‘मेघदूत’ कालिदास के खंड-काव्यों में एक विशेष स्थान रखता है। कालिदास ने प्रेम के भावों का खूब वर्णन किया है और यह कविता इस खूबी से सजायी गई है कि इसी बुनियाद पर कुछ आलोचकों का विचार है कि यह कवि के यौवन काल की कृति है। इन पंक्तियों के लेखक ने हजरत शाकिर मेरठी के ‘अक्सीरे सुखन’ की भूमिका में उर्दू जबान के हिन्दू शायरों से प्रार्थना की थी कि वे कालिदास की कविताओं को उर्दू का जामा पहिनायें और मुझे बहुत खुशी है कि मेरी यही प्रेरणा अरण्य-रोदन सिद्ध नहीं हुई। किसी के हाथों का जस होता है किसी के बातों का जस होता है। इन पंक्तियों के लेखक को बातों ही में जस मिल गया। हजरत आशिक उर्दू के सिद्धहस्त कवि हैं और संस्कृत के कवियों के भी प्रशंसक हैं। उन्हें खुद ही यह चिंता होगी कि संस्कृत कविता की विशेषताओं से उर्दू दुनिया को परिचित करायें। मगर उन्होंने मेरी प्रेरणा को इसका आधार कहा है। इसके लिए मैं अपने को बधाई देता हूँ। वह प्रेरणा किसी अच्छी साइत में की गई थी क्योंकि ‘पैके अब्र’ ही तक उसका असर खत्म नहीं होता। मुंशी इकबाल बहादुर वर्मा साहब सेहर ने ‘शकुन्तला’ को हजरत नसीम लखनवी के तर्ज पर नज्म किया है जो जल्दी ही छपने वाली है। सच बात यह है कि असर मेरी इस तुच्छ विनती में न था बल्कि यह उस राष्ट्रीयता की भावना का असर है जो हमको अपने पुरखों के कला-कौशल का आदर करना सिखलाती है।
कालिदास के नाम से उर्दू दुनिया अब अपरिचित नहीं। उसके काव्य-गुणों और पांडित्य से भी लोग थोडा-बहुत परिचित हो गये हैं। मतलब यह कि उसकी गिनती ससार के प्रथम श्रेणी के कवियों में है। ‘मेघदूत’ की कथा भी साधारणतः पाठक जानते हैं। अनुवादक ने अपने अनुवाद में विस्तार से उसका वर्णन किया है।
यह कालिदास की अत्यंत लोकप्रिय प्रेम की कविता है। एक विरही प्रेमी ने मेघ को अपना दूत बनाकर उसे प्रेम का संदेश दिया है। बरसात में जब बादलों के झुंड के झुंड तेजी से दौड़ते हुए एक तरफ से दूसरी तरफ चले जाते हैं तो क्या यह खयाल नहीं पैदा होता कि यह कहाँ जा रहे हैं। इस प्रेमी ने मेघ को दूत बनाने में एक बारीकी और सोची होगी। मिट्टी-पानी के दूत को दरबान की कृपा की अपेक्षा है और दरबान बेरुखी करे तो फिर झूला डालने के सिवाय कोई तदबीर नहीं। मेघदूत को किसी मदद की जरूरत नहीं। वह ऊपर की दुनिया पर बैठा हुआ दूत का काम खूब कर सकता है। कालिदास को दृश्य-चित्रण में विशेष रुचि थी। इस संदेश में दृश्यों के प्रेम की भावनाओं का बहुत रंगीन संयोग दिखाई देता है। गोया उसने हरे-भरे मैदानों में हिरन छोड़ दिये हैं। इस काव्य की असामान्य विशेषता का अंदाजा इस बात से हो सकता है कि यूरोप की अधिकांश भाषाओं में इसका अनुवाद हो गया है। हिन्दी भाषा में भी इसके कई पद्य और गद्य के अनुवाद मौजूद हैं। उर्दू में ‘जमाना’ में कई साल हुए मुंशी उमाशंकर ‘फना’ ने इसे संक्षेप में बयान किया था। इसे उर्दू शायरी का जामा पहली ही बार पहनाया गया। संस्कृत जैसी ललित और अर्थ-गंभीर भाषा का उर्दू में मतलब अदा करना बहुत मुश्किल है और यह दिक्कत और भी बढ़ जाती है जब काव्य में मूल का आनंद देने का प्रयत्न किया जाए। इस खयाल को दृष्टि में रखकर अगर ‘पैके अब्र’ को देखें तो हजरत आशिक की यह कोशिश यकीनन काबिलेदाद नजर आती है। अभी तक ‘मेघदूत’ का भूगोल बड़े-बड़े विद्वानों के लिए एक रहस्य बना हुआ है। कोई रामगिरि को नीलगिरि बताता है कोई चित्रकूट को। हजरत आशिक ने इस मसले पर भी रोशनी डालने को कोशिश की है।
हजरत आशिक ने अनुवाद में यह ढंग रक्खा है कि हर एक श्लोक का अनुवाद एक-एक बन्द में हो जाये। बन्द तीन-तीन शेरों के हैं। इस पद्धति में अक्सर उन्हें दिक्कतें पेश आई हैं और हमारे खयाल में यह बहुत बेहतर होता कि काव्य के बंधन न लागू करके दृष्टि अर्थ की अभिव्यक्ति पर रक्खी जाती। इस बंधन के कारण कहीं तो एक पूरे श्लोक का आशय एक बन्द में व्यक्त न हो सकने के कारण हजरत आशिक को कुछ छोड़ देना पड़ा। इसके विपरीत कहीं-कहीं श्लोक का आशय दो ही शेरों में अदा हो जाने के कारण बन्द पूरा करने के लिए अपनी तरफ से एक शेर और ज्यादा करना पड़ा। ‘सरस्वती’ के योग्य संपादक पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी ने इस पुस्तक की समीक्षा करते हुए अनुवाद के दोष बतलाये हैं और ये दोष अधिकतर इसी अपने पर लागू किये गये बंधन के कारण पैदा हो गये हैं।
‘मेघदूत’ शुरू से आखिर तक प्रेम की कविता है, एक विरही प्रेमी की मर्म वेदना की कहानी है, मगर इतिहास की दृष्टि से भी इसका महत्त्व कुछ कम नहीं। ध्यानपूर्वक इसका अध्ययन करने से हिन्दुस्तान के उस पुराने जमाने के समाज पर रोशनी पड़ती है जिसके संबंध में इतिहास लुप्त है। किसी देश में भोग-विलास के सामान उन्मत सभ्यता का पता देते हैं। यह एक दु:खद वास्तविकता है कि ज्ञान-विज्ञान और बुद्धि के विकास के साथ-साथ भोगविलास के उपकरणों में भी उन्नति होती जाती है।
तरजुमे की खूबी को उजागर करने के
लिए जरूरी है कि पाठकों के सामने
उसके कुछ टुकड़े पेश किये जायँ।
चित्रकूट का जिक्र करते हुए शायर कहता है –
इस जगह से आगे चलकर आयेगा फिर चित्रकूट
जो सर आँखों पर बिठायेगा वफूरे शौक से।
जल रही हैं धूप की ताबिश से इसकी चोटियां
खूब बारिश कीजिए तो कल्ब में ठंडक पड़े।
नर्बदा नदी का जिक्र सुनिए –
राह में उज्जैन के पहले मिलेगी नर्बदा
जीनत अफजाये लबे साहिल बिंध्याचल पहाड़।
साफ रंगत धार पतली जैसे हंसों की कतार
इक नज़र से देखते ही आप उसे जायेंगे ताड़।
महवशों की माँग के मानिंद पतली धार है
आपकी सोजे जुदाई ने किया है हालेजार।
शिप्रा नदी का जिक्र यूँ किया है –
मस्त होकर बोलती हैं सारसें हंगामे सुब्ह
काबिले नज्जारा है दरियाये सिप्रा की बहार।
मस्त-कुन बूए कमल फैली हुई है चार सू
इत्र-आगीं फिरती है बादे नसीमे खुशगवार।
गंभीरा नदी का जिक्र सुनिए –
जेबे तन पोशाक नीली रंगते आबे रवां
बेद की शाखें लबे साहिल हैं या बेबाक हाथ।
आपकी सोजे जुदाई से बरहना हो गई
हट गया है छोड़ कर उसका लबे साहिल भी साथ।
कीजिए सैराब उसे करके निगाहे इल्तिफात
चाहने वाले से इतनी बेरुखी ऐ मेघनाथ।
प्रेमी अपनी प्रेमिका की विरह-वेदना का चित्र यों खींचता है –
दिन कटे कितने जुदाई के यह करने को शुमार
रोजमर्रा ताकचों में फूल रखती होगी या
और कितने दिन रहे बाकी विसाले यार में
उंगलियों पर गिन रही होगी बसद आहो बुका।
रोती होगी लज्जते अहदे गुजिशता करके याद
जामे फुरकत में यही है औरतों का मगला।
घास के बिस्तर पे होगी एक करवट से पड़ी
सदमये सोजे जुदाई से बसदू हाले खराब।
या हुजूमे यास से होगा रुखे रौशन उदास
आखिरी तारीख का बेनूर जैसे माहताब।
प्रेमिका का नख-शिख कितना सुंदर है –
मिलती है तेरी नजाकत मालकगिनी में अगर
चाँद में मिलती है तेरे रूये रौशन की चमक।
चश्मे आहू में अगर मिलती हैं तेरी चितवनें
मौजे बहरे आब में है तेरे अबरू की लचक।
मिलती है जुल्फे मुअंबर गर परे ताऊस में
एक जा मिलती नहीं तेरे सरापा की झलक।
इन उद्धरणों से पाठकों को अनुवाद की खूबी का कुछ अंदाजा हो गया होगा।
उपमा में कालिदास बेजोड़ हैं। कुछ उपमायें देखिए –
जिस तरह बदली में पजमुर्दा कमल के फूल हों,
सदमये फुरकत से पजमुर्दा है मेरी जाने जां।
नन्हीं-नन्हीं बूंदे क्या दिलचस्प आती हैं नज़र,
जिस तरह तागे में ही गूंधा हुआ दुर्रे खुश आब।
जुम्बिशे अबरूये पुरखम शक़्ल रक्से शाखे गुल,
बेले के फूलों पे भौरों की कतारें हैं पलक।
इतना काफी है। पूरा मजा उठाने के लिए पाठकों को पूरी किताब पढ़नी चाहिए।
कीमत ज्यादा नहीं। सिर्फ छ: आने है। कागज-किताबत-छपाई अत्यंत मोहक। छ: सुंदर तस्वीरें हैं जिससे किताब की शोभा और बढ़ गई है। पृष्ठ संख्या चालीस। उर्दू में यह एक नई चीज है। इसकी कद्र करना हमारा फर्ज है। हजरत आशिक घर के कोई लखपती नहीं हैं। उन्होंने इस किताब को छापने में बहुत ज्यादा जेरबारी उठाई है, अगर अभी तक पब्लिक ने जो क़द्रदानी की है वह बहुत हौसला तोड़ने वाली है। यही रुकावटें हैं, जिनसे इल्मी खिदमत करने वालों के हौसले पस्त हो जाते हैं। दाद दीजिए मगर उनकी मेहनत का सिला सिर्फ जबान तक सीमित न रखिए, कोई हर्ज न समझिये तो भगवान के नाम पर पूंजी के नुकसान से तो बचाइये ताकि उसे दुबारा आपकी खिदमत करने का हौसला हो। उर्दू अखूबारों ने भी इस किताब की तरफ ध्यान नहीं दिया है। अक्सर लोगों ने तो इस पर कलम भी नहीं उठाया और जिन महाशयों ने कुछ ध्यान दिया भी तो वह बहुत सरसरी। खासतौर पर मुस्लिम अखबारों ने तो खबर ही नहीं ली। हमारे उर्दू जबान पर मरने वाले वतनी भाई हिन्दुओं पर उर्दू की तरफ से बेरुखी की शिकायत किया करते हैं। वह कभी-कभी उर्दू जबान में भाषा या संस्कृत के खयालात के न होने पर अफसोस करते देखे जाते हैं मगर जब कोई हिन्दू मनचला लिखने वाला उनकी इन प्रेरणाओं से उमंग में आकर कोई किताब प्रकाशित कर देता है तो उनकी तरफ ऐसी उदासीनता और बेरुखी बरती जाती है कि फिर उसे कभी कलम उठाने का साहस नहीं होता। मुस्लिम भाइयों को शायद यह मालूम नहीं है कि उर्दू लिखने वाले हिन्दू लेखक की स्थिति बहुत स्पृहणीय नहीं है, कोई उसे अपनी हिन्दी भाषा की बुराई चाहने वाला समझउसे है, कोई उसे अपनी उर्दू जबान के हरमसरा में अनाधिकार प्रवेश का दोषी। ऐसी नागवार हालत में रह कर साहित्य-सेवा करनेवाले की अगर इतनी भी कद्र न हो कि वह आर्थिक हानि से बचा रहे तो इसके सिवाय और क्या कहा जा सकता है कि लिटरेचर के विस्तार और विकास को लेकर यह सब शोर-गुल बेकार है। यह जाहिर है कि संस्कृत से एक संस्कृत जानने वाला हिन्दू जितनी खूबी से अनुवाद कर सकता है, गैर संस्कृत दां मुसलमान महज अंग्रेजी तरजुमों के आधार पर हरगिज नहीं कर सकता। और मुसलमानों में संस्कृत जानने वाले हैं ही कितने। यह एक और दलील है जिसकी कीमत उर्दू लिटरेचर के चाहने वालों की निगाह में खासतौर पर होनी चाहिए। हाँ, अगर यह खयाल हैं कि उर्दू जबान को संस्कृत से अलग-थलग रहना चाहिए और इस अलगाव से उनका कोई नुकसान नहीं, तो मजबूरी है।
[उर्दू मासिक पत्रिका ‘जमाना’, अप्रैल 1917]
कालिदास के नाम से उर्दू दुनिया अब अपरिचित नहीं। उसके काव्य-गुणों और पांडित्य से भी लोग थोडा-बहुत परिचित हो गये हैं। मतलब यह कि उसकी गिनती ससार के प्रथम श्रेणी के कवियों में है। ‘मेघदूत’ की कथा भी साधारणतः पाठक जानते हैं। अनुवादक ने अपने अनुवाद में विस्तार से उसका वर्णन किया है।
यह कालिदास की अत्यंत लोकप्रिय प्रेम की कविता है। एक विरही प्रेमी ने मेघ को अपना दूत बनाकर उसे प्रेम का संदेश दिया है। बरसात में जब बादलों के झुंड के झुंड तेजी से दौड़ते हुए एक तरफ से दूसरी तरफ चले जाते हैं तो क्या यह खयाल नहीं पैदा होता कि यह कहाँ जा रहे हैं। इस प्रेमी ने मेघ को दूत बनाने में एक बारीकी और सोची होगी। मिट्टी-पानी के दूत को दरबान की कृपा की अपेक्षा है और दरबान बेरुखी करे तो फिर झूला डालने के सिवाय कोई तदबीर नहीं। मेघदूत को किसी मदद की जरूरत नहीं। वह ऊपर की दुनिया पर बैठा हुआ दूत का काम खूब कर सकता है। कालिदास को दृश्य-चित्रण में विशेष रुचि थी। इस संदेश में दृश्यों के प्रेम की भावनाओं का बहुत रंगीन संयोग दिखाई देता है। गोया उसने हरे-भरे मैदानों में हिरन छोड़ दिये हैं। इस काव्य की असामान्य विशेषता का अंदाजा इस बात से हो सकता है कि यूरोप की अधिकांश भाषाओं में इसका अनुवाद हो गया है। हिन्दी भाषा में भी इसके कई पद्य और गद्य के अनुवाद मौजूद हैं। उर्दू में ‘जमाना’ में कई साल हुए मुंशी उमाशंकर ‘फना’ ने इसे संक्षेप में बयान किया था। इसे उर्दू शायरी का जामा पहली ही बार पहनाया गया। संस्कृत जैसी ललित और अर्थ-गंभीर भाषा का उर्दू में मतलब अदा करना बहुत मुश्किल है और यह दिक्कत और भी बढ़ जाती है जब काव्य में मूल का आनंद देने का प्रयत्न किया जाए। इस खयाल को दृष्टि में रखकर अगर ‘पैके अब्र’ को देखें तो हजरत आशिक की यह कोशिश यकीनन काबिलेदाद नजर आती है। अभी तक ‘मेघदूत’ का भूगोल बड़े-बड़े विद्वानों के लिए एक रहस्य बना हुआ है। कोई रामगिरि को नीलगिरि बताता है कोई चित्रकूट को। हजरत आशिक ने इस मसले पर भी रोशनी डालने को कोशिश की है।
हजरत आशिक ने अनुवाद में यह ढंग रक्खा है कि हर एक श्लोक का अनुवाद एक-एक बन्द में हो जाये। बन्द तीन-तीन शेरों के हैं। इस पद्धति में अक्सर उन्हें दिक्कतें पेश आई हैं और हमारे खयाल में यह बहुत बेहतर होता कि काव्य के बंधन न लागू करके दृष्टि अर्थ की अभिव्यक्ति पर रक्खी जाती। इस बंधन के कारण कहीं तो एक पूरे श्लोक का आशय एक बन्द में व्यक्त न हो सकने के कारण हजरत आशिक को कुछ छोड़ देना पड़ा। इसके विपरीत कहीं-कहीं श्लोक का आशय दो ही शेरों में अदा हो जाने के कारण बन्द पूरा करने के लिए अपनी तरफ से एक शेर और ज्यादा करना पड़ा। ‘सरस्वती’ के योग्य संपादक पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी ने इस पुस्तक की समीक्षा करते हुए अनुवाद के दोष बतलाये हैं और ये दोष अधिकतर इसी अपने पर लागू किये गये बंधन के कारण पैदा हो गये हैं।
‘मेघदूत’ शुरू से आखिर तक प्रेम की कविता है, एक विरही प्रेमी की मर्म वेदना की कहानी है, मगर इतिहास की दृष्टि से भी इसका महत्त्व कुछ कम नहीं। ध्यानपूर्वक इसका अध्ययन करने से हिन्दुस्तान के उस पुराने जमाने के समाज पर रोशनी पड़ती है जिसके संबंध में इतिहास लुप्त है। किसी देश में भोग-विलास के सामान उन्मत सभ्यता का पता देते हैं। यह एक दु:खद वास्तविकता है कि ज्ञान-विज्ञान और बुद्धि के विकास के साथ-साथ भोगविलास के उपकरणों में भी उन्नति होती जाती है।
तरजुमे की खूबी को उजागर करने के
लिए जरूरी है कि पाठकों के सामने
उसके कुछ टुकड़े पेश किये जायँ।
चित्रकूट का जिक्र करते हुए शायर कहता है –
इस जगह से आगे चलकर आयेगा फिर चित्रकूट
जो सर आँखों पर बिठायेगा वफूरे शौक से।
जल रही हैं धूप की ताबिश से इसकी चोटियां
खूब बारिश कीजिए तो कल्ब में ठंडक पड़े।
नर्बदा नदी का जिक्र सुनिए –
राह में उज्जैन के पहले मिलेगी नर्बदा
जीनत अफजाये लबे साहिल बिंध्याचल पहाड़।
साफ रंगत धार पतली जैसे हंसों की कतार
इक नज़र से देखते ही आप उसे जायेंगे ताड़।
महवशों की माँग के मानिंद पतली धार है
आपकी सोजे जुदाई ने किया है हालेजार।
शिप्रा नदी का जिक्र यूँ किया है –
मस्त होकर बोलती हैं सारसें हंगामे सुब्ह
काबिले नज्जारा है दरियाये सिप्रा की बहार।
मस्त-कुन बूए कमल फैली हुई है चार सू
इत्र-आगीं फिरती है बादे नसीमे खुशगवार।
गंभीरा नदी का जिक्र सुनिए –
जेबे तन पोशाक नीली रंगते आबे रवां
बेद की शाखें लबे साहिल हैं या बेबाक हाथ।
आपकी सोजे जुदाई से बरहना हो गई
हट गया है छोड़ कर उसका लबे साहिल भी साथ।
कीजिए सैराब उसे करके निगाहे इल्तिफात
चाहने वाले से इतनी बेरुखी ऐ मेघनाथ।
प्रेमी अपनी प्रेमिका की विरह-वेदना का चित्र यों खींचता है –
दिन कटे कितने जुदाई के यह करने को शुमार
रोजमर्रा ताकचों में फूल रखती होगी या
और कितने दिन रहे बाकी विसाले यार में
उंगलियों पर गिन रही होगी बसद आहो बुका।
रोती होगी लज्जते अहदे गुजिशता करके याद
जामे फुरकत में यही है औरतों का मगला।
घास के बिस्तर पे होगी एक करवट से पड़ी
सदमये सोजे जुदाई से बसदू हाले खराब।
या हुजूमे यास से होगा रुखे रौशन उदास
आखिरी तारीख का बेनूर जैसे माहताब।
प्रेमिका का नख-शिख कितना सुंदर है –
मिलती है तेरी नजाकत मालकगिनी में अगर
चाँद में मिलती है तेरे रूये रौशन की चमक।
चश्मे आहू में अगर मिलती हैं तेरी चितवनें
मौजे बहरे आब में है तेरे अबरू की लचक।
मिलती है जुल्फे मुअंबर गर परे ताऊस में
एक जा मिलती नहीं तेरे सरापा की झलक।
इन उद्धरणों से पाठकों को अनुवाद की खूबी का कुछ अंदाजा हो गया होगा।
उपमा में कालिदास बेजोड़ हैं। कुछ उपमायें देखिए –
जिस तरह बदली में पजमुर्दा कमल के फूल हों,
सदमये फुरकत से पजमुर्दा है मेरी जाने जां।
नन्हीं-नन्हीं बूंदे क्या दिलचस्प आती हैं नज़र,
जिस तरह तागे में ही गूंधा हुआ दुर्रे खुश आब।
जुम्बिशे अबरूये पुरखम शक़्ल रक्से शाखे गुल,
बेले के फूलों पे भौरों की कतारें हैं पलक।
इतना काफी है। पूरा मजा उठाने के लिए पाठकों को पूरी किताब पढ़नी चाहिए।
कीमत ज्यादा नहीं। सिर्फ छ: आने है। कागज-किताबत-छपाई अत्यंत मोहक। छ: सुंदर तस्वीरें हैं जिससे किताब की शोभा और बढ़ गई है। पृष्ठ संख्या चालीस। उर्दू में यह एक नई चीज है। इसकी कद्र करना हमारा फर्ज है। हजरत आशिक घर के कोई लखपती नहीं हैं। उन्होंने इस किताब को छापने में बहुत ज्यादा जेरबारी उठाई है, अगर अभी तक पब्लिक ने जो क़द्रदानी की है वह बहुत हौसला तोड़ने वाली है। यही रुकावटें हैं, जिनसे इल्मी खिदमत करने वालों के हौसले पस्त हो जाते हैं। दाद दीजिए मगर उनकी मेहनत का सिला सिर्फ जबान तक सीमित न रखिए, कोई हर्ज न समझिये तो भगवान के नाम पर पूंजी के नुकसान से तो बचाइये ताकि उसे दुबारा आपकी खिदमत करने का हौसला हो। उर्दू अखूबारों ने भी इस किताब की तरफ ध्यान नहीं दिया है। अक्सर लोगों ने तो इस पर कलम भी नहीं उठाया और जिन महाशयों ने कुछ ध्यान दिया भी तो वह बहुत सरसरी। खासतौर पर मुस्लिम अखबारों ने तो खबर ही नहीं ली। हमारे उर्दू जबान पर मरने वाले वतनी भाई हिन्दुओं पर उर्दू की तरफ से बेरुखी की शिकायत किया करते हैं। वह कभी-कभी उर्दू जबान में भाषा या संस्कृत के खयालात के न होने पर अफसोस करते देखे जाते हैं मगर जब कोई हिन्दू मनचला लिखने वाला उनकी इन प्रेरणाओं से उमंग में आकर कोई किताब प्रकाशित कर देता है तो उनकी तरफ ऐसी उदासीनता और बेरुखी बरती जाती है कि फिर उसे कभी कलम उठाने का साहस नहीं होता। मुस्लिम भाइयों को शायद यह मालूम नहीं है कि उर्दू लिखने वाले हिन्दू लेखक की स्थिति बहुत स्पृहणीय नहीं है, कोई उसे अपनी हिन्दी भाषा की बुराई चाहने वाला समझउसे है, कोई उसे अपनी उर्दू जबान के हरमसरा में अनाधिकार प्रवेश का दोषी। ऐसी नागवार हालत में रह कर साहित्य-सेवा करनेवाले की अगर इतनी भी कद्र न हो कि वह आर्थिक हानि से बचा रहे तो इसके सिवाय और क्या कहा जा सकता है कि लिटरेचर के विस्तार और विकास को लेकर यह सब शोर-गुल बेकार है। यह जाहिर है कि संस्कृत से एक संस्कृत जानने वाला हिन्दू जितनी खूबी से अनुवाद कर सकता है, गैर संस्कृत दां मुसलमान महज अंग्रेजी तरजुमों के आधार पर हरगिज नहीं कर सकता। और मुसलमानों में संस्कृत जानने वाले हैं ही कितने। यह एक और दलील है जिसकी कीमत उर्दू लिटरेचर के चाहने वालों की निगाह में खासतौर पर होनी चाहिए। हाँ, अगर यह खयाल हैं कि उर्दू जबान को संस्कृत से अलग-थलग रहना चाहिए और इस अलगाव से उनका कोई नुकसान नहीं, तो मजबूरी है।
[उर्दू मासिक पत्रिका ‘जमाना’, अप्रैल 1917]
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