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साग़र सिद्दीक़ी की ग़ज़लें / Sagar Siddiqui Ghazals

 है दुआ याद मगर हर्फ़-ए-दुआ याद नहीं / साग़र सिद्दीक़ी है दुआ याद मगर हर्फ़-ए-दुआ याद नहीं मेरे नग़्मात को अंदाज़-ए-नवा याद नहीं मैं ने पलकों से दर-ए-यार पे दस्तक दी है मैं वो साइल हूँ जिसे कोई सदा याद नहीं मैं ने जिन के लिए राहों में बिछाया था लहू हम से कहते हैं वही अहद-ए-वफ़ा याद नहीं कैसे भर आईं सर-ए-शाम किसी की आँखें कैसे थर्राई चराग़ों की ज़िया याद नहीं सिर्फ़ धुँदलाए सितारों की चमक देखी है कब हुआ कौन हुआ किस से ख़फ़ा याद नहीं ज़िंदगी जब्र-ए-मुसलसल की तरह काटी है जाने किस जुर्म की पाई है सज़ा याद नहीं आओ इक सज्दा करें आलम-ए-मदहोशी में लोग कहते हैं कि 'साग़र' को ख़ुदा याद नहीं वो बुलाएँ तो क्या तमाशा हो / साग़र सिद्दीक़ी वो बुलाएँ तो क्या तमाशा हो हम न जाएँ तो क्या तमाशा हो ये किनारों से खेलने वाले डूब जाएँ तो क्या तमाशा हो बंदा-पर्वर जो हम पे गुज़री है हम बताएँ तो क्या तमाशा हो आज हम भी तिरी वफ़ाओं पर मुस्कुराएँ तो क्या तमाशा हो तेरी सूरत जो इत्तिफ़ाक़ से हम भूल जाएँ तो क्या तमाशा हो वक़्त की चंद साअ'तें 'साग़र' लौट आएँ तो क्या तमाशा हो ये जो दीवाने से दो चार नज़र ...

साक़ी फ़ारुक़ी की ग़ज़लें / Saqi Faruqi Ghazals

 वो लोग जो ज़िंदा हैं वो मर जाएँगे इक दिन / साक़ी फ़ारुक़ी वो लोग जो ज़िंदा हैं वो मर जाएँगे इक दिन इक रात के राही हैं गुज़र जाएँगे इक दिन यूँ दिल में उठी लहर यूँ आँखों में भरे रंग जैसे मिरे हालात सँवर जाएँगे इक दिन दिल आज भी जलता है उसी तेज़ हवा में ऐ तेज़ हवा देख बिखर जाएँगे इक दिन यूँ है कि तआक़ुब में है आसाइश-ए-दुनिया यूँ है कि मोहब्बत से मुकर जाएँगे इक दिन यूँ होगा कि इन आँखों से आँसू न बहेंगे ये चाँद सितारे भी ठहर जाएँगे इक दिन अब घर भी नहीं घर की तमन्ना भी नहीं है मुद्दत हुई सोचा था कि घर जाएँगे इक दिन दामन में आँसुओं का ज़ख़ीरा न कर अभी / साक़ी फ़ारुक़ी दामन में आँसुओं का ज़ख़ीरा न कर अभी ये सब्र का मक़ाम है गिर्या न कर अभी जिस की सख़ावतों की ज़माने में धूम है वो हाथ सो गया है तक़ाज़ा न कर अभी नज़रें जला के देख मनाज़िर की आग में असरार-ए-काएनात से पर्दा न कर अभी ये ख़ामुशी का ज़हर नसों में उतर न जाए आवाज़ की शिकस्त गवारा न कर अभी दुनिया पे अपने इल्म की परछाइयाँ न डाल ऐ रौशनी-फ़रोश अंधेरा न कर अभी मैं खिल नहीं सका कि मुझे नम नहीं मिला / साक़ी फ़ारुक़ी मैं खिल नहीं सका कि मुझे नम नहीं ...

शारिक़ कैफ़ी की ग़ज़लें / Shariq Kaifi Ghazals

 इक दिन ख़ुद को अपने पास बिठाया हम ने / शारिक़ कैफ़ी इक दिन ख़ुद को अपने पास बिठाया हम ने पहले यार बनाया फिर समझाया हम ने ख़ुद भी आख़िर-कार उन्ही वा'दों से बहले जिन से सारी दुनिया को बहलाया हम ने भीड़ ने यूँही रहबर मान लिया है वर्ना अपने अलावा किस को घर पहुँचाया हम ने मौत ने सारी रात हमारी नब्ज़ टटोली ऐसा मरने का माहौल बनाया हम ने घर से निकले चौक गए फिर पार्क में बैठे तन्हाई को जगह जगह बिखराया हम ने इन लम्हों में किस कि शिरकत कैसी शिरकत उसे बुला कर अपना काम बढ़ाया हम ने दुनिया के कच्चे रंगों का रोना रोया फिर दुनिया पर अपना रंग जमाया हम ने जब 'शारिक़' पहचान गए मंज़िल की हक़ीक़त फिर रस्ते को रस्ते भर उलझाया हम ने आइने का साथ प्यारा था कभी / शारिक़ कैफ़ी आइने का साथ प्यारा था कभी एक चेहरे पर गुज़ारा था कभी आज सब कहते हैं जिस को नाख़ुदा हम ने उस को पार उतारा था कभी ये मिरे घर की फ़ज़ा को क्या हुआ कब यहाँ मेरा तुम्हारा था कभी था मगर सब कुछ न था दरिया के पार इस किनारे भी किनारा था कभी कैसे टुकड़ों में उसे कर लूँ क़ुबूल जो मिरा सारे का सारा था कभी आज कितने ग़म हैं रोने के लिए इक त...

राजेन्द्र मनचंदा बानी की ग़ज़लें / Rajinder Manchanda Bani Ghazals

 ज़माँ मकाँ थे मिरे सामने बिखरते हुए / राजेन्द्र मनचंदा बानी ज़माँ मकाँ थे मिरे सामने बिखरते हुए मैं ढेर हो गया तूल-ए-सफ़र से डरते हुए दिखा के लम्हा-ए-ख़ाली का अक्स-ए-ला-तफ़सीर ये मुझ में कौन है मुझ से फ़रार करते हुए बस एक ज़ख़्म था दिल में जगह बनाता हुआ हज़ार ग़म थे मगर भूलते-बिसरते हुए वो टूटते हुए रिश्तों का हुस्न-ए-आख़िर था कि चुप सी लग गई दोनों को बात करते हुए अजब नज़ारा था बस्ती का उस किनारे पर सभी बिछड़ गए दरिया से पार उतरते हुए मैं एक हादसा बन कर खड़ा था रस्ते में अजब ज़माने मिरे सर से थे गुज़रते हुए वही हुआ कि तकल्लुफ़ का हुस्न बीच में था बदन थे क़ुर्ब-ए-तही-लम्स से बिखरते हुए जाने वो कौन था और किस को सदा देता था / राजेन्द्र मनचंदा बानी जाने वो कौन था और किस को सदा देता था उस से बिछड़ा है कोई इतना पता देता था कोई कुछ पूछे तो कहता कि हवा से बचना ख़ुद भी डरता था बहुत सब को डरा देता था उस की आवाज़ कि बे-दाग़ सा आईना थी तल्ख़ जुमला भी वो कहता तो मज़ा देता था दिन-भर एक एक से वो लड़ता-झगड़ता भी बहुत रात के पिछले-पहर सब को दुआ देता था वो किसी का भी कोई नश्शा न बुझने देता देख लेता...

यगाना चंगेज़ी की ग़ज़लें / Yagana Changezi Ghazals

 मुझे दिल की ख़ता पर 'यास' शरमाना नहीं आता / यगाना चंगेज़ी मुझे दिल की ख़ता पर 'यास' शरमाना नहीं आता पराया जुर्म अपने नाम लिखवाना नहीं आता मुझे ऐ नाख़ुदा आख़िर किसी को मुँह दिखाना है बहाना कर के तन्हा पार उतर जाना नहीं आता मुसीबत का पहाड़ आख़िर किसी दिन कट ही जाएगा मुझे सर मार कर तेशे से मर जाना नहीं आता दिल-ए-बे-हौसला है इक ज़रा सी ठेस का मेहमाँ वो आँसू क्या पिएगा जिस को ग़म खाना नहीं आता सरापा राज़ हूँ मैं क्या बताऊँ कौन हूँ क्या हूँ समझता हूँ मगर दुनिया को समझाना नहीं आता ख़ुदी का नश्शा चढ़ा आप में रहा न गया / यगाना चंगेज़ी ख़ुदी का नश्शा चढ़ा आप में रहा न गया ख़ुदा बने थे 'यगाना' मगर बना न गया पयाम-ए-ज़ेर-ए-लब ऐसा कि कुछ सुना न गया इशारा पाते ही अंगड़ाई ली रहा न गया हँसी में वादा-ए-फ़र्दा को टालने वालो लो देख लो वही कल आज बन के आ न गया गुनाह-ए-ज़िंदा-दिली कहिए या दिल-आज़ारी किसी पे हँस लिए इतना कि फिर हँसा न गया पुकारता रहा किस किस को डूबने वाला ख़ुदा थे इतने मगर कोई आड़े आ न गया करूँ तो किस से करूँ दर्द-ए-ना-रसा का गिला कि मुझ को ले के दिल-ए-दोस्त में समा न...

मोमिन ख़ाँ मोमिन की ग़ज़लें / Momin Khan Momin Ghazal

 वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो कि न याद हो / मोमिन ख़ाँ मोमिन वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो कि न याद हो वही या'नी वा'दा निबाह का तुम्हें याद हो कि न याद हो वो जो लुत्फ़ मुझ पे थे बेशतर वो करम कि था मिरे हाल पर मुझे सब है याद ज़रा ज़रा तुम्हें याद हो कि न याद हो वो नए गिले वो शिकायतें वो मज़े मज़े की हिकायतें वो हर एक बात पे रूठना तुम्हें याद हो कि न याद हो कभी बैठे सब में जो रू-ब-रू तो इशारतों ही से गुफ़्तुगू वो बयान शौक़ का बरमला तुम्हें याद हो कि न याद हो हुए इत्तिफ़ाक़ से गर बहम तो वफ़ा जताने को दम-ब-दम गिला-ए-मलामत-ए-अक़रिबा तुम्हें याद हो कि न याद हो कोई बात ऐसी अगर हुई कि तुम्हारे जी को बुरी लगी तो बयाँ से पहले ही भूलना तुम्हें याद हो कि न याद हो कभी हम में तुम में भी चाह थी कभी हम से तुम से भी राह थी कभी हम भी तुम भी थे आश्ना तुम्हें याद हो कि न याद हो सुनो ज़िक्र है कई साल का कि किया इक आप ने वा'दा था सो निबाहने का तो ज़िक्र क्या तुम्हें याद हो कि न याद हो कहा मैं ने बात वो कोठे की मिरे दिल से साफ़ उतर गई तो कहा कि जाने मिरी बला तुम्हें ...

क़तील शिफ़ाई की ग़ज़लें / Qateel Shifai Ghazals

गर्मी-ए-हसरत-ए-नाकाम से जल जाते हैं / क़तील शिफ़ाई गर्मी-ए-हसरत-ए-नाकाम से जल जाते हैं हम चराग़ों की तरह शाम से जल जाते हैं शम्अ' जिस आग में जलती है नुमाइश के लिए हम उसी आग में गुमनाम से जल जाते हैं बच निकलते हैं अगर आतिश-ए-सय्याल से हम शोला-ए-आरिज़-ए-गुलफ़ाम से जल जाते हैं ख़ुद-नुमाई तो नहीं शेवा-ए-अरबाब-ए-वफ़ा जिन को जलना हो वो आराम से जल जाते हैं रब्त-ए-बाहम पे हमें क्या न कहेंगे दुश्मन आश्ना जब तिरे पैग़ाम से जल जाते हैं जब भी आता है मिरा नाम तिरे नाम के साथ जाने क्यूँ लोग मिरे नाम से जल जाते हैं अपने हाथों की लकीरों में सजा ले मुझ को / क़तील शिफ़ाई अपने हाथों की लकीरों में सजा ले मुझ को मैं हूँ तेरा तू नसीब अपना बना ले मुझ को मैं जो काँटा हूँ तो चल मुझ से बचा कर दामन मैं हूँ गर फूल तो जूड़े में सजा ले मुझ को तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझ को मुझ से तू पूछने आया है वफ़ा के मा'नी ये तिरी सादा-दिली मार न डाले मुझ को मैं समुंदर भी हूँ मोती भी हूँ ग़ोता-ज़न भी कोई भी नाम मिरा ले के बुला ले मुझ को तू ने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी ख़ुद...