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Showing posts from March, 2017

Aitbar Sajid Ghazal / ऐतबार साजिद ग़ज़ल

Aitbar Sajid Ghazal वो पहली जैसी वहशतें वो हाल ही नहीं रहा ऐतबार साजिद ग़ज़ल / Aitbar Sajid Ghazal वो पहली जैसी वहशतें वो हाल ही नहीं रहा कि अब तो शौक़-ए-राहत-ए-विसाल ही नहीं रहा तमाम हसरतें हर इक सवाल दफ़्न कर चुके हमारे पास अब कोई सवाल ही नहीं रहा तलाश-ए-रिज़्क़ में ये शाम इस तरह गुज़र गई कोई है अपना मुंतज़िर ख़याल ही नहीं रहा इन आते जाते रोज़-ओ-शब कि गर्दिशों को देख कर किसी के हिज्र का कोई मलाल ही नहीं रहा हमारा क्या बनेगा कुछ न कुछ तो इस पे सोचते मगर कभी हमें ग़म-ए-मआल ही नहीं रहा तुम्हारे ख़ाल-ओ-ख़द पे इक किताब लिख रहे थे हम मगर तुम्हारा हुस्न बे-मिसाल ही नहीं रहा सँवारता निखारता मैं कैसे अपने आप को तुम्हारे बाद अपना कुछ ख़याल ही नहीं रहा ज़रा सी बात से दिलों में इतना फ़र्क़ आ गया तअल्लुक़ात का तो फिर सवाल ही नहीं रहा ये हसीं लोग हैं तू इन की मुरव्वत पे न जा /ऐतबार साजिद ग़ज़ल / Aitbar Sajid Ghazal ये हसीं लोग हैं तू इन की मुरव्वत पे न जा ख़ुद ही उठ बैठ किसी इज़्न ओ इजाज़त पे न जा सूरत-ए-शम्अ तिरे सामने रौशन हैं जो फूल उन की किरनों में नहा ज...

Obaidullah Aleem Ghazal / उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल

Obaidullah Aleem Ghazal अजीब थी वो अजब तरह चाहता था मैं उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal अजीब थी वो अजब तरह चाहता था मैं वो बात करती थी और ख़्वाब देखता था मैं विसाल का हो कि उस के फ़िराक़ का मौसम वो लज़्ज़तें थीं कि अंदर से टूटता था मैं चढ़ा हुआ था वो नश्शा कि कम न होता था हज़ार बार उभरता था डूबता था मैं बदन का खेल थीं उस की मोहब्बतें लेकिन जो भेद जिस्म के थे जाँ से खोलता था मैं फिर इस तरह कभी सोया न इस तरह जागा कि रूह नींद में थी और जागता था मैं कहाँ शिकस्त हुई और कहाँ सिला पाया किसी का इश्क़ किसी से निबाहता था मैं मैं अहल-ए-ज़र के मुक़ाबिल में था फ़क़त शाएर मगर मैं जीत गया लफ़्ज़ हारता था मैं अज़ीज़ इतना ही रक्खो कि जी सँभल जाए उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal अज़ीज़ इतना ही रक्खो कि जी सँभल जाए अब इस क़दर भी न चाहो कि दम निकल जाए मिले हैं यूँ तो बहुत आओ अब मिलें यूँ भी कि रूह गर्मी-ए-अनफ़ास से पिघल जाए मोहब्बतों में अजब है दिलों को धड़का सा कि जाने कौन कहाँ रास्ता बदल जाए ज़हे वो दिल जो तमन्ना-ए-ताज़ा-तर में ...

Adil Mansuri Ghazal / आदिल मंसूरी ग़ज़लें

आदिल मंसूरी ग़ज़ल  एक क़तरा अश्क का छलका तो दरिया कर दिया आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal एक क़तरा अश्क का छलका तो दरिया कर दिया एक मुश्त-ए-ख़ाक जो बिखरी तो सहरा कर दिया मेरे टूटे हौसले के पर निकलते देख कर उस ने दीवारों को अपनी और ऊँचा कर दिया वारदात-ए-क़ल्ब लिक्खी हम ने फ़र्ज़ी नाम से और हाथों-हाथ उस को ख़ुद ही ले जा कर दिया उस की नाराज़ी का सूरज जब सवा नेज़े पे था अपने हर्फ़-ए-इज्ज़ ही ने सर पे साया कर दिया दुनिया भर की ख़ाक कोई छानता फिरता है अब आप ने दर से उठा कर कैसा रुस्वा कर दिया अब न कोई ख़ौफ़ दिल में और न आँखों में उम्मीद तू ने मर्ग-ए-ना-गहाँ बीमार अच्छा कर दिया भूल जा ये कल तिरे नक़्श-ए-क़दम थे चाँद पर देख उन हाथों को किस ने आज कासा कर दिया हम तो कहने जा रहे थे हम्ज़ा-ये-वस्सलाम बीच में उस ने अचानक नून-ग़ुन्ना कर दिया हम को गाली के लिए भी लब हिला सकते नहीं ग़ैर को बोसा दिया तो मुँह से दिखला कर दिया तीरगी की भी कोई हद होती है आख़िर मियाँ सुर्ख़ परचम को जला कर ही उजाला कर दिया बज़्म में अहल-ए-सुख़न तक़्ती फ़रमाते रहे और ह...

अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal

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अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal अजब नहीं कभी नग़्मा बने फ़ुग़ाँ मेरी अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal अजब नहीं कभी नग़्मा बने फ़ुग़ाँ मेरी मिरी बहार में शामिल है अब ख़िज़ाँ मेरी मैं अपने आप को औरों में रख के देखता हूँ कहीं फ़रेब न हों दर्द-मंदियाँ मेरी मैं अपनी क़ुव्वत-ए-इज़हार की तलाश में हूँ वो शौक़ है कि सँभलती नहीं ज़बाँ मेरी यही सबब है कि अहवाल-ए-दिल नहीं कहता कहूँ तो और उलझती हैं गुत्थियाँ मेरी मैं अपने इज्ज़ पे नादिम नहीं हूँ हम-सुख़नो हज़ार शुक्र तबीअत नहीं रवाँ मेरी अब न बहल सकेगा दिल अब न दिए जलाइए अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal अब न बहल सकेगा दिल अब न दिए जलाइए इश्क़ ओ हवस हैं सब फ़रेब आप से क्या छुपाइए उस ने कहा कि याद हैं रंग तुलू-ए-इश्क़ के मैं ने कहा कि छोड़िए अब उन्हें भूल जाइए कैसे नफ़ीस थे मकाँ साफ़ था कितना आसमाँ मैं ने कहा कि वो समाँ आज कहाँ से लाइए कुछ तो सुराग़ मिल सके मौसम-ए-दर्द-ए-हिज्र का संग-ए-जमाल-ए-यार पर नक़्श कोई बनाइए कोई शरर नहीं बचा पिछले ...