खून हो जायेगा। आप जो हुक्म देंगे उसके लिए मैं हाजिर हूँ। दयाशंकर उन आदमियों में न थे, जो खोकर भी कुछ नहीं सीखते। उन्हें अपने अभियोग ने एक बड़ी उपकारी शिक्षा दी थी। पहले वह यथासम्भव रिश्वत अकेले ही हजम कर लिया करते थे। इससे थाने के अन्य अधिकारी उनसे द्वेष किया करते थे। अब उन्होंने बाँटकर खाना सीखा था। इससे सारा थाना उन पर जान देता था। इसके अतिरिक्त अब वह पहले भी भाँति अश्लील शब्दों का व्यवहार न करते थे। उन्हें अब अनुभव हो रहा था कि सज्जनता केवल नैतिक महत्त्व की वस्तु नहीं है, उसका आर्थिक महत्त्व भी कम नहीं है, सारांश यह कि अब उनके स्वभाव में अनर्गलता की जगह गम्भीरता का समावेश हो गया था। वह इस झमेले में सारे गाँव को समेटकर अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते थे। कान्स्टेबलों का अत्याचार इस उद्देश्य में बाधक हो सकता था। अतएव उन्होंने सिपाहियों को शान्त किया और बयान लिखने लगे। पहले चपरासियों के बयान हुए। उन्होंने अपना सारा क्रोध बलराज पर उतारा। गौस खाँ और उनके दोनों शहनों ने भी इसी से मिलता-जुलता बयान दिया। केवल बिन्दा महाराज का बयान कुछ कमजोर था। अब गाँववालों के इजहार की बारी आयी। पहले तो इन लोगों ने समझा था कि सारे गाँव पर आफत आनेवाली है, लेकिन विपक्षियों के बयान से विदित हुआ कि सब उद्योग बलराज को फँसाने के लिए किये जा रहे हैं। बलराज पर उसकी सहृदयता के कारण समस्त गाँव जान देता था। पारस्परिक स्नेह और सहृदयता भी ग्राम्य जीवन का एक शुभ लक्षण है। उस अवसर पर केवल सच्ची बात कहने से ही बलराज की जान बचती थी, अपनी ओर से कुछ घटाने या बढ़ाने की जरूरत न थी। अतएव लोगों ने साहस से काम लिया और सारी घटना सच कह सुनायी; केवल बलराज के कठोर शब्दों पर पर्दा डाल दिया। विपक्षियों ने उन्हें फोड़ने में कोई बात उठा न रखी, पर कादिर खाँ की दृढ़ता ने किसी को विचलित न होने दिया।

आठ बजते-बजते तहकीकात समाप्त हो गयी। बलराज को हिरासत में लेने के लिए प्रणाम न मिले। गौस खाँ दाँत पीसकर रह गये। दरोगा जी चौपाल से उठकर अन्दर के कमरे में जा बैठे। गाँव के लोग एक-एक करके सरकने लगे। डपटसिंह ने अकड़ कर कहा, गाँव से फूट न हो तो कोई कुछ नहीं कर सकता। दरोगा जी कैसी जिरह करते थे कि कोई फूट जाय।

दुखरन– भगवान चाहेंगे तो अब कुछ न होगा। मेल बड़ी चीज है।

मनोहर– भाई, तुम लोगों ने मेरी आबरू रख ली, नहीं तो कुशल नहीं थी।

डपटसिंह– लस्करवालों ने समझा था जैसे दूसरे गाँववालों को दबा लेते हैं, वैसे ही इन लोगों को दबा लेंगे।

दुखरन– इस गाँव पर महावीर स्वामी का साया है, इसे क्या कोई खाकर दबायेगा!

मनोहर– कादिर भैया, जब दोनों कान्स्टेबलों ने बालू का हाथ पकड़ा तो मेरे बदन में जैसे आग लग गयी। अगर वह छोड़ न देते तो चाहे जान से जाता, पर एक की तो जान लेकर ही छोड़ता।

डपट– अचरज तो यह है कि बलराज से इतना जब्त कैसे हुआ?

बलराज– मेरी तो जैसे सिट्टी-पिट्टी भूल गयी थी? मालूम होता था हाथों में दम नहीं है। हाँ, जब वह सब दादा से हाथापाई करने लगे तब मुझसे जब्त न हो सका।

दुखरन– चलो, भगवान की दया से सब अच्छा ही हुआ। अब कोई चिन्ता नहीं। यह बातें करते हुए लोग अपने घर गये। मनोहर अब भोजन करके चिलम पी ही रहा था कि बिन्दा महाराज आकर बैठ गये। यह बड़ा सहृदय मनुष्य था। था तो ज़मींदार का नौकर, पर उसकी सहानुभूति सदैव असामियों के साथ रहती थी। मनोहर उसे देखते ही खाट पर से उठ बैठा, बिलासी घर से निकल आयी और बलराज, जो ऊख की गँडेरियाँ काट रहा था, हाथ में गड़ासा लिये आकर खड़ा हो गया। आजकल ऊख पेरी जाती थी। पहर रात रहे कोल्हू खड़े हो जाते थे।

मनोहर ने पूछा– कहो महाराज, कैसे चले? चौपाल में क्या हो रहा है?

बिन्दा– तुम्हारा गला रेतने की तैयारियों हो रही हैं। दरोगा जी ने गाँव के मुखिया लोगों को बुलाया है और सबसे अपना-अपना बयान बदलने के लिए कहा है। धमका रहे हैं कि बयान न बदलोगे तो सबसे मुचलका ले लेगें। उस पर सौ रुपये की थैली अलग माँगते हैं। डर के मारे सबकी नानी मर रही हैं बयान बदलने पर तैयार हैं। सोचा चलकर तुम्हें खबर तो दे दूँ। ज़मींदार के चाकर हैं तो क्या, पर हैं तो हम और तुम एक।

मनोहर के पाँव तले से जमीन निकल गयी। बिलासी सन्नाटे में आ गयी, बलराज के भी होश उड़ गये। गरीबों ने समझा था, बला टल गई। अपने काम-धन्धे में लगे हुए थे। इस समाचार ने आँधी के झोंके की तरह आकर नौका को डावाँडोल कर दिया। किसी के मुँह से आवाज न निकली।

बिन्दा ने फिर कहा– सबों ने कैसा अच्छा बयान दिया था। मैंने समझा था, वह अपनी बात पर अड़े रहेंगे, पर सब कायर निकले। एक ही धमकी में पानी हो गये।

मनोहर– मेरे ऊपर कोई गरद दशा आई हुई है और क्या? इस लौंडे के पीछे देखें क्या-क्या दुर्गित होती है।

बिन्दा– रात तो बहुत हो गयी है, पर बन पड़े तो लोगों के पास जाओ अरज-विनती करो। कौन जाने मान ही जाएँ।

बलराज ने तनकर कहा– न! किसी भकुए के पास जाने का काम नहीं। यही न होगा, मेरी सजा हो जायेगी। ऐसे कायरों से भगवान् बचाएँ। मुचलके के नाम से जिनके प्राण सूखे जाते हैं, उनका कोई भरोसा नहीं। यहाँ मर्द हैं, सजा से नहीं डरते। कोई चोरी नहीं की है, डाका नहीं मारा है, सच्ची बात के पीछे सजा से नहीं डरते। सजा नहीं गला कट जाय तब भी डरने वाले नहीं।

मनोहर– अरे बाबा, चुप भी रह! आया है बड़ा मर्द बन के! जब तेरी उमिर थी तो हम भी आकाश पर दिया जलाते थे, पर अब वह अकेला कहाँ से लायें?

बिन्दा– इन लड़कों की बातें ऐसी ही होती है। यह क्या जानें, माँ-बाप के दिल पर क्या गुजराती है। जाओ, कहो-सुनो, धिक्कारो, आँखें चार होने पर कुछ-न-कुछ मुरौवत आ ही जाती है।

बिलासी– हाँ, अपनी वाली कर लो। आगे जो भाग में बदा है वह तो होगा ही।

नौ बज चुके थे। प्रकृति कुहरे के सागर में डूबी हुई थी। घरों के द्वार बन्द हो चुके थे। अलाव भी ठण्डे हो गये थे। केवल सुक्खू चौधरी के कोल्हाड़े में गुड़ पक रहा था। कई आदमी भट्ठे के सामने आग ताप रहे थे। गाँव की गरीब स्त्रियाँ अपने-अपने घड़े लिये गरम रस की प्रतीक्षा कर रही थीं। इतने में मनोहर आकर सुक्खू के पास बैठ गया। चौधरी अभी चौपाल से लौटे थे और अपने मेलियों से दरोगा जी की सज्जनता की प्रशंसा कर रहे थे। मनोहर को देखते ही बात बदल दी और बोले– आओ मनोहर, बैठो। मैं तो आप ही तुम्हारे पास आने वाला था। कड़ाह की चासनी देखने लगा। इन लोगों को चासनी की परख नहीं है। कल एक पूरा ताव बिगड़ गया। दरोगा जी तो बहुत मुह फैला रहे हैं। कहते हैं, सबसे मुचलका लेंगे। उस पर सौ की थैली अलग माँगते हैं। हाकिमों के बीच में बोलना जान जोखिम है। जरा-सी सुई का पहाड़ हो गया। मुचलका का नाम सुनते ही सब लोग थरथरा रहे हैं, अपने-अपने बयान बदलने पर तैयार हो रहे हैं।

मनोहर– तब तो बल्लू के फँसने में कोई कसर ही न रही?

सुक्खू– हाँ बयान बदल जायेंगे तो उसका बचना मुश्किल है। इसी मारे मैंने अपना बयान न दिया था। खाँ साहब बहुत दम-भरोसा देते रहे, पर मैंने कहा, मैं न इधर हूँ, न उधर हूँ। न आप से बिगाड़ करूँगा, न गाँव से बुरा बनूँगा। इस पर बुरा मान गये। सारा गाँव समझता है कि खाँ साहब से मिला हुआ हूँ, पर कोई बता दे कि उनसे मिलकर गाँव की क्या बुराई की? हाँ, उनके पास उठता-बैठता हूँ इतने से ही जब मेरा बहुत-सा काम निकलता है तब व्यवहार क्यों तोड़ूँ? मेल से जो काम निकलता है वह बिगाड़ करने से नहीं निकलता हमारा सिर ज़मींदार के पैरों तले रहता है। ऐसे देवता को राजी रखने ही में अपनी भलाई है।

मनोहर– अब मेरे लिए कौन-सी राह निकालते हो?

सूक्खू– मैं क्या कहूँ गाँव का हाल तो जानते ही हो। तुम्हारी खातिर कोई न मानेगा। बस, या तो भगवान का भरोसा है या अपनी गाँठ का।

मनोहर ने सुक्खू से ज्यादा बातचीत नहीं की। समझ गया कि यह मुझे मुड़वाना चाहते हैं। कुछ दरोगा को देंगे, कुछ गौस खाँ के साथ मिलकर आप खा जायेंगे। इन दिनों उसका हाथ बिलकुल खाली था। नई गोली लेनी पड़ी, सब रुपये हाथ से निकल गये। खाँ साहब ने सिकमी खेत निकाल लिए थे। इसलिए रब्बी की भी आशा कम थी। केवल ऊख का भरोसा था लेकिन बिसेसर साह के रुपये चुकाने थे और लगान भी बेबाक करना था। गुड़ से इससे अधिक और कुछ न हो सकता था दूसरा ऐसा कोई महाराज न था जिससे रुपये उधार मिल सकते। वह यहाँ से उठकर डपटसिंह के घर की ओर चला, पर अभी तक कुछ निश्चय न कर सका था कि उनसे क्या कहूँगा। वह भटके हुए पथिक की भाँत एक पगड़ंडी पर चला जा रहा था, बिलकुल बेखबर कि यह रास्ता मुझे कहाँ लिये जाता है, केवल इसलिए कि एक जगह खड़े रहने से चलते रहना अधिक सन्तोषप्रद था। क्या हानि है, यदि लोग मुचलक देने पर राजी हो जायें। यह विधान इतना दूरस्थ था कि वहाँ तक उसका विचार भी न पहुँच सकता था।

डपटसिंह के दालान में एक मिट्टी के तेल की कुप्पी जल रही थी। भूमि पर पुआल बिछी हुई थी और कई आदमी लड़के एक मोटे टाट का टुकड़ा ओढ़े, सिमटे पड़े थे। एक कोने में कुतिया बैठी हुई पिल्लों को दूध पिला रही थी। डपटसिंह अभी सोये न थे। सोच रहे थे कि सुक्खू के कोल्हाड़े से गर्म रस आ जाय तो पीकर सोए। उनके छोटे भाई झपटसिंह कुप्पी के सामने रामायण लिये आँखें गड़ा-गड़ा कर पढ़ने का उद्योग कर रहे थे। मनोहर को देखकर बोले, आओ महतो, तुम तो बड़े झमेले में पड़ गये।

मनोहर– अब तो तुम्हीं लोग बचाओ तो बच सकते हैं।

डपट– तुम्हें बचाने के लिए हमने कौन-सी बात उठा रखी? ऐसा बयान दिया कि बलराज पर कोई दाग नहीं आ सकता था, पर भाई मुचलका तो नहीं दे सकते। आज मुचलका दे दें, कल को गौस खाँ झूठो कोई सवाल दे दे तो सजा हो जाय।

मनोहर– नहीं भैया, मुचलका देने को मैं आप ही न कहूँगा डपटसिंह मनोहर के सदिच्छुक थे, पर इस समय उसे प्रकट न कर सकते थे। बोले, परमात्मा बैरी को भी कपूत सन्तान न दे। बलराज ने कील झूठ-मूठ बतबढ़ाव न किया होता तो तुम्हें क्यों इस तरह लोगों की चिरौरी करनी पड़ती।

हठात् कादिर खाँ की आवाज यह कहते हुए सुनाई दी, बड़ा न्याय करते हो ठाकुर, बलराज ने झूठ-मूठ बतबताव किया था तो उसी घड़ी में डाँट क्यों न दिया? तब तो तुम भी बैठे मुस्कराते रहे और आँखों से इस्तालुक देते रहे। आज जब बात बिगड़ गई है तो कहते हो झूठ-मूठ बतबढ़ाव किया था। पहले तुम्हीं ने अपनी लड़की का रोना-रोया था, मैंने अपनी रामकहानी कही थी। यही सब सुन-सुन कर बलराज भर बैठा था। ज्यों ही मौका मिला, खुल पड़ा। हमने और तुमने रो-रोकर बेगार की, पर डर के मारे मुँह न खोल सके। वह हिम्मत का जवान है, उससे बरदास न हुई। वह जब हम सभी लोगों की खातिर आगे बढ़ा तो यह कहाँ का न्याय है कि मुचलके के डर से उसे आग में झोंक दें?

डपटसिंह ने विस्मित होकर कहा– तो तुम्हारी सलाह है कि मुचलका दे दिया जाय?

कादिर– नहीं मेरी सलाह नहीं है। मेरी सलाह है कि हम लोग अपने-अपने बयान पर डटे रहें। अभी कौन जानता है कि मुचलका देना ही पड़ेगा। लेकिन अगर ऐसा हो तो हमें पीठ न फेरनी चाहिए। भला सोचो, कितना बड़ा अन्धेर है कि हम लोग मुचलके के डर से अपने बयान बदल दें। अपने ही लड़के को कुएँ में ढकेल दें।

मनोहर ने कादिर मियाँ को अश्रुपूर्ण नेत्रों से देखा। उसे ऐसा जान पड़ा मानो यह कोई देवता है। कादिर की सम्मति जो साधारण न्याय पर स्थिर थी, उसे अलौकिक प्रतीत हुई। डपटसिंह को भी यह सलाह सयुक्तिक ज्ञात हुई। मुचलके की शंका कुछ कम हुई। मन में अपनी स्वार्थपरता पर लज्जित हुए, तिस पर भी मन से यह विचार न निकल सका कि प्रस्तुत विषय का सारा भार बलराज के सिर है। बोले-कादिर भाई, यह तो तुम नाहक कहते हो कि मैंने बलराज को इस्तालुक दिया। मैंने बलराज से कब कहा कि तुम लस्कर वालों से तूलकलाम करना। यह रार तो उसने आप ही बढ़ायी। उसका स्वभाव ही ऐसा कड़ा ठहरा। आज को सिपाहियों से उलझा है, कल को किसी पर हाथ ही चला दे तो हम लोग कहाँ तक उसकी हिमायत करते फिरेंगे?

कादिर– तो मैं तुमसे कब कहता हूँ कि उसकी हिमायत करो। वह बुरी राह चलेगा तो आप ठोकर खाएगा। मेरा कहना यही है कि हम लोग अपनी आँखों की देखी और कानों की सुनी बातों में किसी के भय से उलट-फेर न करें। अपनी जान बचाने के लिए फरेब न करें। मुचलके की बात ही क्या, हमारा धरम है कि अगर सच कहने के लिए जेहल भी जाना पड़े तो सच से मुँह न मोड़ें।

डपटसिंह को अब निकलने का कोई रास्ता न रहा, किन्तु फिर भी इस निश्चय को व्यावहारिक रूप में मानने का कोई सम्भावित मार्ग निकल आने की आशा बनी हुई थी। बोले– अच्छा मान लो हम और तुम बयान पर अड़े रहे, लेकिन बिसेसर और दुखरन को क्या करोगे? वह किसी विध न मानेंगे।

कादिर– उनको भी खींचे लाता हूँ, मानेंगे कैसे नहीं। अगर अल्लाह का डर है तो कभी निकल ही नहीं सकते।

यह कहकर कादिर खाँ चले गये और थोड़ी देर में दोनों आदमियों को साथ लिये आ पहुँचे। बिसेसर साह ने तो आते ही डपटसिंह की ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से आँखें नचा कर देखा, मानों पूछना चाहते थे कि तुम्हारी क्या सलाह है, और दुखरन भगत, जो दोनों जून मन्दिर में पूजा करने जाया करते थे। और जिन्हें राम-चर्चा से कभी तृप्ति न होती थी, इस तरह सिर झुकाकर बैठ गये, मानों उन पर वज्रपात हो गया है या कादिर खाँ उन्हें किसी गहरी खोह में गिरा रहे हैं।

इन्हें यहाँ बैठाकर कादिर खाँ ने अपनी पगड़ी से थोड़ी-सी तमाखू निकाली, अलाव से आग लाये और दो-तीन दम लगाकर चिलम को डपटसिंह की ओर बढ़ाते हुए बोले– कहो भगत, कल दरोगा जी के पास चलकर क्या करना होगा।

दुखरन– जो तुम लोग करोगे वही मैं भी करूँगा, हाँ, मुचलका न देना पड़े। कादिर ने फिर उसी युक्ति से काम लिया, जो डपटसिंह को समाधान करने में सफल हुई थी! सीधे किसान वितण्डावादी नहीं होते। वास्तव में इन लोगों के ध्यान में यह बात ही न आयी थी कि बयान का बदलना प्रत्यक्ष जाल है। कादिर खाँ ने इस विषय का निदर्शन किया तो उन लोगों की सरल सत्य-भक्ति जाग्रत हो गयी। दुखरन शीघ्र ही उनसे सहमत हो गये। लेकिन कारबार होता था। डेवढ़ी-सवाई चलती थी, लेन-देन करते थे, दो हल की खेती होती थी, गाँजा-भाँग, चरस आदि का ठीका भी ले लिया था, पर उनका भेष-भाव उन्हें अधिकारियों के पंजे से बचाता रहता था। बोले– भाई, तुम लोगों का साथ देने में मैं कहीं का न रहूँगा, चार पैसे का लेन-देन है। नरमी-गरमी, डाँट-डपट किये बिना काम नहीं चल सकता। रुपये लेते समय तो लोग सगे भाई बन जाते हैं, पर देने की बारी आती है तो कोई सीधे मुँह बात नहीं करता। यह रोजगार ही ऐसा है कि अपने घर की जमा देकर दूसरों से बैर मोल लेना पड़ता है। आज मुचलका हो जाए, कल को कोई मामला खड़ा हो जाए, तो गाँव में सफाई के गवाह तक न मिलेंगे और फिर संसार में रहकर अधर्म से कहाँ तक बचेंगे? यह तो कपट लोक है। अपने मतलब के लिए दंगा, फरेब, जाल सभी कुछ करना पड़ता है। आज धर्म का विचार करने लगूँ, तो कल ही सौ रुपये साल का टिकट बंध जाय, असामियों से कौड़ी न वसूल हो और सारा कारबार मिट्टी में मिल जाय। इस जमाने में जो रोजगार रह गया है इसी बेईमानी का रोजगार है। क्या हम हुए, क्या तुम हुए, सबका एक ही हाल है, सभी सन् की गाँठों में मिट्टी और लकड़ी भरते हैं, तेलहन और अनाज में मिट्टी और कंकर मिलाते हैं। क्या यह बेईमानी नहीं है? अनुचित बात कहता होऊँ तो मेरे मुँह पर थप्पड़ मारो। तुम लोगो को जैसा गौं पड़े वैसा करो, पर मैं मुचलका देने पर किसी तरह राजी नहीं हो सकता।

स्वार्थ– नीति का जादू निर्बल आत्माओं पर खूब चलता है। दुखरन और डपटसिंह को यह बातें अतिशय न्याय-संगत जान पड़ीं। यही विचार हृदय में भी थे, पर किसी कारण से व्यक्त न हो सके थे। दोनों ने एक-दूसरे को मार्मिक दृष्टि से देखा। डपटसिंह बोले– भाई, बात तो सच्ची करते हो, संसार में रहकर सीधी राह पर कोई नहीं चल सकता। अधर्म से बचना चाहे तो किसी जंगल-पहाड़ में जाकर बैठे। यहाँ निबाह नहीं।

कादिर खाँ समझ गये कि साहु जी धर्म और न्याय का कुछ बस न चलेगा। यह उस वक्त तक काबू में न आयेंगे जब तक इन्हें यह न सूझेगा कि बयान बदलने में कौन-कौन-सी बाधाएँ उपस्थित हो सकती हैं। बोले– साहु जी, तुम जो बात कहते हो। संसार में रहकर अधर्म से कहाँ तक कोई बचेगा? रात-दिन तो छलकपट करते रहते हैं! जहाँ इतने पापों का दण्ड भोगना है, एक पाप और सही। लेकिन यहाँ धर्म का ही विचार नहीं है न। डर तो यह है कि बयान बदलकर हम लोग किसी और संकट में न फँस जाएँ। पुलिस वाले किसी के नहीं होते। हम लोगों का पहला बयान दारोगा जी के पास रखा हुआ है। उस पर हमारे दसखत और अँगूठे के निशान भी मौजूद हैं। दूसरा बयान लेकर वह हम लोगों को जालसाजी में गिरफ्तार कर लें तो सोचो कि क्या हो? सात बरस से कम की सजा न होगी। न भैया, इससे तो मुचलका ही अच्छा। आँख से देखकर मक्खी क्यों निगलें?

विसेसर साह की आँखें खुलीं। और लोग भी चकराए। कादिर खाँ की यह युक्ति काम कर गयी। लोग समझ गये कि हम लोग बुरे फँस गये हैं और किसी तरह से निकल नहीं सकते। बिसेसर का मुँह लटक गया मानों रुपये की थैली गिर गई हो। बोले, दारोगा जी ऐसे आदमी तो नहीं जान पड़ते। कितना हो हैं तो हमारे मालिक ही, कुछ-न-कुछ मुलाहिजा तो करेंगे ही, लेकिन किसी के मन का हाल परमात्मा ही जान सकता है। कौन जाने, उनके मन में कपट समा जाये तब तो हमारा सत्यानाश ही हो जाये। तो यही सलाह पक्की कर लो कि न बयान बदलेंगे, न दारोगा जी के पास जायेंगे। अब तो जाल में फँस गये हैं। फड़फड़ाने से फँदे और भी बन्द हो जायेंगे। चुपचाप राम आसरे बैठे रहना ही अच्छा है।

इस प्रकार आपस में सलाह करके लोग अपने-अपने घर गये। कादिर खाँ की व्यवहार पटुता ने विजय पायी।

बाबू दयाशंकर नियमानुसार आठ बजे सोकर उठे और रात की खुमारी उतारने के बाद इन लोगों की राह देखने लगे। जब नौ बजे तक किसी की सूरत न दिखाई दी तो गौस खाँ से बोले– कहिए खाँ साहब, यह सब न आएँगे क्या? देर बहुत हुई?

गौस– खाँ-क्या जाने कल सबों में क्या मिस्कौट हुई। क्यों सुक्खू, रात मनोहर तुम्हारे पास आया था न?

सूक्खू– हाँ, आया तो था, पर कुछ मामले की बातचीत नहीं हुई। कादिर मियाँ बड़ी रात तक सबके घर-घर घूमते रहे। उन्होंने सबों को मन्त्र दिया होगा।

गौस खाँ– जरूर उसकी शरारत है। कल पहर रात तक सब लोग बयान बदलने पर आमादा थे। मालूम होता है जब से लोग यहाँ से गये हैं तो उसे पट्टी पढ़ाने का मौका मिल गया। मैं जानता तो सबों को यहीं सुलाता। यह मलऊन कभी अपनी हरकत से बाज नहीं आता। हमेशा भाँजी मारा करता है।

दया– अच्छी बात है, तो मैं अब रिपोर्ट लिख डालता हूँ। मुझे गाँव वालों की तरह से किसी किस्म की ज्यादती का सबूत नहीं मिलता।

गौस खाँ– हुजूर, खुदा के लिए ऐसी रिपोर्ट न लिखे, वरना यह सब और शेर हो जायेंगे। हुजूर, महज अफसर नहीं है, मेरे आका भी तो हैं। गुलाम ने बहुत दिनों तक हुजूर का नमक खाया है, ऐसा कुछ कीजिए कि यहाँ मेरा रहना दुश्वार न हो जाय। मैं तो हुजूर और बाबू ज्ञानशंकर को एक ही समझता हूँ। मैं यही चाहता हूँ कि बलराज को कम-से-कम एक माह की सजा हो जाये और बाकी से मुचकला ले लिया जाय। यह इनायत खास मुझ पर होगी। मेरी धाक बँध जायेगी। और आइन्दा से हुक्काम की बेगार में जरा भी दिक्कत न होगी।

दयाशंकर– आपका फरमान बजा है, पर मैं इस वक्त न आपके पास आका की हैसियत में हूँ और न मेरा काम हुक्काम के लिए बेगार पहुँचाना है। मैं तशखीम करने आया हूँ और किसी के साथ रू-रिआयत नहीं कर सकता। यह तो आप जानते ही हैं कि मैंने मुफ्त कलम उठाने का सबक नहीं पढ़ा। किसी पर जब्र नहीं करता, सख्ती नहीं करता, सिर्फ काम की मजदूरी चाहता हूँ खुशी से जो मुझसे काम लेना चाहे उजरत पेश करे। और मुझे महज अपनी फिक्र तो नहीं मेरे मातहत और भी तो कितने ही छोटी-छोटी तनख्वाहों के लोग हैं। उनका गुजर कैसे हो? गाँव में आपकी धाक बध जायगी, इससे मेरा फायदा? आप आसामियों को लूटेंगे, मेरी गरज? गाँववालों से मेरी कोई दुश्मनी नहीं, कसम खा चुका हूँ, कि अब एक सौ से कम की तरफ निगाह न उठाऊंगा, यह रकम चाहे आप दें या काला चोर दे। मेरे सामने रकम आनी चाहिए। गुनाहें बेलज्जत नहीं कर सकता।

गौस खाँ ने बहुत मिन्नत समाअत की। अपनी हीन दशा का रोना रोया, अपनी दुरवस्था का पचड़ा गाया, पर दारोगा जी टस से मस न हुए। खाँ साहब ने लोगों को नीचा दिखाने का निश्चय किया था, इसी में उनका कल्याण था। दारोगा जी के पूजार्पण के सिवा अन्य कोई उपाय न था। सोचा, जब मेरी धाक जम जायेगी तो ऐसे-ऐसे कई सौ का वारा-न्यारा कर दूँगा। कुछ रुपये अपने सन्दूक से निकाले, कुछ सुक्खू चौधरी से लिये और दारोगा जी की खिदमत में पेश किए। यह रुपये उन्होंने अपने गाँव में एक मसजिद बनवाने के लिए जमा किए थे। निकालते हुए हार्दिक बेदना हुई, पर समस्या ने विवश कर दिया था। दयाशंकर ने काले-काले रुपयों का ढेर देखा तो चेहरा खिल उठा। बोले– अब आपकी फतह है। वह रिपोर्ट लिखता हूँ कि मिस्टर ज्वालासिंह भी फड़क जायें। मगर आपने यह रुपये जमीन में दफन कर रखे थे क्या?

गौस खाँ– अब हुजूर कुछ न पूछें। बरसों की कमाई है। ये पसीने के दाग हैं।

दयाशंकर– (हँसकर) आपके पसीने के दाग तो न होंगे, हाँ असामियों के खूने जिगर के दाग हैं।

दस बजे रिपोर्ट तैयार हो गयी। दो दिन तक सारे गाँव में कुहराम मचा रहा। लोग तलब हुए। फिर सबके बयान हुए। अन्त में सबसे सौ-सौ रुपये के मुचलके ले लिये गये। कादिर खाँ का घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया।

शाम हो गयी थी। बाबू ज्वालासिंह शिकार खेलने गये हुए थे। फैसला कल सुनाया जाने वाला था। गौस खाँ ईजाद हुसेन के पास आकर बैठ गये और बोले, क्या डिप्टी साहब अभी शिकार से वापस नहीं आये?’

ईजाद हुसेन– कहीं घड़ी रात तक लौटेंगे। हुकूमत का मजा तो दौरे में ही मिलता है। घण्टे आध घण्टे कचहरी की, बाकी सारे दिन मटरगश्ती करते रहे रोजनामचा भरने को लिख दिया, परताल करते रहे।

गौस खाँ– आपको तो मालूम ही हुआ होगा, दारोगा जी ने मुझे आज खूब पथा।

ईजाद– इन हिन्दुओं से खुदा समझें। यह बला के मतअस्सिब होते हैं। हमारे साहब बहादुर भी बड़े मुन्सिफ बनते हैं, मगर जब कोई कोई जगह खाली होती है तो वह हिन्दू को ही देते हैं। अर्दली चपरासी मजीद को आप जानते होंगे। अभी हाल में उसने जिल्दबन्दी की दुकान खोल ली, नौकरी से इस्तीफा दे दिया। आपने उसकी जगह एक गँवार अहीर को मुकर्रर कर लिया। है तो अर्दली चपरासी, पर उसका काम है गायें दुहना, उन्हें चारा-पानी देना। दौरे के चौकीदारों में दो कहार रख लिये हैं। उनसे खिदमतगारी का काम लेते हैं। जब इन हथकण्डों से काम चले तो बेगार की जरूरत ही क्या? हम लोगों को अलबत्ता हुक्म मिला है। बेगार न लिया करो।

सूर्य अस्त हुए। खाँ साहब को याद आ गया कि नमाज का वक्त गुजरा जाता है वजू किया और एक पेड़ के नीचे नमाज पढ़ने लगे।

इतने में बिसेसर साह ने रावटी के द्वार पर आकर अहलमद साहब को अदब से सलाम किया। स्थूल शरीर, गाढ़े की मिर्जई, उस पर गाढ़े की दोहर, सिर पर एक मैली-सी पगड़ी, नंगे पाँव, मुख मलिन, स्वार्थपूर्ण विनय की मूर्ति बने हुए थे। एक चपरासी ने डाँट कर कहा, यहाँ घुसे चले आते हो? कुछ अफसरों का अदब-लिहाज भी है?

बिसेसर साह दो-तीन पग पीछे हट गये और हाथ बाँधकर बोले– सरकार एक बिनती है। हुक्म हो तो अरज करूँ।

ईजाद– क्या कहते हो। तुम लोगों के मारे तो दम मारने की फुर्सत नहीं जब देखो, एक-न-एक आदमी शैतान की तरह सिर पर सवार रहता है।

बिसेसर– हुजूर, बड़ी देर से खड़ा हूँ।

ईजाद– अच्छा, खैर अपना मतलब कहो।

बिसेसर– यही अरज है हुजूर कि मुझसे मुचलका न लिया जाय। बड़ा गरीब हूँ सरकार, मिट्टी में मिल जाऊँगा।

अहलमद साहब के यहाँ ऐसे गरज के बावले, आँख के अन्धे, गाँठ के पूरे नित्य ही आया करते थे। वह उनके कल-पुरजे खूब जानते थे। पहले मुँह फेरा, फिर अपनी विवशता प्रकट की पर भाव ऐसा शीलपूर्ण बनाये रखा कि शिकार हाथ से निकल न जाये। अन्त में मामले पर आये, रुपये लेते हुए ऐसा मुँह बनाया, मानो दे रहें हों। साह जी को दिलासा देकर बिदा किया।

चपरासी ने पूछा– क्या इससे मुचलका न लिया जायेगा?

ईजाद– लिया क्यों न जायेगा? फैसला लिखा हुआ तैयार है। इसके लिए जैसे-सौ, वैसे एक सौ बीस। मैंने उससे यह हर्गिज नहीं कहा कि तुम्हें मुचलका से निजात दिला दूँगा। महज इतना कह दिया कि तुम्हारे लिए अपने इमकान-भर कोशिश करूँगा। उसकी तसकीन इतने से ही हो गयी तो मुझे ज्यादा सर दर्द की क्या जरूरत थी? रिश्वत को लोग नाहक बदनाम करते है। इस वक्त मैं इससे रुपये न लेता, तो इसकी न जाने क्या हालत होती। मालूम नहीं कहाँ-कहाँ दौड़ता और क्या-क्या करता? रुपये देकर इसके सिर का बोझ हलका हो गया। और दिल पर से बोझ उतर गया। इस वक्त आराम से खायेगा। और मीठी नींद सोयेगा, कल कह दूँगा, भाई, क्या करूँ, बहुत-पैर मारे, पर डिप्टी साहब राजी न हुए। मौका देखूँगा तो एक चाल और चलूँगा। कहूँगा, डिप्टी साहब को कुछ नजर दिए बिना काम पूरा न होगा। सौ रुपये पेश करो तो तुम्हारा मुचलका रद्द करा दूँ। यह चाल चल गयी तो पौ बाहर हैं। इसी का नाम ‘हम खुर्मा व हम सवाब’ है। मैंने कोई ज्यादती नहीं की, कोई जब्र नहीं किया। यह गैबी इमदाद है। इसी से मैं हिन्दुओं के मसलये तनासुख का कायल हूँ। जरूर इससे पहले की जिन्दगी में इस आदमी पर मेरे कुछ रुपये आते होंगे। खुदा ने उसके अदा होने की वह सूरत पैदा कर दी। देखते तो हो, आये दिन ऐसे शिकार फँसा करते हैं, गोया उन्हें रुपयों से कोई चिढ़ है। दिल में उनकी हिमाकत पर हँसता हूँ और अल्लाह का शुक्र अदा करता हूँ कि ऐसे बन्दे न पैदा करता तो हम जैसों का गुजर क्योंकर होता?

14.

राय साहब को नैनीताल आये हुए एक महीना हो गया। ‘‘एक सुरम्य झील के किनारे हरे-भरे वृक्षों के कुन्ज में उनका बँगला स्थित है, जिसका एक हजार रुपया मासिक किराया देना पड़ता है। कई घोड़े हैं, कई मोटर गाड़ियाँ, बहुत-से नौकर। यहाँ वह राजाओं की भाँति शान से रहते हैं। कभी हिमराशियों की सैर, कभी शिकार, कभी झील में बजरों की बहार, कभी पोलो और गोल्फ, कभी सरोद और सितार, कभी पिकनिक और पार्टियाँ, नित्य नए जल्से, नए प्रमोद होते रहते हैं। राय साहब बड़ी उमंग के साथ इन विनोदों की बहार लूटते हैं। उनके बिना किसी महफिल, किसी जलसे का रंग नहीं जमता। वह सभी बरातों के दूल्हें हैं। व्यवस्थापक सभा की बैठकें नियमित समय पर हुआ करती हैं, पर मेम्बरों के रागरंग को देखकर यह अनुमान करना कठिन है कि वह आमोद को अधिक महत्त्व का विषय समझते हैं या व्यवस्थाओं के सम्पादक को।

किन्तु ज्ञानशंकर के हृदय की कली यहाँ भी न खिली। राय साहब ने उन्हें यहाँ के समाज से परिचित करा दिया, उन्हें नित्य दावतों और जलसों में अपने साथ ले जाते, अधिकारियों से उनके गुणों की प्रशंसा करते, यहाँ तक कि उन्हें लेडियों से भी इण्ट्रोड्यूस कराया। इससे ज्यादा वह और क्या कर सकते थे? इस भित्ति पर दीवार उठाना उनका काम था, पर उनकी दशा उस पौधे की-सी थी जो प्रतिकूल परिस्थिति में जाकर माली के सुव्यवस्था करने पर भी दिनों-दिन सूखता जाता है। ऐसा जान पड़ता था कि वह किसी गहन घाटी में रास्ता भूल गये हैं। रत्न जटित लेडियों के सामने वह शिष्टाचार के नियमों के ज्ञाता होने पर भी झेंपने लगते थे। राय साहब उन्हें प्रायः एकान्त में सभ्य व्यवहार के उपदेश किया करते। स्वयं नमूना बन कर उन्हें सिखाते, पुरुषों से क्योंकर बिना प्रयोजन ही मुस्कुराकर बातें करनी चाहिए, महिलाओं के रूप-लावण्य की क्योंकर सराहना करनी चाहिए, किन्तु अवसर पड़ने पर ज्ञानशंकर का मतिहरण हो जाता था। उन्हें आश्चर्य होता था कि राय साहब इस वृद्धावस्था में भी लेडियों के साथ कैसे घुल-मिल जाते हैं, किस अन्दाज से बातें करते हैं कि बनावट का ध्यान भी नहीं हो सकता, मानों इसी जलवायु में उनका पालन-पोषण हुआ है।

एक दिन वह झील के किनारे एक बेंच पर बैठे हुए थे। कई लेडियाँ एक बजरे पर जल-क्रीड़ा कर रही थीं। इन्हें पहचानकर उन्होंने इशारे से बुलाया और सैर करने की दावत दी। इस समय ज्ञानशंकर की मुखाकृति देखते ही बनती थी। उन्हें इन्कार करने के शब्द न मिले। भय हुआ कि कहीं असभ्यता न समझी जाय। झेंपते हुए बजरे में जा बैठे, पर सूरत बिगड़ी हुई, दुःख और ग्लानि की सजीव मूर्ति। हृदय पर एक पहाड़ का बोझ रखा हुआ था। लेडियों ने उनकी यह दशा देखी, तो आड़े हाथों लिया और इतनी फबतियाँ कसीं, इतना बनाया कि इस समय कोई ज्ञानशंकर को देखता तो पहचान न सकता। मालूम होता था। आकृति ही बिगड़ गयी है। मानो कोई बन्दर का बच्चा नटखट लड़कों के हाथों पड़ गया हो। आँखों में आँसू भरे एक कोने में दबके सिमटे बैठे हुए अपने दुर्भाग्य को रो रहे थे। बारे किसी तरह इस विपत्ति से मुक्ति हुई, जान में जान आई। कान पकड़े कि फिर लेडियों के निकट न जाऊँगा।

शनैः-शनैः ज्ञानशंकर को इन खेल-तमाशों से अरुचि होने लगी। अंगूर खट्टे हो गये। ईर्ष्या, जो अपनी क्षुद्रताओं की स्वीकृति है, हृदय का काँटा बन गयी। रात-दिन इसकी टीस रहने लगी। उच्चाकांक्षाएँ उन्हें पर्वत के पादस्थल तक ले गयी; लेकिन ऊपर न ले जा सकीं। वहीं हिम्मत हारकर बैठ गये और उन धुन के पूरे, साहसी पुरुषों की निन्दा करने लगे, जो गिरते-पड़ते ऊपर चले जाते थे। यह क्या पागलपन है! लोग ख्वाहमख्वाह अँगरेजियत के पीछे लट्ठ लिये फिरते हैं। थोड़ी-सी ख्याति और सत्ता के लिए इतना झंझट और इतने रंग-रोगन पर भी असलियत का कहीं पता नहीं। सब-के-सब बहुरूपिये मालूम होते हैं। अँग्रेज लोग इनके मुँह पर चाहे न हँसे, पर मित्र-मण्डली में सब इन पर तालियाँ बजाते होंगे। और तो और लोग लेडियों के साथ नाचने पर भी मरते हैं। कैसी निर्लज्जता है, कैसी बेहयाई, जाति के नाम पर धब्बा लगाने वालो। राय साहब भी विचित्र जीव हैं। इस अवस्था में आपको भी नाचने की धुन है। ऐसा मालूम होता है मानो उच्छृंखलता सन्देह होकर दूसरों का मुँह चिढ़ा रही है। डॉक्टर चन्द्रशेखर कहने को तो दर्शन के ज्ञाता हैं, पुरुष और प्रकृति जैसे गहन विषयों पर लच्छेदार वक्तृताएँ देते हैं, लेकिन नाचने लगते हैं तो सारा पाण्डित्य धूल में मिल जाता है वह जो राजा साहब हैं इन्द्रकुमार सिंह, मटके की भाँति तोंद निकली हुई है। लेकिन आप भी अपना नृत्य-कौशल दिखाने पर उधार खाये हुये हैं और तुर्रा यह कि सब-के-सब जाति के सेवक और देश के भक्त बनते हैं। जिसे देखिए भारत की दुर्दशा पर आँसू बहाता नजर आता है। यह लोग विलासमय होटलों में शराब और लेमोनेड पीते हुए देश की दरिद्रता और अधोगति का रोना रोते हैं। यह भी फैशन में दाखिल हो गया है।

इस भाँति ज्ञानशंकर की ईर्ष्या देशानुराग के रूप में प्रकट हुई। असफल लेखक समालोचक बन बैठा। अपनी असमर्थता ने साम्यवादी बना दिया। यह सभी रँगे हुए सियार हैं, लुटेरों का जत्था है। किसी को खबर नहीं कि गरीबों पर क्या बीत रही है। किसी के हृदय में दया नहीं। कोई राजा है, कोई ताल्लुकेदार, कोई महाजन, सभी गरीबों का खून चूसते हैं, गरीबों के झोंपड़ों में सेंध मारते हैं और यहाँ आकर देश की अवनति का पचड़ा गाते हैं। भला ही है कि अधिकारी वर्ग इन महानुभावों को मुँह नहीं लगाते। कहीं वह इनकी बातों में आ जाएँ और देश का भाग्य इनके हाथों में दे दें तो जाति का कहीं नाम-निशान न रहे। यह सब दिन दहाड़े लूट खायँ, कोई इन भलेमानसों से पूछे, आप जो लाखों रुपये सैर सपाटों में उड़ा रहे हैं, उससे जाति को क्या लाभ हो रहा है? यही धन यदि जाति पर अर्पण करते तो जाति तुम्हें धन्यवाद देती और तुम्हें पूजती, नहीं तो उसे खबर भी नहीं कि तुम कौन हो और क्या करते हो। उसके लिए तुम्हारा होना न होना बराबर है। प्रार्थी को इस बात से सन्तोष नहीं होता कि तुम दूसरों से सिफारिश करके उसे कुछ दिला दोगे, उसे सन्तोष होगा जब तुम स्वयं अपने पास से थोड़ा सा निकालकर उसे दे दो।

ये द्रोहात्मक विचार ज्ञानशंकर के चित्त को मथने लगे। वाणी उन्हें प्रकट करने के लिए व्याकुल होने लगी। एक दिन वह डॉक्टर चन्द्रशेखर से उलझ पड़े। इसी प्रकार एक दिन राजा इन्द्रकुमार से विवाद कर बैठे और मिस्टर हरिदास बैरिस्टर से तो एक दिन हाथा-पाई की नौबत आ गयी। परिणाम यह हुआ कि लोगों ने ज्ञानशंकर का बहिष्कार करना शुरू किया, यहाँ तक कि राय साहब के बँगले पर आना भी छोड़ दिया। किन्तु जब ज्ञानशंकर ने अपने विचारों को एक प्रसिद्ध अँग्रेजी पत्रिका में प्रकाशित कराया तो सारे नैनीताल में हलचल मच गयी। जिसके मस्तिष्क से ऐसे उत्कृष्ट भाव प्रकट हो सकते थे, उसे झक्की या बक्की समझना असम्भव था। शैली ऐसी सजीव, चुटकियाँ ऐसी तीव्र, व्यंग्य ऐसे मीठे और उक्तियाँ ऐसी मार्मिक थीं कि लोगों को उसकी चोटों में भी आनन्द आता था। नैनीताल समाज का एक वृहत चित्र था। चित्रकार ने प्रत्येक चित्र के मुख पर उसका व्यक्तित्व ऐसी कुशलता से अंकित कर दिया था कि लोग मन-ही-मन कटकर रह जाते थे। लेख में ऐसे कटाक्ष थे कि उसके कितने ही वाक्य लोगों की जबान पर चढ़ गये।

ज्ञानशंकर को शंका थी कि यह लेख छपते ही समस्त नैनीताल उनके सिर हो जायेगा, किन्तु यह शंका निस्तार सिद्ध हुई। जहाँ लोग उनका निरादर और अपमान करते थे, वहाँ अब उनका आदर और मान करने लगे। एक-एक करके लोगों ने उनके पास आकर अपने अविनय की क्षमा माँगी। सब-के-सब एक दूसरे पर की गयी चोटों का आनन्द उठाते थे। डॉक्टर चन्द्रशेखर और राजा इन्द्रकुमार में बड़ी घनिष्टता थी, किन्तु राजा साहब पर दो मुँहे साँप की फबती डाक्टर महोदय को लोट-पोट कर देती थी। राजा साहब भी डाक्टर महाशय की प्रौढ़ा से उपमा पर मुग्ध हो जाते थे। उनकी घनिष्ठता इस द्वेषमय आनन्द में बाधक न होती थी। यह चोटें और चुटकियाँ सर्वथा निष्फल न हुईं। सैर-तमाशों में लोगों का उत्साह कुछ कम हो गया। अगर अन्तःकरण से नहीं तो केवल ज्ञानशंकर को खुश करने के लिए लोग उनसे सार्वजनिक प्रस्तावों में सम्मति लेने लगे। ज्ञानशंकर का साहस और भी बढ़ा। वह खुल्लम-खुला लोगों को फटकारें सुनाने लगे। निन्दक से उपदेशक बन बैठे। उनमें आत्मगौरव का भाव उदय हो गया। अनुभव हुआ कि इन बड़े-बड़े उपाधिधारियों और अधिकारियों पर कितनी सुगमता से प्रभुत्व जमाया जा सकता है। केवल एक लेख ने उनकी धाक बिठा दी। सेवा और दया के जो पवित्र भाव उन्होंने चित्रित किये थे, उनका स्वयं उनकी आत्मा पर भी असर हुआ। पर शोक! इस अवस्था का शीघ्र ही अन्त हो गया। क्वार का आरम्भ होते ही नैनीताल से डेरे कूच होने लगे और आधे क्वार तक वह बस्ती उजाड़ हो गयी। ज्ञानशंकर फिर उसी कुटिल स्वार्थ की उपासना करने लगे। उनका हृदय दिनों-दिन कृपण होने लगा। नैनीताल में भी वह मन-ही-मन राय साहब की फजूलखर्चियों पर कुड़बुड़ाया करते थे। लखनऊ आकर उनकी संकीर्णता शब्दों में व्यक्त होने लगी। जुलाहे का क्रोध दाढ़ी पर उतरता। कभी मुख्तार से, कभी मुहर्रिर से, कभी नौकरों से उलझ पड़ते। तुम लोग रियासत लूटने पर तुले हुए हो, जैसे मालिक वैसे नौकर, सभी की आँखों में सरसों फूली हुई है। मुफ्त का माल उड़ाते क्या लगता है? जब पसीना मार कर कमाते तो खर्च करते भी अखर होती। राय साहब रामलीला-सभा के प्रधान थे। इस अवसर पर हजारों रुपये खर्च करते, नौकरों को नई-नई वरदियाँ मिलतीं, रईसों की दावत की जाती, काजगद्दी के दिन ब्रह्मभोज किया जाता ज्ञानशंकर यह धन का अपव्यय देखकर जलते रहते थे। दीपमालिका के उत्सव की तैयारियाँ देखकर वह ऐसे हताश हुए कि एक सप्ताह के लिए इलाके की सैर करने चले गये।

दिसम्बर का महीना था और क्रिसमस के दिन। राय साहब अँग्रेज अधिकारियों को डालियाँ देने की तैयारियों में तल्लीन हो रहे थे। ज्ञानशंकर उन्हें डालियाँ सजाते देख कर इस तरह मुँह बनाते, मानो वह कोई महाघृणित काम कर रहे हैं। कभी-कभी दबी जबान से उनकी चुटकी भी ले लेते। उन्हें छेड़कर तर्क वितर्क करना चाहते। राय साहब पर इन भावों का जरा भी असर न होता। वह ज्ञानशंकर की मनोवृत्तियों से परिचित जान पड़ते थे। शायद उन्हें जलाने के लिए ही वह इस समय इतने उत्साहशील हो गये थे। यह चिन्ता ज्ञानशंकर की नींद हराम करने के लिए काफी थी। उस पर जब उन्हें विश्वस्त सूत्र से मालूम हुआ कि राय साहब पर कई लाख का कर्ज है तो वह नैराश्त से विह्वल हो गये। एक उद्विग्न दशा में विद्या के पास आकर बोले, मालूम होता है यह मरते दम तक कौड़ी कफन को न छोड़ेंगे। मैं आज ही इस विषय में इनसे साफ-साफ बातें करूँगा और कह दूँगा कि यदि आप अपना हाथ न रोकेंगे तो मुझसे भी जो कुछ बन पड़ेगा कर डालूँगा।

विद्या– उनकी जायदाद है, तुम्हें रोक-टोक करने का क्या अधिकार है। कितना ही उड़ायेंगे तब भी हमारे खाने भर को बचा ही रहेगा। भाग्य में जितना बदा है, उससे अधिक थोड़े ही मिलेगा।

ज्ञान– भाग्य के भरोसे बैठकर अपनी तबाही तो नहीं देखी जाती।

विद्या– भैया जीते होते तब?

ज्ञान– तब दूसरी बात थी। मेरा इस जायदाद से कोई सम्बन्ध न रहता। मुझको उसके बनने-बिगड़ने की चिन्ता न रहती। किसी चीज पर अपने की छाप लगते ही हमारा उससे आत्मिक सम्बन्ध हो जाता है।

किन्तु हा दुर्दैव! ज्ञानशंकर की विषाद-चिन्ताओं का यहीं तक अन्त न था। अभी तक उनकी स्थिति एक आक्रमणकारी सेना की-सी थी। अपने घर का कोई खटका न था। अब दुर्भाग्य ने उनके घर पर छापा मारा। उनकी स्थिति रक्षाकारिणी सेना की-सी हो गयी। उनके बड़े भाई प्रेमशंकर कई वर्ष से लापता थे। ज्ञानशंकर को निश्चय हो गया था कि वह अब संसार में नहीं हैं। फाल्गुन का महीना था। अनायास प्रेमशंकर का एक पत्र अमेरिका से आ पहुँचा कि मैं पहली अप्रैल को बनारस पहुँच जाऊँगा। यह पत्र पाकर पहले तो ज्ञानशंकर प्रेमोल्लास में मग्न हो गये। इतने दिनों के वियोग के बाद भाई से मिलने की आशा ने चित्त को गदगद कर दिया। पत्र लिये हुए विद्या के पास आकर यह शुभ समाचार सुनाया। विद्या बोली– धन्य भाग! भाभी जी की मनोकामना ईश्वर ने पूरी कर दी! इतने दिनों कहाँ थे?

ज्ञान– वहीं अमेरिका में कृषिशास्त्र का अभ्यास करते रहे। दो साल तक एक कृषिशाला में काम भी किया है।

‘‘विद्या– तो आज अभी २५ तारीख है। हम लोग कल परसों तक यहाँ से चल दें। ज्ञानशंकर ने केवल इतना कहा, ‘हाँ, और क्या’ और बाहर चले गये। उनकी प्रफुल्लता एक ही क्षण में लुप्त हो गयी थी और नई चिन्ताएँ आँखों के सामने फिरने लगी थीं, जैसे कोई जीर्ण रोगी किसी उत्तेजक औषधि के असर से एक क्षण के लिए चैतन्य होकर फिर उसी जीर्णावस्था में विलीन हो जाता है। उन्होंने अब तक जो मनसूबे बाँधे थे, जीवन का जो मार्ग स्थिर किया था, उसमें अपने सिवा किसी अन्य व्यक्ति के लिए जगह न रखी थी। वह सब कुछ अपने लिए चाहते थे। अब इन व्यवस्थाओं में बहुत कुछ काट-छाँट करने की आवश्यकता मालूम होती थी। सम्भव है, जायदाद का फिर से बँटवारा करना पड़े। दीवानखाने में दो परिवारों का निर्वाह होना कठिन था। लखनपुर के भी दो हिस्से करने पड़ेंगे! ज्यों-ज्यों वह इस विषय पर विचार करते थे, समस्या और भी जटिल होती जाती थी, चिन्ताएँ और भी विषम होती जाती थी। यहाँ तक की शाम होते-होते उन्हें अपनी अवस्था असह्य प्रतीत होने लगी। वे अपने कमरे में उदास बैठे हुए थे कि राय साहब आकर बोले– वाह, तुमने तो अभी कपड़े भी न पहने, क्या सैर करने न चलोगे?

ज्ञान– जी नहीं, आज जी नहीं चाहता।

राय– कैसरबाग में आज बैंड होगा। हवा कितनी प्यारी है!

ज्ञान– मुझे आज क्षमा कीजिये।

राय– अच्छी बात है, मैं भी न जाऊँगा। आजकल कोई लेख लिख रहे हो या नहीं?

ज्ञान– जी नहीं, इधर तो कुछ नहीं लिखा।

राय– तो अब कुछ लिखो। विषय और सामग्री मैं देता हूँ। सिपाही की तलवार में मोरचा न लगना चाहिए। पहला लेख तो इस साल के बजट पर लिख दो और दूसरा गायत्री पर।

ज्ञान– मैंने तो आजकल कोई बजट सम्बन्धी लेख आद्योपान्त पढ़ा नहीं, उस पर कलम क्योंकर उठाऊँ।

राय– अजी, तो उसमें करना ही क्या है? बजट को कौन पढ़ता है और कौन समझता है। आप केवल शिक्षा के लिए और धन की आवश्यकता दिखाइये और शिक्षा के महत्त्व का थोड़ा-सा उल्लेख कीजिए, स्वास्थ्य-रक्षा के लिए और धन माँगिये और उसके मोटे-मोटे नियमों पर दो चार टिप्पणियाँ कर दीजिये। पुलिस के व्यय में वृद्धि अवश्य ही हुई होगी, मानी हुई बात है। आप उसमें कमी पर जोर दीजिए। और नयी नहरें निकालने की आवश्यकता दिखाकर लेख समाप्त कर दीजिये। बस, अच्छी-खासी बजट की समालोचना हो गयी। लेकिन यह बातें ऐसे विनम्र शब्दों में लिखिए और अर्थसचिव की योग्यता की और कार्यपटुता की ऐसी प्रशंसा कीजिए की वह बुलबुल हो जायँ और समझें कि मैंने उसके मन्तव्यों पर खूब विचार किया है। शैली तो आपकी सजीव है ही, इतना यत्न और कीजियेगा कि एक-एक शब्द से मेरी बहुज्ञता और पाण्डित्य टपके। इतना बहुत है। हमारा कोई प्रस्ताव माना तो जायेगा नहीं, फिर बजट के लेखों को पढ़ना और उस पर विचार करना व्यर्थ है।

ज्ञान– और गायत्री देवी के विषय में क्या लिखना होगा?

राय– बस, एक संक्षिप्त-सा जीवन वृत्तान्त हो। कुछ मेरे कुल का, कुछ उसके कुल का हाल लिखिये, उसकी शिक्षा का जिक्र कीजिए। फिर उसके पति का मृत्यु का वर्णन करने के बाद उसके सुप्रबन्ध और प्रजा-रंजन का जरा बढ़ाकर विस्तार के साथ उल्लेख कीजिए। गत तीन वर्षों में विविध कामों में उसने जितने चन्दें दिये हैं और अपने असामियों की सुदशा के लिए जो व्यवस्थाएँ की हैं, उनके नोट मेरे पास मौजूद हैं। उससे आपको बहुत मदद मिलेगी! उस ढाँचे को सजीव और सुन्दर बनाना आपका काम है। अन्त में लिखिएगा कि ऐसी सुयोग्य और विदुषी महिला का अब तक किसी पद से सम्मानित न होना, शासनकर्ताओं की गुणग्राहकता का परिचय नहीं देता है। सरकार का कर्त्तव्य है कि उन्हें किसी उचित उपाधि से विभूषित करके सत्कार्यों में प्रोत्साहित करें, लेकिन जो कुछ लिखिए जल्द लिखिए, विलम्ब से काम बिगड़ जायेगा।

ज्ञान– बजट की समालोचना तो मैं कल तक लिख दूँगा लेकिन दूसरे लेख में अधिक समय लगेगा। मेरे बड़े भाई, जो बहुत दिनों से गायब थे, पहली तारीख को घर आ रहे हैं। उनके आने से पहले हमें वहाँ पहुँच जाना चाहिए।

राय– वह तो अमेरिका चले गये थे?

ज्ञान– जी हाँ, वहीं से पत्र लिखा है।

राय– कैसे आदमी हैं?

ज्ञान– इस विषय में क्या कह सकता हूँ? आने पर मालूम होगा कि उनके स्वाभाव में क्या परिवर्तन हुआ है। यों तो बहुत शान्त प्रकृति और विचारशील थे।

राय– लेकिन आप जानते हैं कि अमेरिका की जलवायु बन्धु-प्रेम के भाव की पोषक नहीं है। व्यक्तिगत स्वार्थ वहाँ के जीवन का मूल तत्व है और आपके भाई साहब पर उसका असर जरूर ही पड़ा होगा।

ज्ञान– देखना चाहिए, मैं अपनी तरफ से तो उन्हें शिकायत का मौका न दूँगा।

राय– आप दें या न दें, वह स्वयं ढूँढ़ निकालेंगे। सम्भव है, मेरी शंका निर्मूल हो। मेरी हार्दिक इच्छा है कि निर्मूल हो, पर मेरा अनुभव है कि विदेश में बहुत दिनों तक रहने से प्रेम का बन्धन शिथिल हो जाता है।

ज्ञानशंकर अब अपने मनोभावों को छिपा न सके। खुलकर बोले– मुझे भी यही भय है। जब छः साल में उन्होंने घर पर एक पत्र तक नहीं लिखा तो विदित ही है कि उनमें आत्मीयता का आधिक्य नहीं है। आप मेरे पितातुल्य हैं, आपसे क्या पर्दा है? इनके आने से सारे मंसूबे मिट्टी में मिल गये। मैं समझा था, चाचा साहब से अलग होकर दो-चार वर्षों में मेरी दशा कुछ सुधर जायेगी। मैंने ही चाचा साहब को अलग होने पर मजबूर किया, जायदाद की बाँट भी अपनी इच्छा के अनुसार की, जिसके लिए चचा साहब की सन्तान मुझे सदैव कोसती रहेगी, किन्तु सब किया-कराया बेकार गया।

राय साहब– कहीं उन्होंने गत वर्षों के मुनाफे का दावा कर दिया तो आप बड़ी मुश्किल में फँस जायेंगे। इस विषय में वकीलों की सम्मति लिये बिना आप कुछ न कीजिएगा।

इस भाँति ज्ञानशंकर की शंकाओं को उत्तेजित करने में राय साहब का आशय क्या था, इसको समझना कठिन है। शायद यह उनके हृदयगत भावों की थाह लेना चाहते थे अथवा उनकी क्षुद्रता और स्वार्थपरता का तमाशा देखने का विचार था। वह तो यह चिनगारी दिखाकर हवा खाने चल दिये। बेचारे ज्ञानशंकर अग्नि-दाह में जलने लगे। उन्हें इस समय नाना प्रकार की शंकाएँ हो रही थीं। उनका वह तत्क्षण समाधान करना चाहते थे। क्या भाई साहब गत वर्षों के मुनाफे का दावा कर सकते हैं? यदि वह ऐसा करें, तो मेरे लिए भी निकास का कोई उपाय है या नहीं? क्या राय साहब को अधिकार है कि रियासत पर ऋणों का बोझ लादते जायँ? उनकी फजूलखर्ची को रोकने की कोई कानूनी तदबीर हो सकती है या नहीं? इन प्रश्नों से ज्ञानशंकर के चित्त में घोर अशान्ति हो रही थी, उनकी मानसिक वृत्तियाँ जल रही थीं। वह उठकर राय साहब के पुस्तकालय में गये और एक कानून की किताब निकालकर देखने लगे। इस किताब से शंका निवृत न हुई। दूसरी किताब निकाली, यहाँ तक की थोड़ी देर में मेज पर किताबों का ढेर लग गया। कभी इस पोथी के पन्ने उलटते थे, कभी उस पोथी के, किन्तु किसी प्रश्न का सन्तोषप्रद उत्तर न मिला। हताश होकर वे इधर-उधर ताकने लगे। घड़ी पर निगाह पड़ी। दस बजा चाहते थे। किताबें समेटकर रख दीं, भोजन किया, लेटे, किन्तु नींद कहाँ? चित्त की चंचलता निद्रा की बाधक है। अब तक वह स्वयं अपने जीवन-सागर के रक्षा-तट थे। उनकी सारी आकाँक्षाएँ इसी तट पर विश्राम किया करती थीं। प्रेमशंकर ने आकर इस रक्षा– तट को विध्वंस कर दिया था और उन नौकाओं को डावाँडोल। भैया क्योंकर काबू में आयेंगे? खुशामद से? कठिन है, वह एक ही घाघ हैं। नम्रता और विनय से? असम्भव। नम्रता का जवाब सदव्यवहार हो सकता है, स्वार्थ त्याग नहीं। फिर क्या कलह और अपवाद से? कदापि नहीं, इससे मेरा पक्ष और भी निर्बल हो जायेगा। इस प्रकार भटकते-भटकते सहसा ज्ञानशंकर को एक मार्ग दीख पड़ा और वह हर्षोंन्मत्त होकर उछल पड़े! वाह मैं भी कितना मन्द-बुद्धि हूँ। बिरादरी इन महाशय को घर में पैर तो रखने देगी नहीं, यह बेचारे मुझसे क्या छेड़ छाड़ करेंगे? आश्चर्य है, अब तक यह मोटी-सी बात भी मेरे ध्यान में न आयी। राय साहब को भी न सूझी। बनारस आते ही लाला पर चारों ओर से बौछारें पड़ने लगेंगी, उनके वहाँ पैर भी न जमने पायेंगे। प्रकट में मैं उनसे भ्रातृवत व्यवहार करता रहूँगा, बिरादरी की संकीर्णता और अन्याय पर आँसू बहाऊँगा, लेकिन परोक्ष में उसकी कील घुमाता रहूँगा। महीने दो महीने में आप ही भाग खड़े होंगे। शायद श्रद्धा भी उनसे खिंच जाये। उसे कुछ उत्तेजित करना पड़ेगा। धार्मिक प्रवृत्ति की स्त्री है। लोकमत का असर उस पर अवश्य पड़ेगा। बस, मेरा मैदान साफ है। इन महाशय से डरने की कोई जरूरत नहीं। अब मैं निर्भय होकर भ्रातृ-स्नेह आचरण कर सकता हूँ।

इस विचार से ज्ञानशंकर इतने उल्फुल्ल हुए कि जी चाहा चलकर विद्या को जगाऊँ, पर जब्त से काम लिया। इस चिन्ता-सागर से निकलकर अब उन्हें शंका होने लगी कि गायत्री की अप्रसन्नता भी मेरा भ्रम है। मैं स्त्रियों के मनोभावों से सर्वथा अपरिचित हूँ। सम्भव है, मैंने उतावलापन किया हो, पर यह कोई ऐसा अपराध न था कि गायत्री उसे क्षमा न करती। मेरे दुस्साहस पर अप्रसन्न होना उसके लिए स्वाभाविक बात थी। कोई गौरवशाली रमणी इतनी सहज रीति से वशीभूत नहीं हो सकती। अपने सतीत्व-रक्षा का विचार स्वभावतः उसकी प्रेम वासना को दबा देता है। ऐसा न हो तो भी वह अपनी उदासीनता और अनिच्छा प्रकट करने के लिए कठोरता का स्वाँग भरना आवश्यक समझती है। शायद इससे उसका अभिप्राय प्रेम-परीक्षा होता है। वह एक अमूल्य वस्तु है! और अपनी दर गिराना नहीं चाहती। मैं अपनी असफलता से ऐसा दबा कि फिर सिर उठाने की हिम्मत ही न पड़ी। वह यहाँ कई दिन रही। मुझे जाकर उससे क्षमा माँगनी चाहिए थी। वह क्रुद्ध होती तो शायद मुझे झिड़क देती। वह स्वयं निर्दोष बनना चाहती थी और सारा दोष मेरे सिर रखती। मुझे यह वाकप्रहार सहना चाहिए था और थोड़े दिनों में मैं उसके हृदय का स्वामी होता। यह तो मुझसे हुआ नहीं, उलटे आप ही रूठ बैठा, स्वयं उससे आँखें चुराने लगा। उसने अपने मन में मुझे बोदा साहसहीन, निरा बुद्धू समझा होगा। खैर, अब कसर पूरी हुई जाती है। यह मानों अन्तः प्रेरणा है। इस जीवन-चरित्र के निकलते ही उसकी अवज्ञा और अभिमान का अन्त हो जायेगा। मान-प्रतिष्ठा पर जान देती है। राय साहब स्वयं गायत्री के भेष में अवतरित हुए हैं। उसकी यह आकांक्षा पूरी हुई तो फूली न समाएगी और जो कहीं रानी की पदवी मिल गयी तो वह मेरा पानी भरेगी। भैया के झमेले से छुट्टी पाऊँ तो यह खेल शुरू करूँ। मालूम नहीं, अपने पत्रों में कुछ मेरा कुशल-समाचार भी पूछती है या नहीं। चलूँ, विद्या से पूछूँ। अबकी वह इस प्रबल इच्छा को न रोक सके। विद्या बगल के कमरे में सोती थी। जाकर उसे जगाया। चौंककर उठ बैठी और बोली, क्या है? अभी तक सोये नहीं?

ज्ञान– आज नींद ही नहीं आती। बातें करने को जी चाहता है। राय साहब शायद अभी तक नहीं आये।

विद्या– वह बारह बजे के पहले कभी आते हैं कि आज ही आ जायेंगे! कभी-कभी एक दो बज जाते हैं।

ज्ञान– मुझे जरा-सी झपकी आ गई थी। क्या देखता हूँ कि गायत्री सामने खड़ी है, फूट-फूट कर रो रही है, आँखें खुल गईं। तब से करवटें बदल रहा हूँ। उनकी चिट्ठियाँ तो तुम्हारे पास आती हैं न?

विद्या– हाँ, सप्ताह में एक चिट्ठी जरूर आती है। बल्कि मैं जवाब देने में पिछड़ जाती हूँ।

ज्ञान– कभी कुछ मेरे हालचाल भी पूछती हैं?

विद्या– वाह, ऐसा कोई पत्र नहीं होता, जिसमें तुम्हारी क्षेम-कुशल न पूछती हों।

ज्ञान– बुलातीं तो एक बार उनसे जाकर मिल आता।

विद्या– तुम जाओ तो वह तुम्हारी पूजा करें। तुमसे उन्हें बड़ा प्रेम है। ज्ञानशंकर को अब भी नींद नहीं आयी, किन्तु सुख-स्वप्न देख रहे थे।

15.

प्रातः काल था। ज्ञानशंकर स्टेशन पर गाड़ी का इन्तजार कर रहे थे। अभी गाड़ी के आने में आध घण्टे की देर थी। एक अँग्रेजी पत्र लेकर पढ़ना चाहा पर उसमें जी न लगा। दवाओं के विज्ञापन अधिक मनोरंजक थे। दस मिनट में उन्होंने सभी विज्ञापन पढ़ डाले। चित्त चंचल हो रहा था। बेकार बैठना मुश्किल था। इसके लिए बड़ी एकाग्रता की आवश्यकता होती है। आखिर खोंचे की चाट खाने में उनके चित्त को शान्ति मिली। बेकारी में मन बहलाने का यही सबसे सुगम उपाय है।

जब वह फिर प्लेटफार्म पर आये तो सिगनल डाउन हो चुका था। ज्ञानशंकर का हृदय धड़कने लगा। गाड़ी आते ही पहले और दूसरे दरजे की गाड़ियों में झाँकने लगे, किन्तु प्रेमशंकर इन कमरों में न थे। तीसरे दर्जे की सिर्फ दो गाड़ियाँ थीं। वह इन्हीं गाड़ियों के कमरे में बैठे हुए थे। ज्ञानशंकर को देखते ही दौड़कर उनके गले लिपट गये। ज्ञानशंकर को इस समय अपने हृदय में आत्मबल और प्रेमभाव प्रवाहित होता जान पड़ता था। सच्चे भ्रातृ-स्नेह ने मनोमालिन्य को मिटा दिया। गला भर आया और अश्रुजल बहने लगा। दोनों भाई दो-तीन मिनट तक इसी भाँति रोते रहे। ज्ञानशंकर ने समझा था कि भाई साहब के साथ बहुत-सा आडम्बर होगा, ठाट-बाट के साथ आते होंगे, पर उनके वस्त्र और सफर का सामान बहुत मामूली था। हाँ, उनका शरीर पहले से कहीं हृष्ट-पुष्ट था और यद्यपि वह ज्ञानशंकर से पाँच साल बड़े थे, पर देखने में उनसे छोटे मालूम होते थे, और चेहरे पर स्वास्थ्य की कान्ति झलक रही थी।

ज्ञानशंकर अभी तक कुलियों को पुकार ही रहे थे कि प्रेमशंकर ने अपना सब सामान उठा लिया और बाहर चले। ज्ञानशंकर संकोच के मारे पीछे हट गये कि किसी जान-पहचान के आदमी से भेंट न हो जाये!

दोनों आदमी ताँगे पर बैठे, तो प्रेमशंकर बोले– छह साल के बाद आया हूँ, पर ऐसा मालूम होता है कि यहाँ से गये थोड़े ही दिन हुए हैं। घर पर तो सब कुशल है न?

ज्ञान– जी हाँ, सब कुशल है। आपने तो इतने दिन हो गये, एक पत्र भी न भेजा, बिल्कुल भुला दिया। आपके ही वियोग में बाबूजी के प्राण गये।

प्रेम– वह शोक समाचार तो मुझे यहाँ के समाचार पत्र से मालूम हो गया था, पर कुछ ऐसे ही कारण थे कि आ न सका! ‘‘हिन्दुस्तान रिव्यू’’ में तुमने नैनीताल के जीवन पर जो लेख लिखा था, उसे पढ़कर मैंने आने का निश्चय किया। तुम्हारे उन्नत विचारों ने ही मुझे खींचा, नहीं तो सम्भव है, मैं अभी कुछ दिन और न आता। तुम पॉलिटिक्स (राजनीति) में भाग लेते हो न?

ज्ञान– (संकोच भाव से) अभी तक तो मुझे इसका अवसर नहीं मिला। हाँ, उसकी स्टडी (अध्ययन) करता रहता हूँ।

प्रेम– कौन-सा प्रोफेशन (पेशा) अख्तियार किया?

ज्ञान– अभी तो घर के ही झंझटों से छुट्टी नहीं मिली। जमींदारी के प्रबन्ध के लिए मेरा घर रहना जरूरी था। आप जानते हैं यह जंजाल है। एक न एक झगड़ा लगा ही रहता है। चाहे उससे लाभ कुछ न हो पर मन की प्रवृत्ति आलस्य की ओर हो जाती है! जीवन के कर्म-क्षेत्र में उतरने का साहस नहीं होता। यदि यह अवलम्बन न होता तो अब तक मैं अवश्य वकील होता।

प्रेम– तो तुम भी मिल्कियत के जाल में फँस गये और अपनी बुद्धि-शक्तियों का दुरुपयोग कर रहे हो? अभी जायदाद के अन्त होने में कितनी कसर है?

ज्ञान– चाचा साहब का बस चलता तो कभी का अन्त हो चुका होता, पर शायद अब जल्द अन्त न हो मैं चाचा साहब से अलग हो गया हूँ।

प्रेम– खेद के साथ? यह तुमने क्या किया। तब तो उनका गुजर बड़ी मुश्किल से होता होगा?

ज्ञान– कोई तकलीफ नहीं है। दयाशंकर पुलिस में है और जायदाद से दो हजार मिल जाते हैं।

प्रेम उन्हें अलग होने का दुःख तो बहुत हुआ होगा। वस्तुतः मेरे भागने का मुख्य कारण उन्हीं का प्रेम था। तुम तो उस वक्त शायद स्कूल में पढ़ते थे, मैं कॉलेज से ही स्वराज्य आन्दोलन में अग्रसर हो गया। उन दिनों नेतागण स्वराज्य के नाम से काँपते थे। इस आन्दोलन में प्रायः नवयुवक ही सम्मिलित थे। मैंने साल भर बड़े उत्साह के काम किया। पर पुलिस ने मुझे फँसाने का प्रयास शुरू किया। मुझे ज्यों ही मालूम हुआ कि मुझ पर अभियोग चलाने की तैयारियाँ हो रही हैं, त्यों ही मैंने जान लेकर भागने में ही कुशल समझी। मुझे फँसे देखकर बाबू जी तो चाहे धैर्य से काम लेते, चचा साहब निस्सन्देह आत्म-हत्या कर लेते। इसी भय से मैंने पत्र-व्यवहार बन्द कर दिया कि ऐसा न हो, पुलिस यहाँ लोगों को तंग करे। बिना देशाटन किए अपनी पराधीनता का यथेष्ट ज्ञान नहीं होता। जिन विचारों के लिए मैं यहाँ राजद्रोही समझा जाता था उससे कहीं स्पष्ट बातें अमेरिका वाले अपने शासकों को नित्य सुनाया करते हैं, बल्कि वहाँ शासन की समालोचना जितनी ही निर्भीक हो, उतनी ही आदरणीय समझी जाती है। इस बीच में यहाँ भी विचार-स्वातन्त्र्य की कुछ वृद्धि हुई है। तुम्हारा लेख इसका उत्तम प्रणाम है। इन्हीं सुव्यवस्थाओं ने मुझे आने पर प्रोत्साहित किया और सत्य तो यह है कि अमेरिका से दिनोंदिन अभक्ति होती जाती थी। वहाँ धन और प्रभुत्व की इतनी क्रूर लीलाएँ देखीं कि अन्त में उनसे घृणा हो गयी। यहाँ के देहातों और छोटे शहरों का जीवन उससे कहीं सुखकर है। मेरा विचार भी सरल जीवन व्यतीत करने का है। हाँ, यथासाध्य कृषि की उन्नति करना चाहता हूँ।

ज्ञान– यह रहस्य आज खुला। अभी तक मैं और घर से सभी लोग यही समझते थे कि आप केवल विद्योपार्जन के लिए गये हैं। मगर आज कल तो स्वराज्य आन्दोलन बहुत शिथिल पड़ गया। स्वराज्यवादियों की जबान ही बन्द कर दी गयी है।

प्रेम– यह तो कोई बुरी बात नहीं, अब लोग बातें करने की जगह काम करेंगे। हमें बातें करते एक युग बीत गया। मुझे भी शब्दों पर विश्वास नहीं रहा। हमें अब संगठन की, परस्पर-प्रेम व्यवहार की और सामाजिक अन्याय को मिटाने की जरूरत है। हमारी आर्थिक दशा भी खराब हो रही है। मेरा विचार कृषि विधान में संशोधन करने का है। इसलिए मैंने अमेरिका में कृषिशास्त्र का अध्ययन किया है।

यों बातें करते हुए दोनों भाई मकान पर पहुँचे। प्रेमशंकर को अपना घर बहुत छोटा दिखाई दिया। उनकी आँखें अमेरिका की गगनस्पर्शी अट्टालिकाओं को देखने की आदी हो रही थीं। उन्हें कभी अनुमान ही न हुआ था कि मेरा घर इतना पस्त है। कमरे में आये तो उसकी दशा देखकर और भी हताश हो गये। जमीन पर फर्श तक न था। दो-तीन कुर्सियों जरूर थीं, लेकिन बाबा आदम के जमाने की, जिन पर गर्द जमी हुई थी। दीवारों पर तस्वीरें नई थीं, लेकिन बिल्कुल भद्दी और अस्वाभाविक। यद्यपि वह सिद्धान्त रूप से विलास वस्तुओं की अवहेलना करते थे, पर अभी तक रुचि उनकी ओर से न हटी थी।

लाला प्रभाशंकर उनकी राह देख रहे थे। आकर उनके गले से लिपट गये और फूट-फूटकर रोने लगे। मुहल्ले के और सज्जन भी मिलने आ गये। दो-ढाई घण्टों तक प्रेमशंकर उन्हें अमेरिका को वृत्तान्त सुनाते रहे। कोई वहाँ से हटने का नाम न लेता था। किसी को यह ध्यान न होता था कि ये बेचारे सफर करके आ रहे हैं, इनके नहाने खाने का समय आ गया है, यह बातें फिर सुन लेगें। आखिर ज्ञानशंकर को साफ-साफ कहना पड़ा कि आप लोग कृपा करके भाई साहब को भोजन करने का समय दीजिए, बहुत देर हो रही है।

प्रेमशंकर ने स्नान किया, सन्ध्या की और ऊपर भोजन करने गये। उन्हें आशा थी कि श्रद्धा भोजन परसेगी, वहीं उससे भेंट होगी, खूब बातें करूँगा। लेकिन यह आशा पूरी न हुई। एक चौकी पर कालीन बिछा हुआ था थाल परसा रखा था, पर श्रद्धा वहाँ पर उनका स्वागत करने के लिए न थी। प्रेमशंकर को उसकी इस हृदय शून्यता पर बड़ा दुःख हुआ। श्रद्धा से प्रेम उनके लौटने का एक मुख्य कारण था। उसकी याद इन्हें हमेशा तड़पाया करती थी उसकी प्रेम-मूर्ति सदैव उनके हृदय नेत्रों के सामने रहती थी। उन्हें प्रेम के बाह्याडम्बर से घृणा थी। वह अब भी स्त्रियों की श्रद्धा, पति-भक्ति, लज्जाशीलता और प्रेमनुराग पर मोहित थे। उन्हें श्रद्धा को नीचे दीवानखाने में देखकर खेद होता, पर उसे यहाँ न देखकर उनका हृदय व्याकुल हो गया। यह लज्जा नहीं, हया नहीं, प्रेम शैथिल्य है। वह इतने मर्माहत हुए कि जी चाहा इसी क्षण यहाँ से चला जाऊँ और फिर आने का नाम न लूँ, पर धैर्य से काम लिया। भोजन पर बैठे। ज्ञानशंकर से बोले, आओ भाई बैठो। माया कहाँ है, उसे भी बुलाओ, एक मुद्दत के बाद आज सौभाग्य प्राप्त हुआ है।

ज्ञानशंकर ने सिर नीचा करके कहा– आप भोजन कीजिए, मैं फिर खा लूँगा।

प्रेम– ग्यारह तो बज रहे हैं, अब कितनी देर करोगे? आओ, बैठ जाओ। इतनी चीजें मैं अकेले कहाँ तक खाऊँगा? मुझे अब धैर्य नहीं है। बहुत दिनों के बाद चपातियों के दर्शन हुए हैं। हलुआ, समोसे, खीर आदि का तो स्वाद ही मुझे भूल गया। अकेले खाने में मुझे आनन्द नहीं आता। यह कैसा अतिथि सत्कार है कि मैं तो यहाँ भोजन करूँ और तुम कहीं और। अमेरिका में तो मेहमान इसे अपना घोर अपमान समझता।

ज्ञान– मुझे तो इस समय क्षमा ही कीजिए। मेरी पाचन-शक्ति दुर्बल है, बहुत पथ्य से रहता हूँ।

प्रेमशंकर भूल ही गये थे कि समुद्र में जाते ही हिन्दू-धर्म धुल जाता है। अमेरिका से चलते समय उन्हें ध्यान भी न था कि बिरादरी मेरा बहिष्कार करेगी, यहाँ तक कि मेरा सहोदर भाई मुझे अछूत समझेगा। पर इस समय उनके बराबर आग्रह करने पर भी ज्ञानशंकर उनके साथ भोजन करने नहीं बैठे और एक-न-एक बहाना करके टालते रहे तो उन्हें भूली हुई बात याद आ गयी। सामने के बर्तनों ने इस विचार को पुष्ट कर दिया, फूल या पीतल का कोई बर्तन न था। सब बर्तन चीनी के थे और गिलास शीशे का। शंकित भाव से बोले, आखिर यह बात क्या है कि तुम्हें मेरे साथ बैठने में इतनी आपत्ति है? कुछ छूत-छात का विचार तो नहीं है?

ज्ञानशंकर ने झेंपते हुए कहा– अब मैं आपसे क्या कहूँ? हिन्दुओं को तो आप जानते ही हैं, कितने मिथ्यावादी होते हैं। आपके लौटने का समाचार जब से मिला है, सारी बिरादरी में एक तूफान-सा उठा हुआ है। मुझे स्वयं विदेशी यात्रा में कोई आपत्ति नहीं है। मैं देश और जाति की उन्नति के लिए इसे जरूरी समझता हूँ और स्वीकार करता हूँ कि इस नाकेबन्दी से हमको बड़ी हानि हुई है, पर मुझे इतना साहस नहीं है कि बिरादरी से विरोध कर सकूँ।

प्रेम– अच्छा यह बात है! आश्चर्य है कि अब तक क्यों मेरी आँखों पर परदा पड़ा रहा! अब मैं ज्यादा आग्रह नहीं करूंगा। भोजन करता हूँ, पर खेद यह है कि तुम इतने विचारशील होकर बिरादरी के गुलाम बने हुए हो; विशेषकर जब तुम मानते हो कि इस विषय में बिरादरी का बन्धन सर्वथा असंगत है। शिक्षा का फल यह होना चाहिए कि तुम बिरादरी के सूत्रधार बनो, उसको सुधारने का प्रयास करो, न यह कि उसके दबाव से अपने सिद्धान्तों को बलिदान कर दो। यदि तुम स्वाधीन भाव से समुद्र यात्रा को दूषित समझते तो मुझे कोई आपत्ति न होती। तुम्हारे विचार और व्यवहार अनुकूल होते। लेकिन अन्तःकरण से किसी बात से कायल होकर केवल निन्दा या उपहास के भय से उसको व्यवहार न करना तुम जैसे उदार पुरुष को शोभा नहीं देता। अगर तुम्हारे धर्म में किसी मुसाफिर की बातों पर विश्वास करना मना न हो तो मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूँ कि अमेरिका में मैंने कोई ऐसा कर्म नहीं किया जिसे हिन्दू-धर्म निषिद्ध ठहराता हो। मैंने दर्शन शास्त्रों पर कितने ही व्याख्यान दिए, अपने रस्म-रिवाज और और वर्णाश्रम धर्म का समर्थन करने में सदैव तत्पर रहा, यहाँ तक कि पर्दे की रस्म की भी सराहना करता रहा; और मेरा मन इसे कभी नहीं मान सकता कि यहाँ किसी को मुझे विधर्मी समझने का अधिकार है। मैं अपने धर्म और मत का वैसा ही भक्त हूँ, जैसा पहले था– बल्कि उससे ज्यादा। इससे अधिक मैं अपनी सफाई नहीं दे सकता।

ज्ञान– इस सफाई की तो कोई जरूरत ही नहीं क्योंकि यहाँ लोगों को विदेशी-यात्रा पर अश्रद्धा है, वह किसी तर्क या सिद्धान्त के अधीन नहीं हैं। लेकिन इतना तो आपको भी मानना पड़ेगा कि हिन्दू-धर्म कुछ रीतियों और प्रथाओं पर अवलम्बित है और विदेश में आप उनका पालन समुचित रीति से नहीं कर सकते। आप वेदों से इनकार कर सकते हैं, ईसा मूसा के अनुयायी बन सकते हैं, किन्तु इन रीतियों को नहीं त्याग सकते। इसमें संदेह नहीं कि दिनों-दिन यह बन्धन ढीले होते जाते हैं और इसी देश में ऐसे कितने ही सज्जन हैं जो प्रत्येक व्यवहार का भी उलंघन करके हिन्दू बने हुए हैं किन्तु बहुमत उनकी उपेक्षा करता है और उनको निन्द्य समझता है। इसे आप मेरी आत्मभीरुता या अकर्मण्यता समझें, किन्तु मैं बहुमत के साथ चलना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ। मैं बलप्रयुक्त सुधार का कायल नहीं हूँ मेरा विचार है कि हम बिरादरी में रहकर उससे कहीं अधिक सुधार कर सकते हैं जितना स्वाधीन होकर।

प्रेमशंकर ने इसका कुछ जवाब न दिया। भोजन करके लेटे तो अपनी परिस्थिति पर विचार करने लगे। मैंने समझा था यहाँ शान्तिपूर्वक अपना काम करूँगा, कम-से-कम अपने घर में कोई मुझसे विरोध न करेगा, किन्तु देखता हूँ, यहाँ कुछ दिन घोर अशान्ति का सामना करना पड़ेगा। ज्ञानशंकर के उदारतापूर्ण लेख ने मुझे भ्रम में डाल दिया। खैर कोई चिन्ता नहीं, बिरादरी मेरा कर ही क्या सकती है? उसमें रहकर मुझमें कौन-से सुर्खाब के पर लग जायेंगे। अगर कोई मेरे साथ नहीं खाता तो न खाय, मैं भी उसके साथ न खाऊँगा। कोई मुझसे सहवास नहीं करता, न करे, मैं भी उससे किनारे रहूँगा। वाह! परदेश क्या गया, मानो कोई पाप किया; पर पापियों को तो कोई बिरादरी से च्युत नहीं करता। धर्म बेचने वाले, ईमान बेचनेवाले, सन्तान बेचने वाले बँगले में रहते हैं, कोई उनकी ओर कड़ी आँख से देख नहीं सकता। ऐसे पतितों, ऐसे भ्रष्टाचारियों में रहने के लिए मैं अपनी आत्मा का सर्वनाथ क्यों करूँ?

अकस्मात् उन्हें ध्यान आया, कहीं श्रद्धा भी मेरा बहिष्कार न कर रही हो! इन अनुदान भावों का उस पर भी असर न पड़ा हो! फिर तो मेरा जीवन ही नष्ट हो जायेगा। इस शंका ने उन्हें घोर चिन्ता में डाल दिया और तीसरे पहर तक उनकी व्यग्रता इनती बढ़ी कि वह स्थिर न रहे सके। माया से श्रद्धा का कमरा पूछकर ऊपर चढ़ गये।

श्रद्धा इस समय अपने द्वार पर इस भाँति खड़ी थी, जैसे कोई पथिक रास्ता भूल गया हो। उसका हृदय आनन्द से नहीं, एक अव्यक्त भय से काँप रहा था। यह शुभ दिन देखने के लिए कितनी तपस्या की थी! यह आकांक्षा उसके अन्धकारमय जीवन का दीपक, उसकी डूबती हुई नौका की लंगर थी। महीने के तीस दिन और दिन के चौबीस घण्टे यही मनोहर स्वप्न देखने में कटते थे। विडम्बना यह थी कि वे आकांक्षाएँ और कामनाएँ पूरी होने के लिए नहीं, केवल तड़पाने के लिए थीं। वह दाह और सन्तोष शान्ति का इच्छुक न था। श्रद्धा के लिए प्रेमशंकर केवल एक कल्पना थे। इसी कल्पना पर वह प्राणार्पण करती थी उसकी भक्ति केवल उनकी स्मृति पर थी, जो अत्यन्त मनोरम, भावमय और अनुरागपूर्ण थी। उनकी उपस्थिति ने इस सुखद कल्पना और मधुर स्मृति का अन्त कर दिया। वह जो उनकी याद पर जान देती थी, अब उनकी सत्ता से भयभीत थी, क्योंकि वह कल्पना धर्म और सतीत्व की पोषक थी, और यह सत्ता उनकी घातक। श्रद्धा को सामाजिक अवस्था और समयोजित आवश्यकताओं का ज्ञान था। परम्परागत बन्धनों को तोड़ने के लिए जिस विचारस्वातन्त्र्य और दिव्य ज्ञान की जरूरत थी उससे वह रहित थी। वह एक साधारण हिन्दू अबला थी। वह अपने प्राणों से अपने प्राणप्रिय स्वामी के हाथ धो सकती थी, किन्तु अपने धर्म की अवज्ञा करना अथवा लोक-निन्दा को सहन करना उसके लिए असम्भव न था। जब उसने सुना था कि प्रेमशंकर घर आ रहे हैं, उसकी दशा उस अपराधी की-सी हो रही थी, जिसके सिर पर नंगी तलवार लटक रही हो। आज जब से वह नीचे आकर बैठे थे उसके आँसू एक क्षण के लिए भी न थमते थे। उसका हृदय काँप रहा था कि कहीं वह ऊपर न आते हों, कहीं वह आकर मेरे सम्मुख खड़े न हो जायँ, मेरे अंग को स्पर्श न कर लें! मर जाना इससे कहीं आसान था। मैं उनके सामने कैसे खड़ी हूँगी, मेरी आँखें क्योंकर उनसे मिलेंगी, उनकी बातों का क्योंकर जवाब दूँगी? वह इन्हीं जटिल चिन्ताओं में मग्न खड़ी थी इतने में प्रेमशंकर उसके सामने आकर खड़े हो गये। श्रद्धा पर अगर बिजली गिर पड़ती, भूमि उसके पैरों के नीचे से सरक जाती अथवा कोई सिंह आकर खड़ा हो जाता तो भी वह इतनी असावधान होकर अपने कमरे में भाग न जाती। वह तो भीतर जाकर एक कोने में खड़ी हो गई। भय से उसका एक-एक रोम काँप रहा था। प्रेमशंकर सन्नाटे में आ गये। कदाचित् आकाश सामने से लुप्त हो जाता तो भी उन्हें इतना विस्मय न होता। वह क्षण भर मूर्तिवत् खड़े रहे और एक ठण्डी सांस लेकर नीचे की ओर चले। श्रद्धा के कमरे में जाने, उससे कुछ पूछने या कहने का साहस उन्हें न हुआ इस दुरानुराग ने उनका उत्साह भंग कर दिया, उन काव्यमय स्वप्नों का नाश कर जो बरसों से उनकी चैतन्यावस्था के सहयोगी बने हुए थे। श्रद्धा ने किवाड़ की आड़ से उन्हें जीने की ओर जाते देखा। हा! इस समय उसके हृदय पर क्या बीत रही थी, कौन जान सकता है? उसका प्रिय पति जिसके वियोग में उसने सात वर्ष रो-रो कर काटे थे सामने से भग्न हृदय, हताश चला जा रहा था और वह इस भाँति सशंक खड़ी थी मानो आगे कोई जलागार है। धर्म पैरों को पढ़ने न देता था। प्रेम उन्मत्त तरंगों की भाँति बार-बार उमड़ता था, पर धर्म की शिलाओं से टकराकर लौट आता था। एक बार वह अधीर होकर चली कि प्रेमशंकर का हाथ पकड़कर फेर लाऊँ द्वार तक आई, पर आगे न बढ़ सकी। धर्म ने ललकारकर कहा, प्रेम नश्वर है, निस्सार है, कौन किसका पति और कौन किसकी पत्नी? यह सब माया जाल है। मैं अविनाशी हूँ, मेरी रक्षा करो। श्रद्घा स्तम्भित हो गयी। मन में स्थिर किया जो स्वामी सात समुन्दर पार गया, वहाँ न जाने क्या खाया, क्या पीया, न जाने किसके साथ रहा, अब उससे मेरा क्या नाता? किन्तु प्रेमंशकर जीने से नीचे उतर गये तब श्रद्धा मूर्छित होकर गिर पड़ी। उठती हुई लहरें टीले को न तोड़ सकीं, पर तटों की जल मग्न कर गयीं।

प्रेमाश्रम : अध्याय (16-25)

16.

प्रेमशंकर यहाँ दो सप्ताह ऐसे रहे, जैसे कोई जल्द छूटने वाला कैदी। जरा भी जी न लगता था। श्रद्धा की धार्मिकता से उन्हें जो आघात पहुँचा था उसकी पीड़ा एक क्षण के लिए भी शान्त न होती थी। बार-बार इरादा करते कि फिर अमेरिका चला जाऊँ और फिर जीवन पर्यन्त आने का नाम न लूँ। किन्तु यह आशा कि कदाचित् देश और समाज की अवस्था का ज्ञान श्रद्धा में सद् विचार उत्पन्न कर दे, उसका दामन पकड़ लेती थी। दिन-के-दिन दीवानखाने में पड़े रहते, न किसी से मिलना, न जुलना, कृषि-सुधार के इरादे स्थगित हो गये। उस पर विपत्ति यह भी कि ज्ञानशंकर बिरादरी वालों के षड्यन्त्रों के समाचार ला-लाकर उन्हें और भी उद्विग्न करते रहते थे। एक दिन खबर लाए कि लोगों ने एक महती सभा करके आपको समाज-च्युत करने का प्रस्ताव पास कर दिया। दूसरे दिन ब्राह्मणों की एक सभा की खबर लाये, जिसमें उन्होंने निश्चय किया था कि कोई प्रेमशंकर के घर पूजा-पाठ करने न जाये। इसके एक दिन पीछे श्रद्धा के पुरोहित जी ने आना छोड़ दिया। ज्ञानशंकर बातों-बातों में यह भी जता दिया करते थे कि आपके कारण मैं बदनाम हो रहा हूँ और शंका है कि लोग मुझे भी त्याग दें। भाई के साथ तो यह व्यवहार था, और विरादरी के नेताओं के पास आकर प्रेमशंकर के झूठे आक्षेप करते, वह देवताओं को गालियाँ देते हैं, कहते हैं, मांस सब एक है, चाहे किसी का हो। खाना खाकर कभी हाथ-मुँह तक नहीं धोते, कहते हैं, चमार भी कर्मानुसार ब्राह्मण हो सकता है। यह बातें सुन-सुन कर बिरादरी वालों की द्वेषाग्नि और भी भड़कती थी, यहाँ तक कि कई मनचले नवयुवक तो इस पर उद्यत थे कि प्रेमशंकर को कहीं अकेले पा जायें तो उनकी अच्छी तरह खबर लें। ‘तिलक’ एक स्थानीय पत्र था। उसमें इस विषय पर खूब जहर उगला जाता था। ज्ञानशंकर नित्य वह पत्र लाकर अपने भाई को सुनाते और यह सब केवल इस लिए कि वह निराश और भयभीत होकर यहाँ से भाग खड़े हों और मुझे जायदाद में हिस्सा न देना पड़े। प्रेमशंकर साहस और जीवट के आदमी थे, इन घमकियों की उन्हें परवाह न थी, लेकिन उन्हें मंजूर न था। की मेरे कारण ज्ञानशंकर पर आँच आये। श्रद्धा की ओर से भी उनका चित्त फटता जाता था। इस चिन्तामय अवस्था का अन्त करने के लिए वह कही अलग जाकर शान्ति के साथ रहना और अपने जीवनोद्देश्य को पूरा करना चाहते थे। पर जायँ कहाँ? ज्ञानशंकर से एक बार लखनपुर में रहने की इच्छा प्रकट की थी, पर उन्होंने इतनी आपत्तियाँ खड़ी की, कष्टों और असुविधाओं का एक ऐसा चित्र खींचा कि प्रेमशंकर उनकी नीयत को ताड़ गये। वह शहर के निकट ही थोड़ी सी ऐसी जमीन लेना चाहते थे, जहाँ एक कृषिशाला खोल सकें। इसी धुन में नित्य इधर-उधर चक्कर लगाया करते थे। स्वभाव में संकोच इतना कि किसी से अपने इरादे जाहिर न करते। हाँ, लाला प्रभाशंकर का पितृवत प्रेम और स्नेह उन्हें अपने मन के विचार उनसे प्रकट करने पर बाध्य कर देता था। लाला जी को जब अवकाश मिलता, वह प्रेमशंकर के पास आ बैठते और अमेरिका के वृत्तान्त बड़े शौक से सुनते। प्रेमशंकर दिनों-दिन उनकी सज्जनता पर मुग्ध होते जाते थे। ज्ञानशंकर तो सदैव उनका छिद्रान्वेषण किया करते पर उन्होंने भूलकर भी ज्ञानशंकर के खिलाफ जबान नहीं खोली। वह प्रेमशंकर के विचारों से सहमत न होते थे, यही सलाह दिया करते थे कि कहीं सरकारी नौकरी कर लो।

एक दिन प्रेमशंकर को उदास और चिंतित देखकर लाला जी बोले– क्या यहाँ जी नहीं लगता?

प्रेम– मेरा विचार है कि कहीं अलग मकान लेकर रहूँ। यहाँ मेरे रहने से सबको कष्ट होता है।

प्रभा– तो मेरे घर उठ चलो, वह भी तुम्हारा ही घर है। मैं भी कोई बेगाना नहीं हूँ वहाँ तुम्हें कोई कष्ट न होगा। हम लोग इसे अपना धन्य भाग समझेंगे कहीं नौकरी के लिए लिखा?

प्रेम– मेरा इरादा नौकरी करने का नहीं है।

प्रभा– आखिर तुम्हें नौकरी से इतनी नफरत क्यों है? नौकरी कोई बुरी चीज है?

प्रेम– जी नहीं, मैं उसे बुरा नहीं कहता। पर मेरा मन उससे भागता है।

प्रभा– तो मन को समझाना चाहिए न? आज सरकारी नौकरी का जो मान-सम्मान है, वह और किसका है? और फिर आमदनी अच्छी, काम कम, छुट्टी ज्यादा। व्यापार में नित्य हानि का भय, जमींदारी में नित्य अधिकारियों की खुशामद और असामियों के बिगड़ने का खटका, नौकरी इन पेशों से उत्तम है। खेती-बारी का शौक उस हालत में भी पूरा हो सकता है। यह तो रईसों के मनोरंजन की सामग्री है। अन्य देशों के हालात तो नहीं जानता, पर यहाँ किसी रईस के लिए खेती करना अपमान की बात है। मुझे भूखों मरना कबूल है, पर दूकानदारी या खेती कबूल नहीं है।

प्रेम– आपका कथन सत्य है, पर मैं अपने मन से मजबूत हूँ। मुझे थोड़ी-सी जमीन की तलाश है, पर इधर कहीं नजर नहीं आती।

प्रभा– अगर किसी पर मन लगा है तो करके देख लो। क्या करूँ, मेरे पास शहर के निकट जमीन नहीं है, नहीं तुम्हें हैरान न होना पड़ता। मेरे गाँव में करना चाहो तो जितनी जमीन चाहो उतनी मिल सकती है, मगर दूर है।

इसी हैस-बैस में चैत का महीना गुजर गया। प्रेमशंकर में कृषि-प्रयोगशाला की आवश्यकता की ओर रईसों का ध्यान आकर्षित करने के लिए समाचार पत्रों में कई, विद्वतापूर्ण लेख छपवाये। इन लेखों का बड़ा आदर हुआ। उन्हें पत्रों में उद्धत किया, उन पर टीकाएँ कीं और कई अन्य भाषा में उनके अनुवाद भी हुए। इसका फल यह हुआ कि ताल्लुकेदार एसोसिएशन ने अपने वार्षिकोत्सव के अवसर पर प्रेमशंकर को कृषि-विषयक एक निबंध पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। प्रेमशंकर आनन्द से फूले न समाए। बड़ी खोज और परिश्रम से एक निबन्ध लिखा और लखनऊ आ पहुँचे। कैसरबाग में इस उत्सव के लिए एक विशाल पण्डाल बनाया गया था। राय कमलाचन्द इस सभा के मन्त्री चुने गये थे। मई का महीना था। गरमी खूब पड़ने लगी थी। मैदान में भी सन्ध्या समय तक चला करती थी। घर में बैठना नितान्त दुस्सह था। रात में आठ बजे प्रेमशंकर राय साहब के निवास स्थान पर पहुँचे। राय साहब ने तुरन्त उन्हें अन्दर बुलाया वह इस समय अपने दीवानखाने के पीछे की ओर एक छोटी-सी कोठरी में बैठे हुए थे। ताक पर एक धुँधला-सा दीपक जल रहा था। गर्मी इतनी थी कि जान पड़ता था अग्निकुण्ड है। पर इस आग की मिट्टी में राय साहब एक मोटा ऊनी कम्बल ओढ़े हुए थे। उनके मुख पर विलक्षण तेज था और नेत्रों से दिव्य प्रकाश प्रस्फुटित हो रहा था। प्रतिभा और सौम्य की सजीव मूर्ति मालूम होते थे। उनका शारीरिक गठन और दीर्घ काया किसी पहलवान को भी लज्जित कर सकता था। उनके गले में एक रुद्राक्ष की माला थी, बगल में एक चाँदी का प्याला और गडुआ रखा हुआ था। तख्ते पर एक ओर दो मोटे-ताजे जवान बैठे पंजा लड़ा रहे थे और उसकी दूसरी ओर तीन कोमलांगी रमणियाँ वस्त्राभूषणों से सजी हुई विराज रही थीं इन्द्र का अखाड़ा था, जिसमें इन्द्र, काले देव और अप्सराएँ सभी अपना-अपना पार्ट खेल रहे थे।

प्रेमशंकर को देखते ही राय साहब ने उठकर बड़े तपाक से उनका स्वागत किया, उनके बैठने के लिए कुर्सी मँगाई और बोले, क्षमा कीजिए, मैं इस समय देवोपासना कर रहा हूं, पर आपसे मिलने के लिए ऐसा उत्कंठित था कि एक क्षण का विलम्ब भी न सह सका। आपको देखकर चित्त प्रसन्न हो गया। संसार ईश्वर का विराट् स्वरूप है। जिसने संसार को देख लिया, उसने ईश्वर के विराट स्वरूप का दर्शन कर लिया। यात्रा अनुभूत ज्ञान प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन है। कुछ जलपान के लिए मँगाऊँ?

प्रेम– जी नहीं, अभी जलपान कर चुका हूं।

राय साहब– समझ गया, आप भी जवानी में बूढ़े हो गये। भोजन-आहार का यही पथ्यापथ्य विचार बुढ़ापा है। जवान वह है जो भोजन के उपरान्त फिर भोजन करे, ईंट-पत्थर तक भक्षण कर ले। जो एक बार जलपान करके फिर नहीं खा सकता, जिसके लिए कुम्हड़ा बादी है, करेला गर्म, कटहल गरिष्ठ, उसे मैं बूढ़ा ही समझता हूँ। मैं सर्वभक्षी हूँ और इसी का फल है कि साठ वर्ष की आयु होने पर भी मैं जवान हूँ।

यह कहकर राय साहब ने लोटा मुँह से लगाया और कई घूँट गट-गट पी गये, फिर प्याले में से कई चमचे निकालकर खाए और जीभ चटकाते हुए बोले– यह न समझिए कि मैं स्वादेन्द्रिय का दास हूँ। मैं इच्छाओं का दास नहीं, स्वामी बनकर रहता हूँ यह दमन करने का साधन मात्र है। तैराक वह है जो पानी में गोते लगाये। योद्धा वह है जो मैदान में उतरे। बवा से भागकर बवा से बचने का कोई मूल्य नहीं। ऐसा आदमी बवा की चपेट में आकर फिर नहीं बच सकता। वास्तव में रोग-विजेता वही है जिसकी स्वाभाविक अग्नि, जिसकी अन्तरस्थ ज्वाला, रोग-कीटों को भस्म कर दे। इस लोटे में आग की चिनगारियाँ हैं, पर मेरे लिए शीतल जल है। इस प्याले में वह पदार्थ है, जिसका एक चमचा किसी योगी को भी उन्मत्त कर सकता है, पर मेरे लिए सूखे साग के तुल्य है; मैं शिव और शक्ति का उपासक हूँ। विष को दूध-घी समझता हूँ। हमारी आत्मा ब्रह्मा का ज्योतिस्वरूप है। उसे मैं देश तथा इच्छाओं और चिन्ताओं से मुक्त रखना चाहता हूँ। आत्मा के लिए पूर्ण अखण्ड स्वतन्त्रता सर्वश्रेष्ठ वस्तु है। मेरे किसी काम का कोई निर्दिष्ट समय नहीं। जो इच्छा होती है, करता हूँ आपको कोई कष्ट तो नहीं है। , आराम से बैठिए।

प्रेम– बहुत आराम से बैठा हूँ।

राय साहब– आप इस त्रिमूर्ति को देखकर चौंकते होंगे। पर मेरे लिए यह मिट्टी के खिलौने हैं। विषयायुक्त आँखें इनके रूप-लावण्य पर मिटती हैं, मैं उस ज्योति को देखता हूँ जो इनके घट में व्याप्त है। बाह्य रूप कितना ही सुन्दर क्यों न हो, मुझे विचलित नहीं कर सकता। वह भकुएँ हैं, जो गुफाओं और कन्दराओं में बैठकर तप और ध्यान के स्वांग भरते हैं। वह कायर हैं, प्रलोभनों से मुँह छिपाने वाले, तृष्णाओं से जान बचाने वाले। वे क्या जानें कि आत्मा-स्वातन्त्र्य क्या वस्तु है? चित्त की दृढ़ता और मनोबल का उन्हें अनुभव ही नहीं हुआ। वह सूखी पत्तियाँ हैं जो हवा के एक झोंके से जमीन पर गिर पड़ती हैं। योग कोई दैहिक क्रिया नहीं है, आत्म-शुद्धि, मनोबल और इन्द्रिय दमन ही सच्चा योग, सच्ची तपस्या है। वासनाओं में पड़कर अविचलित रहना ही सच्चा वैराग्य है। उत्तम पदार्थों का सेवन कीजिए; मधुर गान का आनन्द उठाइए, सौन्दर्य की उपासना कीजिए; परन्तु मनोवृत्तियों का दास न बनिए; फिर आप सच्चे वैरागी हैं (दोनों पहलवानों से) पण्डा जी! तुम बिल्कुल बुद्धू ही रहे, यह महाश्य अमेरिका का भ्रमण कर आये हैं, हमारे दामाद हैं। इन्हें कुछ अपनी कविता सुनाओ, खूब फड़कते हुए कवित्त हों।

दोनों पण्डे खड़े हो गये और स्वर मिलाकर एक कवित्त पढ़ने लगे। कवित्त क्या था, अपशब्दों का पोथा और अश्लीलता का अविरल प्रवाह था। एक-एक शब्द बेहयायी और बेशर्मी में डूबा हुआ था। मुँहफूट भाँड़ भी लज्जास्पद अंगों का ऐसा नग्न ऐसा घृणोत्पादक वर्णन न कर सकते होंगे। कवि ने समस्त भारतवर्ष के कबीर और फाग का इत्र, समस्त कायस्थ समाज की वैवाहिक गजलों का सत, समस्त भारतीय नारि-वृन्दा की प्रथा-प्रणीत गलियों का निचोड़ और समस्त पुलिस विभाग के करमचारियों के अपशब्दों का जौहर खींचकर रख दिया था और वह गन्दे कवित्त इन पण्डों के मुँह से ऐसी सफाई से निकल रहे थे, मानो फूल झड़ रहे हैं। राय साहब मूर्तिवत् बैठे थे, हँसी का तो कहना क्या, ओठों पर मुस्कुराहट का चिह्न भी न था। तीनों वेश्याओं ने शर्म से सिर झुका लिया, किन्तु प्रेमाशंकर हँसी को रोक न सके। हँसते-हँसते उनके पेट में बल पड़ गये।

पण्डों के चुप होते ही सामाजियों का आगमन हुआ। उन्होंने अपने साज मिलाए, तबले पर थाप पड़ी, सारंगियों ने स्वर मिलाया और तीनों रमणियां ध्रुपद अलापने लगीं। प्रेमशंकर को स्वर लालित्य का वही आनन्द मिल रहा था जो किसी गँवार को उज्जवल रत्नों के देखने से मिलता है। इस आनन्द में रसज्ञता न थी; किन्तु मर्मज्ञ राय साहब मस्त हो-होकर झूम रहे थे और कभी-कभी स्वयं गाने लगते थे।

आधी रात तक मधुर अलाप की तानें उठती रहीं। जब प्रेमशंकर ऊँघ-ऊँघ कर गिरने लगे तब सभा विसर्जित हुई। उन्हें राय साहब की बहुज्ञता और प्रतिभा पर आश्चर्य हो रहा था, इस मनुष्य में कितना बुद्धि चमत्कार, कितना आत्मबल, कितनी सिद्धि, कितनी सजीविता है और जीवन का कितना विलक्षण आदर्श!

दूसरे दिन प्रेमशंकर सोकर उठे तो आठ बजे थे। मुँह-हाथ धोकर बरामदे में टहलने लगे कि सामने से राय साहब एक मुश्की घोड़े पर सवार आते दिखाई दिए। शिकारी वस्त्र पहने हुए थे। कन्धे पर बन्दूक थी। पीछे-पीछे शिकारी कुत्तों का झुण्ड चला आ रहा था। प्रेमशंकर को देखकर बोले– आज किसी भले आदमी का मुँह देखा था। एक वार भी खाली नहीं गया। निश्चय कर लिया था कि जलपान के समय तक लौट आऊँगा। आप कुछ अनुमान कर सकते हैं कितनी दूर से आ रहा हूँ? पूरे बीस मील का धावा किया है। तीन घण्टे से ज्यादा कभी नहीं सोता। मालूम है न आज तीन बजे से जलसा शुरू होगा।

प्रेम– जी हाँ, डेलिगेट लोग (प्रतिनिधिगण) आ गये होंगे?

राय– (हँसकर) मुझे अभी तक कुछ खबर नहीं और मैं ही स्वागतकारिणी समिति का प्रधान हूँ। मेरे मुख्तार साहब ने सब प्रबन्ध कर दिया होगा। अभी तक मैंने कुछ भी नहीं सोचा कि वहाँ क्या कहूँगा? बस मौके पर जो मुँह में आयेगा, बक डालूँगा।

प्रेम– आपकी सूझ बहुत अच्छी होगी?

राय– जी हाँ, मेरे एसोसिएशन में ऐसा कोई नहीं है, जिसकी सूझ अच्छी न हो। इस गुण में एक से एक बढ़कर हैं। कोषाध्यक्ष को आय-व्यय का पता नहीं, पर सभा के सामने वह पूरा ब्योरा दिखा देंगे। यही हाल औरों का भी है। जीवन इतना अल्प है कि आदमी को अपने ही ढोल पीटने से छुट्टी नहीं मिलती, जाति का मंजीरा कौन बजाये?

प्रेम– ऐसी संस्थाओं से देश का क्या उपकार होगा?

राय– उपकार क्यों नहीं, क्या आपके विचार में जाति का नेतृत्व निरर्थक वस्तु है? आजकल तो यही उपाधियों का सदर दरवाजा हो रहा है। सरल भक्तों का श्रद्धास्पद बनना क्या कोई मामूली बात है? बेचारे जाति के नाम पर मरनेवाले सीधे-सादे लोग दूर-दूर से हमारे दर्शनों को आते हैं। हमारी गाड़ियाँ खींचते हैं, हमारी पदरज को माथे पर चढ़ाते हैं। क्या यह कोई छोटी बात है? और फिर हममें कितने ही जाति के सेवक ऐसे भी हैं जो सारा हिसाब मन में रखते हैं, उनसे हिसाब पूछिए तो वह अपनी तौहीन समझेंगे और इस्तीफे की धमकी देंगे। इसी संस्था के सहायक मन्त्री की वकालत बिल्कुल नहीं चलती; पर अभी उन्होंने बीस हजार का एक बँगला मोल लिया है। जाति से ऐसे भी लेना है, वैसे भी लेना है, चाहे इस बहाने से लीजिए, चाहे उस बहाने से लीजिये!

प्रेम– मुझे अपना निबन्ध पढ़ने का समय कब मिलेगा?

राय– आज तो मिलेगा नहीं। कल गार्डन पार्टी है। हिज एक्सेलेन्सी और अन्य अधिकारी वर्ग निमन्त्रित हैं। सारा दिन उसी तैयारी में लग जायेगा। परसों सब चिड़ियाँ उड़ जायेंगी, कुछ इने-गिने लोग रह जायेंगे, तब आप शौक से अपना लेख सुनाइएगा।

यही बातें हो रही थीं कि राजा इन्द्रकुमार सिंह का आगमन हुआ। राय साहब ने उनका स्वागत करके पूछा– नैनीताल कब तक चलिएगा।

राजा साहब– मैं तो सब तैयारियाँ करके चला हूँ। यहीं से हिज एक्सेलेन्सी के साथ चला जाऊँगा। क्या मिस्टर ज्ञानशंकर नहीं आये?

प्रेम– जी नहीं, उन्हें अवकाश नहीं मिला।

राजा– मैंने समाचार-पत्रों में आपके लेख देखे थे। इसमें सन्देह नहीं कि आप कृषि-शास्त्र के पण्डित हैं, पर आप जो प्रस्ताव कर रहे हैं वह यहाँ के लिए कुछ बहुत उपयुक्त नहीं जान पड़ता। हमारी सरकार ने कृषि की उन्नति के लिए कोई बात उठा नहीं रखी। जगह-जगह पर प्रयोगशालाएँ खोलीं, सस्ते दामों में बीज बेचती हैं, कृषि संबंधी आविष्कारों का पत्रों द्वारा प्रचार करती है। इस काम के लिए कितने ही निरीक्षक नियुक्त किए हैं, कृषि के बड़े-बड़े कॉलेज खोल रक्खे हैं? पर उनका फल कुछ न निकला। जब वह करोड़ो रुपये व्यय करके कृत-कार्य न हो सकी तो आप दो लाख की पूँजी से क्या कर लेंगे? आपके बनाए हुए यन्त्र कोई सेंत भी न लेगा। आपकी रासायनिक खादें पड़ी सड़ेंगी। बहुत हुआ, आप पाँच-सात सैकड़े मुनाफे दे देंगे। इससे क्या होता है? जब हम दो-चार कुएँ, खोदवाकर, पटवारी से मिलकर, कर्मचारियों का सत्कार करके आसानी से अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं, तो यह झंझट कौन करे।

प्रेम– मेरा उद्देश्य कोई व्यापार खोलना नहीं है। मैं तो केवल कृषि की उन्नति के लिए धन चाहता हूँ। सम्भव है आगे चलकर लाभ हो, पर अभी तो मुनाफे की कोई आशा नहीं।

राजा– समझ गया, यह केवल पुण्य-कार्य होगा।

प्रेम– जी हाँ, यही मेरा उद्देश्य है। मैंने अपने उन लेखों में और इस निबन्ध में भी यही बात साफ-साफ कह दी है।

राजा– तो फिर आपने श्रीगणेश करने में भूल की। आपको पहले इस विषय में लाट साहब की सहानुभूति प्राप्त करनी चाहिए थी। तब दो कि जगह आपको दस लाख बात की बात में मिल जाते। बिना सरकारी प्रेरणा के यहाँ ऐसे कामों में सफलता नहीं होती। यहाँ आप जितनी संस्थाएँ देख रहे हैं, उनमें किसी का जन्म स्वाधीन रूप से नहीं। यहाँ की यही प्रथा है। राय साहब यदि आपको हिज एक्सेलेन्सी से मिला दें और उनकी आप पर कृपादृष्टि हो जाये तो कल ही रुपये का ढेर लग जाये।

राय– मैं बड़ी खुशी से तैयार हूँ।

प्रेम– मैं इस संस्था को सरकारी सम्पर्क से अलग रखना चाहता हूँ।

राजा– ऐसी दशा में आप इस एसोसिएशन से सहायता की आशा न रखें कम-से-कम मेरा यही विचार है; क्यों राय साहब?

राय– आपका कहना यथार्थ है।

प्रेम– तो फिर मेरा निबन्ध पढ़ना व्यर्थ है।

राजा– नहीं, व्यर्थ नहीं है। सम्भव है, आप इसके द्वारा आगे चलकर सरकारी सहायता पा सकें। हाँ, राय साहब, प्रधान जी का जुलूस निकालने की तैयारी हो रही है न? वह तीसरे पहर की गाड़ी से आनेवाले हैं।

प्रेमशंकर निराश हो गये। ऐसी सभी में अपना निबन्ध पढ़ना अन्धों के आगे रोना था। वह तीन दिन लखनऊ रहे और एसोसिएशन के अधिवेशन में शरीक होते रहे, किन्तु न तो अपना लेख पढ़ा और न किसी ने उनसे पढ़ने के लिए जोर दिया। वहाँ तो सभी अधिकारियों के सेवा-सत्कार में ऐसे दत्तचित्त थे, मानो बारात आयी हो। बल्कि उनका वहाँ रहना सबको अखरता था। सभी समझते थे कि यह महाशय मन में हमारा तिरस्कार कर रहे हैं। लोगों को किसी गुप्त रीति से यह भी मालूम हो गया था कि यह स्वराज्यवादी हैं। इस कारण से किसी ने उनसे निबन्ध पढ़ने के लिए आग्रह नहीं किया, यहाँ तक कि गार्डन पार्टी में उन्हें निमन्त्रण भी न दिया। यह रहस्य लोगों पर उनके आने के एक दिन पीछे खुला था; नहीं तो कदाचित् उनके पास लेख पढ़ने को आदेश-पत्र भी न भेजा जाता। प्रेमशंकर ऐसी दशा में वहाँ क्योंकर ठहरते? चौथे दिन घर चले आये। दो-तीन दिन तक उनका चित्त बहुत खिन्न रहा, किन्तु इसलिए नहीं कि उन्हें आशातीत सफलता न हुई, बल्कि इसलिए कि उन्होंने सहायता के लिए रईसों के सामने हाथ फैला कर अपने स्वाभिमान की हत्या की। यद्यपि अकेले पड़े-पड़े उनका जी उकताता था, पर इसके साथ ही यह अवस्था आत्म-चिन्तन के बहुत अनुकूल थी। निःस्वार्थ सेवा करना मेरा कर्त्तव्य है। प्रयोगशाला स्थापित करके मैं कुछ स्वार्थ भी सिद्ध करना चाहता था। कुछ लाभ होता, कुछ नाम होता। परमात्मा ने उसी का मुझे दण्ड दिया है। सेवा का क्या यही एक साधन है? मैं प्रयोगशाला के ही पीछे क्यों पड़ा हुआ हूँ? बिना प्रयोगशाला के भी कृषि-संबंधी विषयों का प्रचार किया जा सकता है। रोग-निवारण क्या सेवा नहीं है? इन प्रश्नों ने प्रेमशंकर के सदुत्साह तो उत्तेजित को उत्तेजित कर दिया। वह प्रायरू घर से निकल जाते और आस-पास के देहातों में जा कर किसानों से खेती-बारी के विषय में वार्तालाप करते। उन्हें अब मालूम हुआ कि यहाँ के किसानों को जितना मूर्ख समझा जाता है, वे उतने मूर्ख नहीं हैं! उन्हें किसानों से कितनी ही नई बातों का ज्ञान हुआ। शनैः-शनैः वह दिन-दिन भर घर से बाहर रहने लगे। कभी-कभी दूर के देहातों में चले जाते; दो-दो तीन दिन तक न लौटते।

जेठ का महीना था। आकाश से आग बरसती थी। राज्यधिकारी वर्ग पहाड़ों पर ठण्डी हवा खा रहे थे। भ्रमण करने वाले कर्मचारियों के दौरे भी बन्द थे; पर प्रेमशंकर की तातील न थी। उन्हें बहुधा दोपहर का समय पेड़ों की छाँह में काटना पड़ता, कभी दिन का दिन निराहार बीत जाता, पर सेवा की धुन ने उन्हें शारीरिक सुखों से विरक्त कर दिया था। किसी गाँव में हैजा फैलने की खबर मिलती, कहीं कीड़े ऊख के पौधे का सर्वनाश किये डालते थे। कहीं आपस में लठियाव होने का समाचार मिलता। प्रेमशंकर डाकियों की भांति इन सभी स्थानों पर जा पहुँचते और यथासाध्य कष्ट-निवारण का प्रयास करते। कभी-कभी लखनपुर तक का धावा मारते। जब आषाढ़ में मेह बरसता तो प्रेमशंकर को अपने काम में बड़ी असुविधा होने लगी। वह एक विशेष प्रकार के धानों का प्रचार करना चाहते थे। तरकारियों के बीज भी वितरण करने के लिए मँगा रखे थे। उन्हें बोने और उपजाने की विधि बतलानी भी जरूरी थी। इसलिए उन्होंने शहर से चार-पाँच मील पर वरुणा किनारे हाजीगंज में रहने का निश्चय किया। गाँव से बाहर फूस का एक झोंपड़ा पड़ गया। दो-तीन खाटें आ गयीं। गाँववालों की उन पर असीम भक्ति थी। उनके निवास को लोगों ने अहोभाग्य समझा। उन्हें सब लोग अपना रक्षक, अपना इष्टदेव समझते थे और उनके इशारे पर जान देने को तैयार रहते थे।

यद्यपि प्रेमशंकर को यहाँ बड़ी शान्ति मिलती थी, पर श्रद्धा की याद कभी-कभी विकल कर देती थी। वह सोचते, यदि वह भी मेरे साथ होती तो कितने आनन्द से जीवन व्यतीत होता। उन्हें यह ज्ञात हो गया था कि ज्ञानशंकर ने ही मेरे विरुद्ध उनके कान भरे हैं, अतएव उन्हें अब उस पर क्रोध के बदले दया आती थी। उन्हें एक बार उससे मिलने और उसके मनोगत भावों को जानने की बड़ी आकांक्षा होती थी। कई बार इरादा किया कि एक पत्र लिखूँ पर यह सोचकर कि जवाब दे या न दे, टाले जाते थे। इस चिन्ता के अतिरिक्त अब धनाभाव से भी कष्ट होता था। अमेरिका से जितने रुपये लाये थे, वह इन चार महीनों में खर्च हो गये थे और यहाँ नित्य ही रुपयों का काम लगा रहता था। किसानों से अपनी कठिनाइयाँ बयान करते हुए इन्हें संकोच होता था। वह अपने भोजनादि का बोझ भी उन पर डालना पसन्द न करते थे और न शहर के किसी रईस से ही सहायता माँगने का साहस होता था। अन्त में उन्होंने निश्चय किया कि ज्ञानशंकर से अपने हिस्से का मुनाफा माँगना चाहिए। उन्हें मेरे हिस्से की पूरी रकम उड़ा जाने का क्या अधिकार है? श्रद्धा के भरण-पोषण के लिए वह अधिक-से-अधिक मेरा आधा हिस्सा ले सकते हैं। तभी भी मुझे एक हजार के लगभग मिल जायेंगे। इस वक्त काम चलेगा, फिर देखा जायेगा। निस्सन्देह इस आमदनी पर मेरा कोई हक नहीं है, मैंने उसका अर्जन नहीं किया; लेकिन मैं उसे अपने भोग-विलास के निमित्त तो नहीं चाहता, उसे लेकर परमार्थ में खर्च करना आपत्तिजनक नहीं हो सकता। पहले प्रेमशंकर की निगाह इस तरफ कभी नहीं गयी थी। वह इन रुपयों को ग्रहण करना अनुचित समझते थे। पर अभाव बहुधा सिद्धान्तों और धारणाओं का बाधक हो जाता है। सोचा था कि पत्र में सब कुछ साफ-साफ लिख दूँगा, मेरी कुछ सहायता करेंगे। भावों को केवल इतना लिखा कि मुझे रुपयों की बड़ी जरूरत है। आशा है, मेरी कुछ सहायता करेंगे। भावों के लेखबद्ध करने में हम बहुत विचारशील हो जाते हैं।

ज्ञानशंकर को यह पत्र मिला तो जामे से बाहर हो गये। श्रद्धा को सुनाकर बोले, यह तो नहीं होता कि कोई उद्यम करें, बैठे-बैठे सुकीर्ति का आनन्द उठाना चाहते हैं। जानते होंगे कि यहाँ रुपये बरस रहे हैं। बस बिना हर्रे-फिटकरी के मुनाफा हाथ आ जाता है। और यहाँ अदालत के खर्च के मारे कचूमर निकला जाता है। एक हजार रुपये कर्ज ले कर खर्च कर चुका और अभी पूरा साल पड़ा है। एक बार हिसाब-किताब देख लें तो आँखें खुल जायें; मालूम हो जायें की जमींदारी परोसा हुआ थाल नहीं है। सैकड़ों रुपये साल कर्मचारियों की नजर-नियाज में उड़ जाते हैं।

यह कहते हुए उसी गुस्से में पत्र का उत्तर लिखने नीचे गये। उन्हें अपनी अवस्था और दुर्भाग्य पर क्रोध आ रहा था। राय कमलानन्द की चेतावनी बार-बार याद आती थी। वही हुआ, जो उन्होंने कहा था।

सन्ध्या हो गई थी। आकाश पर काली घटा छाई थी। प्रेमशंकर सोच रहे थे, बड़ी देर हुई, अभी तक आदमी जवाब देकर नहीं लौटा। कहीं पानी न बरसने लगे, नहीं तो इस वक्त आ भी न सकेगा, देखूँ क्या जवाब देते हैं? सूखा जवाब तो क्या देंगे, हाँ, मन में अवश्य झुँझलाएँगे। अब मुझे भी निस्संकोच होकर लोगों से सहायता माँगनी चाहिए। अपने बल पर यह बोझ मैं नहीं सम्भाल सकता। थोड़ी सी जमीन मिल जाती, मैं स्वयं कुछ पैदा करने लगता तो यह दशा न रहती जमीन तो यहाँ बहुत कम है। हाँ, पचास बीघे का यह ऊसर अलबत्ता है, लेकिन ज़मींदार साहब से सौदा पटना कठिन है। वह ऊसर के लिए २०० रुपये बीघे नजराना माँगेंगे। फिर इसकी रेह निकालने और पानी के निकास नालियाँ बनाने में हजारों का खर्च है। क्या बताऊँ, ज्ञानू ने मेरे सारे मंसूबे चौपट कर दिये, नहीं लखनपुर यहाँ से कौन बहुत दूर था? मैं पन्द्रह बीस बीघे की सीर भी कर लेता तो मुझे किसी की मदद की दरकार न होती।

यह इन्हीं विचारों में डूबे थे कि सामने से एक इक्का आता हुआ दिखाई दिया। पहले तो कई आदमियों ने इक्केवान को ललकारा। क्यों खेत में इक्का लाता है? आँखें फूटी हुई हैं? देखता नहीं, खेत बोया हुआ है? पर जब इक्का प्रेमशंकर के झोंपड़े की ओर मुड़ा तो लोग चुप हो गये। इस पर लाला प्रभाशंकर और उनके दोनों लड़के पद्मशंकर और तेजशंकर बैठे हुए थे। प्रेमशंकर ने दौड़कर उनका स्वागत किया। प्रभाशंकर ने उन्हें छाती से लगा लिया और पूछा, अभी तुम्हारा आदमी ज्ञानू का जवाब लेकर तो नहीं आया?

प्रेम– जी नहीं, अभी तो नहीं आया, देर बहुत हुई

प्रभा– मेरे ही हाथ बाजी रही। मैं उसके एक घण्टा पीछे चला हूँ। यह लो, बड़ी बहू ने यह लिफाफा और सन्दूकची तुम्हारे पास भेजी है। मगर यह तो बताओ, यह बनवास क्यों कर रहे हो? तुम्हारे एक छोड़ दो-दो घर हैं। उनमें न रहना चाहो तो तुम्हारे कई मकान किराये पर उठे हुए हैं, उनमें से जिसे कहो खाली करा दूँ। आराम से शहर में रहो। तुम्हें इस दशा में देखकर मेरा हृदय फटा जाता है। यह फूस का झोंपड़ा, बीहड़ स्थान, न कोई आदमी न आदमजाद! मुझसे तो यहाँ एक क्षण भी न रहा जाये। हफ्तों घर की सुधि नहीं लेते। मैं तुम्हें यहाँ न रहने दूँगा। हम तो महल में रहे और तुम यों बनवास करो। (सजल नेत्र होकर) यह सब मेरा दुर्भाग्य है। मेरे कलेजे के टुकड़े हुए जाते हैं। भाई साहब जब तक जीवित रहे, मं अपने ऊपर गर्व करता था। समझता था कि मेरी बदौलत एका बना हुआ है। लेकिन उनके उठते ही घर की श्री उठ गई। मैं दो-चार साल भी उस मेल को न निभा सका। वह भाग्यशाली थे, मैं अभागा हूँ और क्या कहूँ।

प्रेमशंकर ने बड़ी उत्सुकता से लिफाफा खोला और पढ़ने लगे। लाला जी की तरफ उनका ध्यान न था।

‘प्रिय प्राणपति,
दासी का प्रणाम स्वीकार कीजिए। आप जब तक विदेश में थे, वियोग के दुःख को धैर्य के साथ सहती रही, पर आपका यह एकान्त निवास नहीं सहा जाता। मैं यहाँ आपसे बोलती न थी, आपसे मिलती न थी, पर आपको आँखों से देखती तो थी, आपकी कुछ सेवा तो कर सकती थी। आपने यह सुअवसर भी मुझसे छीन लिया। मुझे तो संसार की हँसी का डर था, आपको भी संसार की हँसी का डर है? मुझे आपसे मिलते हुए अनिष्ट की आशंका होती है। धर्म को तोड़कर कौन प्राणी सुखी रह सकता है? आपके विचार तो ऐसे नहीं, फिर आप क्यों मेरी सुधि नहीं लेते?

यहाँ लोग आपके प्रायश्चित करने की चर्चा कर रहे हैं। मैं जानती हूँ, आपको बिरादरी का भय नहीं है, पर यह भी जानती हूँ कि आप मुझ पर दया और प्रेम रखते हैं। क्या मेरी खातिर इतना न कीजिएगा? – मेरे धर्म को न निभाइएगा?

इस सन्दूकची में मेरे कुछ गहने और रुपये हैं– गहने अब किसके लिए पहनूँ? कौन देखेगा? यह तुच्छ भेंट है, उसे स्वीकार कीजिए। यदि आप ने लेंगे, तो समझूँगी कि आपने मुझसे नाता तोड़ दिया।

आपकी अभागिनी,
श्रद्धा।

प्रेमशंकर के मन में पहले विचार हुआ कि सन्दूकची को वापस कर दूँ और लिख दूँ कि मुझे तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं। क्या मैं ऐसा निर्लज्ज हो गया कि जो स्त्री मेरे साथ इतनी निष्ठुरता से पेश आये उसी के सामने मदद के लिए हाथ फैलाऊँ? लेकिन एक ही क्षण में यह विचार पलट गया। उसके स्थान पर यह शंका हुई कि कहीं इसके मन में कुछ और तो नहीं ठान ली है? यह पत्र किसी विषम संकल्प का सूचक तो नहीं है? वह आस्थिर चित्त होकर इधर-उधर टहलने लगे। सहसा लाला प्रभाशंकर से बोले– आपको तो मालूम होगा ज्ञानशंकर का बर्ताव उसके साथ कैसा है?

प्रभा– बेटा, यह बात मुझसे मत पूछो। हाँ, इतना कहूँगा कि तुम्हारे यहाँ रहने से बहुत दुखी है। तुम्हें मालूम है कि उसको तुमसे कितना प्रेम है। तुम्हारे लिए उसने बड़ी तपस्या की है। उसके ऊपर तुम्हारी अकृपा नितान्त अनुचित है।

प्रेम– मुझे वहाँ रहने में कोई उज्र नहीं है। हाँ, ज्ञानशंकर के कुटिल व्यवहार से दुःख होता है और फिर वहाँ बैठकर यह काम न होगा। किसानों के साथ मैं उनकी जितनी सेवा कर सकता हूँ, अलग रहकर नहीं कर सकता। आपसे केवल प्रार्थना करता हूँ कि आप उसे बुलाकर उसकी तस्कीन कर दीजिएगा। मेरे विचार से उसका व्यवहार कितना ही अनुचित क्यों न हो, पर मैं उसे निरपराध समझता हूँ। यह दूसरों के बहकाने का फल है। मुझे शंका होती है कि वह जान पर न खेल जाये।

प्रभा– मगर तुम्हें वचन देना होगा कि सप्ताह में कम-से-कम एक बार वहाँ अवश्य जाया करोगे।

प्रेम– इसका पक्का वादा करता हूँ।

प्रभाशंकर ने लौटना चाहा, पर प्रेमशंकर ने उन्हें साग्रह रोक लिया। हाजीगंज में एक सज्जन ठाकुर भवानीसिंह रहते थे। उनके यहाँ भोजन का प्रबन्ध किया गया। पूरियाँ मोटी थीं और भाजी भी अच्छी न बनी थी; किन्तु दूध बहुत स्वादिष्ट था। प्रभाशंकर ने मुस्कुराकर कहा– यह पूरियाँ हैं या लिट्टी? मुझे तो दो-चार जिन भी खानी पड़ें तो काम तमाम हो जाये। हाँ, दूध की मलाई अच्छी है।

प्रेम– मैं तो यहाँ रोटियाँ बना लेता हूँ। दोपहर को दूध पी लिया करता हूँ।

प्रभा– तो यह कहो तुम योगाभ्यास कर रहे हो। अपनी रुचि का भोजन न मिले तो फिर जीवन का सुख ही क्या रहा?

प्रेम– क्या जाने, मैं तो रोटियों से ही सन्तुष्ट हो जाता हूँ। कभी-कभी तो मैं शाक या दाल भी नहीं बनाता। सूखी रोटियाँ बहुत मीठी लगती हैं। स्वास्थ्य के विचार से भी रूखा-सूखा भोजन उत्तम है।

प्रभा– यह सब नये जमाने के ढकोसले हैं। लोगों की पाचान शक्ति निर्बल हो गयी है। इसी विचार से अपने को तस्कीन दिया करते हैं। मैंने तो आजीवन चटपटा भोजन किया है, पर कभी कोई शिकायत नहीं हुई।

भोजन करने के बाद कुछ इधर-उधर की बातें होने लगीं। लाला जी थके थे, सो गये, किन्तु दोनों लड़कों को नींद नहीं आती थी। प्रेमशंकर बोले, क्यों तेजशंकर, क्या नींद नहीं आती? मैट्रिक में हो न? इसके बाद क्या करने का विचार है?

तेजशंकर– मुझे क्या मालूम? दादा जी की जो राय होगा, वही करूँगा?

प्रेम– और तुम क्या करोगे पद्मशंकर?

पद्म– मेरा तो पढ़ने में जी नहीं लगता। जी चाहता है, साधू हो जाऊँ।

प्रेम– (मुस्करा कर) अभी से?

पद्म– जी हाँ, खूब पहाड़ों पर विचरूँगा। दूर-दूर के देशों की सैर करूँगा। भैया भी तो साधु होने को कहते हैं।

प्रेम– तो तुम दोनों साधु हो जाओगे और गृहस्थी का सारा बोझ चाचा साहब के सिर पर छोड़ दोगे।

तेज– मैंने कब साधु होने को कहा पद्मू? झूठ बोलते हो।

पद्म– रोज तो कहते हो, इस वक्त लजा रहे हो।

तेज– बड़े झूठे हो।

पद्म– अभी तो कल ही कह रहे थे कि पहाड़ों पर जाकर योगियों से मन्त्र जगाना सीखेंगे।

प्रेम– मन्त्र जगाने से क्या होगा?

पद्म– वाह! मन्त्र में इतनी शक्ति है कि चाहें तो अभी गायब हो जायँ, जमीन में गड़ा हुआ धन देख लें। एक मन्त्र तो ऐसा है कि चाहें तो मुरदों को जिला दें। बस, सिद्धि चाहिए। खूब चैन रहेगा। यहाँ तो बरसों पढ़ेंगे, तब जाकर कहीं नौकरी मिलेगी। और वहाँ तो एक मन्त्र भी सिद्ध हो गया तो फिर चाँदी ही चाँदी है।

प्रेम– क्यों जी तेजू, तुम भी इन मिथ्या बातों पर विश्वास करते हो?

तेज– जी नहीं, यह पद्म यों ही बाही-तबाही बकता फिरता है, लेकिन इतना कह सकता हूँ कि आदमी मन्त्र जगाकर बड़े-बड़े काम कर सकता है। हाँ, डर न जाये, नहीं तो जान जाने का डर रहता है।

प्रेम– यह सब गपोड़ा है। खेद है, तुम विज्ञान पढ़कर इन गपोड़ों पर विश्वास करते हो। संसार में सफलता का सबसे जगाता हुआ मन्त्र अपना उद्योग, अध्यवसाय और दृढ़ता है, इसके सिवा और सब मन्त्र झूठे हैं।

दोनों लड़कों ने इसका कुछ उत्तर न दिया। उसके मन में मन्त्र की बात बैठ गयी थी। और तर्क द्वारा उन्हें कायल करना कठिन था।

इनके सो जाने के बाद प्रेमशंकर ने सन्दूकची खोलकर देखा। गहने सभी सोने के थे। रुपये गिने तो पूरे तीन हजार थे। इस समय प्रेमशंकर के सम्मुख श्रद्धा एक देवी का रूप में खड़ी मालूम होती थी। उसकी मुखश्री एक विलक्षण ज्योति से प्रदीप्त थी। त्याग और अनुराग की विशाल मूर्ति थी, जिसके कोमल नेत्रों में भक्ति और प्रेम की किरणें प्रस्फुटित हो रही थीं। प्रेमशंकर का हृदय विह्वल हो गया। उन्हें अपनी निष्ठुरता पर बड़ी ग्लानि उत्पन्न हुई। श्रद्धा की भक्ति के सामने अपनी कटुता और अनुदारता अत्यन्त निन्द्य प्रतीत होने लगी। उन्होंने संदूकची बन्द करके खाट के नीचे रख दी और लेटे तो सोचने लगे, इन गहनों को क्या करूँ? कुल सम्पत्ति पाँच हजार से कम की नहीं है। इसे मैं ले लूँ तो श्रद्धा निरवलम्ब हो जायेगी। लेकिन मेरी दशा सदैव ऐसी ही थोड़े रहेगी। अभी ऋण समझकर ले लूँ, फिर कभी सूद समेत चुका दूँगा। पचीस वर्ष ऊसर लूँ तो दो-ढाई हजार में तय हो जाये। एक हजार खाद डालने और रेह निकालने में लग जायेंगे। एक हजार में बैलों की गोइयाँ और दूसरी सामग्रियाँ आ जायेंगी। दस बीघे में एक सुन्दर बाग लगा दूँ, पन्द्रह बीघे में खेती करूँ। दो साल तो चाहे उपज कम हो, लेकिन आगे चलकर दो-ढाई हजार वार्षिक की आय होने लगेगी। अपने लिए मुझे २०० रुपये साल भी बहुत हैं, शेष रुपये अपने जीवनोद्देश्य के पूरे करने में लगेंगे। सम्भव है, तब तक कोई सहायक भी मिल जाये। लेकिन उस दशा में कोई सहायता भी न करे तो मेरा काम चलता रहेगा। हाँ, एक बात का ध्यान ही न रहा। मैं यह ऊसर ले लूँ तो फिर इस गाँव में गोचर भूमि कहाँ रहेगी? यह ऊसर तो यहाँ के पशुओं का मुख्य आधार है। नहीं इसके लेने का विचार छोड़ देना चाहिए। अब तो हाथ में रुपये आ गये हैं। कहीं न कहीं जमीन मिल ही जायेगी। हाँ, अच्छी जमीन होगी तो इतने रुपयों में दस बीघे से ज्यादा न मिल सकेगी। दस बीघे में मेरा काम कैसे चलेगा?

प्रेमशंकर इसी उधेड़-बुन में पड़े हुए थे। मूसलाधार मेघ बरस रहा था। सहसा उनके कानों में बादलों के गर्जन की-सी आवाज आने लगी, लेकिन जब देर तक इस ध्वनि का तार न टूटा, मानो किसी बड़े पुल पर रेलगाड़ी चली जा रही हो। और थोड़ी देर में गाँव की ओर से आदमियों के चिल्लाने और रोने की आवाजें आने लगीं, तो वह घबड़ाकर उठे और गाँव की तरफ नजर दौड़ायी। गाँव में हलचल मची हुई थी। लोग हाथों में सन और अरहर के डण्ठलों की मशालें लिए इधर-उधर दौड़ते फिरते थे। कुछ लोग मशालें लिये नदी की तरफ दौड़ते जाते थे। एक क्षण में मशालों का प्रतिबिम्ब-सा दीखने लगा, जैसे गाँव में पानी लहरें मार रहा हो। प्रेमशंकर समझ गये कि बाढ़ आ गयी।

अब विलम्ब करने का समय न था वह तुरन्त गाँव की तरफ चले। लेकिन थोड़ी ही दूर चलकर वह घुटनों तक पानी में पहुँचे। बहाव में इतना वेग था कि उनके पाँव मुश्किल से संभल सकते थे। कई बर वह गड्ढो में गिरते बचे। जल्दी में जल थाहने के लिए कोई लकड़ी भी न ले सके थे। जी चाहता था कि गाँव में उड़कर जा पहुँचूँ और लोगों की यथासाध्य मदद करूँ; लेकिन यहाँ एक-एक पग रखना दुस्तर था। चारों तरफ घना अन्धेरा, ऊपर मूसलाधार वर्षा, नीचे वेगवती लहरों का सामना, राह-बाट का कहीं पता नहीं। केवल मशालों को देखते चले जाते थे। कई बार घरो के गिरने का धमाका सुनायी दिया। गाँव के निकट पहुँचे तो हाहाकार मचा हुआ था। गाँच के समस्त प्राणी– युवा, वृद्ध, बाल मन्दिर के चबूतरे पर खड़े यह विध्वंसकारी मेघलीला देख रहे थे। प्रेमशंकर को देखते ही लोग चारों ओर आकर खड़े हो गये। स्त्रियाँ रोने लगीं।

प्रेमशंकर– बाढ़ क्या अबकी ही आयी है या और भी कभी आयी थी?

भवानीसिंह– हर दूसरे-तीसरे साल आ जाती है। कभी-कभी तो साल में दो-दो बेर आ जाती है।

प्रेमशंकर– इसके रोकने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया?

भवानीसिंह– इसका एक ही उपाय है। नदी के किनारे बाँध बना दिया जाये। लेकिन कम से कम तीन हजार का खर्च है, वह हमारे किये नहीं हो सकता। इतनी सामर्थ्य ही नहीं। कभी बाढ़ आती है, कभी सूखा पड़ता है। धन कहाँ से आये?

प्रेमशंकर– ज़मींदार से इस विषय में तुम लोगों ने कुछ नहीं कहा?

भवानी– उनके कभी दर्शन ही नहीं होते; किससे कहें? सेठ जी ने यह गाँव उन्हें पिण्ड-दान में दे दिया था; बस, आप तो गया जी में बैठे रहते हैं। साल में दो बार उनका मुंशी आकर लगान वसूल कर ले जाता है। उससे कहो तो कहता है, हम कुछ नहीं जानते, पण्डा जी जानें। हमारे सिर पर चाहे जो पड़े, उन्हें अपने काम से काम है।

प्रेमशंकर– अच्छा इस वक्त क्या उपाय करना चाहिए? कुछ बचा या सारा डूब गया?

भवानी– अँधेरे में सब कुछ सूझ तो नहीं पड़ता, लेकिन अटकल से जान पड़ता है कि घर एक भी नहीं बचा। कपड़े-लत्ते, बर्तन-भाँड़े, खाट-खटोले सब बह गये। इतनी मुहलत ही नहीं मिली कि अपने साथ कुछ लाते। जैसे बैठे थे वैसे ही उठकर भागे। ऐसी बाढ़ कभी नहीं आयी थी जैसे आँधी आ जाये, बल्कि आँधी का हाल भी कुछ पहले मालूम हो जाता है, यहाँ तो कुछ पता ही नहीं चला।

प्रेमशंकर– मवेशी भी बह गये होंगे?

भवानी– राम जाने, कुछ तुड़ाकर भागे होंगे, कुछ बह गये होंगे, कुछ बदन तक पानी में डूब गये होंगे। पानी दस-पाँच अंगुल और चढ़ा तो उनका भी पता न लगेगा।

प्रेमशंकर– कम से कम उनकी रक्षा तो करनी चाहिए।

भवानी– हमें तो असाध्य जान पड़ता है।

प्रेमशंकर– नहीं हिम्मत न हारो। भला कुछ कितने मर्द यहाँ होंगे?

भवानी– (आँखों से गिनकर) यही कोई चालीस-पचास।

प्रेम– तो पाँच-पाँच आदमियों की एक-एक टुकड़ी बना लो और सारे गाँव का एक चक्कर लगाओ। जितने जानवर मिलें उन्हें बटोर लो और मेरे झोंपड़े के सामने ले चलो। वहाँ जमीन बहुत ऊँची है, पानी नहीं जा सकता। मैं भी तुम लोगों के साथ चलता हूँ। जो लोग इस काम के लिए तैयार हों, सामने निकल आयें।

प्रेमशंकर के उत्साह ने लोगों को उत्साहित किया। तुरन्त पचास-साठ आदमी निकल आये। सबके हाथों में लाठियाँ थीं। प्रेमशंकर को लोगों ने रोकना चाहा, लेकिन वह किसी तरह न माने। एक लाठी हाथ में ले ली और आगे-आगे चले। पग-पग पर बहते हुए झोंपड़ों, गिरे हुए वृक्षों तथा बहती हुई चारपाइयों से टकराना पड़ता था। गाँव का नाम-निशान भी न था। गाँववालों के अपने-अपने घरों का भी पता न चलता था। जहाँ-तहाँ भैंसों और बैलों के डकारने की आवाज सुन पड़ती थी। कहीं-कहीं पशु बहते हुए भी मिलते थे। यह रक्षक दल सारी रात पशुओं के उद्धार का प्रयत्न करता रहा। उनका साहस अदम्य और उद्योग अविश्रान्त था। प्रेमशंकर अपनी टुकड़ी के साथ बारी-बारी से अन्य दलों की सहायता करते रहते थे। उनका धैर्य और परिश्रम देखकर निर्बल हृदय वाले भी प्रोत्साहित हो जाते थे। जब दिन निकला और प्रेमशंकर अपने झोंपड़े पर पहुँचे तब दो सौ से अधिक पशुओं को आनन्द से बैठे जुगाली करते हुए देखा, लेकिन इतनी कड़ी मेहनत कभी न की थी। ऐसे थक गये थे कि खड़ा होना मुश्किल था। अंग-अंग में पीड़ा हो रही थी। आठ बजते-बजते उन्हें ज्वर हो आया। लाला प्रभाशंकर ने यह वृत्तान्त सुना तो असन्तुष्ट होकर बोले– बेटा परमार्थ करना बहुत अच्छी बात है, लेकिन इस तरह प्राण देकर नहीं। चाहे तुम्हें अपने प्राण का मूल्य इन जानवरों से कम जान पड़ता हो, लेकिन हम ऐसे-ऐसे लाखों पशुओं का तुम्हारे ऊपर बलिदान कर सकते हैं। श्रद्धा सुनेगी तो न जाने उसका क्या हाल होगा? यह कहते-कहते उनकी आँखें भर आयी।

तीन दिन तक प्रेमशंकर ने सिर न उठाया और न लाला प्रभाशंकर उनके पास से उठे। उनके सिरहाने बैठे हुए कभी विनयपत्रिका के पदों का पाठ करते, कभी हनुमान चालीसा का पाठ पढ़ते। हाजीपुर में दो ब्राह्मण भी थे। वह दोनों झोंपड़े में बैठे दुर्गा पाठ किया करते। अन्य लोग तरह तरह-तरह की जड़ी बूटियाँ लाते। आस-पास के देहातों में भी जो उनकी बीमारी की खबर पाता, दौड़ा हुआ देखने आता। चौथे दिन ज्वर उतर गया, आकाश भी निर्मल हो गया और बाढ़ उतर गयी।

प्रभात का समय था। लाला प्रभाशंकर ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर घर चले गये थे। प्रेमशंकर अपनी चारपाई पर तकिये के सहारे बैठे हुए हाजीपुर की तरफ चिन्तामय नेत्रों से देख रहे थे। चार दिन पहले जहाँ एक हरा-भरा लहलहाता हुआ गाँव था, जहाँ मीलों तक खेतों में सुखद हरियाली छाई हुई थी, जहाँ प्रातःकाल गाय-भैसों के रेवड़ के रेवड़ चरते दिखाई देते थे, जहाँ झोंपड़ों से चक्कियों की मधुर ध्वनि उठती थी और बाल वृद्ध मैदानों में खेलते-कूदते दिखायी देते थे, वहाँ एक निर्जन मरुभूमि थी। गाँव के अधिकांश प्राणी दूसरे गाँव में भाग गये थे और कुछ लोग प्रेमशंकर के झोंपड़े के सामने सिरकियाँ डाले पड़े थे। न किसी के पास अन्न था, न वस्त्र, बड़ा शोकमय दृश्य था। प्रेमाशंकर सोचने लगे, कितनी विषम समस्या है! इन दीनों का कोई सहायक नहीं। आये दिन इन पर यही विपत्ति पड़ा करती है। और ये बेचारे इसका निवारण नहीं कर सकते। साल-दो साल में जो कुछ तन पेट काटकर संचय करते हैं। वह जलदेव को भेंट देते हैं। कितना धन, कितने जीव इस भँवर में समा जाते हैं, कितने घर मिट जाते हैं, कितनी गृहस्थियों का सर्वनाश हो जाता है और यह केवल इसलिए कि इनको गाँव के किनारे एक सुदृढ़ बाँध बनाने का साहस नहीं है। न इतना धन है, न वह सहमति और सुसंगठन है जो धन का अभाव होने पर भी बड़े-बड़े कार्य सिद्ध कर देता है। ऐसा बाँध यदि बन जाये तो उससे इसी गाँव की नहीं, आस-पास के कई गाँवों की रक्षा हो सकती है। मेरे पास इस समय चार-पाँच हजार रुपये हैं। क्यों न इस बाँध में हाथ लगा दूँगा। गाँव के लोग धन न दे सकें, मेहनत तो कर सकते हैं। केवल उन्हें संगठित करना होगा। दूसरे गाँव के लोग भी निस्सन्देह इस काम में सहायता देंगे। ओह, कहीं यह बाँध तैयार हो जाये तो इन गरीबों का कितना कल्याण हो!

यद्यपि प्रेमशंकर बहुत अशक्त हो रहे थे, पर इस विचार ने उन्हें इतना उत्साहित किया कि तुरन्त उठ खड़े हुए और लोगों के बहुत रोकने पर भी हाथ में डण्डा लेकर नदी की ओर बाँध-स्थल पर निरीक्षण करने चल खड़े हुए। जेब में पेंसिल और कागज भी रख लिया। कई आदमी साथ हो लिए। नदी के किनारे बहुत देर तक रस्सी से नाप-नाप कर कागज पर बाँध का नक्शा खींचते और उसकी लम्बाई-चौड़ाई, गर्भ आदि का अनुमान करते रहे। उन्हें उत्साह के वेग में यह काम सहज जान पड़ता था, केवल काम छेड़ देने की जरूरत थी। उन्होंने वहीं खड़े-खड़े निश्चय किया कि वर्षा समाप्त होते ही श्रीगणेश कर दूँगा। ईश्वर ने चाहा तो जाड़े में बांध तैयार हो जायेगा। बाँध के साथ-साथ गाँव को भी पुनर्जीवित कर दूँगा। बाढ़ का भय तो न रहेगा, दीवारें मजबूत बनाऊँगा और उस पर फूस की जगह खपरैला का छाज रखूँगा।

भवानसिंह ने कहा– बाबू जी, यह काम हमारे मान का नहीं है।

प्रेमशंकर– है क्यों नहीं; तुम्हीं लोगों से यह पूरा कराऊँगा। तुमने इसे असाध्य समझ लिया, इसी कारण इतनी मुसीबतें झेलते हो।

भवानी– गाँव में आदमी कितने हैं?

प्रेम– दूसरे गाँव वाले तुम्हारे मदद करेंगे, काम शुरू तो होने दो।

भवानी– जैसा बाँध आप सोच रहे हैं, पाँच-छह हजार से कम में न बनेगा।

प्रेम– रुपयों की कोई चिन्ता नहीं। कार्तिक आ रहा है, बस काम शुरू कर दो। दो-तीन महीने में बाँध तैयार हो जायेगा। रुपयों का प्रबन्ध जो कुछ मुझसे हो सकेगा मैं कर दूँगा।

भवानी– आपका ही भरोसा है।

प्रेम– ईश्वर पर भरोसा रखो।

भवानी– मजदूरों की मदद मिल जाये तो अगहन में ही बाँध तैयार हो सकता है।

प्रेम– इसका मैं वचन दे सकता हूँ। यहाँ साठ-सत्तर बीघे का अच्छा चक निकल आयेगा।

भवानी– तब हम आपका झोंपड़ा भी यहीं बना देंगे। वह जगह ऊँची है, लेकिन कभी-कभी वहाँ भी बाढ़ आ जाती है।

प्रेम– तो आज ही भागे हुए लोगों को सूचना दे दो और पड़ोस के गाँव में भी खबर भेज दो।

17.

गायत्री उन महिलाओं में थी जिनके चरित्र में रमणीयता और लालित्य के साथ पुरुषों का साहस और धैर्य भी मिला होता है। यदि वह कंघी और आईने पर जान देती थी तो कच्ची सड़कों के गर्द और धूल से भी न भागती थी। प्यानों पर मोहित थी तो देहातियों के बेसुरे अलाप का आनन्द भी उठा सकती थी। सरस साहित्य पर मुग्ध होती थी तो खसरा और खितौनी से भी जी न चुराती थी। लखनऊ से आये हुए उसे दो साल हो गये। लेकिन एक दिन भी अपने विशाल भवन में आराम से न बैठी। कभी इस गाँव जाती, कभी उस छावनी में ठहरती, कभी तहसील आना पड़ता, कभी सदर जाना पड़ता, बार-बार अधिकारियों से मिलने की जरूरत पड़ती। उसे अनुभव हो रहा था कि दूसरों पर शासन करने के लिए स्वयं झुकना पड़ता है। उसके इलाके में सर्वत्र लूट मची हुई थी, कारिन्दे असामियों को नोचे खाते थे। सोचती, क्या इन सब मुख्तारों और कारिन्दों को जवाब दे दूँ? मगर काम कौन करेगा? और यही क्या मालूम है कि इनकी जगह जो नये लोग आयेंगे, वे इनसे ज्यादा नेकनीयत होंगे? मुश्किल तो यह है कि प्रजा को इस अत्याचार से उतना कष्ट भी नहीं होता, जितना मुझे होता है। कोई शिकायत नहीं करता, कोई फरियाद नहीं करता, उन्हें अन्याय सहने की ऐसा अभ्यास हो गया है कि वह इसे भी जीवन की एक साधारण दशा समझते हैं। उससे मुक्त होने का कोई यत्न भी हो सकता है, इसका उन्हें ध्यान भी नहीं होता।

इतना ही नहीं था। प्रजा गायत्री की सचेष्टाओं को सन्देह की दृष्टि से देखती थी। उनको विश्वास ही न होता था कि उनकी भलाई के लिए कोई ज़मींदार अपने नौकरों को दण्ड दे सकता है। वर्तमान अन्याय उनका ज्ञात विषय था, इसका उन्हें भय न था। सुधार के मन्तव्यों से भयभीत होते थे, यह उनके लिए अज्ञात विषय था। उन्हें शंका होती थी कि कदाचित् यह लोगों को निचोड़ने की कोई विधि है। अनुभव भी इस शंका को पुष्ट करता था। गायत्री का हुक्म था कि किसानों को नाम-मात्र सूद पर रुपये उधार दिये जायँ, लेकिन कारिन्दे महाजनों से भी ज्यादा सूद लेते थे। उनसे ताकीद कर दी थी कि बखारों से असामियों को अष्टांश पर अनाज दिया जाये। लेकिन वहाँ अष्टांश न देकर लोग दूसरों से सवाई-डेवढ़े पर अनाज लाते थे। वह अपने इलाके भर में सफाई का प्रबन्ध भी करना चाहती थी। गोबर बटोरने के लिए गाँव से बाहर खत्ते बनवा दिये थे। मोरियों को साफ करने के लिए भंगी लगा दिये थे। लेकिन प्रजा इसे ‘मुदाखतल बेजा’ समझती थी और डरती थी कि कहीं रानी साहिबा हमारे घूरों और खत्तों पर तो हाथ नहीं बढ़ रही हैं।

जाड़ों के दिन थे। गायत्री राप्ती नदी के किनारे के गाँव का दौरा कर रही थी। अबकी बाढ़ में कई गाँव डूब गये थे। कृषकों ने छूट की प्रार्थना की थी। सरकारी कर्मचारियों ने इधर-उधर देखकर लिख दिया था, छूट की जरूरत नहीं है। गायत्री अपनी आँखों से इन ग्रामों की दशा देखकर यह निर्णय करना चाहती थी कि कितनी छूट होनी चाहिए। सन्ध्या हो गयी थी। वह दिन-भर की थकी-माँदी बिन्दापुर की छावनी में उदास पड़ी हुई थी। सारा मकान खण्डहर हो गया था। इस छावनी की मरम्मत के लिए उसने कारिन्दों को सैकड़ों रुपये दिए थे। लेकिन उसकी दशा देखने से ज्ञात होता था कि बरसों से खपरैल भी नहीं बदला गया। दीवारें गिर गयी थीं, कड़ियों के टूट जाने से जगह-जगह छत बैठ गई थी। आँगन में कूड़े के ढेर लगे हुए थे। यहाँ के कारिन्दों को वह बहुत ईमानदार समझती थी। उसके कुटिल व्यवहार पर चित्त बहुत खिन्न हो रहा था। सामने चौकी पर पूजा के लिए आसन बिछा हुआ था, लेकिन उसका उठने का जी न चाहता था कि इतने में एक चपरासी ने आकर कहा– सरकार, कानूनगो साहब आये हैं।

गायत्री उठकर आसन पर जा बैठी और इस भय से की कहीं कानूनगो साहब चले न जाये, शीघ्रता से सन्ध्या समाप्त की और परदा कराके कानूनगो साहब को बुलाया।

गायत्री– कहिए खाँ साहब! मिजाज तो अच्छा है? क्या आजकल पड़ताल हो रही है?

कानूनगो– जी हाँ, आजकल हुजूर के ही इलाके का दौरा कर रहा हूँ।

गायत्री– आपके विचार में बाढ़ से खेती को कितना नुकसान हुआ?

कानूनगो– अगर सरकारी तौर पर पूछती हैं तो रुपये में एक आना, निज के तौर पर पूछती हैं तो रुपये में बारह आने।

गायत्री– आप लोग यह दोरंगी चाल क्यों चलते हैं? आप जानते नहीं कि इसमें प्रजा का कितना नुकसान होता है?

कानूनगो– हुजूर यह न पूछें? दो रंगी चाल न चलें और असली बात लिख दें तो एक दिन में नालायक बनाकर निकाल दिये जायँ। हम लोगों से सच्चा हाल जानने के लिए तहकीकात नहीं करायी जाती, बल्कि उसको छिपाने के लिए। पेट की बदौलत सब कुछ करना पड़ता है।

गायत्री– पेट को गरीबों की हाय से भरना तो अच्छा नहीं। अगर आप अपनी तरफ से प्रजा की कुछ भलाई न कर सकें तो कम से कम अपने हाथों उनका अहित तो न करना चाहिए। इलाके का क्या हाल है?

कानूनगो– आपको सुनकर रंज होगा। सारन में हुजूर की कई बीघे सीर असामियों ने जोत ली है, जगराँव के ठाकुरों ने हुजूर के नये बाग को जोतकर खेत बना लिया है, और मेड़े खोद डाली हैं। जब तक फिर से पैमाइश न हो कुछ पता नहीं चल सकता कि आपकी कितनी जमीन उन्होंने खायी है।

गायत्री– क्या वहाँ का कारिन्दा सो रहा है? मेरा तो इन झगड़ों से नाकोदम है।

कानूनगो– हुजूर की जानिब से पैमाइश की एक दरख्वास्त पेश हो जाये, बस, बाकी काम मैं कर लूँगा। हाँ, सदर कानूनगो साहब की कुछ खातिर करनी पड़ेगी। मैं तो हुजूर का गुलाम हूँ, ऐसी सलाह हरगिज न दूँगा जिससे हुजूर को नुकसान हो। इतनी अर्ज और करूँगा कि हुजूर एक मैनेजर रख लें। गुस्ताखी माफ, इतने बड़े इलाके का इन्तजाम करना हुजूर का काम नहीं है।

गायत्री– मैनेजर रखने की तो मुझे फिक्र है, लेकिन लाऊ कहाँ से? कहीं वह महाशय भी कारिन्दों से मिल गये तो रही-सही बात भी बिगड़ जायेगी। उनका यह अन्तिम आदेश था कि मेरी प्रजा को कोई कष्ट न होने पाये। उसी आज्ञा का पालन करने के लिए मैं यों अपनी जान खपा रही हूँ। आपकी दृष्टि में कोई ऐसा ईमानदार और चतुर आदमी हो, जो मेरे सिर यह भार उतार ले तो बतलाइए।

कानूनगो– बहुत अच्छा, मैं खयाल रखूँगा। मेरे एक दोस्त हैं। ग्रेजुएट, बड़े लायक और तजुरबेकार। खानदानी आदमी हैं। मैं उनसे जिक्र करूँगा। तो मुझे क्या हुक्म होता है? सदर कानूनगो साहब से बातचीत करूँ?

गायत्री– जी हाँ, कह तो रही हूँ। वही लाला साहब हैं न? लेकिन वह तो बेतरह मुँह फैलाते हैं।

कानूनगो– हुजूर खातिर जमा रखें, मैं उन्हें सीधा कर लूँगा। औरों के साथ चाहे वह कितना मुँह फैलाएँ, यहाँ उनकी दाल न गलने पायेगी। बस हुजूर के पाँच सौ रुपये खर्च होंगे। इतने में ही दोनों गाँवों की पैमाइश करा दूँगा।

गायत्री– (मुस्कुराकर) इसमें कम-से-कम आधा तो आपके हाथ जरूर लगेगा।

कानूनगो– मुआजल्लाह, जनाब यह क्या फरमाती हैं? मैं मरते दम तक हुजूर को मुगालता न दूँगा। हाँ, काम पूरा हो जाने पर हुजूर जो कुछ अपनी खुशी से अदा करेंगी वह सिर आँखों पर रखूँगा।

गायत्री– तो यह कहिए, पाँच सौ के ऊपर कुछ और भी आपको भेंट करना पड़ेगा। मैं इतना महँगा सौदा नहीं करती।

यही बातें हो रही थीं कि पण्डित लेखराज जी का शुभागमन हुआ। रेशमी अचकन, रेशमी पगड़ी, रेशमी चादर, रोशमी धोती, पाँव में दिल्ली का सलेमशाही कामदार जूता, माथे पर चन्द्रबिन्दु, अधरों पर पान की लाली, आँखों पर सुनहरी ऐनक; केवड़ों में बसे हुए आकर कुर्सी पर बैठ गये।

गायत्री– पण्डित जी महाराज को पालागन करती हूँ।

लेखराज– आशीर्वाद! आज तो सरकार को बहुत कष्ट हुआ।

गायत्री– क्या करूँ, मेरे पुरखों ने भी बिना खेत की खेती, बिना जमीन की जमींदारी बिना धन की महाजनी प्रथा निकाली होती, तो मैं आपकी ही तरह चैन करती।

लेखराज– (हँसकर) कानूनगो साहब! आप सुनते हैं सरकार की बातें ऐसी चुन कर कह देती हैं कि उसका जवाब ही न बन पड़े। सरकार को परमात्मा ने रानी बनाया है, हम तो सरकार के द्वार के भिक्षुक हैं। सरकार ने धर्मशाला के शिलारोपण का शुभमुहूर्त पूछा था वह मैंने विचार कर लिया है। इसी पक्ष की एकादशी को प्रातःकाल सरकार के हाथ से नींव पर जानी चाहिए।

गायत्री– यह सुकीर्ति मेरे भाग्य में नहीं लिखी है। आपने किसी रईस को अपने हाथों सार्वजनिक इमारतों का आधार रखते देखा है? लोग अपने रहने के मकानों की नींव अधिकारियों से रखवाते हैं। मैं इस प्रथा को क्योंकर तोड़ सकती हूँ? जिलाधीश को शिलारोपण के लिए निमंत्रित करूँगी। उन्हीं के नाम पर नामकरण होगा। किसी ठीकेदार से भी आपने बातचीत की?

लेखराज– जी हाँ, मैंने एक ठीकेदार को ठीक कर लिया है। सज्जन पुरुष है। इस शुभ कार्य को बिना लाभ के करना चाहता है। केवल लागत-मात्र लेगा।

गायत्री– आपने उसे नक्शा दिखा दिया है न? कितने पर काम का ठीका लेना चाहता है?

लेखराज– वह कहता है दूसरा ठीकेदार जितना माँगे उससे मुझे सौ रुपये कम दिये जायँ।

गायत्री– तो अब एक-दूसरा ठीकेदार लगाना पड़ा। वह कितना तखमीना करता है?

लेखराज– उसके हिसाब से ६० हजार पड़ेंगे। माल-मसाला अब अव्वल दर्जे का लगायेगा। ६ महीने में काम पूरा कर लेगा।

गायत्री ने इस मकान का नक्शा लखनऊ में बनवाया था। वहाँ इसका तखमीना ४० हजार किया गया था। व्यंग भाव से बोली– तब तो वास्तव में आपका ठीकेदार बड़ा सज्जन पुरुष है। इसमें कुछ-न-कुछ तो आपके ठाकुर जी पर जरूर ही चढ़ाये जायेंगे।

लेखराज– सरकार तो दिल्लगी करती हैं। मुझे सरकार से यूँ ही क्या कम मिलता है कि ठीकेदार से कमीशन ठहराता? कुछ इच्छा होगी तो माँग लूँगा, नीयत क्यों बिगाड़ूँ?

गायत्री– मैं इसका जवाब एक सप्ताह में दूँगी।

कानूनगो– और मुझे क्या हुक्म होता है? पण्डितजी, आपने भी तो देखा होगा, सारन और जगराँव में हुजूर की कितनी जमीन दब गयी है?

पण्डित– जी हाँ, क्यों नहीं, सौ बीघे से कम न दबी होगी।

गायत्री– मैं जमीन देखकर आपको इत्तला दूँगी। अगर आपस में समझौते से काम चल जाये तो रार बढ़ाने की जरूरत नहीं।

दोनों महानुभाव निराश होकर विदा हुए। दोनों मन-ही-मन गायत्री को कोस रहे थे। कानूनगो ने कहा– चालाक औरत है, बड़ी मुश्किल से हत्थे पर चढ़ती है। लेखराज बोले, एक-एक पैसा दाँत से पकड़ती है। न जाने बटोरकर क्या करेगी? कोई आगे पीछे भी तो नहीं है।

अँधेरा हो चला था। गायत्री सोच रही थी, इन लुटेरों से क्योंकर बचूँ? इनका बस चले तो दिनदहाड़े लूट लें। इतने नौकर हैं, लेकिन ऐसा कोई नहीं, जिसे इलाके की उन्नति का ध्यान हो। ऐसा सुयोग्य आदमी कहाँ मिलेगा? मैं अकेली ही कहाँ-कहाँ दौड़ सकती हूँ। ठीके पर दे दूँ तो इससे अधिक लाभ हो सकता है। सब झंझटों से मुक्त हो जाऊँगी, लेकिन असामी मर मिटेंगे। ठीकेदार इन्हें पीस डालेगा। कृष्णार्पण कर दूँ, तो भी वही हाल होगा, कहीं ज्ञानशंकर राजी हो जाये तो इलाके के भाग जग उठें। कितने अनुभवशील पुरुष हैं, कितने मर्मज्ञ, कितने सूक्ष्मदर्शी। वह आ जायें तो इन लुटेरों से मेरा गला छूट जाये। सारा इलाका चमन हो जाये। लेकिन मुसीबत तो यह है कि उनकी बातें सुनकर मेरी भक्ति और धार्मिक विश्वास डावाँडोल हो जाते हैं। अगर उनके साथ मुझे दो-चार महीने और लखनऊ रहने का अवसर मिलता तो मैं अब तक फैशनेबुल लेडी बन गई होती। उनकी वाणी में विचित्र प्रभाव है। मैं तो उनके सामने बावली-सी हो जाती हूँ। वह मेरा इतना अदब करते थे। उनके स्वभाव में थोड़ी सी उच्छृंखलता अवश्य है, लेकिन मैं भी तो भी तो परछाईं की तरह उनके पीछे-पीछे लगी रहती थी, छेड़-छाड़ किया करती थी। न जाने उनके मन में मेरी ओर से क्या-क्या भावनाएँ उठीं हों। पुरुषों में बड़ा अवगुण है कि हास्य और विनोद की कुवृत्तियों से अलग नहीं रख सकते। इसका पवित्र आनन्द उठाना उन्हें आता ही नहीं। स्त्री ज़रा हँसकर बोली और उन्होंने समझा कि मुझ पर लट्टू हो गयी। उन्हें जरा-सी उँगली पकड़ने को मिल जाये फिर तो पहुँचा पकड़ते देर नहीं लगती। अगर ज्ञानशंकर यहाँ आने पर तैयार हो गये तो उन्हें यहीं रखूँगी। यहीं से वह इलाके का प्रबन्ध करेंगे। जब कोई विशेष काम होगा तो शहर जायेंगे। वहाँ भी मैं उनसे दूर-दूर रहूँगी। भूल कर भी घर में न बुलाऊँगी। नहीं अब उन्हें उतनी धृष्टता का साहस ही न होगा। बेचारा कितना लज्जित था, मेरे सामने ताक न सकता था। स्टेशन पर मुझे विदा करने आया था, मगर दूर बैठा रहा, जबान तक न खोली।

गायत्री इन्हीं विचारों में मग्न थी कि एक चपरासी ने आज की डाक उसके सामने रख दी। डाक घर यहाँ से तीन कोस पर था। प्रतिदिन एक बेगार डाक लेने जाया करता था।

गायत्री ने पूछा– वह आदमी कहाँ है? क्यों रे अपनी मजूरी पा गया?

बेगार– हाँ सरकार, पा गया।

गायत्री– कम तो नहीं है?

बेगार– नहीं सरकार, खूब खाने को मिल गया।

गायत्री– कल तुम जाओगे कि कोई दूसरा आदमी ठीक किया जाये?

बेगार– सरकार मैं तो हाजिर ही हूँ, दूसरा क्यों जायेगा?

गायत्री चिट्ठियाँ खोलने लगी। अधिकांश चिट्ठियाँ सुगन्धित तेल और अन्य औषधियों के विज्ञापनों की थीं। गायत्री ने उन्हें उठाकर रद्दी को टोकरी में डाल दिया। एक पत्र राय कमलाचन्द का था। इसे उसने बड़ी उत्सुकता से खोला और पढ़ते ही उसकी आँखें आनन्दपूर्ण गर्व से चमक उठीं, मुखमण्डल नव पुष्प के समान खिल गया। उसने तुरन्त वह पैकेट खोला जिसे वह अब तक किसी औषधालय का सूची-पत्र समझ रही थी। पूर्व पृष्ठ खोलते ही। उसे अपना चित्र दिखाई दिया। पहले लेख का शीर्षक था ‘गायत्री देवी’। लेखक का नाम था ज्ञानशंकर बी० ए०। गायत्री अंग्रेजी कम जानती थी। लेकिन स्वाभाविक बुद्धिमता से वह साधारण पुस्तकों का आशय समझ लेती थी। उसने बड़ी उत्सुकता से लेख को पढ़ना शुरू किया और यद्यपि बीस पृष्ठों से कम न थे, पर उसे आध ही घण्टें में ही सारा लेख समाप्त कर दिया और तब गौरवोन्मत्त नेत्रों से इधर-उधर देखकर एक लम्बी साँस ली। ऐसा आनन्दोन्माद उसे अपने जीवन में शायद ही प्राप्त हुआ हो। उसका मान-प्रेम कभी इतना उल्लसित न हुआ था। ज्ञानशंकर ने गायत्री के चरित्र, उसके सद्गुणों और सत्कार्यों की इतनी कुशलता से उल्लेख किया था कि शक्ति की जगह लेख में ऐतिहासिक गम्भीरता का रंग आ गया था। इसमें सन्देह नहीं कि एक-एक शब्द से श्रद्धा टपकती थी, किन्तु वाचक को यह विवेक-हीन प्रशंसा नहीं, ऐतिहासिक उदारता प्रतीत होती थी। इस शैली पर वाक्य नैपुण्य सोने में सुगन्ध हो गया था। गायत्री बार-बार आईने में अपना स्वरूप देखती थी, उसके हृदय में एक असीम उत्साह प्रवाहित हो रहा था; मानों वह विमान पर बैठी हुई स्वर्ग को जा रही हो। उसकी धमनियों में रक्त की जगह उच्च भावों का संचार होता हुआ जान पड़ता था। इस समय उसके द्वार पर भिक्षुओं की एक सेना भी होती तो निहाल हो जाती। कानूनगो साहब अगर आ जाते तो पाँच सौ के बदले पाँच हजार ले भागते और पण्डित लेखराज का तखमीना दूना भी होता तो स्वीकार कर लिया जाता। उसने कई दिन से यहाँ कारिन्दे से बात न की थी, उससे रूठी हुई थी। इस समय उसे अपराधियों की भाँति खड़े देखा तो प्रसन्न मुख होकर बोली, कहिए, मुंशीजी आजकल तो कच्चे घड़े की खूब छनती होगी।

मुंशीजी धीरे-धीरे सामने आकर बोले– हुजूर जनेऊ की सौगन्ध है, जब से सरकार ने मना कर दिया मैंने उसकी सूरत तक न देखी।

यह कहते हुए उन्होंने अपने साहित्य प्रेम का परिचय देने के लिए पत्रिका उठा ली और पन्ने उलटने लगे। अकस्मात् गायत्री का चित्र देखकर उछल पड़े। बोले– सरकार, यह तो आपकी तस्वीर है। कैसा बनाया है कि अब बोली, अब बोली, क्या कुछ सरकार का हाल भी लिखा है?

गायत्री ने बेपरवाही से कहा, हाँ तस्वीर है तो हाल क्यों न होगा? करिन्दा दौड़ा हुआ बाहर गया और खबर सुनायी। कई कारिन्दे और चपरासी भोजन बना रहे थे, कोई भंग पीस रहा था, कोई गा रहा था। सब-के-सब आकार तस्वीर पर टूट पड़े। छीना-झपटी होने लगी, पत्रिका के कई पन्ने फट गये। यों गायत्री किसी को अपनी किताबें छूनें नहीं देती थी, पर इस समय जरा भी न बोली।

एक मुँह लगे चपरासी ने कहा– सरकार कुछ हम लोगों को भी सुना दें।

गायत्री– यह मुझसे न होगा। सारा पोथा भरा हुआ है, कहाँ तक सुनाऊँगी? दो-चार दिन में इसका अनुवाद हिन्दी पत्र में छप जायेगा, तब पढ़ लेना।

लेकिन जब आदमियों ने एक स्वर होकर आग्रह करना शुरू किया तो गायत्री विवश हो गयी। इधर-उधर से कुछ अनुवाद करके सुनाया। यदि उसे अँग्रेजी की अच्छी योग्यता होती तो कदाचित् वह अक्षरशः सुनाती।

एक कारिन्दे ने कहा, पत्रवालों के न जाने यह सब हाल कैसे मिल जाते हैं।

दूसरे कारिन्दे ने कहा– उनके गोइन्दे सब जगह बिचरते रहते हैं। कहीं कोई बात हो, चट उनके पास पहुँच जाती है।

गायत्री को इन वार्ताओं में असीम आनन्द आ रहा था। प्रातःकाल उसने ज्ञानशंकर को एक विनयपूर्ण पत्र लिखा। इस लेख की चर्चा न करके केवल अपनी विडम्बनाओं का वृत्तान्त लिखा और साग्रह निवेदन किया कि आप आकर मेरे इलाके का प्रबन्ध अपने हाथ में लें, इस डूबती हुई नौका को पार लगाएँ। उसका मनोमालिन्य मिट गया था। खुशामद अभिमान का सिर नीचा कर देती है। गायत्री अभिमान की पुतली थी। ज्ञानशंकर ने अपने श्रद्धावास से उसे वशीभूत कर लिया।

18.

ज्ञानशंकर को गायत्री का पत्र मिला तो फूले न समाये। हृदय में भाँति-भाँति की मनोहर सुखद कल्पनाएँ तरंगे मारने लगीं। सौभाग्य देवी जीवन-संकल्प की भेंट लिये उनका स्वागत करने को तैयार खड़ी थी। उनका मधुर स्वप्न इतनी जल्दी फलीभूत होगा उसकी उन्हें आशा न थी। विधाता ने एक बड़ी रियासत के स्वामी बनने का अवसर प्रदान कर दिया था। यदि अब भी वह इससे लाभ ना उठा सकें। तो उसका दुर्भाग्य।

किन्तु गोरखपुर जाने के पहले लखनपुर की ओर से निश्चिन्त हो जाना चाहते थे। जब से प्रेमशंकर ने उनसे अपने हिस्से का नफा माँगा था उनके मन में नाना प्रकार की शंकाएँ उठ रही थीं। लाला प्रभाशंकर का वहाँ आना-जाना और भी खटकता था। उन्हें सन्देह होता था कि वह बुड्ढा घाघ अवश्य कोई न कोई दाँव खेल रहा है। यह पितृवत् प्रेम अकारण नहीं। प्रेमशंकर चतुर हों, लोकिन इस चाणक्य के सामने अभी लौंडे हैं। इनकी कुटिल कामना यही होगी कि उन्हें फोड़कर लखनपुर के आठ आने अपने लड़कों के नाम हिब्बा करा लें या किसी दूसरे महाजन के यहाँ बय कराके बीच में दस-पाँच हजार की रकम उड़ा लें। जरूर यही बात है, नहीं तो जब अपनी ही रोटियों के लाले पड़े हैं तो यह पकवान बन-बन कर न जाते। अब तो श्रद्धा ही मेरी हारी हुई बाजी का फर्जी है। अब उसे यह पढ़ाऊँ कि तुम अपने गुजारे के लिए आधा लखनपुर अपने नाम करा लो। उनकी कौन चलाये; अकेले हैं ही, न जाने कब कहाँ चल दें तो तुम कहीं की न रहो। यह चाल सीधी पड़ जाये तो अब भी लखनपुर अपना हो सकता है। श्रद्धा को तीर्थयात्रा करने के लिए भेज दूँगा। एक न एक दिन मर ही जायेगी। जीती भी रही तो हरद्वार में बैठी गंगा स्नान करती रहेगी। लखनपुर की ओर से मुझे कोई चिन्ता न रहेगी।

यों निश्चय करके ज्ञानशंकर अन्दर गये; दैवयोग से श्रद्धा उनकी इच्छानुसार अपने कमरे में अकेली बैठी हुई मिल गयी। माया को कई दिन से ज्वर आ रहा था, विद्या अपने कमरे में बैठी हुई उसे पंखा झल रही थी।

ज्ञानशंकर चारपाई पर बैठकर श्रद्धा से बोले– चाचा साहब की धूर्तता! वह तो मैं पहले ही ताड़ गया था कि यह महाशय कोई न कोई स्वाँग रच रहे हैं। सुना लखनपुर के बय करने की बातचीत हो रही है।

श्रद्धा– (विस्मति होकर) तुमसे किसने कहा? चचा साहब को मैं इतना नीच नहीं समझती। मुझे पूरा विश्वास है कि वह केवल प्रेमवश वहाँ आते-जाते हैं।

ज्ञान– यह तुम्हारा भ्रम है। यह लोग ऐसे निःस्वार्थ प्रेम करने वाले जीव नहीं हैं। जिसने जीवन-पर्यन्त दूसरों को ही मूँडा हो वह अब अपना गँवाकर भला क्या प्रेम करेगा? मतलब कुछ और ही है। भैया का माल है, चाहे बेचें या रखें, चाहे चचा साहब को दे दें या लुटा दें, इसका उन्हें पूरा अधिकार है, मैं बीच में कूदनेवाला कौन होता हूँ? इतना अवश्य है कि तुम फिर कहीं की न रहोगी।

श्रद्धा– अगर तुम्हारा ही कहना ठीक हो तो इसमें क्या बस है?

ज्ञान– बस क्यों नहीं है? आखिर तुम्हारे गुजारे का भार तो उन्हीं पर है। तुम आठ आने लखनपुर अपने नाम लिखा सकती हो। भैया को कोई आपत्ति नहीं हो सकती। तुम्हें संकोच हो तो मैं स्वयं जाकर उसने मामला तै कर सकता हूँ। मुझे विश्वास है कि भैया इनकार न करेंगे और करें तो भी मैं उन्हें कायल कर सकता हूँ। जब गाँव तुम्हारे नाम हो जायेगा तब उन्हें बय करने का अधिकार न रहेगा और चचा साहब की दाल भी न गलेगी।

श्रद्धा विचारों में डूब गयी। जब उसने कई मिनट तक सिर न उठाया तब ज्ञानशंकर ने पूछा, क्या सोचती हो? इसमें कोई हर्ज है? जायदाद नष्ट हो जाये, वह अच्छा है या घर में बनी रहे, वह अच्छा है?

अब श्रद्धा ने सिर उठाया और गौरव-पूर्ण भाव से बोली– मैं ऐसा नहीं कर सकती। उनकी जो इच्छा हो वह करें, चाहे अपना हिस्सा बेच दें या रखें। वह स्वयं बुद्धिमान हैं जो उचित समझेंगे वह करेंगे, मैं उनके पाँव में बेड़ी क्यों डालूँ!

ज्ञानशंकर ने रुष्ट होकर उत्तर दिया, लेकिन यह सोचा है कि जायदाद निकल गयी तो तुम्हारा निर्वाह क्योंकर होगा? वह कल ही फिर अमेरिका की राह लें तो?

श्रद्धा– मेरी कुछ चिन्ता न करो! वह मेरे स्वामी हैं, जो कुछ करेंगे। उसी में मेरी भलाई है। मुझे विश्वास ही नहीं होता कि वह मुझे निरवलम्ब छोड़ जायेंगे।

ज्ञान– तुम्हारी जैसी इच्छा। मैंने ऊँच-नीच सुझा दिया, अगर पीछे से कोई बात बने-बिगड़े तो मेरे सिर दोष न रखना।

ज्ञानशंकर बाहर आये, उनका चित्त उद्विग्न हो रहा था। श्रद्धा के सन्तोष और पतिभक्ति ने उन्हें एक नई उलझन में डाल दिया। यह तो उन्हें मालूम था कि श्रद्धा मेरे प्रस्ताव को सुगमता से स्वीकार न करेगी, लेकिन उसमें इतना दृढ़ त्याग-भाव है इसका उन्हें पता न था। अपने मानव-प्रकृति ज्ञान पर उन्हें घमण्ड था, श्रद्धा के त्याग भाव ने उसे चूर कर दिया। ओह! स्त्रियाँ कितनी अविवेकिनी होती हैं। मैंने महीनों इसे तोते का भाँति पढ़ाया, उसका यह फल! वह अपने कमरे में देर तक बैठे सोचते रहे कि क्योंकर यह गुत्थी सुलझे? वह आज ही इस दुविधा का अन्त करना चाहते थे। यदि वह श्रद्धा का भार मुझ पर छोड़ना चाहते हैं, तो उन्हें लखनपुर उसके नाम लिखना पड़ेगा। मैं उन्हें मजबूर करूँगा। खूब खुली-खुली बातें होंगी। इसी असमंजस में वह घर से निकले और हाजीपुर की ओर चले। रास्ते-भर वह इसी चिन्ता में पड़े रहे। यह संकोच भी होता था कि इतने दिनों के बाद मिलने भी चला तो स्वार्थ-वश होकर। जब से प्रेमशंकर हाजी-पुर रहने लगे थे, ज्ञानबाबू ने एक बार भी वहाँ जाने का कष्ट न उठाया था कभी-कभी अपने घर पर ही उनसे मुलाकत हो जाती थी। मगर इधर तीन-चार महीनों से दोनों भाइयों से भेंट ही न हुई थी।

ज्ञानशंकर हाजीपुर पहुँचे, तो शाम हो गयी थी। पूस का महीना था। खेतों में चारों ओर हरियाली छायी हुई थी। सरसों, मटर, कुसुम, अल्सी के नीले-पीले फूल अपनी छटा दिखा रहे थे। कहीं चंचल तोतों के झुंड थे, कहीं उचक्के कौव के गोल। जगह-जगह पर सारस के जोड़े अहिंसापूर्ण विचार में मग्न खड़े थे। युवतियाँ सिरों पर घड़े रखे नदी से पानी ला रही थीं, कोई खेत में बथुआ का साग तोड़ रही थी, कोई बैलों को खिलाने के लिए हरियाली का गट्ठा सिर पर रखे चली आती थी। सरल शान्तिमय जीवन का पवित्र दृश्य था। शहर की चिल्ल-पों, दौड़ धूम के सामने यह शान्ति अतीव सुखद प्रतीत होती थी।

ज्ञानशंकर एक आदमी के साथ प्रेमशंकर के झोंपड़े में आये तो वहाँ सुरम्य शोभा देखकर चकित हो गये। नदी के किनारे एक ऊँचे और विस्तृत टीलें पर लताओं और बेलों से सजा हुआ ऐसा जान पड़ता था, मानो किसी उच्चात्मा का सन्तोषपूर्ण हृदय है। झोंपड़े के सामने जहाँ तक निगाह जाती थी, प्रकृति की पुष्पित और पल्लवित छटा दिखाई देती थी। प्रेमशंकर झोंपड़े के सामने खड़े बैलों को चारा डाल रहे थे। ज्ञानशंकर को देखते ही बड़े प्रेम से गले मिले और घर का कुशल-समाचार पूछने के बाद बोले, तुम तो जैसे भूल ही गये। इधर आने की कसम खा ली।

ज्ञानशंकर ने लज्जित होकर कहा– यहाँ आने का विचार तो कई दिन से था, पर अवकाश ही नहीं मिलता था। इसे अपने दुर्भाग्य के सिवा और क्या कहूँ, आप मुझसे इतने समीप हैं, फिर भी हमारे बीच में सौ कोस का अन्तर है। यह मेरी नैतिक दुर्बलता और बिरादरी का लिहाज है। मुझे बिरादरी के हाथों जितने कष्ट झेलने पड़े, वह मैं ही जानता हूँ। यह स्थान तो बड़ा रमणीक है। यह खेत किसके हैं?

प्रेमशंकर– इसी गाँव के असामियों के हैं। तुम्हें तो मालूम होगा, सावन में यहाँ बाढ़ आ गयी थी। सारा गाँव डूब गया था, कितने ही बैल बह गये, यहाँ तक कि झोंपड़ों का भी पता न चला। तब से लोगों को सहकारिता की जरूरत मालूम होने लगी है। सब असामियों ने मिलकर बाँध बना लिया है और यह साठ बीघे का चक निकल आया। इसके चारों ओर ऊँची मेड़े खींच दी हैं। जिसके जितने बीघे खेत हैं, उसी परते से बीज और मजदूरी ली जायेगी। उपज भी उसी परते से बाँट दी जायेगी। मुझे लोगों ने प्रबन्धकर्ता बना रखा है। इस ढंग से काम करने से बड़ी किफायत होती है। जो काम दस मजूर करते थे वही काम छह-सात मजूरों से पूरा हो जाता है। जुताई और सिंचाई भी उत्तम रीति से हो सकती है। तुमने गायत्री देवी का वृत्तान्त खूब लिखा है, मैं पढ़कर मुग्ध हो गया।

ज्ञानशंकर– उन्होंने मुझे अपनी रियासत का प्रबन्ध करने को बुलाया है। मेरे लिए यह बड़ा अच्छा अवसर है। लेकिन जाऊँ कैसे? माया और उनकी माँ को तो साथ ले जा सकता हूँ, किन्तु भाभी किसी तरह जाने पर राजी नहीं हो सकतीं। शिकायत नहीं करता, लेकिन चाची से आजकल उनका बड़ा मेलजोल है। चाची और उनकी बहू दोनों ही उनके कान भरती हैं। उनका सरल स्वभाव है। दूसरों की बातों में आ जाती हैं। आजकल दोनों महिलाएँ उन्हें दम दे रही हैं कि लखनपुर का आधा हिस्सा अपने नाम करा लो। कौन जाने, तुम्हारे पति फिर विदेश की राह लें तो तुम कहीं की न रहो। चचा साहब भी उसी गोष्ठी में हैं। आज ही कल में वह लोग यह प्रस्ताव आपके सामने लायेंगे। इसलिए आप से मेरी विनीत प्रार्थना है कि इस विषय में आप जो करना चाहते हों उससे मुझे सूचित कर दें। आपके ही फैसले पर मेरे जीवन की सारी आशाएँ निर्भर हैं। यदि आपने हिस्से को बय करने का निश्चय कर लिया हो, तो मैं अपने लिए कोई और राह निकालूँ।

प्रेमशंकर– चचा साहब के विषय में तुम्हें जो सन्देह है वह सर्वथा निर्मूल है। उन्होंने आज तक कभी मुझसे तुम्हारी शिकायत नहीं की। उनके हृदय में सन्तोष है और चाहे उनकी अवस्था अच्छी न हो, पर वह उससे असन्तुष्ट नहीं जान पड़ते। रहा लखनपुर के सम्बन्ध में मेरा इरादा। मैं यह सुनना ही नहीं चाहता कि मैं उस गाँव का ज़मींदार हूँ। तुम मेरी ओर से निश्चिंत रहो। यही समझ लो कि मैं हूँ ही नहीं। मैं अपने श्रम की रोटी खाना चाहता हूँ। बीच का दलाल नहीं बनना चाहता। अगर सरकारी पत्रों में मेरा नाम दर्ज ही हो गया हो तो मैं इस्तीफा देने को तैयार हूँ। तुम्हारी भाभी के जीवन-निर्वाह का भार तुम्हारे ऊपर रहेगा। मुझसे भी जो कुछ बन पड़ेगा तुम्हारी सहायता करता रहूँगा।

ज्ञानशंकर भाई की बातें सुनकर विस्मित हो गये। यद्यपि इन विचारों में मौलिकता न थी। उन्होंने साम्यवाद के ग्रन्थों में इसका विवरण देखा था, लेकिन उनकी समझ में यह केवल मानव-समाज का आदर्श-मात्र था। इस आदर्श को व्यावहारिक रूप में देख कर उन्हें आश्चर्य हुआ। वह अगर इस विषय पर तर्क करना चाहते तो अपनी सबल युक्तियों से प्रेमशंकर को निरुत्तर कर देते। लेकिन यह समय इन विचारों के समर्थन करने का था, न कि अपनी वाक्पटुता दिखाने का। बोले, भाई साहब! यह समाज-संगठन का महान् आदर्श है, और मुझे गर्व है कि आप केवल विचार से नहीं व्यवहार से भी उसके भक्त हैं। अमेरिका की स्वतन्त्र भूमि में इन भावों का जाग्रत होना स्वाभाविक है। यहाँ तो घर से बाहर निकलने की नौबत ही नहीं आयी। आत्म-बल और बुद्धि-सामर्थ्य से भी वंचित हूँ। मेरे संकल्प इतने पवित्र और उत्कृष्ट क्योंकर हो सकते हैं, मेरी संकीर्ण दृष्टि में तो यही जमींदारी, जिसे आप (मुस्कराकर) बीच की दलाली समझतें हैं, जीवन का सर्वश्रेष्ठ रूप है। हाँ, सम्भव है आगे चलकर आपके सत्संग से मुझमें भी सद्विचार उत्पन्न हो जायँ।

प्रेम– तुम अपने ही मन में विचार करो। यह कहाँ का न्याय है कि मिहनत तो कोई करे, उसकी रक्षा का भार किसी दूसरे पर हो, और रुपये उगाहें हम?

ज्ञान– बात तो यथार्थ है, लेकिन परम्परा से यह परिपाटी ऐसी चली आती है। इसमें किसी प्रकार का संशोधन करने का ध्यान ही नहीं होता।

प्रेम– तो तुम्हारा गोरखपुर जाने का कब तक इरादा है?

ज्ञान– पहले आप मुझे इसका पूरा विश्वास दिला दें कि लखनपुर के सम्बन्ध में आपने जो कहा है वह निश्चयात्मक है।

प्रेम– उसे तुम अटल समझो। मैंने तुमसे एक बार अपने हिस्से का मुनाफा माँगा था। उस समय मेरे विचार पक्के न थे। मेरा हाथ भी तंग था। उस पर मैं बहुत लज्जित हूँ। ईश्वर ने चाहा तो अब तुम मुझे इस प्रतिज्ञा पर दृढ़ पाओगे।

ज्ञान– तो होली तक गोरखपुर चला जाऊँगा। कोई हर्ज न हो तो आप भी घर चलें। माया आपको बहुत पूछा करता है।

प्रेम– आज तो अवकाश नहीं, फिर कभी आऊँगा।

ज्ञानशंकर यहाँ से चले तो उनका चित्त बहुत प्रसन्न था। बहुत दिनों के बाद मेरे मन की अभिलाषा पूरी हुई! अब मैं पूरे लखनपुर का स्वामी हूँ। यहाँ अब कोई मेरा हाथ पकड़ने वाला नहीं। जो चाहूँ निर्विघ्न कर सकता हूँ। भैया के बचन पक्के हैं, अब वह कदापि दुलख नहीं सकते। वह इस्तीफा लिख देते तो बात और पक्की हो जाती, लेकिन इस पर जोर देने से मेरी क्षुद्रता प्रकट होगी। अभी इतना ही बहुत है, आगे चल कर देखा जायेगा।

19.

ज्ञानशंकर लगभग दो बरस से लखनपुर पर इजाफा लगान करने का इरादा कर रहे थे, किन्तु हमेशा उनके सामने एक-न-एक बाधा आ खड़ी होती थी। कुछ दिन तो अपने चचा से अलग होने में लगे। जब उधर से बेफिक्र हुए तो लखनऊ जाना पड़ा। इधर प्रेमशंकर के आ जाने से एक नई समस्या उपस्थित हो गयी। इतने दिनों के बाद अब उन्हें मनोनीत सुअवसर हाथ लगा। कागज-पत्र पहले से ही तैयार थे। नालिशों के दायर होने में विलम्ब न हुआ।

लखनपुर के लोग मुचलके के कारण बिगड़े हुए थे ही, यह नयी विपत्ति सिर पर पड़ी तो और झल्ला उठे। मुचलके की मियाद इसी महीने से समाप्त होने वाली थी। वह स्वछन्दता से जवाबदेही कर सकते थे। सारे गाँव में एका हो गया। आग-सी लग गयी। बूढ़े कादिर खाँ भी, जो अपनी सहिष्णुता के लिए बदनाम थे, धीरता से काम न ले सके। भरी हुई पंचायत में, जो जमींदारी का विरोध करने के उद्देश्य से बैठी थी, बोले– इसी धरती पर सब कुछ होता है और सब कुछ इसी में समा जाता है। हम भी इसी धरती पर पैदा हुए हैं और एक दिन इसी में समा जायेंगे। फिर यह चोट क्यों सहें? धरती के लिए ही छत्रधारियों के सिर गिर जाते हैं, हम भी अपना सिर गिरा देंगे। इस काम में सहायता करना गाँव के सब प्राणियों का धर्म है, जिससे जो कुछ हो सके, दे। सब लोगों ने एक स्वर से कहा, हम सब तुम्हारे साथ हैं, जिस रास्ते कहोगे चलेंगे और इस धरती पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देंगे।

निस्सन्देह गाँव वालों को मालूम था कि ज़मींदार को इजाफा करने का पूरा अधिकार है, लेकिन वह यह भी जानते थे यह अधिकार उसी दशा में होता है, जब ज़मींदार अपने प्रयत्न से भूमि की उत्पादक शक्ति बढ़ा दे। इस निर्मूल इजाफे को सभी अनर्थ समझते थे।

ज्ञानशंकर ने गाँव में यह एका देखा तो चौंके; लेकिन कुछ तो अपने दबाव और कुछ हाकिम परगना मिस्टर ज्वालासिंह के सहवासी होने के कारण उन्हें अपनी सफलता में विशेष संशय न था। लेकिन जब दावे की सुनवाई हो चुकने के बाद जवाबदेही शुरू हुई तो ज्ञानशंकर को विदित हुआ कि मैं अपनी सफलता को जितना सुलभ समझता था उससे कहीं अधिक कष्टसाध्य है। ज्वालासिंह कभी-कभी ऐसे प्रश्न कर बैठते और आसामियों के प्रति ऐसा दया-भावप्रकट करते कि उनकी अभिरुचि का साफ पता चल जाता था। दिनों-दिन अवस्था ज्ञानशंकर के विपरीत होती जाती थी। वह स्वयं तो कचहरी न जाते, लेकिन प्रतिदिन का विवरण बड़े ध्यान से सुनते थे। ज्वालासिंह पर दाँत पीसकर रह जाते थे। ये महापुरुष मेरे सहपाठियों में है। हम यह बरसों तक साथ-साथ खेले हैं। हँसी दिल्लगी, धौल-धप्पा सभी कुछ होता था। आज जो जरा अधिकार मिल गया तो ऐसे तोते की भाँति आँखें फेर लीं मानों कभी का परिचय ही नहीं है।

अन्त में जब उन्होंने देखा कि अब यत्न न किया तो काम बिगड़ जायेगा। तब उन्होंने एक दिन ज्वालासिंह से मिलने का निश्चय किया। कौन जाने मुझ पर रोब जमाने के लिए ही यह जाल फैला रहे हों। यद्यपि यह जानते थे कि ज्वालासिंह किसी मुकदमे की जाँच की अवधि में वादियों से बहुत कम मिलते थे तथापि स्वार्थपरता की धुन में उन्हें इसका भी ध्यान न रहा। सन्ध्या समय उनके बँगले पर जा पहुँचे।

ज्वालासिंह को इन दिनों सितार का शौक हुआ था। उन्हें अपनी शिक्षा में यह विशेष त्रुटि जान पड़ती थी। एक गत बजाने की बार-बार चेष्टा करते, पर तारों का स्वर न मिलता था। कभी यह कील घुमाते, कभी वह कील ढीली करते कि ज्ञानशंकर ने कमरे में प्रवेश किया। ज्वालासिंह ने सितार रख दिया और उनसे गले मिलकर बोले– आइए, भाई जान, आइए। कई दिनों से आपकी याद आ रही थी। आजकल तो आपका लिटलेरी उमंग बढ़ा हुआ है। मैंने गायत्री देवी पर आपका लेख देखा। बस, यही जी चाहता था। आपकी कलम चूम लूँ। यहाँ सारी कचहरी में उसी की चर्चा है। ऐसा ओज, ऐसा प्रसादगुण, इतनी प्रतिभा, इतना प्रवाह बहुत कम किसी लेख में दिखाई देता है। कल मैं साहब बहादुर से मिलने गया था। उनकी मेज पर वही पत्रिका पड़ी थी। जाते-ही-जाते, उसी लेख की चर्चा छेड़ दी। वे लोग बड़े गुणग्राही होते हैं। यह कहाँ से ऐसे चुने हुए शब्द और मुहावरे लाकर रख देते हैं, मानो किसी ने सुन्दर फूलों का गुलदस्ता सजा दिया हो!

ज्वालासिंह की प्रशंसा उस रईस की प्रशंसा थी जो अपने कलावन्त के मधुर गान पर मुग्ध हो गया हो। ज्ञानशंकर ने सकुचाते हुए पूछा– साहब क्या कहते थे?

ज्वाला– पहले तो पूछने लगे, यह है कौन आदमी? जब मैंने कहा, यह मेरे सहपाठी और साथ के खिलाड़ी हैं तब उसे और भी दिलचस्पी हुई। पूछे क्या करते हैं, कहाँ रहते हैं? मेरी समझ में देहातों के बैंकों के सम्बन्ध में आपने जो रिमार्क किये हैं उनका उन पर बड़ा असर हुआ।

ज्ञान– (मुस्कराकर) भाई जान, आपसे क्या छिपाएँ। वह टुकड़ा मैंने एक अँगरेजी पत्रिका से कुछ काँट-छाँट कर नकल कर लिया था। (सावधन होकर) कम-से-कम यह विचार मेरे न थे।

ज्वाला– आपको हवाला देना चाहिए था।

ज्ञान– विचारों पर किसी का अधिकार नहीं होता। शब्द तो अधिकांश मेरे ही थे।

ज्वाला– गायत्री देवी तो बहुत प्रसन्न हुई होंगी। कुछ वरदान देंगी या नहीं?

ज्ञान– उनका एक पत्र आया है। अपने इलाके का प्रबन्ध मेरे हाथों में देना चाहती है।

ज्वाला– वाह, क्या कहने! वेतन भी ५०० रु. से कम न होगा।

ज्ञान– वेतन का तो जिक्र न था। शायद इतना न दे सकें।

ज्वाला– भैया, अगर वहाँ ३०० रु. भी मिलें तो आप हम लोगों से अच्छे रहेंगे। खूब सैर-सपाटे कीजिए, मोटर दौड़ाते फिरिए, और काम ही क्या है? हम लोगों की भाँति कागज का पुलिन्दा तो सिर पर लादकर न लाना पड़ेगा। वहाँ कब तक जाने का विचार है?

ज्ञान– जाने को तो मैं तैयार हूँ, लेकिन जब आप गला छोड़ें।

ज्वालासिंह ने बात काटकर कहा, फैमिली को भी साथ ले जाइएगा न? अवश्य ले जाइए। मैंने भी एक सप्ताह हुए स्त्री को बुला लिया है। इस ऊजड़ में भूत की तरह अकेला पड़ा रहता था।

ज्ञान– अच्छा तो भाभी आ गयीं? बड़ा आनन्द रहेगा। कॉलेज में तो आप परदे के बड़े विरोधी थे?

ज्वाला– अब भी हूँ, पर विपत्ति यह है कि अन्य पुरुष के सामने आते हुए उनके प्राण निकल से जाते हैं। अरदली और नौकर से निस्संकोच बाते करती हैं, लेकिन मेरे मित्रों की परछाई से भी भागती हैं। खींच-खाँच के लाऊँ भी तो सिर झुकाकर अपराधियों की भाँति खड़ी रहेंगी।

ज्ञान– अरे, तो क्या मेरी गिनती उन्हीं मित्रों में है?

ज्वाला– अभी तो आपसे भी झिझकेंगी। हाँ, आपसे दो-चार बार मुलाकात हो, आपके घर की स्त्रियाँ भी आने लगें तो सम्भव है संकोच न रहे। क्यों न मिसेज ज्ञानशंकर को यहाँ भेज दीजिए? गाड़ी भेज दूँगा। आपकी वाइफ को तो कोई आपत्ति न होगी?

ज्ञान– जी नहीं, वह बड़े शौक से आयेंगी।

ज्ञानशंकर को अपने मुकदमें के सम्बन्ध में और कुछ कहने का अवसर न मिला, लेकिन वहाँ से चले तो बहुत खुश थे। स्त्रियों के मेल-जोल से इन महाशय की नकेल मेरे हाथों में आ जायगी। जिस कल को चाहूँ घुमा सकता हूँ। उन्हें अब अपनी सफलता पर कोई संशय न रहा। लेकिन जब घर पर आकर उन्होंने विद्या से यह चर्चा की तो वह बोली, मुझे तो वहाँ जाते झेंप होती है, न कभी की जान-पहचान, न रीति न व्यवहार। मैं वहाँ जाकर क्या बातें करूँगी। गूँगी बनी बैठी रहूँगी। तुमने मुझसे न पूछा न ताछा वादा कर आये!

ज्ञान– मिसेज ज्वालासिंह बड़ी मिलनसार हैं। तुम्हें बड़ा आनन्द आयेगा।

विद्या– अच्छा, और मुन्नी को( छोटी लड़की का नाम था) क्या करूँगी? यह वहाँ रोये-चिल्लाये और उन्हें बुरा लगे तो?

ज्ञान– महरी को साथ लेते जाना। वह लड़की को बाहर बगीचे में बहलाती रहेगी।

विद्या बहुत कहने-सुनने के अन्त में जाने पर राजी हो गयी। प्रातःकाल ज्वालासिंह की गाड़ी आ गयी। विद्या बड़े ठाट से उनके घर गयी। दस बजते-बजते लौटी। ज्ञानशंकर ने बड़ी उत्सुकता से पूछा, कैसी मिलीं?

विद्या– बहुत अच्छी तरह! स्त्री क्या हैं देवी हैं। ऐसी हँसमुख, स्नेहमयी स्त्री तो मैंने देखी ही नहीं। छोड़ती ही न थीं। बहुत जिद की तो आने दिया। मुझे विदा करने लगीं तो उनकी आँखों से आँसू निकलने लगे। मैं भी रो पड़ी। उर्दू, अँगरेजी सब पढ़ी हुई थीं। बड़ा सरल स्वभाव है। महरियों तक को तो तू नहीं कहतीं। शीलमणि नाम है।

ज्ञान– कुछ मेरी भी चर्चा हुई?

विद्या– हाँ, हुई क्यों नहीं? कहती थीं, मेरे बाबू जी के पुराने दोस्त हैं। तुम्हें उस दिन चिक की आड़ से देखा था। तुम्हारी अचकन उन्हें पसन्द नहीं। हँसकर बोली, अचकन क्या पहनते हैं, मुसलमानों का पहनावा है। कोट क्यों नहीं पहनते?

ज्ञानशंकर की आशा उद्दीत्त हुई, लेकिन जब मुकदमा फिर तारीख पर पेशी हुआ तो ज्वालासिंह के व्यवहार में जरा भी अन्तर न था। बार-बार मुद्दई के गवाहों से अविश्वास सूचक प्रश्न करते, मुद्दई के वकील के प्रश्नों पर शंकाएँ करते। ज्ञानशंकर ने यह समाचार सुना तो चकित हो गये। यह तो विचित्र आदमी है। इधर भी चलता है, उधर भी मुझे नचाना चाहता है। यह पद पाकर दोरंगी चाल चलना सीख गया है। जी में आया, चल कर साफ-साफ कह दूँ, मित्रों से यह कपट अच्छा नहीं। या तो दुश्मन बन जाओ या दोस्त बने रहो। यह क्या कि मन में कुछ और मुख में कुछ और। इसी असमंजस में एक सप्ताह गुजर गया। दूसरी तारीख निकट आती जाती थी। ज्ञानशंकर का मन बहुत उद्विग्न था। उन्होंने मन में निश्चय कर लिया था कि इन्होंने फिर दोरंगी चाल चली तो अपना मुकदमा किसी दूसरे इजलास में उठा ले जाऊँगा। दबूँ क्यों?

लेकिन जब दूसरी तारीख को ज्वालासिंह ने लखनपुर जाकर मौके की जाँच करने के लिए फिर तारीख बढ़ा दी तो ज्ञानशंकर झुँझला उठे। क्रोघ में भरे हुए विद्या से बोले– देखी तुमने इनकी शरारत? अब मौके की जाँच करने जा रहे हैं! अब नहीं रहा जाता। जाता हूँ, जरा दो-दो बातें कर आऊँ।

विद्या– तुम इतना अधीर क्यों हो रहे हो? क्या जाने वह दूसरों को दिखाने के लिए यह स्वाँग भर रहे हों। अपनी बदनामी को सभी डरते हैं।

ज्ञान– तो आखिर कब तक मैं फैसले का इन्तजार करता रहूँ? यहाँ बैठे-बैठे कई सौ रुपये महीने की हानि हो रही है।

ज्ञानशंकर ने कभी तक विद्या से गायत्री के अनुरोध की जरा भी चर्चा न की थी। इस समय सहसा मुँह से बात निकल गयी। विद्या ने चौंककर पूछा– हानि कैसी हो रही है?

ज्ञानशंकर ने देखा, अब बातें बनाने से काम न चलेगा और फिर कब तक छिपाऊँगा। बोले– मुझे याद आता है, मैंने तुमसे गायत्री देवी के पत्र का जिक्र किया था। उन्होंने मुझे अपनी रियासत का मैनेजर बनाने का प्रस्ताव किया है और जल्द बुलाया है।

विद्या– तुमने स्वीकार भी कर लिया?

ज्ञान– क्यों न करता, क्या कोई हानि थी?

विद्या– जब तुम्हें स्वयं इतनी मोटी-सी बात भी नहीं सूझती तो मैं और क्या कहूँ। भला सोचो तो दुनिया क्या कहेगी। लोग यही समझेंगे कि अबला विधवा है, नातेदार जमा होकर लूट खाते हैं। तुम चाहे कितने ही निःस्पृह भाव से काम करो, लेकिन बदनामी से न बच सकोगे, अभी वह तुम्हारी बड़ी साली हैं, तुमसे कितना प्रेम करती हैं, तुम्हारा कितना सत्कार करती हैं। कितनी ही बार तुम्हारी चारपाई तक बिछा दी है। इस उच्चासन से गिरकर अब तुम उनके नौकर हो जाओगे और मुझे भी बहिन के पद से गिराकर नौकरानी बना दोगे। मान लिया कि वह भी तुम्हारी खातिर करेंगी, लेकिन मृदुभाव कहाँ? लोग तुम्हारी जा-बेजा शिकायते करेंगे। मुलाहिजे के मारे वह तुमसे कुछ न कह सकेंगी। मैं तुम्हें नौकरी के विचार से जाने की सलाह न दूँगी।

ज्ञान– कह चुकीं या और कहना है?

विद्या– कहने-सुनने की बात नहीं है, मुझे तुम्हारा वहाँ जाना सर्वथा अनुचित जान पड़ता है।

ज्ञान– अच्छा तो अब मेरी बात सुनो। मुझे वर्तमान और भविष्य की अवस्था का विचार करके यही उचित जान पड़ता है कि इस असवर को हाथ से न जाने दूँ। जब मैं जी तोड़कर काम करूँगा, दो की जगह एक खर्च करूँगा, एक ही जगह दो जमा करके दिखाऊँगा, तो गायत्री बावली नहीं है कि अनायास मुझ पर संदेह करने लगें। और फिर मैं केवल नौकरी के इरादे से नहीं जाता, मेरे विचार कुछ और ही हैं।

विद्या ने सशंक दृष्टि से ज्ञानशंकर को देखकर पूछा– और क्या विचार है?

ज्ञान– मैं इस समृद्धिपूर्ण रियासत को दूसरे के हाथ में नहीं देखना चाहता। गायत्री के बाद जब उस पर दूसरों का ही अधिकार होगा तो मेरा क्यों न हो?

विद्या ने कुतूहल से देखकर कहा– तुम्हारा क्या हक है?

ज्ञान– मैं अपना हक जमाना चाहता हूँ। अब मैं चलता हूँ, ज्वालासिंह से निबटता आऊँ।

विद्या– उनसे क्या निबटोगे? उन्होंने कोई रिश्वत ली है?

ज्ञान– तो फिर इतना मित्रभाव क्यों दिखाते हैं?

विद्या– यह उनकी सज्जनता है। यह आवश्यक नहीं कि वह आपके मित्र हों तो आपके लिए दूसरों पर अन्याय करें।

ज्ञान– यही बात मैं उनके मुँह से सुनना चाहता हूँ। इसका मुँहतोड़ जवाब मेरे पास है।

विद्या– अच्छा तो जाओ, जो जी में आये करो। फिर मुझसे क्यों सलाह लेते हो?

ज्ञान– तुमसे सलाह नहीं लेता, तुममें इतनी ही बुद्धि होती तो फिर रोना काहे का था? स्त्रियाँ बड़े-बड़े काम कर दिखाती हैं। तुमसे इतना भी न हो सका कि शीलमणि से इस मुकदमें के सम्बन्ध में कुछ बाचचीत करतीं, तुम्हारी तो जरा-जरा सी बात में मान हानि होने लगती है।

विद्या– हाँ, मुझसे यह सब नहीं हो सकता। अपना स्वभाव ही ऐसा नहीं है।

ज्ञान– क्यों, इसमें क्या हर्ज था, अगर तुम एक बार हँसी-हँसी में कह देतीं कि तुम्हारे बाबूजी हमारी हजारों रुपयें साल की क्षति कराये देते हैं। जरा उनको समझा क्यों नहीं देतीं?

विद्या– मुझे यह बातें बनानी नहीं आतीं, क्या करूँ? मैं इस विषय में शीलमणि से कुछ नहीं कह सकती।

ज्ञान– चाहे दावा खारिज हो जाय?

विद्या– चाहे जो कुछ हो।

ज्ञानशंकर बाहर आये तो सामने एक नयी समस्या आ खड़ी हुई। विद्या को कैसे राजी करूँ? मानता हूँ कि सम्बन्धियों के यहाँ नौकरी से कुछ हेठी अवश्य होती है। लेकिन इतनी नहीं कि उसके लिए कोई चिरकाल के मंसूबों को मिटा दे। विद्या की यह बुरी आदत है कि जिस बात पर अड़ जाती है उसे किसी तरह से नहीं छोड़ती। मैं उधर चला जाऊँ और इधर यह रायसाहब से मेरी शिकायत कर दे तो बना-बनाया काम बिगड़ जाय। अब यह पहले की-सी सरला नहीं है। इसमें दिनों-दिन आत्म-सम्मान की मात्रा बढ़ती जाती है। इसे नाराज करने का यह अवसर नहीं।

यह इस चिन्ता में बैठे हुए थे कि शीलमणि की सवारी आ पहुँची। ज्ञानशंकर ने निश्चय किया, स्वयं चलकर उससे अपना समाचार कहूँ। अभी तीनों महिलाएँ कुशल समाचार ही पूछ रही थीं कि वह कुछ झिझकतें हुए ऊपर आये और कमरे के द्वार पर चिलमन के सामने खड़े होकर शीलमणि से बोले– भाभी जी को प्रणाम करता हूँ।

विद्या उनका आशय समझ गयी। लज्जा से उसका मुखमण्डल अरुण वर्ण हो गया। वह वहाँ से उठकर ज्ञानशंकर को अवेहलनापूर्ण नेत्रों से देखते हुए दूसरे कमरे में चली गयी। श्रद्धा, मध्यस्थ का काम देने के लिए रह गयी।

ज्ञानशंकर बोले– भाई साहब तो पर्दे के भक्त नहीं हैं, और जब हम लोगों में इतनी घनिष्ठता हो गयी है तो यह हिसाब उठ जाना चाहिए। मुझे आपसे कितनी ही बातें कहनी हैं। परमात्मा ने आपको शील और विनय के गुणों से विभूषित किया है, इसीलिए मुझे आपसे निज के मामलों में जबान खोलने का साहस हुआ है। मुझे विश्वास है कि आप उसकी अवज्ञा न करेंगी। मेरा इजाफा लगान का मुकदमा भाई साहब के इजलास में दो महीनों से पेश है। उनका इतना अदब करता हूँ कि इस विषय में उनसे कुछ कहते हुए संकोच होता है। यद्यपि मुझे वह भाई समझते हैं, लेकिन किसी कारण से उन्हें भ्रम होता हुआ जान पड़ता है कि मेरा दावा झूठा है और मुझे भय है कि कहीं वह खारिज न कर दें। इसमे सन्देह नहीं कि दावे को खारिज करने का उन्हें बहुत दुःख होगा, लेकिन शायद उन्हें अब तक मेरी वास्तविक दशा का ज्ञान नहीं है। वह यह नहीं जानते कि इससे मेरा कितना अपमान और कितना अनिष्ट होगा। आजकल की जमींदारी एक बला है। जीवन की सामग्रियाँ दिनों-दिन महँगी होती जाती हैं और मेरी आमदनी आज भी वही है जो तीस वर्ष पहले थी। ऐसी अवस्था में मेरे उद्धार का इसके सिवा और क्या उपाय है कि असामियों पर इजाफा लगान करूँ। अन्न मोतियों के मोल बिक रहा है। कृषकों की आमदनी दुगनी, बल्कि तिगुनी हो गयी है। यदि मैं उनकी बढ़ी हुई आमदनी में से एक हिस्सा माँगता हूँ तो क्या अन्याय करता हूँ? अगर मेरी जीत हुई तो सहज में ही मेरी आमदनी एक हजार बढ़ जायेगी। हार हुई तो असामियों की निगाह में गिर जाऊँगा। वह शेर हो जायेंगे और बात-बात पर मुझसे उलझेंगे। तब मेरे लिए इसके सिवा और मार्ग न रहेगा कि जमींदारी से इस्तीफा दे दूँ और मित्रों के सिर जा पड़ूँ। (मुस्कराकर) आप ही के द्वार पर अड्डा जमाऊँगा और यदि आप मार-मार कर हटायें, तो हटने का नाम न लूँगा।

शीलमणि ने यह विवरण ध्यानपूर्वक सुना और श्रद्धा से बोली– आप बाबू जी से कह दें, मुझे यह सुनकर बड़ा खेद हुआ। आपने पहले इसका जिक्र क्यों नहीं किया? विद्या ने भी इसकी चर्चा नहीं की, नहीं तो अब तक आपकी डिगरी हो गयी होती। किन्तु आप निश्चिन्त रहें। मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि अपनी ओर से आपकी सिफारिश करने में कोई बात उठा न रखूँगी।

ज्ञान– मुझे आपसे ऐसी ही आशा थी। दो-चार दिन में भाई साहब मौका देखने जायेंगे। इसलिए उनसे जल्द ही इसकी चर्चा कर दें।

शील– मैं आज जाते ही कहूँगी। आप इत्मीनान रखें।

20.

प्रभात का समय था। चैत का सुखद पवन प्रवाहित हो रहा था। बाबू ज्वालासिंह बरामदे में आरामकुर्सी पर लेटे हुए घोड़े का इन्तजार कर रहे थे। उन्हें आज मौका देखने के लिए लखनपुर जाना था, किन्तु मार्ग में एक बड़ी बाधा खड़ी हो रही थी। कल सन्ध्या समय शीलमणि ने उनसे ज्ञानशंकर के मुकदमें की बात कही की और तभी से वह बड़े असमंजस में पड़े हुए थे। सामने एक जटिल समस्या थी, न्याय या प्रणय, कर्त्तव्य या स्त्री की मान रक्षा। वह सोचते थे, मुझसे बड़ी भूल हुई कि इस मुकदमें को अपने इजलास में रखा। लेकिन मैं यह क्या जानता था कि ज्ञानशंकर यह कूटनीति ग्रहण करेंगे। बड़ा स्वार्थी मनुष्य है। इसी अभिप्राय से उसने स्त्रियों से मेल-जोल बढ़ाया।

शीलमणि यह चालें क्या जाने, शील में पड़कर वचन दे आयी। अब यदि उसकी बात नहीं रखता तो वह रो-रो कर जान ही दे देगी। उसे क्या मालूम कि इस अन्याय से मेरी आत्मा को कितना दुःख होगा। अभी तक जितनी गवाहियाँ सामने आयी हैं उनसे तो यही सिद्ध होता है कि ज्ञानशंकर ने असामियों को दबाने के लिए यह मुकदमा दायर किया है और कदाचित बात भी यही है। यह बड़ा ही बना हुआ आदमी है। लेख तो ऐसा लिखता है कि मानो दीन-रक्षा के भावों में पगा हुआ है, किन्तु पक्का मतलबी है। गायत्री की रियासत का मैनेजर हो जायगा तो अन्धेर मचा देगा। नहीं, मुझसे यह अन्याय न हो सकेगा, देखकर मक्खी नहीं निगली जायेगी। शीलमणि रूठेगी तो रूठे। उसे स्वयं समझाना चाहिए था कि मुझे ऐसा वचन देने का कोई अधिकार नहीं था। लेकिन मुश्किल तो यह है कि वह केवल रो रोकर ही मेरा पिण्ड न छोड़ेगी। बात-बात पर ताने देगी। कदाचित मैके की तैयारी भी करने लगे। यही उसकी बुरी आदत है कि या तो प्रेम और मृदुलता के देवी बन जायेगी या बिगड़ेगी तो भालों से छेदने लगेगी। ज्ञानशंकर ने मुझे ऐसे संकट में डाल रखा है कि उससे निकलने का कोई मार्ग ही नहीं दिखता।

ज्वालासिंह इसी हैस-बैस में पड़े हुए थे कि अचानक ज्ञानशंकर सामने पैरगाड़ी पर आते दिखायी दिये। ज्वालासिंह तुरन्त कुर्सी से उठ खड़े हुए और साईस को जोर से पुकारा कि घोड़ा ला। साईस घोड़े को कसे हुए तैयार खड़ा था। यह हुक्म पाते ही घोड़ा सामने लाकर खड़ा कर दिया। ज्वालासिंह उस पर कूदकर सवार हो गये। ज्ञानशंकर ने समीप आकर कहा– कहिए भाई साहब, आज सबेरे-सबेरे कहाँ चले?

ज्वाला– जरा लखनपुर जा रहा हूँ। मौका देखना है?

ज्ञान– धूप हो जायेगी।

ज्वाला– कोई परवाह नहीं।

ज्ञान– मैं भी साथ चलूँ?

ज्वाला– मुझे रास्ता मालूम है।

यह कहते हुए उन्होंने घोड़े को एड़ लगायी और हवा हो गये। ज्ञानशंकर समझ गये कि मेरा मन्त्र अपना काम कर रहा है। यह अकृपा इसी का लक्षण है। ऐसा न होता तो आज भी मीठी-मीठी बातें होतीं। चलूँ, जरा शीलमणि को और पक्का कर आऊँ। यह इरादा करके वह ज्वालासिंह के कमरे जा बैठे। अरदली ने कहा, सरकार बाहर गये हैं।

ज्ञान– मैं जानता हूँ। मुझसे मुलाकात हो गयी। जरा घर में मेरी इत्तला कर दो।

अरदली– सरकार का हुक्म नहीं है।

ज्ञान– मुझे पहचानते हो या नहीं?

अरदली– पहचानता क्यों नहीं हूँ।

ज्ञान– तो चौखट पर जाकर कहते क्यों नहीं?

अरदली– सरकार ने मना कर दिया है।

ज्ञानशंकर को अब विश्वास हो गया कि मेरी चाल ठीक पड़ी, ज्वालासिंह ने अपने को पक्षपात-रहित सिद्ध करने के लिए ही यह षड्यन्त्र रचा है। यह सोच ही रहे थे कि शीलमणि से क्योंकर मिलूँ कि इतने में महरी किसी काम से बाहर आयी और ज्ञानशंकर को देखते ही जाकर शीलमणि से कहा। शीलमणि ने तुरन्त उनके लिए पान भेजा और उन्हें दीवानखाने में बैठाया। एक क्षण के बाद वह खुद जाकर पर्दे की आड़ में खड़ी हो गयी और महरी से कहलाया, मैंने बाबू जी से आपकी सिफारिश कर दी है।

ज्ञानशंकर ने धन्यवाद देते हुए कहा– मुझे अब आप ही का भरोसा है।

शीलमणि बोली– आप घबरायें नहीं, मैं उन्हें एकदम चैन न लेने दूँगी। ज्ञानशंकर ने ज्यादा ठहरना उचित न समझा। खुशी-खुशी विदा हुए।

उधर बाबू ज्वालासिंह ने घोड़ा दौड़ाया तो चार मील पर रुके। उन्हें एक सिगार पीने की इच्छा हुई। जेब से सिगार-केस निकाला, लेकिन देखा तो दियासलाई न थी। उन्हें सिगार से बड़ा प्रेम था। अब क्या हो? इधर-उधर निगाह दौड़ायी तो सामने कुछ दूरी पर एक बहली जाती हुई दिखाई थी। घोड़े को बढ़ाकर बहली के पास आ पहुँचे। देखा तो उस पर प्रेमशंकर बैठे हुए थे। ज्वालासिंह का उनसे परिचय था। कई बार उनकी कृषि शाला की सैर करने गये थे और उनके सरल, सन्तोषमय जीवन का आदर करते थे। पूछा, कहिए महाशय, आज इधर कहाँ चले?

प्रेम– जरा लखनपुर जा रहा हूँ, और आप?

ज्वाला– मैं भी वही चलता हूँ।

प्रेम– अच्छा साथ हुआ। क्या कोई मुकदमा है?

ज्वालासिंह ने सिगार जलाकर मुकदमें का वृत्तान्त कह सुनाया।

प्रेमशंकर गौर से सुनते रहे, फिर बोले– आपने उन्हें समझाया नहीं कि गरीबों को क्यों तंग करते हो?

ज्वाला– मैं इस विषय में उनसे क्योंकर कुछ कहता? हाँ, स्त्रियों में जो बातें हुई उनसे मालूम होता है कि वह अपने जरूरतों से मजबूत हैं, उनका खर्च नहीं चलता।

प्रेम– दो हजार साल की आमदनी तीन-चार प्राणियों के लिए तो कम नहीं होती।

ज्वाला– लेकिन इसमें आधा तो आपका है।

प्रेम– जी नहीं, मेरा कुछ नहीं है। मैंने उनसे साफ-साफ कह दिया है कि मैं इस जायदाद में हिस्सा नहीं लेना चाहता।

ज्वालासिंह– (आश्चर्य से) क्या आपने उनके नाम हिब्बा कर दिया?

प्रेम– जी नहीं, लेकिन हिब्बा ही समझिए। मेरा सिद्धान्त है कि मनुष्य को अपनी मेहनत की कमाई खानी चाहिए। यही प्राकृतिक नियम है। किसी को यह अधिकार नहीं है कि वह दूसरों की कमाई को अपनी जीवन-वृत्ति का आधार बनाये।

ज्वाला– तो यह कहिए कि आप जमींदारी के पेशे को ही बुरा समझते हैं।

प्रेम– हाँ, मैं इसका भक्त नहीं हूँ। भूमि उसकी है जो उसको जोते। शासक को उसकी उपज में भाग लेने का अधिकार इसलिए है कि वह देश में शान्ति और रक्षा की व्यवस्था करता है, जिसके बिना खेती हो ही नहीं सकती। किसी तीसरे वर्ग का समाज में कोई स्थान नहीं है।

ज्वाला– महाशय इन विचारों से तो आप देश में क्रान्ति मचा देंगे। आपके सिद्धान्त के अनुसार हमारे बड़े-बड़े जमींदारों, ताल्लुकेदारों और रईसों का समाज में कोई स्थान ही नहीं दिया। सब के सब डाकू हैं।

प्रेम– इसमें इनका कोई दोष नहीं, प्रथा का दोष है। इस प्रथा के कारण देश की कितनी आत्मिक और नैतिक अवनति हो रही है, इसका अनुमान नहीं किया जा सकता। हमारे समाज का वह भाग जो बल, बुद्धि, विद्या में सर्वोपरि है, जो हृदय और मस्तिष्क के गुणों से अलंकृत है, केवल इसी प्रथा के वश आलस्य विलास और अविचार के बन्धनों में जकड़ा हुआ है।

ज्वालासिंह– कहीं आप इन्हीं बातों का प्रचार करने तो लखनपुर नहीं जा रहे हैं कि मुझे पुलिस की सहायता न माँगनी पड़े।

प्रेम– हाँ, शान्ति भंग कराने का अपराध मुझ पर हो तो जरूर पुलिस की सहायता लीजिए।

ज्वालासिंह– मुझे अब आप पर कड़ी निगाह रखनी पड़ेगी। मैं भी छोटा-मोटा ज़मींदार हूँ। आपसे डरना चाहिए। इस समय लखनपुर ही जाइएगा या आगे जाने का इरादा है?

प्रेम– इरादा तो यहीं से लौट आने का है, आगे जैसी जरूरत हो। इधर-आस-पास के देहातों में एक महीने से प्लेग का प्रकोप हो रहा है। कुछ दवाएँ साथ लेता आया हूँ जरूरत होगी तो उसे बाँट दूँगा, कौन जाने मेरे ही हाथों दो-चार जानें बच जायें।

इसी प्रकार बातें करते हुए दोनों आदमी लखनपुर पहुँचे। गाँव खाली पड़ा था। लोग बागों में झोंपड़ियाँ डाले पड़े थे। इस छोटी-सी बस्ती में खूब चहल-पहल थी। उन दारुण दुःखों का चिह्न कहीं न दिखाई देता था, जिनसे लोगों के हृदय विदीर्ण हो गये थे। छप्परों के सामने महुए सुखाये जा रहे थे। चक्कियों की गरज, छाछ की तड़प, ओखली और मूसल की धमक उस जीवन-संग्राम की सूचना दे रही थी जो प्लेग के भीषण हत्याकांड की भी परवाह न करता था। लड़के आमों पर ढेले चला रहे थे। कोई स्त्री बरतन माँजती थी, कोई पड़ोसी के घर से आग लिये आती थी। कोई आदमी निठल्ला बैठा नजर न आता था।

प्रेमशंकर तो बस्ती में आते ही बहली से उतर पड़े और एक झोपड़े के सामने खाट पर बैठ गये। ज्वालासिंह घोड़े से न उतरे। खाट पर बैठना अपमान की बात थी। जोर से बोले– कहाँ है मुखिया? जाकर पटवारी को बुला लाये; हम मौका देखना चाहते हैं।

यह हुक्म सुनते ही कई आदमी झोंपड़ी से मरीजों को छोड़-छोड़कर निकल आये। चारों ओर भगदड़-सी पड़ गयी। दो-तीन आदमी चौपाल की तरफ कुर्सी लेने दौड़े दो-तीन आदमी पटवारी की तलाश में भागे और गाँव के मान्य गण जवालासिंह को घेरकर खड़े हो गये। प्रेमशंकर की ओर किसी ने ध्यान भी न दिया। इतने में कादिर खाँ अपनी झोपड़ी से निकले और सुक्खू के कान में कुछ कहा। सुक्खू ने दुखरन भगत से कानाफूसी की, तब बिसेसर साह से सायँ-सायँ बातें हुईं, मानों लोग किसी महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर विचार कर रहे हों दस मिनट के बाद सूक्खू चौधरी एक थाल लिये हुए आये। उसमें अक्षत, दही और कुछ रुपये रखे हुए थे। गाँव के पुरोहित जी ने प्रेमशंकर के माथे पर दही-चावल का टीका लगाया और थाल उनके सामने रख दिया।

ज्वालासिंह कुर्सी पर बैठते हुए बोले– लीजिए, आपकी तो बोहनी हो गयी, घाटे में तो हम ही रहे। उस पर भी आप जमींदारी पेशे की निन्दा करते हैं।

प्रेमशंकर ने कहा– देवी के नाम से ईट-पत्थर भी तो पूजे जाते हैं।

कादिर खाँ– हम लोगों के धन भाग थे कि दोनों मालिकों के एक साथ दर्शन हो गये।

प्रेम– यहाँ बीमारी कुछ कम हुई या अभी वही हाल है?

कादिर– सरकार, कुछ न पूछिए, कम तो न हुई और बढ़ती जाती है। कोई दिन नागा नहीं जाता कि एक न एक घर पर विजली न गिरती हो। नदी यहाँ से छह कोस है। कभी-कभी तो दिन में दो-दो तीन-तीन बेर जाना पड़ता है। उस पर कभी आँधी, कभी पानी, कभी आग। खेतों में अनाज सड़ा जाता है। कैसे काटें कहाँ रखे? बस, भोर को घरों में एक बेर चूल्हा जलता है। फिर दिन भर कहीं आग नहीं जलती। चिलम को तरसकर रह जाते हैं हुजूर, रोते नहीं बनता, दुर्दशा हो रही थी। उस पर मालिकों की निगाह भी टेढ़ी हो गयी है। सौ काम छोड़कर कचहरी दौड़ना पड़ता है। कभी-कभी तो घर में लाश छोड़कर जाना पड़ता है। क्या करें, जो सिर पर पड़ी है उसे झेलते हैं। हुजूर का एक गुलाम था। अच्छा पट्ठा था। सारी गृहस्थी सँभाले हुए था। तीन घड़ी में चल बसा। मुँह से बोल तक न निकली। सूक्खू चौधरी का तो घर ही सत्यानाश हो गया। बस, अब अकेले इन्हीं का दम रहा गया है। बेचारे डपटसिंह का छोटा लड़का कल मरा है, आज बड़ा लड़का बीमार है। अल्ला ही बचाये तो बचे। जुबान बन्द हो गयी है। लाल-लाल आँखें निकाले खाट पर पड़ा हाथ-पैर पटक रहा है। कहाँ तक गिनायें, खुदा रसूल, देवी-देवता सभी की मन्नतें मानते हैं पर कोई नहीं सुनता। अब तक तो जैसे बन पड़ा मुकदमें बाजी की उजरदारी की। अब वह हिम्मत भी नहीं रही किसके लिए यह सब करें? इतने पर भी मालिकों को दया नहीं आती।

प्रेमशंकर-जरा मैं डपटसिंह के लड़के को देखना चाहता हूँ।

कादिर– हाँ हुजूर, चलिए मैं चलता हूँ।

ज्वालासिंह– जरा सावधान रहिएगा, यह रोग संक्रामक होता है।

प्रेमशंकर ने इसका कुछ उत्तर न दिया। औषधियों का बैग उठाया और कादिर खाँ के पीछे-पीछे चले। डपटसिंह के झोंपड़े पर पहुँचे तो आदमियों की बड़ी भीड़ लगीं हुई थी। एक आम के पेड़ के नीचे रोगी की खाट पड़ी हुई थी। डपटसिंह और उनके छोटे भाई झपटसिंग सिरहाने खड़े पंखे झल रहे थे। दो स्त्रियाँ पायते की ओर खड़ी रो रही थीं। प्रेमशंकर को देखते ही दोनों अन्दर चली गयीं। दोनों भाइयों ने उनकी ओर दीन भाव से देखा और अलग हट गये। उन्होंने उष्णता-मापक यन्त्र से देखा तो रोग का ज्वर १०७ दरजे पर था। त्रिदोष के लक्षण प्रकट थे। समझ गये कि यह अब दम भर का मेहमान है। अभी वह बेग से औषधि निकाल ही रहे थें। कि मरीज एक बार जोर से चीख मार कर उठा और फिर खाट पर गिर पड़ा। आँखें पथरा गयीं। स्त्रियों में पिट्टस पड़ गयी। डपटसिंह शोकातुर होकर मृत शरीर से लिपट गया और रोकर बोला– बेटा! हाय बेटा!

यह कहते-कहते उसकी आँखें रक्त वर्ण हो गयीं उन्माद-सा छा गया, गीली लकड़ी पहली आँच में रसती है दूसरी आँच में जलकर भस्म हो जाती है। डपटसिंह शोक-सन्ताप से विह्वल हो गया। खड़े होकर बोला– कोई इस घर में आग क्यों नहीं लगा देता? अब इसमें क्या रखा है? कैसी दिल्लगी है! बाप बैठा रहे और बेटा चल दे! इन्हीं हाथों से मैंने इसे गोद में खिलाया था। इन्हीं हाथों से चिता की गोद में कैसे बैठा दूँ, कैसा रुलाकर चल दिया मानो हमसे कोई नाता ही नहीं है। कहता था, दादा तुम बूढ़ें हुए, अब बैठे-बैठे राम-राम करो, हम तुम्हारी परवस्ती करेंगे। मगर दोनों के दोनों चल दिये। किसी के मुँख पर दया न आयी! लो राम-राम करता हूँ। अब परवस्ती करो कि बातों के ही धनी थे?

यह कहते-कहते वह शव के पास से हटकर दूसरे पेड़ के नीचे जा बैठे। एक क्षण के बाद फिर बोले– अब इस माया-जाल को तोड़ दूँगा। बहुत दिन इसने मुझे उँगलियों पर नचाया। अब मैं इसे नचाऊँगा। तुम दोनों चल दिये बहुत अच्छा हुआ। मुझे माया-जाल से छुड़ा दिया। इस माया के कारण कितने पाप किये, कितने झूठ बोले, कितनों का गला दबाया, कितनों के खेत काटे। अब सब पाप दोष का कारण मिट गया। वह मरी हुई माया सामने पड़ी है। कौन कहता है मेरा बेटा था? नहीं, मेरा दुश्मन था, मेरे गले का फन्दा था, मेरे पैरों की बेड़ी था फन्दा छूट गया, बेड़ी कट गयी। लाओ, इस घर में आग लगा दो, सब कुछ भस्म कर दो। बलराज, खड़ा आँसू क्या बहाता है? कहीं आग नहीं है? लाके लगा दे।

सब लोग खड़े रो रहे थे। प्रेमशंकर भी करुणातुर हो गये। डपटसिंह के पास जाकर बोले– ठाकुर धीरज धरो। संसार का यही दस्तूर है। तुम्हारी यह दशा देखकर बेचारी स्त्रियाँ और भाई रो रहे हैं। उन्हें समझाओ।

डपटसिंह ने प्रेमशंकर को उन्मत्त नेत्रों से देखा और व्यंग्य भाव से बोले– ओहो, आप तो हमारे मालिक हैं। क्या जाफा वसूल करने आये हैं? उसी से लीजिए जो वहाँ धरती पर पड़ा हुआ है, वह आपकी कौड़ी-कौड़ी चुका देगा। गौस खाँ से कह दीजिए, उसे पकड़ ले जायें, बाँधे, मारें मैं न बोलूँगा। मेरा खेती-बारी से घर द्वार से इस्तीफा है।

कादिर खाँ ने कहा– भैया डपट, दिल मजबूत करो। देखते हो, घर-घर यही आग लगी हुई है मेरे सिर भी तो यही विपत्ति पड़ी है। इस तरह दिल छोटा करने से काम न चलेगा, उठो। कुछ कफन-कपड़े की फिकिर करो, दोपहर हुआ जाता है।

डपटसिंह को होश आ गया। होश के साथ आँसू भी आये। रोकर बोले, दादा, तुम्हारा-सा कलेजा कहाँ ले लायें? किसी तरह धीरज नहीं होता। हाय! दोनों के दोनों चल दिये, एक भी बुढ़ापे का सहारा न रहा। सामने यह लाश देखकर ऐसा जी चाहता है गले पर गँडासा मार लूँ। दादा, तुम जानते हो कि कितना सुशील लड़का था। अभी उस दिन मुग्दर की जोड़ी के लिए हठ कर रहा था। मैंने सैकड़ों गालियाँ दीं मारने उठा। बेचारे ने जबान तक न हिलायी। हाँ, खाने-पीने को तरसता रह गया। उसकी कोई मुराद पूरी न हुई। न भर पेट खा सका, न तन-भर पहन सका। धिक्कार है मेरी जिन्दगानी पर! अब यह घर नहीं देखा जा सकता। झपट, अपना घर-द्वार सँभालो, मेरे भाग्य में ठोकर खाना लिखा हुआ है। भाई लोग! राम-राम मालिक को राम, सरकार को राम-राम! अब यह अभागा देश से जाता है, कही-सुनी माफ करना!

यह कहकर डपटसिंह उठकर कदम बढ़ाते हुए एक तरफ चले। जब कई आदमियों ने उन्हें पकड़ना चाहा तो वह भागे। लोगों ने उनका पीछा किया, पर कोई उनकी गर्द को भी न पहुँचा। जान पड़ता था हवा में उड़े जाते हैं। लोगों के दम फूल गये, कोई यहाँ रहा, कोई वहाँ गिरा अकेले बलराज ने उनका पीछा न छोड़ा, यहाँ तक कि डपटसिंह बेदम होकर जमीन पर गिर पड़े। बलराज दौड़कर उनकी छाती से लिपट गया और तब अपने अँगोछे से उन्हें हवा करने लगा। जब उन्हें होश आया तो हाथ पकड़े हुए घर लाया।

ज्वालासिंह की करुणा भी जाग्रत हो गयी। प्रेमशंकर से बोले– बाबू साहब, बड़ा शोकमय दृश्य है।

प्रेमशंकर– कुछ न पूछिए, कलेजा मुँह को आया जाता है

कई आदमी बाँस काटने लगे, लेकिन तीसरे पहर तक लाश न उठी। प्रेमशंकर ने कादिर से पूछा– देर क्यों हो रही है!

कादिर– हुजूर, क्या कहें? घर में रुपये नहीं है। बेचारा डपट रुपये के लिए इधर-उधर दौड़ रहा है, लेकिन कहीं नहीं मिलते। हमारी जो दशा है सरकार, हमीं जानते हैं। जाफा लगान के मुकदमें ने पहली ही हाँडी तावा गिरों रखवा लिया था। इस बीमारी ने रही सही कसर पूरी कर दी। अब किसी के घर में कुछ नहीं रहा। प्रेमशंकर ने ठंडी साँस लेकर ज्वालासिंह से कहा– देखी आपने इनकी हालत? घर में कौड़ी कफन को नहीं।

ज्वालासिंह– मुझे अफसोस आता है कि इनसे पिछले साल मुचलका क्यों लिया! मैं अब तक न जानता था कि इनकी दशा इतनी हीन है।

प्रेम– मुझे खेद है कि मकान से कुछ रुपये लेकर न चला।

ज्वाला– रुपये मेरे पास हैं, पर मुझे देते हुए संकोच होता है। शायद इन्हें बुरा लगे? आप लेकर दे दे, तो अच्छा हो।

प्रेमशंकर ने २० रुपये का नोट ले लिया और कादिर खाँ को चुपके से दे दिया एक आदमी तुरन्त कफन लेने को दौड़ा। लाश उठाने की तैयारी होने लगी। स्त्रियों में फिर कोहराम मचा। जब तक शव घर में रहता है, घरवालों को कदाचित कुछ आशा लगी रहती है। उसका घर से उठना पार्थिव वियोग का अन्त है। वह आशा के अन्तिम सूत्र को तोड़ देता है।

तीसरे पहर लाश उठी। सारे गाँव के पुरुष साथ चले। पहले कादिर खाँ ने कन्धा दिया। ज्वालासिंह को सरकारी काम था, वह लौट पड़े। लेकिन प्रेमशंकर ने दो-चार दिन वहाँ रहने का निश्चय किया।

21.

एक पखवारा बीत गया। सन्ध्या समय था। शहर में बर्फ की दूकानों पर जमघट होने लगा था। हुक्के और सिगरेट से लोगों को अरुचि होती जाती थी। ज्वालासिंह लखनपुर से मौके की जाँच करके लौटे थे और कुर्सी पर बैठे ठंडा शर्बत पी रहे थे कि शीलमणि ने आकर पूछा, दोपहर को कहाँ रह गये थे?

ज्वाला– बाबू प्रेमशंकर का मेहमान रहा। वह अभी देहात में ही हैं।

शील– अभी तक बीमारी का जोर कम नहीं हुआ।

ज्वाला– नहीं अब कम हो रहा है। वह पूरे पन्द्रह दिन से देहातों में दौरे कर रहे हैं। एक दिन भी आराम से नहीं बैठे। गाँव में जनता उनको पूजती है। बड़े-बड़े हाकिम का भी इतना सम्मान न होगा। न जाने इस तपन में उनसे कैसे वहाँ रहा जाता है। न पंखा न टट्टी, न शर्बत, न बर्फ। बस, पेड़ के नीचे एक झोंपड़े में पड़े रहते हैं। मुझसे तो वहाँ एक दिन भी न रहा जाये।

शील– परोपकारी पुरुष जान पड़ते हैं। क्या हुआ, तुमने मौका देखा?

ज्वाला– हाँ, खूब देखा। जिस बात का सन्देह था वही सच्ची निकली। ज्ञानशंकर का दावा बिल्कुल निस्सार है। उसके मुख्तार और चपरासियों ने मुझे बहुत-कुछ चकमा देना चाहा, लेकिन मैं इन लोगों के हथकंडों को खूब जान गया हूँ। बस, हाकिमों को धोखा देकर अपना मतलब निकाल लेते हैं। जरा इस भलमनसाहत को देखो कि असामियों के तो जान के लाले पड़े हुए हैं और इन्हें अपने प्याले-भर खून की धुन सवार है। इतना भी नहीं हो सकता कि जरा गाँव में जाकर गरीबों की तसल्ली तो करते। इन्हीं का भाई है कि जमींदारी पर लात मारकर दीनों की निःस्वार्थ सेवा कर रहा है, अपनी जान हथेली पर लिये फिरता है और एक यह महापुरुष हैं कि दीनों की हत्या करने से भी नहीं हिचकते। मेरी निगाह में तो अब इनकी आधी इज्जत भी नहीं रही, खाली ढोल है।

शील– तुम जिनकी बुराई करने लगते हो, उसकी मिट्टी पलीद कर देते हो। मैं भी आदमी पहचानती हूँ। ज्ञानशंकर देवता नहीं, लेकिन जैसे सब आदमी होते हैं वैसे ही वह भी हैं। ख्वामख्वाह दूसरों से बुरे नहीं।

ज्वाला– तुम उन्हें जो चाहो कहो पर मैं तो उन्हें क्रूर और दुरात्मा समझता हूँ।

शील– तब तुम उनका दावा अवश्य ही खारिज कर दोगे?

ज्वाला– कदापि नहीं, मैं यह सब जानते हुए भी उन्हीं की डिग्री करूँगा, चाहे अपील से मेरा फैसला मन्सूख हो जाये।

शील– (प्रसन्न होकर) हाँ, बस मैं भी यही चाहती हूँ, तुम अपनी-सी कर दो, जिससे मेरी बात बनी रहे।

ज्वाला– लेकिन यह सोच लो कि तुम अपने ऊपर कितना बड़ा बोझ ले रही हो। लखनपुर में प्लेग का भयंकर प्रकोप हो रहा है। लोग तबाह हुए जाते हैं, खेत काटने की भी किसी को फुरसत नहीं मिलती। कोई घर ऐसा नहीं, जहाँ से शोक-विलाप की आवाज न आ रही हो। घर के घर अँधेरे हो गये, कोई नाम लेनेवाला भी न रहा। उन गरीबों में अब अपील करने की सामर्थ्य नहीं। ज्ञानशंकर डिग्री पाते ही जारी कर देंगे। किसी के बैल नीलाम होंगे, किसी के घर बिकेंगे, किसी की फसल खेत में खड़ी-खड़ी कौड़ियों के मोल नीलाम हो जायेगी। यह दीनों की हाय किस पर पड़ेगी? यह खून किसी की गर्दन पर होगा? मैं बदमामी से नहीं डरता लेकिन अन्याय और अनर्थ से मेरे प्राण काँपते हैं।

शीलमणि यह व्याख्यान सुनकर काँप उठी। उनके इस मामले को इतना महत्त्वपूर्ण न समझा था। उनका मौन-व्रत टूट गया, बोली– यदि यह हाल है तो आप वही कीजिए जो न्याय और सत्य कहे। मैं गरीबों की आह नहीं लेना चाहती। मैं क्या जानती थी कि जरा-से दावे का यह भीषण परिणाम होगा?

ज्वालासिंह के हृदय पर से एक बोझ-सा उतर गया। शीलमणि को अब तक वह न समझ थे। बोले, विद्यावती के सामने कौन-सा मुँह लेकर जाओगी?

शीलमणि– विद्यावती ऐसे क्षुद्र विचारों की स्त्री नहीं है और अगर वह इस तरह मुझसे रूठ भी जाये तो मुझे चिन्ता नहीं। मैत्री के पीछे क्या गरीबों का गला काट लिया जाय? मैं तो समझती हूँ, वह ज्ञानशंकर से चिढ़ती है। जब कभी उन्होंने मुझसे इस दावे की चर्चा की है वह मेरे पास से उठ कर चली गई है। उनकी मायालिप्सा उसे एक आँख नहीं भाती। दावा खारिज होने की खबर सुनकर मन में प्रसन्न होगी।

ज्वाला– उस पर आपका दावा है कि गायत्री के इलाके का प्रबन्ध करेंगे। उसकी इनसे एक दिन भी न निभेगी। वह बड़ी दयावती है।

शीलमणि– दावा खारिज करने पर वह अपील कर दें तो?

ज्वाला– हाँ, बहुत सम्भव है, अवश्य करेंगे।

शील– और वहाँ से इनका दावा बहाल हो सकता है?

ज्वाला– हाँ, हो सकता है।

शील– तब तो वह गरीब खेतिहरों को और भी पीस डालेंगे।

ज्वाला– हाँ, यह तो उनकी प्रकृति ही है।

शील– तुम खेतिहरों की कुछ मदद नहीं कर सकते?

ज्वाला– न, यह मेरे अख्तियार से बाहर है।

शील– किसानों को कहीं से धन की सहायता मिल जाय तब तो वह न हारेंगे?

ज्वाला– हार-जीत तो हाकिम के निश्चय पर निर्भर है। हाँ, उन्हें मदद मिल जाय तो वह अपने मुकदमें की पैरवी अच्छी तरह कर सकेंगे।

शील– तो तुम कुछ रुपये क्यों नहीं दे देते?

ज्वाला– वाह, जिस अन्याय से भागता हूँ, वही करूँ।

शील– प्रेमशंकर जी बड़े दयालु हैं। उनके पास रुपये हों तो वह खेतिहारों की मदद करें।

ज्वाला– मेरे विचार से वह इस न्याय के लिए अपने भाई से बैर न करेंगे।

इतने में बाहर कई मित्र आ गये। ग्वालियर का एक नामी जलतरंगिया आया हुआ था। क्लब में उसका गाना होने वाला था। लोग क्लब चल दिये।

दूसरी तारीख पर ज्ञानशंकर का मुकदमा पेश हुआ। ज्वालासिंह ने फैसला सुना दिया। उनका दावा खारिज हो गया। ज्ञानशंकर उस दिन स्वयं कचहरी में मौजूद थे। यह फैसला सुना तो दाँत पीसकर रह गये। क्रोध में भरे हुए घर आये और विद्या पर जले दिल के फफोले फोड़े। आज बहुत दिनों के बाद लाला प्रभाशंकर के पास गये और उनसे भी एक असद्वव्यवहार का रोना रो आये। एक सप्ताह तक यही क्रम चलता रहा। शहर में ऐसा कोई परिचित आदमी न था, जिससे उन्होंने ज्वालासिंह के कपट व्यवहार की शिकायत न की हो। यहाँ तक कि रिश्वत का दोषारोपण करने में भी संकोच न किया। और उन्हें शब्दाघातों से ही तस्कीन न हुई। कलम की तलवार से भी चोंटे करनी शुरू कीं। कई दैनिक पत्रों में ज्वालासिंह की खबर ली। जिस पत्र में देखिए उसी में उनके विरुद्ध कालम-के-कालम भरे रहते थे एंग्लो-इण्डियन पत्रों को हिन्दुस्तानियों की अयोग्यता पर टिप्पणी करने का अच्छा अवसर हाथ आया। एक महीने तक यही रौला मचा रहा। ज्वालासिंह के जीवन का कोई अंग कलंक और अपवाद से न बचा। एक सम्पादक महाशय ने तो यहाँ तक लिख मारा कि उनका मकान शहर भर के रसिक-जनों का अखाड़ा है। ज्ञानशंकर के रचना कौशल ने उनके मनोमालिन्य के साथ मिलकर ज्वालासिंह को अत्याचार और अविचार का काला देव बना दिया। बेचारे लेखों को पढ़ते थे और मन-ही-मन ऐंठकर रह जाते थे। अपनी सफाई देने का अधिकार न था। कानून उनका मुँह बन्द किए हुए था। मित्रों में ऐसा कोई न था जो पक्ष में कलम उठाता। पत्रों में मिथ्यावादिता पर कुढ़-कुढ़ कर रह जाते थे, जो सत्यासत्य का निर्णय किये बिना अधिकारियों पर छींटे उड़ाने में ही अपना गौरव समझते थे। घर से निकलना मुश्किल हो गया। शहर में जहाँ देखिए यही चर्चा थी। लोग उन्हें आते-जाते देखकर खुले शब्दों में उनका उपहास करते थे। अफसरों की निगाह भी बदल गयी। जिलाधीश से मिलने गये। उसने कहला भेजा, मुझे फुरसत नहीं है। कमिश्नर एक बंगाली सज्जन थे। उनके पास फरियाद करने गये। उन्होंने सारा वृत्तांत बड़ी सहानुभूति के साथ सुना, लेकिन चलते समय बोले, यह असम्भव है कि इस हलचल का आप पर कोई असर न हो। मुझे शंका है कि कहीं यह प्रश्न व्यवस्थापक सभा में न उठ जाये। मैं यथाशक्ति आप पर आँच न आने दूँगा। लेकिन आपको न्यायोचित समर्थन करने के लिए कुछ नुकसान उठाने पर तैयार रहना चाहिए, क्योंकि सन्मार्ग फूलों की सेज नहीं है।

एक दिन ज्वालासिंह इन्हीं चिन्ताओं में मग्न बैठे हुए थे कि प्रेमशंकर आये। ज्वालासिंह दौड़कर उनके गले लिपट गये। आँखें सजल हो गयीं, मानो आपने किसी परम हितैषी से भेंट हुई हो। कुशल समाचार के बाद पूछा, देहात से कब लौटे?

प्रेमशंकर– आज ही आया हूँ। पूरे डेढ़ महीने लगे गये। दो-तीन दिन का इरादा करके घर से चला था। हाजीगंज वाले बार-बार बुलाने न जाते तो मैं जेठ भर वहाँ और रहता।

ज्वाला– बीमारी की क्या हालत है?

प्रेमशंकर– शान्त हो गयी है। यह कहिए समाचार-पत्रों में क्या हरबोंग मचा हुआ है? मैंने तो आज देखा। दुनिया में क्या हो रहा है। इसकी कुछ खबर ही न थी। यह मण्डली तो बेतरह आपके पीछे पड़ी हुई है।

ज्वाला– उनकी कृपा है और कहूँ?

प्रेम– मैं तो देखते ही समझ गया कि यह ज्ञानशंकर के दावे को खारिज कर देने का फल है।

ज्वाला– बाबू ज्ञानशंकर से कभी ऐसी आशा न थी कि मुझे अपना कर्त्तव्य पालन करने का यह दण्ड दिया जायेगा। अगर वह केवल मेरी न्याय और अधिकार-सम्बन्धी बातों पर आघात करते तब भी मुझे खेद न होता। मुझे अत्याचारी कहते, जुल्मी कहते, निरंकुश सिद्ध करते-हम इन आपेक्षों के आदी होते हैं। दुःख इस बात का है कि मेरे चरित्र को कलंकित किया गया है। मुझे अगर किसी बात का घमण्ड है तो वह अपने आचरण का है। मेरे कितने ही रसिक मित्र वैरागी कहकर चिढ़ाते हैं। यहाँ मैं कभी थियेटर देखने नहीं गया, कभी मेला तमाशा तक नहीं देखा। बाबू ज्ञानशंकर इस बात से भली-भाँति परिचित हैं। लेकिन मुझे सारे शहर के छैलों का नेता बनाने में उन्हें लेश-मात्र भी संकोच न हुआ। इन आक्षेपों से मुझे इतना दुःख हुआ है कि उसे प्रकट नहीं कर सकता। कई बार मेरी इच्छा हुई कि विष खा लूँ। आपसे मेरा परिचय बहुत थोड़ा है, लेकिन मालूम नहीं क्यों जी चाहता है कि आपके सामने हृदय निकालकर रख दूँ। मैंने कई बार जहर खाने का इरादा किया, किन्तु यह सोचकर कि कदाचित् इससे इन आक्षेपों की पुष्टि हो जायेगी, रुक गया। यह भय भी था कि शीलमणि रो-रो कर प्राण न त्याग दे। सच पूछिए, तो उसी के श्रद्धामय प्रेम ने अब तक मेरी प्राण-रक्षा की है, अगर वह एक क्षण के लिए भी मुझसे विमुख हो जाती तो मैं अवश्य ही आत्म-घात कर लेता। ज्ञानशंकर मेरे स्वभाव को जानते हैं। मैं और वह बरसों तक भाइयों की भाँति रहे हैं। उन्हें मालूम है कि मरे हृदय में मर्मस्थान कहाँ है। इसी स्थान को उन्होंने अपनी कलम से बेधा और मेरी आत्मा को सदा के लिए निर्बल बना दिया।

प्रेम– मैं तो आपको यही सलाह दूँगा कि इन पत्रों पर मान-हानि का अभियोग चलाइए। इसके सिवा अपने को निर्दोष सिद्ध करने का कोई उपाय नहीं है। मुझे इसकी जरा भी परवाह नहीं कि ज्ञानशंकर पर इसका क्या असर पड़ेगा। उन्हें अपने कर्मों का दंड मिलना चाहिए। मैं स्वयं सहिष्णुता का भक्त हूँ लेकिन यह असंभव है कि कोई चरित्र पर मिथ्या कलंक लगाये और मैं मौन धारण किये बैठा रहूँ। आप वकीलों से सलाह ले कर अवश्य मान-हानि का मुकदमा चलाइए।

ज्वालासिंह कुछ सोचकर बोले– और भी बदनामी होगी।

प्रेम– कदापि नहीं। आपको इन मिथ्याक्षेपों का प्रतिवाद करने का अवसर मिलेगा और जनता की दृष्टि मंन आपका सम्मान बढ़ जायेगा। ऐसी दशा में आपका चुप रह जाना अक्षम्य ही नहीं, दूषित है। यह न समझिए कि मुझे ज्ञानशंकर से द्वेष या अपवाद से प्रेम है। इस मामले को केवल सिद्धान्त की निष्पक्ष दृष्टि से देखता हूँ। मान रक्षा हमारा धर्म है।

ज्वाला– मैं नतीजे को सोचकर कातर हो जाता हूँ। बाबू ज्ञानशंकर का फँस जाना निश्चित है। मुमकिन है, जेल की नौबत आये। वह आत्मिक कष्ट मेरे लिए इससे कहीं असह्य होगा। जिससे बरसों तक भ्रातृवत् प्रेम रहा, जिससे दाँत काटी रोटी थी उससे मैं इतना कठोर नहीं हो सकता। मैं तो इस विचार-मात्र ही से काँप उठता हूँ। इन आक्षेपों से मेरी केवल इतनी हानि होगी कि यहाँ से तबदील हो जाऊँगा या अधिक से अधिक पदच्युत हो जाऊँगा, परन्तु ज्ञानशंकर तबाह हो जायेंगे। मैं अपने दुरावेशों को पूरा करने के लिए उनके परिवार का सर्वनाश नहीं कर सकता।

प्रेमशंकर ने ज्वालासिंह को श्रद्धापूर्ण नेत्रों से देखा। इस आत्मोत्सर्ग के सामने उनका सिर झुक गया, हृदय सदनुराग से परिपूर्ण हो गया। ज्वालासिंह के पैरों पर गिर पड़े और सजल नेत्र होकर बोले, भाई जी, आपको परमात्मा ने देव-स्वरूप बनाया है। मुझे अब तक न मालूम था कि आपके हृदय में ऐसे पवित्र और निर्मल भाव छिपे हुए हैं।

ज्वालासिंह झिझककर पीछे हट गये और बोले– भैया, ईश्वर के लिए वह अन्याय न कीजिए। मैं तो अपने को इस योग्य भी नहीं पाता कि आपके चरणारविन्द अपने माथे से लगाऊँ। आप मुझे काँटों में घसीट रहे हैं।

प्रेमशंकर– यदि आपकी इच्छा हो तो मैं उन्हीं पत्रों में इन आक्षेपों का प्रतिवाद कर दूँ।

ज्वालासिंह वास्तव में प्रतिवाद की आवश्यकता को स्वीकार करते थे, किन्तु इस भय से कि कहीं मेरी सम्मति मुझे उस उच्च पद से गिरा न दे, जो मैंने अभी प्राप्त किया है, इनकार करना ही उचित जाना पड़ा। बोले– जी नहीं, इसकी भी जरूरत नहीं।

प्रेमशंकर के चले जाने के बाद ज्वालासिंह को खेद हुआ कि प्रतिवाद का ऐसा उत्तम अवसर हाथ से निकल गया। अगर इनके नाम से प्रतिवाद निकलता तो वह सारा मिथ्या-जाल मकड़ी के जालों के सदृश कट जाता। पर अब तो जो हुआ सो हुआ। एक साधु पुरुष के हृदय में स्थान तो मिल गया।

प्रेमशंकर घर तक जाने का विचार करके हाजीपुर से चले थे। महीनों से घर से कुशल-समाचार न मिला था, लेकिन यहाँ से उठे तो नौ बज गये थे, जेठ की लू चलने लगी थी। घर से हाजीपुर लौट जाना दुस्तर था। इसलिए किसी दूसरे का इरादा करके लौट पड़े।

लेकिन ज्ञानशंकर को चैन कहाँ। उन्हें ज्यों ही मालूम हुआ कि भैया देहात से लौट आये है, वह उनसे मिलने के लिए उत्सुक हो गये। ज्वालासिंह को उनकी नजरों में गिराना आवश्यक था। सन्ध्या समय था। प्रेमशंकर अपने झोंपड़े के सामने वाले गमलों में पानी दे रहे थे। कि ज्ञानशंकर आ पहुँच और बोले– क्या मजूर कहीं चला गया है क्या?

प्रेमशंकर– मैं भी तो मजूर ही हूँ। घर पर सब कुशल है न?

ज्ञान– जी हाँ, सब आपकी दया है। आपके यहाँ तो कई हलवाहे होंगे। क्या वह इतना भी नहीं कर सकते कि इन गमलों को सींच दें? आपको व्यर्थ कष्ट उठाना पड़ता है।

प्रेम– मुझे उनसे काम लेने का कोई अधिकार नहीं है। वह मेरे निज के नौकर नहीं है। मैं तो केवल यहाँ का निरीक्षक हूँ और फिर मैंने अमेरिका में तो हाथों से बर्तन धोये हैं। होटलों की मेजें साफ की हैं, सड़कों पर झाड़ू दी है, यहाँ आकर मैं कोई और तो नहीं हो गया। मैंने यहाँ कोई खिदमतगार नहीं रखा है। अपना सब काम कर लेता हूँ।

ज्ञान– तब तो आपने हद कर दी। क्या मैं पूछ सकता हूँ कि आप क्यों अपनी आत्मा को इतना कष्ट देते हैं।

प्रेम– मुझे कोई कष्ट नहीं होता। हाँ, इसके विरुद्ध आचरण करने में अलबत्ता कष्ट होगा। मेरी आदत ऐसी ही पड़ गयी है।

ज्ञान– यह तो आप मानते हैं कि आत्मिक उन्नति की भिन्न कक्षाएँ होती हैं।

प्रेम– मैंने इस विषय में कभी विचार नहीं किया और न अपना कोई सिद्धान्त स्थिर कर सकता हूँ। उस मुकदमे की अपील अभी दायर की या नहीं?

ज्ञान– जी हाँ दायर कर दी। आपने ज्वालासिंह की सज्जनता देखी? यह महाशय मेरे बनाये हुए हैं। मैंने ही इन्हें रटा-रटा कर किसी तरह बी.ए. कराया। अपना हर्ज करता था, पर पहले इनकी कठिनाइयों को दूर कर देता था। इस नेकी का इन्होंने यह बदला दिया। ऐसा कृतघ्न मनुष्य मैंने नहीं देखा।

प्रेम– पत्रों में उनके विरुद्ध जो लेख छपे थे। वह तुम्हीं ने लिखे थे?

ज्ञान– जी हाँ! जब वह मेरे साथ ऐसा व्यवहार करते हैं, तब मैं क्यों उनसे रियायत करूँ?

प्रेम– तुम्हारा व्यव्हार बिलकुल न्याय-विरुद्ध था। उन्होंने जो कुछ किया, न्याय समझ कर किया। उनका उद्देश्य तुम्हें नुकसान पहुँचाना न था। तुमने केवल उनका अनिष्ट करने के लिए यह आक्षेप किया।

ज्ञान– जब आपस में अदावत हो गयी तब सत्यता का विववेचन कौन करता है? धर्म-युद्ध का समय अब नहीं रहा।

प्रेम– तो यह सब तुम्हारी मिथ्या कल्पना है?

ज्ञान– जी हाँ, आपके सामने लेकिन दूसरों के सामने…

प्रेम– (बात काटकर) वह मानहानि का दावा कर दें तो?

ज्ञान– इसके लिए बड़ी हिम्मत चाहिए और उनमें हिम्मत का नाम नहीं। यह सब रोब-दाब दिखाने के ही है। अपील का फैसला मेरे अनुकूल हुआ, तो अभी उनकी और खबर लूँगा। जाते कहाँ हैं? और कुछ न हुआ तो बदनामी के साथ तबदील तो हो ही जायेंगे। अबकी तो आपने लखनपुर की खूब सैर की, असामियों ने मेरी खूब शिकायत की होगी?

प्रेम– हाँ, शिकायत सभी कर रहे हैं।

ज्ञान– लड़ाई-दंगे का तो कोई भय नहीं है?

प्रेम– मेरे विचार में तो इसकी संभावना नहीं है।

ज्ञान– अगर उन्हें मालूम हो जाये कि इस विषय में हम लोगों के मतभेद हैं-और यह स्वाभाविक ही है; क्योंकि आप अपने मनोगत छिपा नहीं सकते– तो वह और भी शेर हो जायेंगे।

प्रेम– (हँसकर) तो इससे हानि क्या होगी?

ज्ञान– आपके सिद्धान्त के अनुसार तो कोई हानि न होगी, पर मैं कहीं का नहीं रहूँगा। इस समय मेरे हित के लिए यह अत्यावश्यक है कि आप उधर आना-जाना कम कर दें।

प्रेम– क्या तुम्हें संदेह है कि मैं असामियों को उभाड़कर तुमसे लड़ाता हूँ? मुझे तुमसे कोई दुश्मनी नहीं है? मैं लखनपुर के ही नहीं, सारे देश के कृषकों से सहानुभूति है। लेकिन इसका यह आशय नहीं कि मुझे जमींदारों से कोई द्वेष है, हाँ अगर तुम्हारी यही इच्छा है कि मैं उधर न जाऊं तो यही सही। अब में कभी न जाऊँगा।

ज्ञानशंकर को इत्मीनान तो हुआ, पर वह इसे प्रकट न कर सके मन में लज्जित थे। अपने भाई की रजोवृत्ति के सामने उन्हें अपनी तमोवृत्ति बहुत निष्कृष्ट प्रतीत होती थी। वह कुछ देर तक कपास और मक्का के खेतों को देखते रहे, जो यहाँ बहुत पहले ही बो दिये गये थे। फिर घर चले आये। श्रद्धा के बारे में न प्रेमशंकर ने कुछ पूछा और न उन्होंने कुछ कहा। श्रद्धा अब उनकी प्रेयसी नहीं, उपास्य देवी थी।

दूसरे दिन दस बजे डाकिये ने उन्हें एक रजिस्टर्ड लिफाफा दिया। उन्होंने विस्मित होकर लिफाफे को देखा। पता साफ लिखा हुआ था। खोला तो ५०० रु. का एक करेन्सी नोट निकला। एक पत्र भी था, जिसमें लिखा हुआ था–

‘लखनपुर वालों की सहायता के लिए यह रुपये आपके पास भेजे जाते हैं। यह आप अपील की पैरवी करने के लिए उन्हें दे दें। इस कष्ट के लिए क्षमा कीजिएगा।’

प्रेमशंकर सोचने लगे, इसका भेजने वाला कौन है? यहाँ, मुझे कौन जानता है। कौन मेरे विचारों से अवगत है? किसे मुझ पर इतना विश्वास है? इन सब प्रश्नों का उत्तर मिलता था, ‘ज्वालासिंह’ किन्तु मन इस उत्तर को स्वीकार न करता था।

अब उन्हें यह चिन्ता लगी कि यह रुपये क्योंकर भेजूँ? ज्ञानशंकर को मालूम हो गया तो वह समझेंगे मैंने स्वयं असामियों को सहायता दी है। उन्हें कभी विश्वास न आयेगा कि यह किसी अन्य व्यक्ति की अमानत है। यदि असामियों को न दूँ तो महान् विश्वासघात होगा। इसी हैस-बैस में शाम हो गयी और लाला प्रभाशंकर का शुभागमन हुआ।

22.

ज्ञानशंकर को अपील के सफल होने का पूरा विश्वास था। उन्हें मालूम था कि किसानों में धनाभाव के कारण अब बिल्कुल दम नहीं है। लेकिन जब उन्होंने देखा, काश्तकारों की ओर से भी मुकदमें की पैरवी उत्तम रीति से की जा रही है तो उन्हें अपनी सफलता में कुछ-कुछ सन्देह होने लगा। उन्हें विस्मय होता था कि इनके पास रुपये कहाँ से आ गये? गौस खाँ तो कहता था कि बीमारी ने सभी को मटियामेट कर दिया है, कोई अपील पैरवी करने भी न जायेगा, एकतरफा डिगरी होगी। यह कायापलट क्योंकर हुई? अवश्य इनको कहीं-न-कहीं से मदद मिली है। कोई महाजन खड़ा हो गया है। शहर में तो कोई ऐसा नहीं दीख पड़ता, लखनपुर ही के आस-पास का होगा। खैर, अभी तो रहस्य खुलेगा, तब बच्चू से समझूँगा। फैसले के दिन वह स्वयं कचहरी गये। अपील खारिज हो गयी। सबसे पहले गौस खाँ सामने आये। उनसे डपटकर बोले– क्यों जनाब, आप तो फरमाते थे इन सबों के पास कौड़ी कफन को नहीं है, यह वकील क्या यों ही आ गया?

गौस खाँ ने भी गरम होकर कहा– मैंने हुजूर से बिलकुल सही अर्ज किया था, लेकिन मैं क्या जनता था कि मालिकों में ही इतनी निफाक है। मुझे पता लगता है कि हुजूर के बड़े भाई साहब ने एक हफ्ता हुआ कादिर को अपील की पैरवी के लिए एक हजार रुपये दिये हैं।

ज्ञानशंकर स्तम्भित हो गये। एक क्षण के बाद बोले, बिलकुल झूठ है।

गौस खाँ– हर्गिज नहीं। मेरे चपरासियों ने कादिर खाँ को अपनी जबान से यह कहते सुना है। उससे पूछा जाय तो वह आपसे भी साफ-साफ कह देगा, या आप अपने भाई से खुद पूछ सकते हैं।

ज्ञानशंकर निरुत्तर हो गये। उसी समय पैरगाड़ी सँभाली, झल्लाते हुए घर आये और श्रद्धा से तीव्र स्वर में बोले, भाभी तुमने देखी भैया की कारामात! आज पता चला कि आपने लखनपुर वालों को अपील की पैरवी करने के लिए एक हजार दिये हैं। इसका फल हुआ कि मेरी अपील खारिज हो गयी, महीनों की दौड़-धूप और हजारों रुपयों पर पानी फिर गया। एक हजार सालाना का नुकसान हुआ और रोब-दाब बिल्कुल मिट्टी में मिल गया। मुझे उनसे ऐसी कूटनीति की आशंका न थी। अब तुम्हीं बताओ उन्हें दोस्त समझूँ या दुश्मन?

श्रद्धा ने संशयात्मक भाव से कहा– तुम्हें किसी ने बहका दिया होगा। भला उनके पास इतने रुपये कहाँ होंगे?

ज्ञान– नहीं, मुझे पक्की खबर मिली है। जिन लोगों ने रुपये पाये हैं वे खुद अपनी जबान से कहते हैं।

श्रद्धा– तुमसे तो उन्होंने वादा किया था कि लखनपुर से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है, मैं वहाँ कभी न जाऊँगा।

ज्ञान– हाँ, कहा तो था और मैंने उन पर विश्वास कर लिया था, लेकिन आज विदित हुआ कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सारे संसार के मित्र होते हैं, पर अपने घर के शत्रु। जरूर इसमें चचा साहब का भी हाथ है।

श्रद्धा– पहले उनसे पूछ तो लो। मुझे विश्वास नहीं आता कि उनके पास इतने रुपये होंगे।

ज्ञान– उनकी कपट-नीति ने मेरे सारे मनूसबों को मिट्टी में मिला दिया। जब उनको मुझसे इतना वैमनस्य है तो मैं नहीं समझता कि मैं उन्हें अपना भाई कैसे समझूँ? बिरादरी वालों ने उनका जो तिरस्कार किया वह असंगत नहीं था विदेश-निवास आत्मीयता का नाश कर देता है।

श्रद्धा– तुम्हें भ्रम हुआ है।

ज्ञान– फिर वही बच्चों की-सी बातें करती हो। तुम क्या जानती हो कि उनके पास रुपये थे या नहीं?

श्रद्धा-तो जरा वहाँ तक चले ही क्यों नहीं जाते?

ज्ञान– अब नहीं जा सकता। मुझे उनकी सूरत से घृणा हो गयी। उन्होंने असामियों का पक्ष लिया है तो मैं भी दिखा दूँगा कि मैं क्या कर सकता हूँ। ज़मींदार के बावन हाथ होते हैं। लखनपुर वालों को ऐसा कुचलूँगा कि उनकी हड्डियों का पता न लगेगा। भैया के मन की बात मैं जानता हूँ। तुम सरल स्वाभावा हो, उनकी तह तक नहीं पहुँच सकती। उनका उद्देश्य इसके सिवा और कुछ नहीं है कि मुझे तंग करें, असामियों को उभाड़कर मुसल्लम गाँव हथिया लें और हम-तुम कहीं के न रहें। अब उन्हें खूब पहचान गया। रँगे हुए सियार हैं– मन में और– मुँह में और। और फिर जिसने अपना धर्म खो दिया वह जो कुछ न करे वह थोड़ा है। इनसे तो बेचारा ज्वालासिंह फिर भी अच्छा है। उसने जो कुछ किया न्याय समझकर किया, मेरा अहित न करना चाहता था। एक प्रकार से मैंने उसके साथ बड़ा अन्याय किया, उसे देश भर में बदनाम कर दिया। उन बातों को याद करने से ही दुःख होता है।

श्रद्धा– उनकी तो यहाँ से बदली हो गयी। शीलमणि की महरी आज आयी थी। कहती थी, तीन-चार दिन में चले जायेंगे। दर्जा भी घटा दिया गया है।

ज्ञानशंकर ने चौंककर कहा– सच!

श्रद्धा– शीलमणि कल आने वाली है। विद्या बड़े संकोच में पड़ी हुई है।

ज्ञान– मुझसे बड़ी भूल हुई। इसका शोक जीवन-पर्यन्त रहेगा। मुझे तो अब इसका विश्वास हो जाता है कि भैया ने उनके कान भी भर दिये थे। जिस दिन वह मौका देखने गये थे उसी दिन भैया भी लखनपुर पहुँचे। बस, इधर तो ज्वालासिंह को पट्टी पढ़ायी उधर गाँव वालों को पक्का-पोढ़ा कर दिया। मैं कभी कल्पना भी न कर सकता था कि वह इतनी दूर की कौड़ी लायेंगे, नहीं तो मैं पहले से ही चौकन्ना रहता।

श्रद्धा ने ज्ञानशंकर को अनादर की दृष्टि से देखा और वहाँ से उठ कर चली गयी। दूसरे दिन शीलमणि आयी और दिन भर वहाँ रही। चलते समय विद्या और श्रद्धा से गले मिलकर खूब रोयी।

ज्वालासिंह पाँच दिन और रहे। ज्ञानशंकर रोज उनसे मिलने का विचार करते, लेकिन समय आने पर कातर हो जाते थे। भय होता, कहीं उन्होंने उन आक्षेपूर्ण लेखों की चर्चा छेड़ दी तो क्या जवाब दूँगा? धाँधली तो कर सकता हूँ, साफ मुकर जाऊँ कि मैंने कोई लेख नहीं लिखा, मेरे नाम से तो कोई लेख छपा नहीं किन्तु शंका होती थी कि कहीं इस प्रपंच से ज्वालासिंह की आँखों में और न गिर जाऊँ।

पाँचवे दिन ज्वालासिंह यहाँ से चले। स्टेशन पर मित्र जनों की अच्छी संख्या थी। प्रेमशंकर भी मौजूद थे। ज्वालासिंह मित्रों के साथ हाथ मिला-मिलाकर विदा होते थे। गाड़ी के छूटने में एक-दो मिनट ही बाकी थे कि इतने में ज्ञानशंकर लपके हुए प्लेटफार्म पर आये और पीछे की श्रेणी में खड़े हो गये। आगे बढ़कर मिलने की हिम्मत न पड़ी। ज्वालासिंह ने उन्हें देखा और गाड़ी से उतरकर उनके पास आये और गले से लिपट गये। ज्ञानशंकर की आँखों से आँसू बहने लगे। ज्वालासिंह रोते थे कि चिरकाल की मैत्री का ऐसा शोकमय अन्त हुआ, ज्ञानशंकर रोते थे कि हाय! मेरे हाथों ऐसे सच्चे, निश्छल, निःस्पृह मित्र का अमंगल हुआ!

गार्ड ने झण्डी दिखाई तो ज्ञानशंकर ने कम्पित स्वर में कहा– , भाई जान, मैं अत्यन्त लज्जित हूँ।

ज्वालासिंह बोले– उन बातों को भूल जाइए।

ज्ञान– ईश्वर ने चाहा तो इसका प्रतिकार कर दूँगा।

ज्वाला– कभी-कभी पत्र के इस सदव्यवहार पर कुतूहल हुआ। उनके विचार में उस घाव का भरना दुस्तर था। उससे ज्यादा आश्चर्य प्रेमशंकर को हुआ, जो ज्ञानशंकर को उससे कहीं असज्जन समझते थे, जितने वह वास्तव में थे।

23.

अपील खारिज होने के बाद ज्ञानशंकर ने गोरखपुर की तैयारी की। सोचा, इस तरह तो लखनपुर से आजीवन गला न छूटेगा, एक-न-एक उपद्रव मचा ही रहेगा। कहीं गोरखपुर में रंग जम गया तो दो-तीन बरसों में ऐसे कई लखनपुर हाथ आ जायँगे। विद्या भी स्थिति का विचार करके सहमत हो गयी। उसने सोचा, अगर दोनों भाइयों में यों ही मनमुटाव रहा तो अवश्य ही बँटवारा हो जायेगा और तब एक हजार सालाना आमदनी में निर्वाह न हो सकेगा। इनसे और काम तो हो सकेगा नहीं। बला से जो काम मिलता है वही सही। अतएव जन्माष्टमी के उत्सव के बाद ज्ञानशंकर गोरखपुर जा पहुँचे। प्रेमशंकर से मुलाकात न की।

प्रभात का समय था। गायत्री पूजा पर थी कि दरबान ने ज्ञानशंकर के आने की सूचना दी। गायत्री ने तत्क्षण तो उन्हें अन्दर न बुलाया, हाँ जो पूजा नौ बजे समाप्त होती थी, वह सात ही बजे समाप्त कर दी। तब अपने कमरे में आकर उसने एक सुन्दर साड़ी पहनी, बिखरे हुए केश सँवारे और गौरव के साथ मसनद पर जा बैठी। लौंडी को इशारा किया कि ज्ञानशंकर को बुला लाय। वह अब रानी थी। यह उपाधि उसे हाल से ही प्राप्त हुई थी। वह ज्ञानशंकर से यथोचित आरोह से मिलना चाहती थी।

ज्ञानशंकर बुलाने की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्हें यहाँ का ठाट-बाट देखकर विस्मय हो रहा था। द्वार पर दो दरबान वरदी पहने टहल रहे थे। सामने की अंगनाई में एक घण्टा लटका हुआ था। एक ओर अस्तबल में कई बड़ी रास के घोड़े बँधे हुए थे। दूसरी ओर एक टीन के झोंपड़े में दो हवा गाड़ियाँ थीं। दालान में पिंजड़े लटकते थे, किसी में मैना थी किसी में पहाड़ी श्यामा, किसी में सफेद तोता। विलायती खरहे अलग कटघरे में पले हुए थे। भवन के सम्मुख ही एक बँगला था, जो फर्श और मेज-कुर्सियों से सजा हुआ था। यही दफ्तर था। यद्यपि अभी बहुत सबेरा था, पर कर्मचारी लोग अपने-अपने काम में लगे हुए थे। जिस कमरे में वह स्वयं बैठे हुए थे। वह दीवानखाना था। उसकी सजावट बड़े सलीके के साथ की गयी थी। ऐसी बहुमूल्य कालीनें और ऐसे बड़े-बड़े आईने उसकी निगाह से न गुजरे थे।

कई दलानों और आँगनों से गुजरने के बाद जब वह गायत्री की बैठक में पहुँचे तब उन्हें अपने सम्मुख विलायसमय सौन्दर्य की एक अनुपम मूर्ति नजर आयी जिसके एक-एक अंग से गर्व और गौरव आभासित हो रहा था। यह वह पहले की-सी प्रसन्न मुख सरल प्रकृति विनय पूर्ण गायत्री न थी।

ज्ञानशंकर ने सिर झुकाये सलाम किया और कुर्सी पर बैठ गये। लज्जा ने सिर न उठाने दिया। गायत्री ने कहा, आइए महाशय, आइए! क्या विद्या छोड़ती ही न थी? और तो सब कुशल है?

ज्ञान– जी हाँ, सब लोग अच्छी तरह हैं। माया तो चलते समय बहुत जिद कर रहा था कि मैं भी मौसी के घर चलूँगा, लेकिन अभी बुखार से उठे हुए थोड़े ही दिन हुए हैं, इसी कारण साथ न लाया। आपको नित्य याद करता है।

गायत्री– मुझे भी उसकी प्यारी-प्यारी भोली सूरत याद आती है। कई बार इच्छा हुई कि चलूँ, सबसे मिल जाऊँ, पर रियासत के झमेले से फुरसत ही नहीं मिलती। यह बोझ आप सँभालें तो मुझे जरा साँस लेने का अवकाश मिले। आपके लेख का तो बड़ा आदर हुआ। (मुस्कराकर) खुशामद करना कोई आप से सीख ले।

ज्ञान– जो कुछ था वह मेरी श्रद्धा का अल्पांश था।

गायत्री ने गुणज्ञता के भाव से मुस्कराकर कहा– जब थोड़ा-सा पाप बदनाम करने को पर्याप्त हो तो अधिक क्यों किया जाये? कार्तिक में हिज एक्सेलेन्सी यहाँ आने वाली हैं। उस अवसर पर मेरे उपाधि-प्रदान का जलसा करना निश्चय किया है। अभी तक केवल गजट में सूचना छपी है। अब दरबार में मैं यथोचित समारोह और सम्मान के साथ उपाधि से विभूषित की जाऊँगी।

ज्ञान– तब तो अभी से दरबार की तैयारी होनी चाहिए।

गायत्री– आप बहुत अच्छे अवसर पर आये। दरबार के मंडप में अभी से हाथ लगा देना चाहिए। मेहमानों का ऐसा सत्कार किया जाय कि चारों ओर धूम मच जाय। रुपये की जरा भी चिन्ता मत कीजिए। आप ही इस अभिनय के सूत्रधार हैं, आपके ही हाथों इसका सूत्रपात होना चाहिए। एक दिन मैंने जिलाधीश से आपका जिक्र किया था। पूछने, लगे, उनके राजनीतिक विचार कैसे हैं। मैंने कहा, बहुत ही विचारशील, शान्त प्रकृति के मनुष्य हैं। यह सुनकर बहुत खुश हुए और कहा, वह आ जायँ तो एक बार जल्से के सम्बन्ध में मुझसे मिल लें।

इसके बाद गायत्री ने इलाके की सुव्यवस्था और अपने संकल्पों की चर्चा शुरू की। ज्ञानशंकर को उसके अनुभव और योग्यता पर आश्चर्य हो रहा था। उन्हें भय होता कि कदाचित मैं इन कार्यों को उत्तम रीति से सम्पादन न कर सकूँ। उन्हें देहाती बैंकों का बिलकुल ज्ञान न था। निर्माण कार्य से परिचित न थे, कृषि के नये आविष्कारों से कोरे थे, किन्तु इस समय अपनी अयोग्यता प्रकट नितान्त अनुचित था। वह गायत्री की बातों पर ऐसी मर्मज्ञता से सिर हिलाते थे और बीच-बीच में टिप्पणियाँ करते थे, मानो इन विषयों में पारंगत हो। उन्हें अपनी बुद्धिमत्ता और चातुर्य पर भरोसा था। इसके बल पर वह कोई काम हाथ में लेते हुए न हिचकते थे।

ज्ञानशंकर को दो-चार दिन भी शान्ति से बैठकर काम को समझने का अवसर न मिला। दूसरे ही दिन दरबार की तैयारियों में दत्तचित्त होना पड़ा। प्रातः काल से सन्ध्या तक सिर उठाने की फुरसत न मिलती। बार-बार अधिकारियों से राय लेनी पड़ती, सजावट की वस्तुओं को एकत्र करने के लिए बार-बार रईसों की सेवा में दौड़ना पड़ता। ऐसा जान पड़ता था कि यह कोई सरकारी दरबार है लेकिन कर्त्तव्यशील उत्साहित पुरुष थे। काम से घबराते न थे। प्रत्येक काम को पूरी जिम्मेदारी से करते थे। वह संकोच और अविश्वास जो पहले किसी मामले में अग्रसर न होने देता था, अब दूर होता जाता था। उनकी अध्यवसायशीलता पर लोग चकित हो जाते थे। दो महीनों के अविश्रान्त उद्योग के बाद दरबार का इन्तजाम पूरा हो गया। जिलाधीश ने स्वयं आकर देखा और ज्ञानशंकर की तत्परता और कार्यदक्षता की खूब प्रशंसा की। गायत्री से मिले तो ऐसे सुयोग्य मैनेजर की नियुक्ति पर उसे बधाई दी। अभिनन्दन पत्र की रचना का भार भी ज्ञानशंकर पर ही था। साहब बहादुर ने उसे पढ़ा तो लोट-पोट हो गये और नगर के मान्य जनों से कहा, मैंने किसी हिन्दुस्तानी की कलम में यह चमत्कार नहीं देखा।

अक्टूबर मास की १५ तारीख दरबार के लिए नियत थी। लोग सारी रात जागते रहे। प्रातःकाल से सलामी की तोपें दगने लगीं, अगर उस दिन की कार्यवाही का संक्षिप्त वर्णन किया जाय तो एक ग्रन्थ बन जाय। ऐसे अवसरों पर उपन्यास अपनी कल्पना को समाचार-पत्रों के संवाददाताओं के सुपुर्द कर देता है। लेडियों के भूषणालंकारों की बहार, रईसों की सजधज की छटा देखनी हो, दावत की चटपटी, स्वाद युक्त सामग्रियों का मजा चखना हो और शिकार के तड़प-झड़प का आनन्द उठाना हो तो अखबारों के पन्ने उलटिए। वहाँ आपको सारा विवरण अत्यन्त सजीव, चित्रमय शब्दों में मिलेगा, प्रेसिडेन्ट रूजेवेल्ट शिकार खेलने अफ्रीका गये थे तो सम्वाददाताओं की एक मण्डली उनके साथ गयी थी। सम्राट जार्ज पंचम जब भारत वर्ष आये थे तब संवाददाताओं की एक पूरी सेना उनके जुलूस में थी। यह दरबार इतना महत्त्वपूर्ण न था, तिस पर भी पत्रों में महीनों तक इसकी चर्चा होती रही। हम इतना ही कह देना काफी समझते हैं कि दरबार विधिपूर्वक समाप्त हुआ, कोई त्रुटि न रही, प्रत्येत कार्य निर्दिष्ट समय पर हुआ। किसी प्रकार की अव्यवस्था न होने पायी। इस विलक्षण सफलता का सेहरा ज्ञानशंकर के सिर था। ऐसा मालूम होता था। कि सभी कठपुतलियाँ उन्हीं के इशारे पर नाच रहीं हैं। गर्वनर महोदय ने विदाई के समय उन्हें धन्यवाद दिया। चारों तरफ वाह-वाह हो गयी।

सन्ध्या समय था। दरबार समाप्त हो चुका था। ज्ञानशंकर नगर के मान्य जनों के साथ गवर्नर को स्टेशन तक विदा करके लौटे थे और एक कोच पर आराम से लेटे सिगार पी रहे थे। आज उन्हें सारा दिन दौड़ते गुजरा था, जरा भी दम लेने का अवकाश न मिला था। वह कुछ अलसाये हुए थे, पर इसके साथ ही हृदय पर वह उल्लास छाया हुआ था जो किसी आशातीत सफलता के बाद प्राप्त होता है। वह इस समय जब अपने कृत्यों का सिंहावलोकन करते थे तो उन्हें अपनी योग्यता पर स्वयं आश्चर्य होता था। अभी दो-ढाई मास पहले मैं क्या था? एक मामूली आदमी, केवल दो हजार सालाना का ज़मींदार! शहर में कोई मेरी बात भी न पूछता था, छोटे-छोटे अधिकारियों से भी दबता था और उनकी खुशामद करता था। अब यहाँ के अधिकारी वर्ग मुझसे मिलने की अभिलाषा रखते हैं। शहर के मान्य गण अपना नेता समझते हैं। बनारस में तो सारी उम्र बीत जाती, तब भी यह सम्मान-पद न प्राप्त होता। आज गायत्री का मिजाज भी आसमान पर होगा। मुझे जरा भी आशा न थी कि वह इस तरह बेधड़क मंच पर चली आयेगी वह मंच पर आयी तो सारा दरबार जगमगाने लगा था। उसके कुंदन वर्ण पर अगरई साड़ी कैसी छटा दिखा रही थी, उसके सौंदर्य आभा ने रत्नों की चमक-दमक को भी मात कर दिया था। विद्या इससे कहीं रूपवती है, लेकिन उसमें यह आकर्षण कहाँ, यह उत्तेजक शक्ति कहाँ, वह सगर्विता कहाँ, यह रसिकता कहाँ? इसके सम्मुख आकर आँखों पर, चित्त पर, जबान पर काबू रखना कठिन हो जाता है। मैंने चाहा था कि इसे अपनी ओर खींचूँ, इससे मान करूँ किन्तु कोई शक्ति मुझे बलात् उसकी ओर खींचे लिए जाती है। अब मैं रुक नहीं सकता। कदाचित वह मुझे अपने समीप आते देखकर पीछे हटती है; मुझसे स्वामिनी और सेवक के अतिरिक्त और कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहती। वह मेरी योग्यता का आदर करती है और मुझे अपनी सम्मान तृष्णा का साधन मात्र बनाना चाहती है। उसके हृदय में अब अगर कोई अभिलाषा है तो वह सम्मान-प्रेम है। यही अब उसके जीवन का मुख्य उद्देश्य है। मैं इसी आवाहन करके यहाँ पहुँचा हूँ और इसी की बदौलत एक दिन मैं उसके हृदय से प्रेम का बीच अंकुरित कर सकूँगा।

ज्ञानशंकर इन्हीं विचारों में मग्न थे। कि गायत्री ने अन्दर बुलाया और मुस्कराकर कहा, आज के सारे आयोजन का श्रेय आपको है। मैं हृदय से आपकी अनुगृहीत हूँ। साहब बहादुर ने चलते समय आपकी बड़ी प्रशंसा की। आपने मजूरों की मजूरी तो दिला दी है? मैं इस आयोजन में बेगार लेकर किसी को दुखी नहीं करना चाहती।

ज्ञान– जी हाँ, मैंने मुख्तार से कह दिया था।

गायत्री– मेरी ओर से प्रत्येक मजदूर को एक-एक रुपया दिला दीजिए।

ज्ञान– पाँच सौ मजूरों से कम न होंगे।

गायत्री– कोई हर्ज नहीं, ऐसे अवसर रोज नहीं आया करते। जिस ओवर-सियर ने पण्डाल बनवाया है, उसे १०० रु, इनाम दे दीजिए।

ज्ञान– वह शायद स्वीकार न करे।

गायत्री– यह रिश्वत नहीं, इनाम है। स्वीकार क्यों न करेगा? फर्राशों-आतशवाजों को भी कुछ मिलना चाहिए।

ज्ञान– तो फिर हलवाई और बावर्ची, खानसामे और खिदमतगार क्यों छोड़े जायँ।

गायत्री– नहीं, कदारि नहीं, उन्हें २०-२० रुपये से कम न मिले।

ज्ञान– (हंसकर) मेरी सारी मितव्ययिता निष्फल हो गयी।

गायत्री– वाह, उसी की बदौलत तो मुझे हौसला हुआ। मजूर को मजूरी कितनी ही दीजिए खुश नहीं होगा, लेकिन इनाम पाकर खुशी से फूल उठता है। अपने नौकरों को भी यथायोग्य कुछ न कुछ दिलवा दीजिए।

ज्ञान– जी हाँ, जब बाहरवाले लूट मचायें तो घरवाले क्यों गीत गायें?

गायत्री– नहीं घरवालों को पहला हक है जो आठों पहर के गुलाम हैं। सब आदमियों को यहीं बुलाइए, मैं अपने हाथ से उन्हें इनाम दूँगी। इसमें उन्हें विशेष आनन्द मिलेगा।

ज्ञान– घण्टों की झंझट है। बारह बज जायँगे।

गायत्री– यह झंझट नहीं है। यह मेरी हार्दिक लालसा है। अब मुझे कई बड़े-बड़े अनुष्ठान करने हैं। यह मेरे जड़ाऊ कंगन हैं। यह विद्या के भेंट हैं, कल इसका पारसल भेज दीजिए और ५०० रुपये नकद।

ज्ञान– (सिर झुकाकर) इसकी क्या जरूरत है? कौन सा मौका है?

गायत्री– और कौन सा मौका है? मेरे लड़के-लड़कियाँ भी तो नहीं हैं कि उनके विवाह में दिल के अरमान निकालूँगी। यह कंगन उसे पसन्द भी था। पिछले साल इटली से मँगवाया था। अब आपसे भी मेरी एक प्रार्थना है। आप मुझसे छोटे हैं। आप भी अपना हक वसूल कीजिए और निर्दयता के साथ।

ज्ञानशंकर ने शर्माते हुए कहा– मेरे लिए आपकी कृपा-दृष्टि ही काफी है। इस अवसर पर मुझे जो कीर्ति प्राप्त हुई है वही मेरा इनाम है।

गायत्री– जी नहीं, मैं न मानूँगी। इस समय संकोच छोड़िए और सूद खाने वालों की भाँति कठोर बन जाइए। यह आपकी कलम है, जिसने मुझे इस पद पर पहुँचाया है, नहीं तो जिले में मेरी जैसी कितनी ही स्त्रियाँ हैं, कोई उनकी बात भी नहीं पूछता। इस कलम की यथायोग्य पूजा किये बिना मुझे तस्कीन न होगी।

ज्ञान– इसकी जरूरत तो तब होती जब मुझे उससे कम आनन्द प्राप्त होता, जितना आपको हो रहा है।

गायत्री– मैं यह तर्क-वितर्क एक भी न सुनूँगी। आप स्वयं कुछ नहीं कहते इसलिए आपकी ओर से मैं ही कहे देती हूँ। आप अपने लिए बनारस में अपने घर से मिला हुआ एक सुन्दर बँगला बनवा लीजिए। चार कमरे हों और चारों तरफ बरामदों पर विलायती खपरैल हों और कमरों पर लदाव की छत। छत पर बरासात के लिए एक हवादार कमरा बना लीजिए। खुश हुए?

ज्ञानशंकर के कृतज्ञतापूर्ण भाव से देखकर कहा, खुश तो नहीं हूँ अपने ऊपर ईर्ष्या होती है।

गायत्री– बस, दीपमालिका से आरम्भ कर दीजिए। अब बतलाइए, माया को क्या दूँ?

ज्ञान– माया तो अभी कुछ चाहिए। उसका इनाम अपने पास अमानत रहने दीजिए।

गायत्री– आप नौ नकद न तेरह उधार वाली मसल भूल जाते हैं।

ज्ञान– अमानत पर तो कुछ न कुछ ब्याज मिलता है।

गायत्री– अच्छी बात है, पर इस समय उसके लिए कलकत्ता के किसी कारखाने से एक छोटा-सा टंडम मँगा दीजिए और मेरा टाँघन जो ताँगे में चलता है बरसात भेज दीजिए। छोटी लड़की के लिए हार बनवा दीजिए। जो ५०० रुपये से कम का न हो।

ज्ञानशंकर यहाँ से चले तो पैर धरती पर न पड़ते थे। बँगले की अभिलाषा उन्हें चिरकाल से थी। वह समझते थे, यह मेरे जीवन का मधुर स्वप्न ही रहेगी, लेकिन सौभाग्य की एक दृष्टि ने यह चिरसंचित अभिलाषा पूर्ण कर दी।

आरम्भ उतसाहवर्द्धक हुआ, देखें अन्त क्या होता है?

24.

आय में वृद्धि और व्यय में कमी, यह ज्ञानशंकर के सुप्रबन्ध का फल था। यद्यपि गायत्री भपिता से भी बच कर आ गया था। भगवान ही जानता है कि ऐसा कैसे हुआ। पर अब वह उसका क्या करे। आखिर उसने उसको अपनी एक बूढ़ी दादी के पास भेजने का प्लान बनाया जो उसी जंगल में उसके पिता के घर के पास ही रहती थी। उसको पूरा भरोसा था कि इस बार वह ज़िन्दा वापस नहीं आ पायेगा।

सो उसने राजा को बुलाया और उससे कहा कि मेरे घर में मेरी एक बहुत ही कीमती कंघी है मुझे वह चाहिये। मेहरबानी करके उस लड़के को मेरी वह कंघी लाने भेज दो। जब वह जाने के लिये तैयार हो तो मुझे बता देना मैं उसको अपनी दादी के नाम चिट्ठी दे दूँगी।”

राजा ने उसकी बात मान ली और लड़का उससे उसकी दादी के नाम चिट्ठी ले कर चल दिया। रास्ते में फिर वही फकीर पड़ा तो उसने पूछा — “अब कहाँ चल दिये?”

लड़के ने उसको फिर से सब कुछ बता दिया। उसने उसको रानी की दी हुई चिट्ठी भी पढ़ने के लिये दी।

फकीर बोला — “ज़रा मैं भी तो पढ़ूँ कि इसमें क्या लिखा है।”

पढ़ कर वह बोला — “क्या तुम जान बूझ कर मौत के मुँह में जाना चाहते हो यह चिट्ठी तो तो तुम्हारी मौत का परवाना है। कंघी का तो केवल बहाना है। सुनो इसमें क्या लिखा है — “इस चिट्ठी का लाने वाला मेरा बहुत खास दुश्मन है। मैं अपना कोई भी काम तब तक पूरा नहीं कर पाऊँगी जब तक यह ज़िन्दा है। जैसे ही यह तुम्हारे पास पहुँचे इसको मार देना ताकि मैं इसके बारे में फिर कुछ न सुनूँ।”

जैसे ही लड़के ने यह शब्द सुने वह तो डर के मारे थर थर काँपने लगा पर वह राजा को दिया हुआ अपना वायदा नहीं तोड़ सकता था। उसने यह पक्का इरादा कर लिया था कि वह राजा का काम पूरा करेगा चाहे उसकी जान खतरे में ही क्यों न हो।

सो फकीर ने वह चिट्ठी तो फाड़ कर फेंक दी और एक दूसरी चिट्ठी इस तरह लिखी — “यह मेरा बेटा है। जब यह तुम्हारे पास पहुँचे तो इसका खास ख्याल रखना और इसको बहुत प्यार से रखना।” यह लिख कर उसने यह चिट्ठी लड़के को दी और कहा कि वह उसको नानी कह कर पुकारे और उससे बिल्कुल डरे नहीं। लड़के ने वह चिट्ठी ली और जंगल की तरफ चल दिया।

राक्षसी के घर पहुँच कर उसने जैसा कि फकीर ने उसे सलाह दी थी राक्षसी को नानी कह कर पुकारा और फकीर की लिखी हुई चिट्ठी उसको थमा दी।

चिट्ठी पढ़ कर उसने लड़के को गले लगाया और अपनी बेटी और उसके शाही पति के बारे में काफी कुछ बातें पूछी। राक्षसी ने जितना अपनी तरफ से सोच सकती थी लड़के पर पूरा ध्यान दिया और उसकी सुख सुविधा का भी पूरा ख्याल रखा।

जब वह वहाँ से चलने लगा तो उसने उसको बहुत सारी भेंटें दीं। जिनमें से एक साबुन की शीशी थी जिसकी अगर एक बूँद भी जमीन पर गिर जाये तो वहाँ एक बहुत बड़ा पहाड़ खड़ा हो जाता था।

एक शीशी भर कर सुइयाँ थीं जिसकी अगर एक सुई नीचे गिर जाये तो एक बड़ी पहाड़ी खड़ी हो जायेगी जिस पर नुकीलें कीलें गड़ी होंगी। एक शीशी भर कर पानी था जिसमें से अगर पानी जमीन पर डाला जाये तो समुद्र बन सकता था।

उसने उसको ये चीज़ें भी दिखायीं और उनका मतलब भी समझाया — सात बढ़िया किस्म के मुर्गे, एक चरखा, एक कबूतर, एक चिड़िया और एक दवा।

उसने कहा इन सात मुर्गों में तुम्हारे सात मामाओं की आत्मा है जो कुछ दिनों के लिये बाहर गये हुए हैं। जब तक ये सात मुर्गे ज़िन्दा हैं तब तक तुम्हारे मामा ज़िन्दा हैं और उनको कोई नुकसाननहीं पहुँच सकता। इस चरखे में मेरी आत्मा बन्द है। अगर यह टूटा तो मैं भी टूट जाऊँगी यानी मैं मर जाऊँगी नहीं तो मैं अमर हूँ। इस कबूतर में तुम्हारे नाना की ज़िन्दगी बन्द है और इस चिड़िया में तुम्हारी माँ की ज़िन्दगी बन्द है। यह कबूतर और यह चिड़िया जब तक कुशल मंगल हैं तुम्हारे नाना और माँ भी सकुशल हैं। और इस दवा को लगाने से एक अन्धा भी देख सकता है।

लड़के ने राक्षसी को जो कुछ उसने उसको दिया था और जो कुछ उसने उसको दिखाया था उस सबके लिये धन्यवाद दिया और सोने चला गया।

सुबह को राक्षसी जब नदी पर नहाने गयी लड़के ने सातों मुर्गों और कबूतर को मारा और चरखे को जमीन पर मार कर तोड़ दिया। उसी समय राक्षसी उसका पति और सातों बेटे मर गये। फिर उसने पिंजरे में बन्द चिड़िया को पकड़ा वह कीमती दवा ली और राजा के महल की तरफ चल दिया।

रास्ते में वह अपनी माँ और राजा की दूसरी रानियों का अन्धापन दूर करने के लिये रुका। जैसे ही उसने वह दवा उनकी आँखों पर लगायी उनकी दॄष्टि वापस आ गयी। उसने उन सबको कुँए से बाहर निकाला। अब सब मिल कर राजा के महल की तरफ चले।

महल जा कर लड़के ने उनको एक कमरे में इन्तजार करने के लिये कहा और फिर वह राजा के पास गया और उसको अपनी माँओं से मिलने के लिये तैयार किया। उसने कहा — “राजा साहब मैं आपको कई भेद बताना चाहता हूँ। मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप उन्हें ध्यान दे कर सुनें।

आपकी पत्नी एक राक्षसी है और वह मुझे मारने का प्लान बना रही है क्योंकि वह यह जानती है कि मैं आपकी कई पत्नियों में से एक पत्नी का बेटा हूँ जिनको आपने अन्धा करके एक सूखे कुँए में डलवा दिया था।

वह डरती है कि मैं एक दिन आपकी राजगद्दी का वारिस बन जाऊँगा इसलिये वह वह चाहती है कि मैं जल्दी से जल्दी मर जाऊँ। मैंने उसके पिता माता और सात भाइयों को मार दिया है और अब मैं उसको मारने वाला हूँ। उसकी ज़िन्दगी इस चिड़िया में बन्द है।”

कह कर उसने उस चिड़िया का गला घोंट दिया। रानी तुरन्त ही मर गयी। फिर वह राजा को अपने साथ ले गया और उसकी सातों रानियों को दिखा कर बोला — “ये आपकी सातों असली रानियाँ हैं। आपके घर में आपके सात बेटे पैदा हुए जिनमें से छह बेटे खाने की कमी की वजह से मार कर खा लिये गये। मैं सातवाँ अकेला ज़िन्दा बच रहा।”

यह सुन कर राजा बिलख बिलख कर रो पड़ा — “ओह यह मैंने क्या किया। मुझे धोखा दिया गया।”

इसके बाद राजा ने अपने बेटे को राजा बना दिया वह भी अपनी साबुन की सुइयों की और पानी की जादुई बोतलों के सहारे अपने राज्य से लगे हुए राज्यों को जीतने में सफल रहा। बूढ़ा राजा अपनी सातों पत्नियों के साथ शान्तिपूर्ण ज़िन्दगी बिताता रहा और आनन्द करता रहा।

 

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Hari Patit Pavan Sune पद पद अर्थ पदावली संत रैदास पद्माकर-रीतिकाल कवि पद्मावत पनघट के गीत परछन गीत परमानंद दास के पद परवीन शाकिर की ग़ज़लें परसत पद पावन पराती गीत भोजपुरी परिचय पर्यायवाची शब्द पर्व गीत पल्लव पवन करण की कविताएँ पँवारी लोक गीत पवारी लोकगीत पँवारी लोकगीत पांडवों का धृतराष्ट्र के प्रति व्यवहार पाण्डव लौकिक गाथाएँ गढ़वाली पात भरी सहरी पार्वती-मंगल पिंडदान गीत भोजपुरी पितर नेवतौनी गीत भोजपुरी पितु मातु सहायक स्वामी . Pitu Matu Sahayak Swami lyrics पीटर हैंडके के कोट्स पीरज़ादा क़ासीम ग़ज़ल पुखराज पुहकर कवि के कवित्त पूछता क्यों शेष कितनी रात पौराणिक कथाएं प्रदीप प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर प्रभु को बिसार प्रभु तेरो नाम प्रार्थना प्रार्थना संग्रह प्रेमगीत प्रेमचंद की कहानियाँ प्रेमचंद के कोट्स प्रेमलता प्रेरक प्रसंग फगुआ गीत भोजपुरी फणीश्वर नाथ रेणु फणीश्वरनाथ रेणु के कोट्स फ़हमीदा रियाज़ की ग़ज़लें फ़हमीदा रियाज़ की नज़्में फ़हमीदा रियाज़ नज़्म फागण के गीत फ़िराक़ गोरखपुरी फ़िराक़ गोरखपुरी के क़िस्से फ़िराक़ गोरखपुरी ग़ज़ल फिल्मी गीत फूलीबाई बखना बघेली गीत बघेली लोकगीत बच्चों की कहानियाँ बड़ा नटखट है रे बधावा गीत बनारसी दास के पद बरवै रामायण हिंदी बरूआ गीत बशर नवाज़ की ग़ज़लें बशर नवाज़ ग़ज़ल बशीर बद्र बहादुर शाह ज़फ़र ग़ज़लें बांग्ला गीत बाबाफाग दहका गीत बारहमासा गीत भोजपुरी बाल अली बाल कविताएँ बाल महाभारत बाल-कविता बियाह सँ द्विरागमन धरिक गीत बिहारी बीत गये दिन बुधजन बुन्देली गारी गीत बुन्देली दादरे गीत बुन्देली बन्ना गीत बुन्देली वर्षा गीत बुन्देली सोहर गीत बुल्ला साहब बुल्ले शाह की काफियां 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